UP : स्कूल विलय के पीछे कम नामांकन दर की दलील और उसके मायने


शिक्षा न केवल किसी व्यक्ति की क्षमता बल्कि संपूर्ण राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिसके महत्व को किसी भी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। शिक्षा के महत्व को देखते हुए शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अंतर्गत देश में 6 से 14 साल तक के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया गया। यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 21A के तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार से जोड़ता है, यानी देश के अंतिम बच्चे तक शिक्षा को पहुँचाना राष्ट्र की जिम्मेदारी है। यह सामाजिक न्याय और समान अवसर प्रदान करने जैसे संवैधानिक मूल्यों से भी जुड़ा हुआ है। ऐसी स्थिति में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सरकारी प्राथमिक स्कूलों का विलय करने का निर्णय चिंता का विषय है।

जिन स्कूलों में 50 से कम विद्यार्थियों का नामांकन है, उन स्कूलों को पास के स्कूलों में मर्ज करने का निर्णय राज्य सरकार द्वारा लिया गया है। इस निर्णय के आधार पर यूपी में हजारों स्कूल बंद हो जाएंगे। स्कूलों के विलय का मुद्दा जितना चिंताजनक है उससे अधिक चिंता का विषय ये है कि स्कूलों में बच्चों की संख्या (नामांकन) कम कैसे हुई। बच्चे गए कहां? क्या वे किसी प्राइवेट स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं या ड्रॉपआउट हो गए? क्या इसके पीछे सरकारी/विभागीय फ़रमान भी जिम्मेदार है? ऐसे प्रश्न स्कूलों के विलय संबंधी आदेश की पड़ताल की मांग करते हैं, जो राज्य, नीतियों और शिक्षा प्रणाली की कार्यविधि पर सवाल खड़ा करते हैं।

उत्तर प्रदेश में स्कूलों के विलय के निर्णय का प्रथमदृष्टया प्रभाव रोजगार पर पड़ेगा। स्कूलों का विलय करने से स्कूलों की संख्या कम होगी जिससे शिक्षकों की संख्या भी कम हो जाएगी, जो नई शिक्षक भर्ती में पदों की संख्या को प्रभावित करेगा। ऐसी स्थिति में बेसिक शिक्षा विभाग, जो एकमुश्त अधिक संख्या में रोजगार देने का क्षेत्र माना जाता है उसकी संख्या में कमी आएगी। इसलिए कम नामांकन के आधार स्कूलों का विलय करने का निर्णय राज्य की शिक्षा के प्रति स्वस्थ मानसिकता को नहीं दर्शाता है। अभी 50 से कम विद्यार्थियों के नामांकन वाले स्कूलों का विलय किया जा रहा है, हो सकता है कुछ साल बाद सौ से कम बच्चों के नामांकन वाले स्कूलों का विलय किया जाने लगे।  



राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 स्कूली शिक्षा में ड्रॉपआउट को रोकने के लिए मुख्यत: दो सुझाव देती है: पहला, प्रभावी एवं पर्याप्त संरचना पर, जिससे प्राइमरी से लेकर 12वीं तक के बच्चों को सुरक्षित और आकर्षक शिक्षा मिल सकें; दूसरा, ट्रैकिंग का, जिसके अंतर्गत बच्चों के सीखने के स्तर का पता लगाने और स्कूल में उनकी उपस्थिति को सुनिश्चित करने में सहायता मिले। राज्य सरकारों द्वारा इस पहल का कितना प्रभावी तरीके से क्रियान्वयन किया जा रहा है और उसका क्या परिणाम हो रहा है, यह अध्ययन का विषय है जिसे बहुत संवेदनशीलता से लिए जाने की जरूरत है।

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा स्कूली शिक्षा में ड्रॉपआउट को कम करने और ऐसे बच्चे जिनका स्कूल में दाखिला नहीं हुआ है उनकी पहचान करके स्कूल में दाखिला कराने के लिए शारदा (SHARDA) योजना शुरू की गई थी। इस योजना के अंतर्गत स्कूल के शिक्षकों, स्कूल के सदस्यों द्वारा हाउसहोल्ड सर्वे करके स्कूल से बाहर और ड्रॉपआउट बच्चों की पहचान करके उन्हें स्कूल में दाखिला दिलवाना था। इस योजना की स्कूली शिक्षा में ड्रॉपआउट कम करने में क्या भूमिका रही, यह भी पड़ताल का विषय है।

एक आँकड़े के मुताबिक देश में 11.70 लाख बच्चों की पहचान की गई जो स्कूली शिक्षा से वंचित हैं, स्कूल से बाहर हैं। इन आंकड़ो में उत्तर प्रदेश अव्वल है जहां 7.84 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से बाहर हैं। राज्यसभा में प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में 2021-22 में प्राथमिक स्तर पर ड्रॉपआउट दर 2.7 प्रतिशत, उच्च प्राथमिक स्तर पर 2.9 और सेकेंड्री स्तर पर 9.7 प्रतिशत था। ड्रॉपआउट का यह आँकड़ा शिक्षकों और नीतिकारों के लिए चिंता का विषय है जो स्कूली शिक्षा संबंधी चुनौतियों एवं समस्याओं को अपने आप में समेटे हुए है।  

विभिन्न शोधों और शिक्षाविदों द्वारा स्कूलों में बच्चों की नामांकन दर में गिरावट या ड्रॉपआउट के कई कारण बताए जाते हैं। इन कारणों को मुख्यत: तीन भागों में विभाजित करते हुए स्कूली शिक्षा में ड्रॉपआउट को समझा जा सकता है। पहला, बच्चों की पारिवारिक पृष्ठभूमि; दूसरा, अभिभावकों का पलायन; तीसरा, शिक्षण अधिगम प्रक्रिया एवं भौतिक संसाधन। ये तीनों कारण स्कूली शिक्षा में ड्रॉपआउट या नामांकन दर में कमी का कारण बनते हैं। बच्चे की शिक्षा में उसकी पृष्ठभूमि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अधिकतर गरीब परिवार से आते हैं। उनकी सामाजिक-शैक्षिक, आर्थिक स्थिति निम्न होती है, जिनके अभिभावक प्राइवेट स्कूल, अपेक्षाकृत अधिक गुणवत्ता वाले स्कूलों में दखिला कराने में असमर्थ होते हैं। ऐसी स्थिति में अभिभावकों द्वारा शिक्षा की तुलना में रोजी-रोटी को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है। अभिभावक स्वयं के साथ अपने बच्चों को भी दिहाड़ी या आय के अन्य विभिन्न कार्य क्षेत्रों में काम पर लगा देते हैं, जो अभिभावकों में अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति अभिप्रेरणा को प्रभावित करता है।


स्कूली शिक्षा के विशेष संदर्भ में नयी शिक्षा नीति की एक अनुभवजन्य समीक्षा


ऐसे बच्चों में भी शिक्षा के प्रति जिज्ञासा पाई जाती है लेकिन उनकी पारिवारिक स्थिति, शैक्षिक जागरूकता की कमी जिज्ञासा की हत्या कर देती है। स्कूली शिक्षा में ड्रॉपआउट का कारण घरेलू, कृषि कार्य जैसे अन्य पहलू भी हैं। फसल की बुआई-कटाई के दौरान अभिभावकों द्वारा बच्चों का कृषि कार्यों में सहयोग लिया जाता है जिससे निर्धारित समय से अधिक अनुपस्थिति होने के कारण उन्हें ड्रॉपआउट कर दिया जाता है। इसका सबसे अधिक खमियाज़ा लड़कियों को भुगतना पड़ता है। अभिभावकों द्वारा लड़कियों को आसानी से घरेलू कार्यों के कारण ड्रॉप कराना रुढ़िवादी लैंगिक मान्यताओं के अनुरूप सही लगता है। उत्तर प्रदेश में स्कूलों के विलय करने का सबसे अधिक प्रभाव लड़कियों की शिक्षा पर पड़ेगा, स्कूल और घर के बीच की दूरी बढ़ जाएगी। लड़कियों को घर से दूर स्कूल भेजना अभिभावकों के लिए सुरक्षा के दृष्टिकोण से समस्यात्मक होगा। ऐसी स्थिति में लड़कियों के स्कूली शिक्षा से ड्रॉपआउट होने की संभावना अपेक्षाकृत अधिक रहेगी।

दूसरा पहलू अभिभावकों के पलायन से संबंधित है। अभिभावकों का रोजगार की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना बच्चों की स्कूली शिक्षा की निरन्तरता में बाधा निर्मित करता है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने से दाखिले की प्रक्रिया तकनीकी रूप धारण कर लेती है जिसके प्रति लोग अनभिज्ञ होते हैं- जैसे दाखिले संबंधी आवश्यक दस्तावेज, एक जगह दाखिला होना, इत्यादि। ग्रामीण क्षेत्र में अब भी कमजोर पृष्ठभूमि के अभिभावक दाखिले संबंधी आवश्यक दस्तावेजों को उपलब्ध कराने में असमर्थ होते है अथवा उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। इसकी परिणिति स्कूली शिक्षा से ड्रॉप आउट के रूप में होती है। तीसरा पहलू शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया एवं भौतिक संरचना का है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक द्वारा रुचि न लेना, स्कूलों में शिक्षकों की कमी, पर्याप्त संसाधनों की कमी, बच्चों के साथ हिंसक व्यवहार (शारीरिक, भाषाई इत्यादि) उसे शिक्षा से ने केवल दूर कर देता है बल्कि उसमें भय निर्मित कर देता है। सीखने-सिखाने की हिंसायुक्‍त संस्कृति के कारण कई बार बच्चों को अपने स्कूल बदलने पड़ते हैं जिसका उनकी शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बच्चे के साथ ऐसी घटनाएं बार-बार होने पर वह स्कूल जाना छोड़ देता है।    

स्कूली शिक्षा में कम नामांकन दर या ड्रॉपआउट की समस्या के समाधान के लिए राज्य एवं नीतिगत स्तर पर पहल की जाती है, लेकिन इन नीतियों का देश के दूरदराज के क्षेत्रों में क्या प्रभाव पड़ता है? इसका लोगों की समस्याओं और शिक्षा संबंधी बाधाओं के कितना संबंध होता है? ये पहलू महत्वपूर्ण हैं, जिनकी वजह से नीतियां और योजनाएं समस्याओं को ठीक-ठीक संबोधित नहीं कर पाती हैं। शिक्षा संबंधी समस्याओं और नीतियों की समय-समय पर समीक्षा किए जाने की आवश्कयता है। स्कूलों का विलय करके शिक्षा की चुनौतियों और समस्याओं से बचा नहीं जा सकता है। यह एक तरह से शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के तहत बच्चे को घर के पास (एक किमी के अंदर) शिक्षा प्रदान करने के प्रावधान के विरुद्ध है। समाज में व्याप्त असमानता के कारण लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं को भी पूरा करने की जरूरत है जिसके लिए राज्य को विशेष पहल करना चाहिए ताकि किसी भी बच्चे को अपनी पृष्ठभूमि के कारण शिक्षा से वंचित न होना पड़े। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 सूक्ष्म स्तर पर सामाजिक-आर्थिक, शैक्षिक स्थितियों में गतिशीलता प्रदान करने की बात करती है, लेकिन स्थिति फिर भी चुनौतीपूर्ण बनी हुई है।   


[डॉ. जैनबहादुर शिक्षा विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी किए हैं]


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