किसान आंदोलन का धर्मनिरपेक्ष और अहिंसक स्वरूप निश्चित ही नफरत और बंटवारे की राजनीति करने वालों के दिल में घबराहट पैदा कर रहा है। किसानों की एकजुटता और आंदोलन का राष्ट्रव्यापी स्वरूप सरकार को चिंता में डाल रहा है। धीरे धीरे सांप्रदायिकता और धार्मिक उन्माद का गहरा सम्मोहन टूट रहा है और देश की जनता बुनियादी मुद्दों के विषय में सोच रही है। किसानों की तरह मजदूर भी उन आसन्न संकटों को समझ रहे हैं जो इस कोविड आपातकाल का आश्रय लेकर अचानक उन पर थोपे गए हैं। अब तक मजदूर आंदोलनों का हासिल उनसे छीना जा रहा है। पहली बार कॉरपोरेट कंपनियों के उत्पादों के बहिष्कार का साहस और सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत करने का संकल्प आम जनता ने दिखाया है। आश्चर्य है कि गाँधी के देश में उनकी इस जाँची परखी रणनीति का प्रयोग करने में जनता ने इतनी देर क्यों कर दी।
सरकारी राष्ट्रवाद के अब तक सबसे बड़े समर्थक रहे छोटे और मझोले पूंजीपति हतप्रभ हैं कि उनके आका अब उनके लिए बिचौलिए का संबोधन इस्तेमाल कर रहे हैं और कोविड बाद की अर्थव्यवस्था के नव-सामान्य व्यवहारों के नाम पर उनके स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त किए जाने की पूरी तैयारी कर ली गई है। देश का रिटेल सेक्टर ऐसे बदलावों की ओर बढ़ रहा है जब छोटे व्यापारियों के सम्मुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एजेंट्स की भांति कार्य करने का विकल्प ही शेष बचेगा। छोटे और मझोले पूंजीपतियों की बिचौलियों के रूप में भूमिका तो दरअसल अब प्रारंभ होने वाली है- नाम मात्र के मुनाफे के लिए अब उन्हें मजदूर-किसानों के आक्रोश को अपने नए कॉरपोरेट मालिकों हेतु मैनेज करना होगा। इस वर्ग में अब भी यह क्षीण सी आशा शेष है कि धार्मिक साम्प्रदायिक उन्माद की राजनीति को परवान चढ़ाने में उनकी भूमिका का ख्याल कर सरकार उन्हें अपने कॉरपोरेट देवताओं के सम्मुख बलि पशु की भांति प्रस्तुत नहीं करेगी, लेकिन इनका यह भ्रम भी शीघ्र ही टूट जाएगा। जब वे यह समझ जाएंगे कि उन्हें खाने के लिए अधिक बड़ी मछली आ गई है तब जंगल के कानून पर उनकी आस्था कम होगी और वे समानता और बराबरी के हक की चर्चा करने के लिए मजबूर हो जाएंगे।
योग्यतम की उत्तरजीविता जैसी अभिव्यक्तियाँ तब तक आकर्षक लगती हैं जब तक आप बचने वालों में शुमार हैं, मिटने वालों में नहीं। जिस दिन आप मिटने वालों में शामिल हो जाएंगे तब समानता, न्याय, सब्सिडी, आरक्षण, संरक्षण जैसी अभिव्यक्तियाँ जिनसे आप घृणा करते थे आपको वरदान की तरह लगने लगेंगी। हो सकता है कि हमारी असमानता प्राकृतिक हो लेकिन यह समानता लाने का संघर्ष ही है, कमजोर की रक्षा करने की कोशिश ही है जिसने हमें पशु से मनुष्य बनाया है और जंगल के कानून को संविधान में बदला है।
सत्ताधारी दल की तमाम कोशिशों के बावजूद इस किसान आंदोलन को धर्म, सम्प्रदाय और राष्ट्रवाद का आश्रय लेकर न तो कमजोर किया जा सका है और न आतंकवाद, उग्रवाद एवं पृथकतावाद के मिथ्या आरोप लगाकर बदनाम ही किया जा सका है। पहली बार चर्चा लिबरलाइजेशन-प्राइवेटाइजेशन-ग्लोबलाइजेशन (एलपीजी) पर केंद्रित है। चर्चा का विषय आम आदमी और उसे संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार हैं जिनकी मांग वह कर रहा है। अंततः चर्चा विकास की हमारी संकल्पना और समझ पर हो रही है। विकास क्यों और किसके लिए – यही वह सवाल है जो घूम फिर कर सामने आ रहा है।
किसानों और सरकार के बीच बातचीत के अनेक दौर हो चुके हैं। इस बीच सरकार समर्थक और कॉरपोरेट घरानों द्वारा पालित-पोषित अर्थशास्त्री नफरत और विभाजन का अर्थशास्त्र लेकर युद्ध में कूद पड़े हैं। अनेक ऐसे आलेखों और विश्लेषणों से समाचार माध्यम भरे पड़े हैं जिनका सार संक्षेप मात्र इतना ही है कि किसानों का यह अनुचित और मूर्खतापूर्ण हठ पूरे देश को ले डूबेगा। जो तर्क दिए जा रहे हैं वह पुराने जरूर हैं लेकिन उनकी प्रस्तुति में जो आक्रामकता अब है वह पहले नहीं थी। पहले यह सुझाव की तरह पेश किए जाते थे, अब इन्हें अकाट्य और अपरिवर्तनीय शाश्वत नियमों की भांति प्रस्तुत किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार का टैक्स कलेक्शन 16.5 लाख करोड़ रुपए है। किसानों की बेमानी जिद मान लेने पर सरकार को सारी फसलों का समर्थन मूल्य देने हेतु 17 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। हमारी एमएसपी विश्व बाजार से अधिक है जबकि हमारे कृषि उत्पादों की गुणवत्ता भी खराब है, ऐसी परिस्थिति में भारतीय बाजार आयातित अनाजों से पट जाएगा। हमारा निर्यात खत्म हो जाएगा। राजनीतिक स्वार्थ के कारण करदाता के पैसे का उपयोग गैर-जरूरी और पहले से मौजूद फसलों को खरीदने के लिए किया जाता है। अभी तो केवल 23 फसलों के लिए एमएसपी घोषित किया जाता है, यदि एमएसपी को कानूनी दर्जा दिया जाता है तो अन्य फसलों के उत्पादक भी एमएसपी की माँग करेंगे। हो सकता है एमएसएमई सेक्टर के उत्पादक भी यह माँग करने लगें कि उनके उत्पाद भी सरकार ही खरीदे।
यहां तक कि अनेक अर्थशास्त्री गरीबों के मन में यह भय उत्पन्न कर रहे हैं कि सरकार के राजस्व में आने वाली कमी से गरीब कल्याण योजनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और इन्हें बन्द करना पड़ सकता है। सरकार किसानों को उर्वरक और कृषि यंत्रों पर भी जो लगभग एक लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी देती है वह भी खतरे में पड़ जाएगी। ऐसे में सरकार बिजली, पानी, स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च में या तो कमी करेगी या फिर करों में वृद्धि करेगी। सरकार यदि किसानों की बेजा जिद मान लेती है तो करदाता पर 2 से 3 लाख करोड़ रूपए का बोझ पड़ेगा। टैक्स में दुगुनी-तिगुनी वृद्धि करनी होगी। अधिक टैक्स के कारण भारत में भविष्य में कोई निवेश नहीं होगा और मौजूदा व्यापार भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा। अनेक सरकार समर्थक अर्थशास्त्री देश के आम नागरिकों से यह पुरजोर लहजे में अपील कर रहे हैं कि वे अपने टैक्स के पैसे का सही उपयोग करने के लिए सरकार पर दबाव बनाएं। उनका मौन देश को सैकड़ों वर्ष पीछे ले जा सकता है।
इन विश्लेषणों की भाषा और भावना को समझने की आवश्यकता है। इन्हें हम घृणा और विभाजन के नैरेटिव का अर्थशास्त्रीय संस्करण कह सकते हैं। पूरे विश्लेषण में अपनी जिद पर अड़े बददिमाग किसान विरुद्ध आम ईमानदार करदाता जैसी अभिव्यक्तियाँ बारंबार प्रयुक्त हुई हैं। क्या किसान इस देश के करदाता नहीं हैं? जिस देश में 60-70 फीसदी आबादी अपनी आजीविका के लिए किसी न किसी रूप से खेती पर निर्भर है क्या वह आबादी इस देश के बाजार में उपभोक्ता और क्रेता की भूमिका नहीं निभा रही है? देश को खोखला करते बिचौलिए, एमएसपी की बेजा जिद कर देश को बर्बाद करने पर अड़े किसान जैसी अभिव्यक्तियाँ सुनने में बहुत आकर्षक लगती हैं किंतु यह नफरत, बंटवारे और संदेह को बढ़ावा देने के औजार हैं। जब आप इन अभिव्यक्तियों का प्रयोग करते हैं तो जरा ठहर कर देखिए कि आपके कितने परिजन आढ़त के काम से जुड़े हैं, कितने रिश्तेदार छोटे-मोटे रिटेलर हैं। हो सकता है कि आप शहर में सरकारी या प्राइवेट नौकरी कर रहे हों किंतु आपका कोई भाई या माता-पिता ही गांव में खेती संभाल रहे हों। जिन्हें बिचौलिया या मूढ़ और बदमाश किसान कहा जा रहा है वे किसी अन्य लोक के वासी नहीं हैं, वे आपके अपने स्वजन हैं, मित्र हैं, खुद आप हैं। यह भाषा आपको अपना ही शत्रु बनाने वाली भाषा है। आपकी समृद्धि,आपकी उन्नति आपके विकास का प्रमाण आप स्वयं हैं, आपकी अच्छी बुरी स्थितियां हैं। कोई लच्छेदार भाषण देने वाला राजनेता या कोई आँकड़ेबाज अर्थशास्त्री -चाहे वह कितना ही प्रसिद्ध क्यों न हो- आपकी जमीनी सच्चाइयों को नहीं बदल सकता। इन सच्चाइयों का अनुभव करना और खुद के नजदीक रहना बहुत आवश्यक है।
टैक्स पेयर्स के पैसों के लिए चिंतित कॉर्पोरेट समर्थक अर्थशास्त्री यह कभी नहीं बताते हैं कि तीन साल में कॉरपोरेट्स को दिया गया जितना लोन राइट-ऑफ किया गया या दूसरे शब्दों में कहें तो ठंडे बस्ते में डाला गया है किसानों का उतना ऋण दस वर्ष में भी माफ नहीं हुआ है। आरबीआई के अनुसार 10 वर्षों में विभिन्न राज्यों ने किसानों के 2.21 लाख करोड़ रुपये के करीब ऋण माफ किए हैं। वहीं, मात्र तीन वर्ष में कॉरपोरेट सेक्टर के 2.4 लाख करोड़ रुपये के बैड लोन ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। हो सकता है अर्थशास्त्रियों के कई गिरोह आप पर यह समझाने के लिए हमलावर होने लगें कि राइट-ऑफ करने से लोन की वसूली प्रक्रिया रुकती नहीं है, किंतु व्यावहारिक स्थिति वही होती है जो लोन वेव-ऑफ यानी माफ करने की दशा में होती है। पैसा कर्ज देने वाले के हाथों से निकल जाता है। अंतर इतना है कि राइट-ऑफ करने की स्थिति में कभी पैसा लौटने की क्षीण सी आशा बनी रहती है किंतु आंकड़े बताते हैं कि राइट ऑफ किए गए लोन की वसूली की मात्रा नगण्य है। सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने के नाम पर कॉरपोरेट टैक्स में कमी की है। सितंबर 2019 में की गई इस कमी से देश को 1 लाख करोड़ रुपए के राजस्व का घाटा हुआ था, किंतु इस संबंध में सरकार से किसी भी तरह के सवाल नहीं किए गए। इस कमी के लाभों को आम आदमी तक हस्तांतरित होते कभी देखा नहीं गया।
किसानों को मिलने वाली एमएसपी को मूल्य वृद्धि के साथ जोड़ने की प्रवृत्ति बहुत पुरानी है और आश्चर्य है कि इस पर कोई प्रश्न भी नहीं उठाता। किसान को तो एमएसपी क्या लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता। किसान अपने उत्पादन को सड़कों पर फेंकने को मजबूर है। बाजार को नियंत्रित करने वाली शक्तियां अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए जमाखोरी और कालाबाजारी जैसी तरकीबों का इस्तेमाल करती हैं और बतौर उत्पादक छला गया किसान उपभोक्ता के रूप में फिर लूट का शिकार होता है। किसान श्रम लगाकर उत्पादन करना जानता है, वह बाजार के दांव पेंच से बिल्कुल नावाकिफ है। इन कृषि बिलों के आने के बाद बड़ी निजी कंपनियां पहले तो किसानों को कुछ अधिक दाम देकर मंडियों को कमजोर करेंगी। जब पहले से ही बीमार मंडियां एकदम समाप्त हो जाएंगी तब यह प्राइवेट प्लेयर्स मोनॉप्सनी की स्थिति पैदा कर देंगे जब केवल एक खरीददार शेष होगा जो मनमाने कम से कम दाम पर किसानों की उपज खरीदेगा। फिर भंडारण सुविधाओं के प्रयोग और प्रसंस्करण, पैकेजिंग व थोड़े बहुत वैल्यू एडिशन के बाद एक विक्रेता के रूप में रिटेल व्यवसाय पर अपना आधिपत्य जमा चुकी कॉरपोरेट कंपनियां मोनोपोली का फायदा उठाकर अपने मनचाहे अधिकतम दाम पर आम उपभोक्ता को अपने उत्पाद बेचेंगी।
सरकार और किसानों के बीच चल रही वार्ता के सफल होने में संदेह का एक बड़ा कारण यह भी है कि सरकार की कथनी और करनी में अंतर है। सरकार और सरकार समर्थक अर्थशास्त्री यह दावा करते रहे हैं कि कृषि क्षेत्र में प्राइवेट प्लेयर्स की एंट्री के बाद किसानों को एमएसपी से भी ज्यादा मूल्य मिलेगा और उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी। यही दावा निजी कंपनियां भी कर रही हैं। उनका कहना भी यही है कि वे किसानों को एमएसपी से ज़्यादा दाम देंगे। तब फिर एमएसपी को क़ानूनी स्वरूप देने में अड़चन क्या है? दरअसल सरकार और उसके कृषि बिलों का उद्देश्य बड़े प्राइवेट प्लेयर्स को फायदा पहुंचाना है और देश का दुर्भाग्य यह है कि ये सब किसानों के भले के नाम पर किया जा रहा है।
सरकार और सरकार समर्थक अर्थशास्त्री जिस तर्क के आधार पर एमएसपी प्रणाली को देश के किसानों के लिए अलाभकारी बता रहे हैं उसी तर्क का उपयोग वे इस आंदोलन को पंजाब-हरियाणा के समृद्ध किसानों के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत करने हेतु करते हैं। तथ्य वही हैं किंतु सरकार समर्थकों द्वारा इन तथ्यों की व्याख्या दुर्भावनापूर्ण और शरारतपूर्ण ढंग से अपनी सुविधानुसार की जा रही है। वर्तमान एमएसपी सिस्टम के आधार पर देश के मात्र 6 प्रतिशत किसान ही अपनी उपज बेच पाते हैं। 94 प्रतिशत किसानों को एमएसपी का लाभ नहीं मिल पाता। पंजाब और हरियाणा को छोडक़र, किसानों को कहीं भी एमएसपी के अनुसार भुगतान नहीं मिलता। किसानों को अभी वास्तविक एमएसपी का केवल एक-तिहाई ही प्राप्त हो पा रहा है। सरकार यदि पंजाब और हरियाणा के किसानों की समृद्धि को स्वीकार रही है तो फिर उसे यह भी स्वीकारना होगा कि यदि एमएसपी सिस्टम को सही ढंग से क्रियान्वित किया जाए तो यह किसानों को समृद्ध बना सकता है।
पंजाब और हरियाणा के किसानों ने अपने आंदोलन के माध्यम से पूरे देश को यह संदेश दिया है कि यदि एमएसपी प्रणाली को कानूनी बना दिया जाए तो सारे देश के किसान लाभान्वित हो सकते हैं। सरकार यह सुनिश्चित करने के बजाए कि एमएसपी के लाभ से वंचित 94 प्रतिशत किसानों तक इसका फायदा किस प्रकार पहुंचाया जाए, एमएसपी सिस्टम से ही छुटकारा पाना चाहती है। जब तमाम झूठे-सच्चे सरकारी दावों और वादों तथा किसान कल्याण की पूरे-अधूरे मन से की गई कोशिशों के बावजूद छोटे और सीमांत किसानों की स्थिति दयनीय है तो फिर अपने मुनाफे के लिए धंधा करने वाले प्राइवेट प्लेयर से यह आशा कैसे की जा सकती है कि वह इनका शोषण नहीं करेगा। सरकार इन कानूनों के माध्यम से न केवल किसानों के प्रति अपने उत्तरदायित्व से बच रही है बल्कि इनके जरिए सत्ताधारी दल का वित्त पोषण करने वाले कॉरपोरेट्स को फायदा भी पहुँचा रही है। देश का किसान इस बात को समझ चुका है। यही कारण है कि देश भर के किसान इस आंदोलन से जुड़ चुके हैं और यह सब देश की राजधानी की ओर कूच करने को तत्पर हैं। यदि ट्रेनों की आवाजाही पूर्ववत प्रारंभ हो जाए तो सरकार को यह ज्ञात हो जाएगा कि यह आंदोलन कितना क्षेत्रीय है और कितना राष्ट्रीय।
कृषि को दी जाने वाली सब्सिडी पर भी बड़े ऐतराज उठाए जा रहे हैं। दरअसल विश्व व्यापार संगठन का दबाव इन आपत्तियों के पीछे झलक रहा है। डब्लूटीओ विकासशील देशों को दस प्रतिशत और विकसित देशों को पांच प्रतिशत कृषि सब्सिडी देने की छूट देता है। दुनिया के विकसित देश भारत पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि उसके द्वारा कृषि पर दी जाने वाली सब्सिडी दस फीसदी से ज्यादा है। आखिरी बार यह मुद्दा भारत के साथ 2018 में उठाया गया था। विश्व व्यापार संगठन अध्ययन केंद्र नई दिल्ली की जून 2020 की एक रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका में प्रति किसान एंबर बॉक्स सब्सिडी (वह सब्सिडी जिसका प्रभाव घरेलू उत्पादन और विश्व व्यापार पर पड़ता है) कुल 534,694 रुपए है जबकि कनाडा में 546,563 रुपए, यूरोपीय संघ में 78,733 रुपए और जापान में 256,694 रुपए है। वहीं हमारे विकासशील देश भारत में यह सब्सिडी मात्र 3,612 रुपए प्रति किसान है। एलपीजी समर्थक अर्थशास्त्री इन विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के आकार, प्रति व्यक्ति आय और किसानों की संख्या के आधार पर इस सब्सिडी को कम आंकने का तर्क अवश्य देते हैं लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि कृषि में प्राइवेट प्लेयर्स की एंट्री से अमेरिका और यूरोप के किसान बदहाल हुए हैं और उन्हें वहां की सरकारें भारी सब्सिडी दे रही हैं।
अनेक अर्थशास्त्री यह आश्वासन दे रहे हैं कि किसानों की एमएसपी ख़त्म होने की आशंका बिलकुल उचित नहीं है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के कारण हर साल केंद्र सरकार को 400-450 लाख टन गेंहू और चावल की जरूरत रहती ही है। इसके अतिरिक्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं सेना हेतु और ओपन मार्केट में दाम को रेगुलेट करने के लिए भी केंद्र सरकार अनाज ख़रीदती ही है इसलिए अगले एक दशक तक एमएसपी के ख़त्म होने की कोई आशंका नहीं है, किंतु धीरे-धीरे सरकार ने ऐसी ख़रीद कम की है, इस कारण यह चिंताएं निराधार नहीं हैं। अभी ही केंद्रीय पूल के लिए भारतीय खाद्य निगम द्वारा छत्तीसगढ़ से चावल उठाने में कथित देरी के कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान की खरीद प्रभावित होने की खबरें आ रही हैं। सरकार ने राज्यों को रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर फण्ड देने से भी मना कर दिया है। एमएसपी पर खरीद संबंधी सारे आश्वासन मौखिक ही रहे हैं और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय से आदेश जारी करने में विलंब हुआ है। दरअसल डब्लूटीओ की नजर में खाद्य सुरक्षा कानून और पीडीएस आदि भी सब्सिडी की ही श्रेणी में आते हैं और उसका कहना है कि सरकार को इनसे जल्दी से जल्दी निजात पा लेनी चाहिए।
सरकार और किसानों के बीच बना गतिरोध बहुत आसानी से समाप्त हो सकता है। अनेक विशेषज्ञों ने बहुत सकारात्मक सुझाव दिए हैं जो चर्चा और विमर्श का आधार बन सकते हैं। वाजपेयी सरकार में कृषि मंत्री रहे सोमपाल शास्त्री का सुझाव है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसानों का कानूनी अधिकार बना कर इसकी गारंटी सुनिश्चित की जाए, कृषि लागत और मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए, फसल लागत की गणना की विधि में परिवर्तन कर इसे औद्योगिक लागत आधार पर किया जाए तथा कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से संबंधित विवादों के समाधान हेतु ब्लॉक, जिला, प्रदेश और देश के स्तर पर ट्रिब्यूनल का गठन हो जिसे न्यायिक अधिकार प्राप्त हों। देवेंदर शर्मा का सुझाव है कि सरकार एक चौथा बिल ला सकती है जो किसानों को एमएसपी से नीचे खरीद न किए जाने संबंधी कानूनी अधिकार प्रदान करे, किंतु देवेंदर शर्मा यह ध्यान भी दिलाते हैं कि केवल एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी देना ही पर्याप्त नहीं है। देश में छोटे किसानों की एक विशाल संख्या है जिनके लिए किसान सम्मान निधि जैसी योजनाएं न केवल जारी रहनी चाहिए बल्कि इनका बजट भी उदारतापूर्वक बढ़ाया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फूड कमिश्नर एनसी सक्सेना के अनुसार सरकार यदि इच्छुक हो तो यह प्रावधान क़ानून में जोड़ सकती है कि यह राज्य सरकारें की इच्छा पर होगा कि वे कब और कैसे इस कानून को लागू करना चाहती हैं। इस तरह सरकार कानून वापस लेने की अटपटी स्थिति से बच जाएगी। इस कानून को लागू करने वाले राज्यों में यदि किसानों की हालत बेहतर होगी तो इसे क्रियान्वित न करने वाले राज्यों के किसान अपने राज्य की सरकारों पर खुद दबाव बनाएंगे।
इस पूरे प्रकरण में विपक्ष की भूमिका निराशाजनक रही है। सरकार द्वारा संसद का शीतकालीन सत्र बुलाने से इनकार करने के बाद विपक्ष के सामने यह अवसर था कि सारे विरोधी दल एक समानांतर सत्र का आयोजन करते जिनमें इनके सांसद इन तीनों कृषि कानूनों पर चर्चा करते, इनकी कमियों को उजागर करते और किसानों के सम्मुख उनकी स्थिति सुधारने संबंधी वैकल्पिक कानूनों का ड्राफ्ट पेश करते, किंतु वाम दलों के अपवाद को छोड़ कर लगभग सभी विपक्षी पार्टियां एलपीजी की अवधारणा और कृषि में निजी क्षेत्र के प्रवेश की प्रबल समर्थक रही हैं और ऐसा लगता है कि उनका यह दृष्टिकोण अब भी कायम है।
एलपीजी से आने वाली आभासी समृद्धि की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ने वाले मध्यवर्ग को यह याद रखना चाहिए कि देश में एक प्रतिशत लोगों के पास 70 प्रतिशत आबादी की कुल जमा संपत्ति के चार गुने के बराबर की दौलत है। देश में 63 ऐसे धनकुबेर हैं जिनके पास देश के वर्ष 2018-19 के बजट 24 लाख 42 हजार 200 करोड़ रुपए से भी अधिक धन है। हमारे मुल्क के टॉप एक प्रतिशत रईसों के पास देश की कुल संपत्ति का 51.53 प्रतिशत हिस्सा है। जब आप धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता के सम्मोहन से बाहर निकलकर अपने चारों तरफ बढ़ती असमानता पर नजर डालेंगे तो वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम में प्रस्तुत ऑक्सफेम के यह आंकड़े आपको बिल्कुल नहीं चौंकाएंगे। बीस वर्ष का समय एलपीजी के दुष्प्रभावों के खुलकर सामने आने के लिए पर्याप्त नहीं है, विशेषकर तब जब इस वक्फे में अनेक सालों तक देश में गठबंधन की सरकारें रही हैं और गठबंधन के साथियों तथा जनता के दबाव के कारण सरकारें एलपीजी के रास्ते पर सरपट दौड़ नहीं लगा पाईं।
यदि इन कृषि कानूनों की वापसी हो जाती है और इनके स्थान पर नए किसान हितैषी लगने वाले कानून आ भी जाते हैं तब भी किसानों का संघर्ष खत्म नहीं होगा। हमने देखा है कि 5 वीं अनुसूची के सुरक्षा, संरक्षण और विकास संबंधी प्रावधानों,पेसा कानून के प्रावधानों, ग्राम सभा को प्राप्त शक्तियों और वन अधिकार कानून 2006 की उपस्थिति के बावजूद तथा एनवायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट व सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट जैसी प्रक्रियाओं के अस्तित्व में होने के बाद भी पावर, स्टील और माइनिंग में निजी क्षेत्र ने किस प्रकार इन सभी की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपने पांव पसारे हैं। लाखों आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हुए हैं, ग्रामीण किसान मालिक से मजदूर बना दिए गए हैं। प्रदूषण और मानव विकास के सूचकांकों के आधार पर हालात बहुत खराब हुए हैं। 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद पांच लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है। किसानों की इस लड़ाई को जब तक व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष में बदला नहीं जाएगा तब तक किसी सकारात्मक परिवर्तन की आशा करना व्यर्थ है।
डॉ. राजू पाण्डेय रायगढ़, छत्तीसगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं