ऐसी खबर है कि भारतीय जनता पार्टी देश की राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए इस बार बिहार में विधानसभा चुनावों में अकेले अपने दम पर बहुमत हासिल करने की दिशा में विचार कर रही है। यदि भाजपा ऐसा निर्णय लेती है तो काफी सम्भावना है कि वह अपने मंसूबे में सफल भी हो जाए।
यदि रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी उसके साथ बनी रही तो यह सम्भावना और प्रबल हो जाती है। ऐसा इसलिए सम्भव है कि बिहार में विपक्ष बंटा हुआ है। 2015 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यूनाइटेड) के गठबंधन के सामने भाजपा को घुटने टेक देने पड़े थे क्योंकि इस गठबंधन के मत समीकरण का कोई मुकाबला नहीं था, किंतु राजद के अंदर लालू परिवार के आपसी कलह और महत्वाकांक्षा के चलते यह गठबंधन ज्यादा दिन चल न पाया और जद(यू) को एक बार पुनः भाजपा का दामन थामना पड़ा। भाजपा भी मजबूरी में नीतीश कुमार का साथ दे रही है क्योंकि पहली बार वह अपने दम पर अकेले सत्ता में आ नहीं सकती थी और दूसरा उसके पास मुख्यमंत्री पद का कोई आकर्षक चेहरा नहीं है।
हद तो यहां तक हो गई थी कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के अभियान के मुख्य चेहरा नरेन्द्र मोदी और अमित शाह थे, जो भाजपा की हार का कारण भी बना किंतु इन पांच साल में भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति को इतना मजबूत कर लिया है कि आज वह उन राज्यों में भी जहां उसे बहुमत प्राप्त नहीं है, जोड़-तोड़ की राजनीति से जिसमें धन बल की मुख्य और केन्द्र की भाजपा सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों की सहयोगी भूमिका है- सत्ता दल की सरकार को अस्थिर कर सकती है और कुछ राज्यों जैसे कर्नाटक व मध्य प्रदेश में तो उसने अपनी सरकार बना भी ली। फिलहाल राजस्थान में वह सफल नहीं है किंतु वहां भी उसका प्रयास जारी है। इसलिए भाजपा के हौसले बुलंद हैं। वह बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम उठा सकती है।
अब सवाल है कि विपक्षी दलों की क्या भूमिका होगी। तार्किक बात तो यही है कि धर्मनिरपेक्ष, समाजवाद, लोकतंत्र के विचारों को मानने वाले दलों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक साथ आना होगा। राजद और जद(यू) भले ही एक दूसरे को पसंद न करते हों लेकिन यदि भाजपा को चुनावी राजनीति में परास्त करना है तो कम से कम इन दो दलों को पुनः गठबंधन बनाने पर विचार करना होगा अन्यथा उनके बीच सेकुलर मतों के बंटवारे का सीधा लाभ भाजपा को मिलने वाला है और भाजपा की तो पूरी कोशिश रहेगी कि उसका विपक्षी मत जितना बंट सके, बंटे। कांग्रेस, जीतन राम मांझी का हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा, उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी व पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी भी इस गठबंधन के स्वाभाविक हिस्सा होंगे। फिलहाल गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के चेहरे का सवाल छोड़ देना ही ठीक रहेगा। उस पर चुनाव के नतीजे आने के बाद विचार होना चाहिए।
राजद-जद(यू) के नेतृत्व को तो यह भी कोशिश करनी चाहिए कि यशवंत सिन्हा द्वारा प्रस्तावित तीसरे या चौथे मोर्चे को भी अपने गठबंधन में जगह दें। वामपंथी दल शायद अलग चुनाव लड़ना पसंद करेंगे लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में राजद व भाकपा (माले) के बाच एक सीट पर जो सहमति बनी थी उस तरह की कोशिश करने से सेकुलर ताकतों को बल मिलेगा। सीपीआइ व सीपीएम भी इस गठबंधन में शामिल हो सकते हैं। उपर्युक्त सम्भावना के लिए तेजस्वी यादव को अपनी महत्वकांक्षा पर थोड़ा अंकुश लगाना होगा अन्यथा उनके दल का विघटन शुरू होने के संकेत मिल रहे हैं। यदि तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री पद की दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं होते तो जाहिर है कि राजद व जद(यू) सम्भवतः साथ में न आ पाएं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस व उपर्लिखित अन्य छोटे दलों को तय करना होगा कि राजद या जद(यू) में से किसके गठबंधन को मजबूत करें। छोटे दलों में भी बंटवारा हो जाता है जिसका सीधा लाभ कहने की जरूरत नहीं कि भाजपा को मिलने वाला है।
लाख टके का सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद व लोकतंत्र को बचाने के व्यापक हित में तेजस्वी यादव के लिए मुख्यमंत्री पद त्याग सकते हैं? बिहार की जनता, खासकर नवजवानों को, जैसे देश के अन्य हिस्सों में भी है, भाजपा की राजनीति, जिसमें आम जनता के मुद्दों जैसे गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आदि ये ध्यान हटा कर कभी कश्मीर, कभी नागरिकता संशोधन अधिनियम या राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर या कभी अयोध्या में राम मंदिर जैसे मुद्दों में भटकाने, से कुछ मोहभंग हुआ है। कोरोना महामारी से निपटने में भी केन्द्र सरकार पूरी तरह से नाकाम रही है। अब लोगों को समझ में आ रहा है कि प्रधानमंत्री सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, जमीनी सच्चाई पर उनकी कोई पकड़ नहीं है किंतु मजबूत विकल्प के अभाव में अंततः लोग भाजपा को ही मत दे आते हैं क्योंकि राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भाजपा ने जनता को भ्रमित कर रखा है। चीन के साथ सीमा विवाद में हालांकि उसकी काफी किरकिरी हुई है क्योंकि 1962 के युद्ध के बाद पहली बार भारतीय सैनिक तिब्बत सीमा पर इतनी बड़ी संख्या में शहीद हुए हैं।
यदि बिहार में राजद-जद(यू)-कांग्रेस के नेतृत्व में एक मजबूत धर्मनिरपेक्ष विकल्प बनता है तो निश्चित रूप से जनता उसकी तरफ आकर्षित हो सकती है क्योंकि पूरे देश में जिस तरह की राजनीतिक चेतना बिहार में देखने को मिलती है वैसी और कहीं नहीं।
दिवेश रंजन उभरते हुए चुनाव रणनीतिकार हैं और संदीप पाण्डेय सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के उपाध्यक्ष हैं