बिहार के चुनावी माहौल में जिला कैमूर के अधौरा प्रखंड में अपने जल, जंगल और ज़मीन के हक़ के लिए संघर्ष कर रहे आदिवासियों पर पुलिस द्वारा गोलियां बरसायी गयीं। 11 सितंबर 2020 को पुलिस और वन विभाग ने निहत्थे आदिवासियों पर गोलीचालन किया जिसमें 3 लोग घायल हो गये और कई को चोट आयी। दर्जनों आदिवासियों को फर्जी मुकदमे में जेल भेज दिया गया।
आदिवासी समुदाय व वनों में रहने वाले वनाश्रित समुदाय वनाधिकार कानून को लागू करने को लेकर दो दिवसीय पूर्व आयोजित कार्यक्रम के अनुसार धरने पर बैठे थे, जो कि 10 और 11 सितंबर को था। हजारों की संख्या में बैठे आदिवासियों से जब कोई भी अधिकारी बात करने नहीं आया तो क्षुब्ध हो कर आदिवासियों ने पहले दिन शाम को वन विभाग के दफ्तर को घेर कर उसकी सांकेतिक तालाबंदी की। थाना प्रभारी ने रात में जाकर सभी तालो को तोड़ दिया लेकिन लोगों से बात नहीं की कि आखिर लोग क्यों तालाबंदी पर उतारू हो गये हैं। 11 तारीख को जब लोगो ने देखा कि सभी ताले टूटे हुए हैं तब पूछताछ कर पता लगा कि ताले पुलिस द्वारा तोड़े गये हैं। तब पुनः ताले खरीदे गये और फिर से इन दफ्तरों पर दिन के वक्त तालाबंदी की गयी।
यह तालाबंदी वहां पर तैनात पुलिस और वनकर्मियों को नागवार गुज़री। वहां पर पुलिस फोर्स आ गयी तथा बिना कुछ कहे कुछ लड़कों से मारपीट व लाठीचार्ज करने लगी। इस पर आदिवासियों ने जब प्रतिरोध किया, तो उनके ऊपर गोली चला दी। पुलिस द्वारा यह कहानी बनायी गयी कि लोग उग्र हो गये थे, लोगों ने फायरिंग की, उन्होंने वन विभाग के दफ्तार में तोड़फोड़ की और सब सामान तहस नहस कर दिया जबकि लोगों के हाथों में ताला और चाबी के अलावा कुछ भी नहीं था, लिहाजा फायरिंग का तो सवाल ही नहीं उठता।
यहां पर सवाल यह उठता है कि जब लोग दो दिन से धरने पर बैठे थे और बार-बार यह निवेदन कर रहे थे कि उनकी मांगों को सुनने के लिए कोई अफसर बात करने आये, तब तो वे उपद्रवी नहीं थे लेकिन तालाबंदी करने से वे उपद्रवी हो गये? जब देश में बिना तैयारी के तालाबंदी की गयी तब यही पुलिस डंडा लेकर पूरे देश में तालाबंदी के लिए सबको दौड़ा-दौड़ा कर पीटती रही लेकिन जब लोग देश की इस तालाबंदी और महामारी की आड़ में उनकी आजीविका पर हो रहे हमले के विरोध में तालाबंदी पर उतारू हुए तो इनको नागवार गुज़रा!
इस महामारी के काल में जहां जनता बेहद दुखी है, भुखमरी फैली हुई है वहां आखिर गोली क्यों चलायी गयी? अगर आदिवासियों को हिंसा का ही रास्ता अपनाना था तो वे दो दिन शांतिपूर्वक धरना देने की योजना क्यों बनाते और जनवादी तरीके से अपनी मांग क्यों रखते?
जैसा कि प्रशासन द्वारा कहा जा रहा है कि तोड़फोड़ हुई, जब लोग दो बार तालाबंदी ही करने गये तो तोड़फोड़ कैसे कर सकते हैं? क्या वनविभाग द्वारा खुद यह तोड़फोड़ की गयी और झूठा इल्ज़ाम लोगों पर लगा दिया गया? आखिर वे क्या कारण थे जिसकी वजह से गोली कांड हुआ? यह सब जांच का विषय है। जब तक जांच नहीं होगी सच्चाई भी बाहर नहीं आएगी।
यहां सबसे अहम बात यह है कि अचानक कैमूर मुक्ति मोर्चा कैसे इतनी सुर्खियों में आ गया, जिसे पूरा प्रशासन और मीडिया मिल कर साबित करना चाहते है कि यह उपद्रवी लोग हैं या कुल मिला कर यह कहना चाह रहे हैं कि यह एक माओवादी संगठन है। पूरे घटनाक्रम को उसी तरह से दर्शाया जा रहा है ताकि दमन करना और आसान हो जाए, लेकिन इस गोली कांड से कैमूर के प्रशासन को जान छुड़ानी भारी पड़ सकती है क्योंकि जिस संगठन कैमूर मुक्ति मोर्चा को प्रशासन आतंकवादी संगठन घोषित करना चाहते है दरअसल उसकी जड़ें ठोस जनवादी विचारों और जन संगठन के सिद्धांत से लैस है। अगर कैमूर मुक्ति मोर्चा को हथियारबंद कार्यवाही ही करनी होती तो यह संगठन पिछले 30 वर्ष से कैमूर की सामंती, अतिपिछड़ी व दुर्गम पहाड़ियों में न टिका रहता व सरकार द्वारा इस संगठन को नेस्तनाबूद कर दिया गया होता।
2012 में बिहार सरकार द्वारा यह घोषणा की गयी थी कि कैमूर की पहाड़ियों में अब माओवादी नहीं रहे व हथियारबंद दस्तों ने आत्मसमर्पण कर दिया है। यह वही कैमूर मुक्ति मोर्चा है जिसने हथियारबंद रास्ते का विरोध किया था और पूरे आदिवासी समाज को लोकतांत्रिक तरीके से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। 2000 से लेकर 2012 तक जब माओवादी संगठन अपने चरम पर था, तब कैमूर मुक्ति मोर्चा ने एक तरफ इन संगठनों को भी नकारा था और दूसरी तरफ पुलिसिया दमन का भी जनवादी तरीके से जवाब दिया था।
माओवादियों से इस संगठन ने अपनी दूरी तब और स्पष्ट रूप से बनायी जब उन्होंने कई गांव में बच्चों के स्कूलों को बम से उड़ा दिया था। दूसरी तरफ सरकार से भी जबाव तलब किया जब कई स्कूलों में पुलिस फोर्स तैनात कर दी गयी थी। इस संगठन से जुड़े लोग यह समझ गये थे कि जो भी उनकी शिक्षा के माध्यम पर हमला करते हैं व उनके हितैषी नहीं हैं, चाहे वे माओवादी हों या पुलिस।
कैमूर मुक्ति मोर्चा द्वारा जनवादी विचारों से संगठन को टिका कर रखने के लिए इस पूरे दौर में संगठन के नेतृत्व को तलवार की धार पर चलना पड़ा है। इस संगठन के विचार व सिद्धान्त के निर्माता व संस्थापक डॉ. विनियन हैं जो आज से 30 वर्ष पूर्व इस दुर्गम सामंती इलाके में आदिवासियों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ उनको एकजुट करने के लिए पूरे कैमूर पठार में पैदल घूमे। पेशे से वे एक डॉक्टर थे लेकिन उन्होंने ताउम्र आदिवासी, वंचित और पिछड़ों के लिए सामाजिक स्तर पर संघर्ष किया। उनका सबसे बड़ा सिद्धान्त यही था कि वंचित समुदाय अपनी मुक्ति का रास्ता जनवादी आंदोलन के तहत ही पा सकते हैं जिसमे कोई शार्ट कट नहीं हो सकता। इसलिए तीन दशक पहले जब अधौरा जैसा क्षेत्र पूरी तरह सामंती शक्तियों की जकड़ में था और आदिवासियों का उत्पीड़न चरम पर था, उस समय उन्होंने आदिवासी समाज में जनवादी मूल्यों के आधार पर घटक संगठन जन मुक्ति आंदोलन के साथ मिल कर इस संगठन को स्थापित किया था। जन मुक्ति आंदोलन का कार्य क्षेत्र जहानाबाद था जहां पर एक जमाने में जमींदारी प्रथा के खिलाफ बहुत बड़े आंदोलन हुए थे।
कैमूर मुक्ति मोर्चा डॉ. विनियन और डॉ बीडी शर्मा द्वारा गठित भारत जन आंदोलन के साथ जुड़ा लेकिन वनाधिकार के सवाल पर यह संगठन राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच (यह मंच 2013 में अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी मंच में तब्दील हो गया है) से 1996 से जुड़ गया। डॉ. विनियन इस राष्ट्रीय मंच के संस्थापक सदस्यों अशोक चौधरी, कामरेड डी. थंकप्पन, भारती राय चौधरी में से एक थे। इस मंच के माध्यम से सबसे पहले वनों के अंदर वनाश्रित समुदाय के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकारों के लिए एक समग्र अधिनियम बनाने का मसौदा तैयार किया गया था, जिसके बाद इस मंच द्वारा पूरे देश में वन क्षेत्र में काम कर रहे संगठनों को जोड़ने का काम किया गया व वामदलों के साथ मिल कर वनाधिकार कानून को पारित कराने का देशव्यापी संघर्ष किया गया।
इस संघर्ष में 2002 से लेकर 2006 तक देश के हजारों वनाश्रित समुदायों ने संसद के बाहर धरना प्रदर्शन किया। कैमूर मुक्ति मोर्चा इस पूरे संघर्ष में शामिल रहा। राष्ट्रीय स्तर पर सभी संगठनों के अथक प्रयासों के कारण ही देश में ‘‘अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वनाधिकारों को मान्यता कानून 2006’’ पारित हुआ था। 2006 के बाद इस कानून की मदद से इस क्षेत्र में वनविभाग व सामंती गठजोड़ को भी कमज़ोर करने का काम इस संगठन द्वारा किया गया। 2006 अगस्त में ही डॉ. विनयन की मृत्यु हो गयी। कानून दिसम्बर में आया। तब से लेकर अब तक आदिवासी अपने खुद के बनाये इस कानून को धरातल पर लागू करने के लिए जददोजहद कर रहे हैं।
यही नहीं, 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद डॉ. विनयन द्वारा जहानाबाद से अयोध्या तक 100 लोगों के साथ एक महीने तक साम्प्रदायिक सोहार्द के लिए पदयात्रा की गयी थी जिसमें 30 आदिवासी कैमूर पहाड़ से थे। 2004 में विश्व सामाजिक मंच बम्बई के कार्यक्रम में भी कैमूर मुक्ति मोर्चा के पचासों साथी शामिल हुए थे जहां दुनिया के 150 देशों के लोग शामिल हुए थे।
कैमूर मुक्ति मोर्चा से जुड़ कर काम कर रहे आज अनेक आदिवासी व दलित कार्यकर्ता डॉ. विनियन के साथ बाल्यावस्था से ही जुड़े हुए थे। इसलिए आज संगठन में एक सशक्त, जुझारू व परिपक्व नेतृत्व है जो अपने जल, जंगल व जमीन के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
2012 में जब एक बार कैमूर पठार में जातीय हिंसा हुई थी। इस हिंसा में दर्जनों आदिवासियों के गांव को जला दिया गया था। तब भी मोर्चा और राष्ट्रीय संगठन राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच के वरिष्ठ नेतृत्व द्वारा राजनीतिक रूप से इस मामले में हस्तक्षेप किया गया था, जिसके बाद तत्कालीन गृह सचिव अमीर सुहानी की मध्यस्थता के तहत इस क्षेत्र में शांति बहाल हुई थी।
कैमूर मुक्ति मोर्चा के जनवादी पहलू को प्रशासन एवं पुलिस द्वारा पूरी तरह से नजरअंदाज किया जा रहा है तथा वन विभाग जैसे औपनिवेशिक व सामंती संस्था के बहकावे में आकर संसद के 2006 के कानून की अवमानना की जा रही है। जबकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा 28 फरवरी 2019 के वाईल्ड लाइफ फर्स्ट एवं यूनियन ऑफ इंडिया आइए न. 35782/2019 में कोर्ट द्वारा किसी भी तरह की बेदखली से रोक लगायी गयी है। इस केस में राष्ट्रीय संगठन अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन व सेंटर फॉर जस्टिस एंड़ पीस, मुम्बई द्वारा भी इन्टरवेंशन अप्लिकेशन न. 107284/2019 लगायी गयी है। इस याचिका में आदिवासी समुदाय की महिलाएं सोनभद्र, उप्र की सुकालो गोंड और थारू आदिवासी निबादा राणा मुख्य वादी हैं।
इस पूरे संवैधानिक मामले को दरकिनार कर कैमूर ज़िले के आला अफसर जनवादी आंदोलन को बदनाम कर उनको माओवादियों की और धकेलने की कोशिश कर रहे हैं। वे बातचीत का कोई रास्ता खुला रखना नहीं चाहते। ऐसा प्रतीत होता है कि यह अफसरशाही आदिवासियों को बात करने लायक नहीं समझती और दूसरी ओर वही हाल राजनीतिक दलों का भी है जो कि इन गंभीर मुद्दों पर खामोश और चुप्पी साधे बैठे हैं।
आखिर बातचीत कैसे होगी और उसका रास्ता क्या होगा? यह सवाल हमारे बीच में है। संवाद तो करना ही होगा। जब तक आम जनता जनवादी तरीके से संघर्ष कर रही है इससे राजसत्ता अपना पल्ला झाड़ नहीं सकती। कैमूर मुक्ति मोर्च के तमाम आदिवासी नेतृत्व इस ओर शासक वर्ग को बाध्य कर रहे हैं और यह संदेश दे रहे हैं कि दमन करने से मामला और भी बिगड़ सकता है इसलिए चुनाव के इस माहौल में बातचीत के ज़रिये ही समस्या का हल मिल सकता है।
संघर्षशील जनता का विश्वास जीतने के लिए सबसे पहले एक उच्चस्तरीय न्यायिक जांच समिति का गठन किया जाना चाहिए व पूरे मामले की जांच होनी चाहिए।
साथ ही चुनाव के इस माहौल में अन्य मांगों पर सभी राजनैतिक दलों को ध्यान देना होगा जिसमें प्रमुख मांगें निम्नलिखित हैं–
1. वनाधिकार कानून 2006 को तत्काल प्रभाव से लागू किया जाए।
2. छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम को लागू किया जाए।
3. कैमूर पहाड़ का प्रशासनिक पुर्नगठन करते हुए पांचवीं अनुसूची क्षेत्र घोषित किया जाए तथा
4- कैमूर पहाड़ से वन्य जीव अभयारण्य और बाघ अभयारण्य को तत्काल खत्म किया जाए।
5- पेसा कानून को तत्काल प्रभाव से लागू किया जाए।
लेखिका कैमूर क्षेत्र में पिछले दो दशकों से आदिवासी व वनाश्रित समुदाय के साथ वनाधिकार एवं भूअधिकार के सवाल पर अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन के साथ काम कर रही हैं।
यह लेख सबरंग से साभार प्रकाशित है।