लाशों की पिच पर दम तोड़ती मानवता का 20-20 खेल


हमेशा की तरह एक बार फिर देश में क्रिकेट का आइटम सांग कहे जाने वाले 20-20 का भोंडा प्रदर्शन शुरू हो चुका है। क्रिकेट की लोकप्रियता और भारतीय जनमानस की उत्सवधर्मिता के चलते इसमें कोई बहुत वाद-विवाद या विमर्श की गुंजाइश नहीं रह जाती, मगर इस बरस इसके टाइमिंग को लेकर देश का संवेदनशील तबका ही नहीं बल्कि इस बार तो बड़ी तादाद में आम क्रिकेटप्रेमी भी इसकी आलोचना करने से  खुद को रोक नहीं पा रहा है।

एक ओर बंगाल में चुनाव का खेला हो रहा है, दूसरी ओर प्रयागराज में कुंभ का मेला और इसी कड़ी में आइपीएल का खेला भी शुरू हो चुका है। बंगाल सहित पांच राज्यों के चुनाव को लेकर मद्रास हाईकोर्ट की ताजा टिप्पणी से भी चुनाव आयोग को कोई फर्क पड़ता नहीं दिख रहा, न ही प्रयागराज में कुंभ को लेकर न्यायालय के आदेश का कोई फर्क पड़ा, वैसे ही आइपीएल को लेकर कोर्ट के दखल का कोई बहुत असर नहीं पड़ेगा। मद्रास हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी के बाद भी यदि चुनाव आयोग और सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगती तो समझ लीजिए देश से लोकतांत्रिक सरकार का समापन हो चुका है और जो सत्ता पर काबिज हैं वो एक क्रूर, असंवेदनशील और मदमस्त शासक है जिसे आम जन से कोई लेना देना नहीं है। आइपीएल पर भी कोर्ट से कोई राहत की उम्मीद बेमानी ही है जैसा हम पिछले कई आयोजनों के दौरान पानी की बर्बादी, सट्टेबाजी और कई अन्य मसलों को लेकर जनहित याचिका पर आए फैसलों में देख ही चुके हैं।

इस बरस मगर मसला न्यायिक न होकर मानवीय और सामाजिक सरोकार से जुड़ा हुआ है। जीवन-मृत्यु के संघर्ष में आम आदमी आइपीएल की बात करना तो दूर इसके बारे में सोच भी नहीं पा रहा और चंद सौदागर लाशों के बीच उत्सव मनाने में व्यस्त हैं। सभी जानते हैं देश में कोरोना महामारी का तांडव अपने चरम पर है और रोज-ब-रोज मौत का आंकड़ा नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। देश भर में हाहाकार मचा हुआ है और इस सबके बीच आइपीएल बहुत बेशर्मी से जारी है। गौरतलब है कि कोरोना की पहली लहर और लॉकडाउन के बीच पिछले बरस भी इसे स्थगित नहीं किया गया था बल्कि दूसरे देश में आयोजित किया गया था। गत वर्ष भी इसकी आलोचना हुई थी मगर सट्टेबाजों और अमीरों के इस शौक पर कोई लगाम नहीं लगाई गई।

इस बरस भी खरीदे हुए गुलामों को लाशों की पिच पर उतार कर रोज एक नया खेला जमाया जा रहा है। खाली स्टेडियम के भीतर आभासी आवाजों के बीच चौके-छक्कों की बौछार पर और विपक्षी खिलाड़ी के आउट होने पर तालियां बजाते टीम मालिक और उनके गुलाम मस्त हैं। इस खेल में तो आउट होने वाला खिलाड़ी अगले मैच में फिर मैदान पर आ सकता है मगर चंद रईस घराने और उनके सट्टेबाज पिट्ठू इस बात से अविचलित कैसे रह पाते हैं कि उनके इस क्रूर मनोरंजन की दीवार के बाहर हजारों लोग जिंदगी के उस खतरनाक खेल में उलझे हुए हैं जहां ज़रा सी चूक उन्हें जिंदगी की पारी से हमेशा के लिए आउट कर देती है और फिर ये कभी दोबारा जिंदगी की पिच पर उतर नहीं सकते।

आइपीएल में दर्शकों की उपस्थिति भले नहीं है मगर सीधे प्रसारण के माध्यम से यह घर-घर तक पहुंच रहा है। कुछ लोगों का तर्क है कि अवसाद और निराशा के इस दौर में आइपीएल लोगों को थोड़ा मनोरंजन प्रदान कर राहत देता है। यह तर्क अपने आप में एक क्रूर मज़ाक है कि परेशानियों में रह रहे लोगों के लिए ये खेल मनोरंजन या अस्थायी राहत दे सकता है। एक समय लोगों का मनोरंजन करने वाला यह खेला वर्तमान में त्रासदी और अवसाद के इस मातमी माहौल में नश्तर की तरह चुभ रहा है। मौत के भयावह सन्नाटे में काल का उत्सव मनाता सा यह खेला आम जन की बेबसी और लाचारी का मखौल उडा रहा है। विडंबना ये है कि इसमें शामिल चंद अमीर इसे राहत का पर्याय करार देने पर तुले हुए हैं। 

जब लोग एक-एक सांस के लिए जूझ रहे हैं और अपने परिजनों को बचाने के लिए शहर के एक छोर से दूसरे छोर तक ऑक्सीजन सिलेंडर और वैंटीलेटर की व्यवस्था की ख़ातिर दौड़ रहे होते हों तो उस दौरान क्या उन्हें किसी मनोरंजन की याद भी आ सकती है? यह बात गले नहीं उतरती क्योंकि जीवन-मृत्यु की इस जद्दोजहद के दरम्यान यह कोई नहीं जानना चाहता कि किस अमीर ने जीत हासिल की या किस सबसे महंगे बिके हुए खिलाड़ी ने अपने मालिक के लिए अपनी कीमत का मोल अदा किया।

अफसोस सिर्फ उन्हें हो सकता है जिनका जमीर और संवेदनाएं अब तक बची हुई हैं कि वो सेलीब्रिटी, वो भगवान माने जाने वाले खिलाड़ी, इतने हृदयहीन और संवेदनाशून्य भी हो सकते हैं। हमने आज तक बहुत ही कम खिलाड़ियों से इस भयंकर महामारी में दर-दर भटकते आम जनों की पीड़ा के पक्ष में कोई बयान देते सुना है। ये मुंह बंद कर अपने मालिक के लिए चुपचाप मैदान पर रोज उतरने के लिए तैयार रहते हैं। संभव है फाइनल मैच के बाद केक और शैंम्पैन के साथ जश्न मनाते ये रईसजादे सहायता, राहत के नाम पर रुपयों के कुछ बंडल स्टेडियम के बाहर भी उछाल दें, थोड़ा खाओ थोड़ा फेंको की मानिंद, और इस बिके हुए मीडिया के जरिये सुर्खियां भी बटोर लें।     

देश में लगातार रोजाना 3 लाख से ज्यादा लोग इस महामारी की चपेट में आ रहे हैं। आइपीएल में खेल रहे खिलाड़ियों के परिवार भी इससे अछूते नहीं रह पा रहे हैं। कुछ समय पहले महेंद्र सिंह धोनी के माता-पिता के कोरोना पीड़ित होने की बात सामने आई, मगर चेन्नई सुपर किंग्स के कप्तान ने परिवार से ज्यादा अपने टीम मालिक को प्राथमिकता दी और खेलना जारी रखा। इधर आर. अश्विन का परिवार भी इस महामारी से जंग लड़ रहा है और अश्विन ने परिवार के साथ रहने का फैसला करते हुए आइपीएल 2021 से ब्रेक लेने की घोषणा की है।

लाशों के लिए श्मशान और कब्रिस्तान कम पड़ रहे हैं मगर पूरी सुरक्षा और सुविधाओं के साथ आइपीएल बदस्तूर बेशर्मी से जारी है। क्या यही नए भारत की नई तस्वीर है जहां मौत के तांडव के बीच चंद अमीर निहायत बेशर्मी से राग दरबारी का आनंद उठाते रहेंगे और अपने आनंद का सार्वजनिक भौंडा प्रदर्शन भी करते रहेंगे? ग़म और त्रासदी के इस भयावह समय में आइपीएल को रद्द कर देना ही उचित है और यदि कॉर्पोरेटपरस्त सरकार के लिए यह संभव न हो तो कम से कम इसके लाइव प्रसारण पर तत्काल रोक लगा देनी चाहिए।


जीवेश चौबे कानपुर से प्रकाशित वैचारिक पत्रिका अकार में उप-संपादक हैं। कवि, कथाकार एवं समसामयिक मुद्दों पर लगातार लिखते रहते हैं।

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