पृथ्वी के बीते 2000 सालों के इतिहास की तुलना में बीते कुछ दशकों में धरती का तापमान बेहद तेज़ी से बढ़ रहा है। इसके पीछे साफ़ तौर पर इन्सानी गतिविधियों की वजह से होने वाला ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन ज़िम्मेदार है ।
2010-2019 में औसत वार्षिक वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन मानव इतिहास में अपने उच्चतम स्तर पर था। वैज्ञानिकों ने नवीनतम इंटरगवर्नमेनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए हमें अपने उत्सर्जन को जीरो पर लाना होगा। उत्सर्जन में कटौती के बिना ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना पहुंच से बाहर है। इस काम के लिए ऊर्जा क्षेत्र में बड़े बदलाव की आवश्यकता है और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में भारी कमी लानी होगी।
रिपोर्ट जारी करते हुए आइपीसीसी के अध्यक्ष होसुंग ली ने कहा- “हम दोराहे पर हैं। अब हम जो निर्णय लेते हैं, वे एक जीवंत भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं।”
तमाम वैज्ञानिक प्रमाणों के बावजूद न तो जीवाश्म ईंधन कंपनियों और सरकारों की जवाबदेही तय हो पा रही है और न ही उनके विरुद्ध कोई ख़ास निषेधात्मक कार्रवाई की जाती है।
IPCC की छठी आकलन रिपोर्ट (AR6) की तीसरी किस्त (WG3) बताती है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अब शायद बस एक आखिरी मौका ही बचा है और इस मौके का फायदा अगले आठ सालों में ही उठाया जा सकता है। इस काम के लिए इस दशक के अंत तक उत्सर्जन को कम से कम आधा करने के लिए तेजी से नीतियों और उपायों को लागू करना पड़ेगा।
IPCC कि इस WG3 रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने बताया है कि दुनिया अपने जलवायु लक्ष्यों को कैसे पूरा कर सकती है।
रिपोर्ट से साफ़ है कि 2050 तक ‘नेट-जीरो’ तक पहुंचना दुनिया को सबसे खराब स्थिति से बचने में मदद करेगा, हालांकि रिपोर्ट यह भी कहती है कि मौजूदा हालात ऐसे हैं कि 1.5 या 2 डिग्री तो दूर, हम 2.7 डिग्रीज़ कि तापमान वृद्धि की ओर अग्रसर हैं। एक और महत्वपूर्ण बात जो यह रिपोर्ट सामने लाती है कि नेट ज़ीरो के नाम पर अमूमन पौधारोपण या कार्बन ओफसेटिंग कि बातें की जाती हैं। मगर असल ज़रूरत है कार्बन उत्सर्जन को ही कम करना। न कि हो रहे उत्सर्जन को बैलेंस करने कि गतिविधियों को बढ़ावा देना।
अब ये जानना महत्वपूर्ण होगा कि इस ताज़ा रिपोर्ट में विज्ञान कि नज़र से क्या ख़ास संदेश हैं। एक नज़र ऐसे पाँच महत्वपूर्ण वैज्ञानिक संदेशों पर डालते हैं:
1. क्लीन और रिन्युएबल एनेर्जी की ताकत और भंडारण से चलने वाली एक वैश्विक ऊर्जा व्यवस्था दुनिया के देशों को एक बेहतरीन मौका देगी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए। जिन देशों में निम्न कार्बन नीतियां अपनाई गईं वहाँ उत्सर्जन में गिरावट देखी जा रही है। अक्षय ऊर्जा में भारी प्रगति हुई है। साल 2020 में 280 गीगावाट नई क्षमता जोड़ी गई, जो पिछले वर्ष की तुलना में 45% अधिक है और 1999 के बाद से साल-दर-साल सबसे बड़ी वृद्धि है। साथ ही, उसकी लागत में तेजी से गिरावट जारी है।
2. दुनिया को जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढांचे को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना शुरू करना चाहिए। मौजूदा बुनियादी ढांचा अकेले ही 1.5°C लक्ष्य तक पहुंचना असंभव बना देगा। अगर कोई नया जीवाश्म ईंधन विस्तार न भी किया जाए, फिर भी मौजूदा ढांचे की वजह से 2025 तक वैश्विक उत्सर्जन 22% अधिक होगा और 2030 तक 66% अधिक होगा। साथ ही, मौजूदा ढांचे के चलते दुनिया में 846 गीगा टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होना तय है। फिलहाल, हालात ऐसे हैं कि कोयले में नए निवेश न करने के साथ ही सभी कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों को 2040 तक बंद करने की आवश्यकता है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का कहना है कि जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2040 तक एक वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र का नेट ज़ीरो होना ज़रूरी है।
3. वैज्ञानिकों का कहना है कि महत्वाकांक्षी पेरिस तापमान लक्ष्यों को पूरा करना संभव है, लेकिन इसके लिए बढ़े हुए वित्तीय निवेश की आवश्यकता होगी। पेरिस के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मीथेन और अन्य अल्पकालिक गैसों सहित ग्रीनहाउस गैसों की पूरी श्रृंखला में तेजी से शमन की आवश्यकता है। जलवायु शमन और अनुकूलन के लिए तमाम देशों द्वारा वादा की गयी धनराशि पेरिस में वादा किए गए प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर से काफी कम है। जलवायु परिवर्तन की तैयारी और रोकथाम के लिए इस वित्त प्रवाह में वृद्धि होनी चाहिए।
4. जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को हटाना होगा। यही वजह है कि IPCC के नेट-जीरो पाथवे तीव्र और गहन उत्सर्जन कटौती पर जोर देते हैं। अधिकांश मौजूदा कार्बन निष्कासन प्रौद्योगिकियां अभी भी या तो अत्यधिक अविश्वासनीय हैं या फिर जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा से समझौता करने पर सफल होते हैं। बात अगर केवल वृक्षारोपण के माध्यम से 2050 तक नेट ज़ीरो तक पहुंचने की हो तो कम से कम 1.6 अरब हेक्टेयर ज़मीन चाहिए होगी। फिलहाल उत्सर्जन में कटौती का कोई विकल्प नहीं इसलिए कार्बन हटाने की बात करने पर कार्बन उत्सर्जन को ही रोकने पर ही ध्यान देना होगा क्योंकि कार्बन हटाने की मौजूदा प्रौद्योगिकी ऐसी नहीं जो जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने में मददगार सिद्ध हों।
5. वर्तमान में हम वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस या 2 डिग्री सेल्सियस तक भी सीमित करने से बहुत दूर हैं। मौजूदा नीतियां सफल भी होती हैं तो वो हमें सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक वार्मिंग की ओर ले जाएंगी।
दुनिया के सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोग अकेले दुनिया के कुल उत्सर्जन के आधे के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि दुनिया के सबसे गरीब लोगों का हिस्सा सिर्फ 12 प्रतिशत है। नीतिगत निर्णय लेने वालों को वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए हर संभव प्रयास करने की आवश्यकता है।
ध्यान रहे कि 2030 तक उत्सर्जन में कटौती में देरी करने से 1.5°C का लक्ष्य पहुंच से बाहर हो जाएगा और हमारा ग्रह स्थायी और अपरिवर्तनीय जलवायु क्षति भोगेगा। अगले आठ साल महत्वपूर्ण हैं और साथ ही महत्वपूर्ण है अंतरराष्ट्रीय सहयोग।
फ़िलहाल भारत की स्थिति
- भारत मोटे तौर पर ग्रीन हाउस गैसों के कुल वैश्विक उत्सर्जन में से 6.8 प्रतिशत का हिस्सेदार है।
- वर्ष 1990 से 2018 के बीच भारत के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 172 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
- वर्ष 2013 से 2018 के बीच देश में प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन भी 17 फीसद बढ़ा है।
- अभी भी भारत का उत्सर्जन स्तर जी20 देशों के औसत स्तर से बहुत नीचे है।
- देश में ऊर्जा क्षेत्र अब भी ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जनकारी क्षेत्र है।
- भारत की कुल ऊर्जा आपूर्ति में जीवाश्म ईंधन आधारित प्लांट्स का योगदान 74 प्रतिशत जबकि अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 11 फीसद है।
- देश की वर्तमान नीतियां वैश्विक तापमान में वृद्धि को तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के अनुरूप फिलहाल नहीं हैं।
- इसके लिए भारत को वर्ष 2030 तक अपने उत्सर्जन को 1603 मिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर (एमटीसीओ2ई) (या वर्ष 2005 के स्तरों से 16 प्रतिशत नीचे) रखना होगा।
भारी उद्योग क्षेत्र को कार्बनमुक्त करने पर हो रहा है मनन
ठीक तब, जब संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन के अंतरसरकारी पैनल IPCC की ताज़ा रिपोर्ट जारी हो रही थी, उसी दौरान जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में एक और वैश्विक पहल आगे कदम बढ़ा रही थी। वैश्विक स्तर पर उद्योगों को कार्बन मुक्त करने के एक कार्यक्रम की सालाना बैठक से पहले भारत में इस कार्यक्रम की प्रारम्भिक सभा का आयोजन हो रहा है।
क्लीन एनर्जी मिनिस्टीरियल (CEM) का इंडस्ट्रियल डीप डीकार्बोनाइजेशन इनिशिएटिव (IDDI) सार्वजनिक और निजी संगठनों का एक वैश्विक गठबंधन है जो उद्योगों में कम कार्बन सामग्री की मांग को प्रोत्साहित करने के लिए काम करता है। देश की राजधानी, नई दिल्ली में IDDI की महत्वपूर्ण बैठकों का दौर जारी है। भारत में हो रही यह बैठक सितंबर में अमेरिका के पिट्सबर्ग में आयोजित होने वाले CEM13 बैठक के लिए एक प्रारंभिक सभा है जहां सरकारें उद्योगों को कार्बन मुक्त करने की अपनी महत्वाकांक्षाओं की घोषणा करेंगी। इनमें हरित सार्वजनिक खरीद नीति प्रतिबद्धताएं और खरीद लक्ष्य निर्धारित करना शामिल है जो प्रमुख उद्योगों द्वारा तेजी से प्रतिक्रिया देने में मदद कर सकते हैं।
वैश्विक स्तर पर कुल ग्रीनहाउस गैस (GHG) एमिशन का लगभग तीन-चौथाई बिजली क्षेत्र से आता है। भारी उद्योग से कार्बन एमिशन लगभग 20 से 25 फीसद होता है। विज्ञान कहता है कि जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों से बचने के लिए हमें 2050 तक नेट ज़ीरो एमिशन तक पहुंचना होगा। इसके लिए उद्योग सहित सभी क्षेत्रों से गहन डीकार्बोनाइजेशन की आवश्यकता होती है। IDDI की यह बैठक इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की उस मिटिगेशन रिपोर्ट के ठीक बाद आती है जिसमें उद्योगों के लिए डीकार्बोनाइजेशन की दिशा में तेजी से कदम उठाने की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है।
उदाहरण के लिए, स्टील उद्योग को तेजी से डीकार्बोनाइज करने की जरूरत है अगर हमें ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है। वार्षिक वैश्विक इस्पात उत्पादन लगभग 2BMT है और कुल GHG में 7 प्रतिशत से अधिक का योगदान देता है। स्टील क्षेत्र के उत्सर्जन में 2030 तक कम से कम 50% और 2050 तक 95% तक 2050 के स्तर पर गिरने की आवश्यकता है ताकि 1.5 डिग्री ग्लोबल वार्मिंग मार्ग के साथ संरेखित किया जा सके। हालांकि, वर्तमान भविष्यवाणियां बताती हैं कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं में उस वृद्धि के बहुमत के साथ 2050 तक स्टील की मांग सालाना 2.5 बीएमटी से अधिक हो जाएगी। ध्यान रहे कि भारत जैसे देशों में, विकास की जरूरतें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और इनसे समझौता नहीं किया जा सकता है।
भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक है और भारत में उत्पादित अधिकांश इस्पात का उपयोग घरेलू स्तर पर किया जाता है। आईईए के अनुसार, 2050 तक विश्व स्तर पर उत्पादित स्टील का लगभग पांचवां हिस्सा भारत से आने की उम्मीद है, जबकि आज यह लगभग 5% है। भारत के लगभग 80 प्रतिशत बुनियादी ढांचे का निर्माण किया जाना बाकी है, जिसका अर्थ है कि स्टील जैसे कठिन क्षेत्रों को डीकार्बोनाइजेशन लक्ष्य निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ताकि भारत को अपने 2030 और न्यूजीलैंड के लक्ष्यों को पूरा करने में मदद मिल सके। भारत पहले से ही दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है और उम्मीद है कि 2019 में यूरोपीय संघ के कुल उत्पादन के दोगुने के बराबर राशि से 2050 तक अपने वार्षिक उत्पादन की मात्रा में वृद्धि होगी। कोविड-19 संकट देश के इस्पात उद्योग को प्रभावित कर रहा है।
चूंकि इस्पात निर्माण, मोटर वाहन और यहां तक कि नवीकरणीय क्षेत्रों के लिए रीढ़ की हड्डी है, इसलिए उद्योग को कार्बन मुक्त करना उत्सर्जन को कम करने की कुंजी है। भारत यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है कि उसका स्टील उद्योग एक स्थायी भविष्य के लिए ट्रैक पर है जो भारत को आईडीडीआई के तहत स्टील सार्वजनिक खरीद लक्ष्यों को 30-50% तक कम करके अपने शुद्ध शून्य लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करता है।
महिंद्रा ग्रुप के चीफ सस्टेनेबिलिटी ऑफिसर अनिर्बान घोष कहते हैं:
अगर हमें नेट जीरो लक्ष्यों को पूरा करना है तो स्टील डीकार्बोनाइजेशन के लिए एक मार्ग को सुरक्षित करने की जरूरत है। ऑटो उद्योग के लिए, ग्रीन स्टील भारत के लिए शून्य कार्बन गतिशीलता समाधान बनाने में उत्प्रेरक हो सकता है। हम नेट ज़ीरो भविष्य बनाने के लिए भारत सरकार की प्रतिबद्धता का स्वागत करते हैं और हमें विश्वास है कि CEM-IDDI में भारत का नेतृत्व हमें प्रतिबद्धता का सम्मान करने में मदद करेगा।
यूरोपीय संघ के कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (सीबीएएम) जैसे वैश्विक व्यापार नियम यूरोपीय बाजार में कार्बन सघन स्टील को और अधिक महंगा बना देंगे। इसी तरह, अमेरिका के प्रेसिडेंट बाइडेन की बाय क्लीन टास्क फोर्स यह सुनिश्चित करेगी कि अमेरिकी बाजार में ग्रीन स्टील अधिक प्रतिस्पर्धी हो और इसके परिणामस्वरूप भारतीय स्टील कम प्रतिस्पर्धी हो।
इस क्रम में प्रार्थना बोरा, निदेशक, सीडीपी-इंडिया, ने कहा, “इस क्षेत्र को डीकार्बोनाइज़ करने के लिए तकनीकी व्यवहार्यता और समाधानों के संदर्भ में चुनौतियाँ ज़रूर हैं और उनके बारे में स्टील कंपनियां भी अवगत हैं, लेकिन भारतीय स्टील कंपनियों को अब एक साथ काम करना शुरू करना चाहिए और बेस्ट प्रेक्टिसेज़ को साझा करना चाहिए क्योंकि अब यह समय की मांग है।”
Climateकहानी के सौजन्य से