बहुजन राजनीति के बेगमपुरा मॉडल की तलाश


डॉ. आंबेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं। उन्होंने ही गोलमेज कांफ्रेंसों में दलितों को राजनीतिक अधिकार दिए जाने की मांग उठायी तथा गांधी जी के कड़े विरोध के बावजूद दलितों को हिंदुओं से अलग अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त किये जिनकी घोषणा कम्यूनल अवार्ड के रूप में हुई। इसमें दलितों को दूसरे अल्पसंख्यकों जैसे सिख तथा मुसलमानों की तरह अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए अलग मताधिकार प्राप्त हुआ। गांधी जी ने इसे हिन्दू समाज के विभाजन की साजिश बता कर इसका आमरण अनशन द्वारा विरोध किया तथा आखिर में गांधी जी की जान बचाने के लिए उन्हें पूना पैक्‍ट करना पड़ा। इससे दलितों को अलग मताधिकार के स्थान पर संयुक्त मताधिकार द्वारा विधायिका में आरक्षित सीटें, सरकारी नौकरियों तथा स्थानीय निकायों में आरक्षण तथा शिक्षा के लिए विशेष प्रोत्साहन की सुविधा प्राप्त हुई परंतु दलितों का स्वतंत्र राजनीति का अधिकार छिन्न गया। 

डॉ. आंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) बना कर 1937 के प्रथम चुनाव में बंबई प्रेसि‍डेंसी में भाग लिया। इस चुनाव में उनका मुख्य जोर मजदूर वर्ग के मुद्दों पर था। इसमें उन्होंने 15 सीटें जीतीं जिनमें 3 सामान्य सीटें भी थीं। इसके बाद उन्होंने 1942 में आल इंडिया शेड्यूल्‍ड कास्ट्स फेडरेशन बनायी जिसकी सदस्यता केवल दलितों तक सीमित थी। इससे उन्होंने 1946 तथा 1952 में चुनाव लड़े परंतु उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। अंत में उन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआइ) की स्थापना की। इसका संविधान भी उन्होंने ही बनाया।

अब यह देखने की बात है कि इन पार्टियों को बनाने के पीछे बाबासाहेब का मुख्य नजरिया क्या था। आइए सब से पहले बाबा साहेब की स्वतंत्र मजदूर पार्टी को देखें। डॉ. आंबेडकर ने अपने बयान में पार्टी के बनाने के कारणों और उसके काम के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था- ‘इस बात को ध्यान में रखते हुए कि आज पार्टियों को सम्प्रदाय के आधार पर संगठित करने का समय नहीं है, मैंने अपने मित्रों की इच्छाओं से सहमति रखते हुए पार्टी का नाम तथा इसके प्रोग्राम को विशाल बना दिया है ताकि अन्य वर्ग के लोगों के साथ राजनीतिक सहयोग संभव हो सके। पार्टी का मुख्य केंद्रबिंदु तो दलित जातियों के 15 सदस्य ही रहेंगे परन्तु अन्य वर्ग के लोग भी पार्टी में शामिल हो सकेंगे।’ इस पार्टी की राजनीति जातिवादी न होकर वर्ग और मुद्दा आधारित थी और इसके केंद्र में मुख्यतया दलित थे।

बाबा साहेब द्वारा 1942 में स्थापित आल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के उद्देश्य और एजंडा को देखा जाय तो पाया जाता है कि डॉ. आंबेडकर ने इसे सत्ताधारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों के बीच संतुलन बनाने के लिए तीसरी पार्टी के रूप में स्थापित करने की बात कही थी। इसकी सदस्यता केवल दलित वर्गों तक सीमित थी क्योंकि उस समय दलित वर्ग के हितों को प्रोजेक्ट करने के लिए ऐसा करना जरूरी था।

बाबासाहेब ने 14 अक्टूबर, 1956 को आरपीआइ बनायी जिसका मुख्य उद्देश्य संविधान में किये गए वादों को पूरा करना हो। वे इसे केवल अछूतों की पार्टी नहीं बनाना चाहते थे क्योंकि एक जाति या वर्ग के नाम पर बनायी गयी पार्टी सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती। वह केवल दबाव डालने वाला ग्रुप ही बन सकती है। आरपीआइ की स्थापना के पीछे मुख्य ध्येय थे: (1) समाज व्यवस्था से विषमताएं हटायी जाएं ताकि कोई विशेषाधिकार प्राप्त तथा वंचित वर्ग न रहे; (2) दो पार्टी सिस्टम हो: एक सत्ता में, दूसरा विरोधी पक्ष; (3) कानून के सामने समानता और सबके लिए एक जैसा कानून हो; (4) समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना; (5) अल्पसंख्यक लोगों के साथ समान व्यवहार; (6) मानवता की भावना जिसका भारतीय समाज में अभाव रहा है। 

पार्टी के संविधान की प्रस्तावना में पार्टी का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य ‘न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुता’ को प्राप्त करना था। पार्टी का कार्यक्रम बहुत व्यापक था। पार्टी की स्थापना के पीछे बाबा साहेब का उद्देश्य था कि अल्पसंख्यक लोग, गरीब मुस्लिम, गरीब ईसाई, गरीब तथा निचली जाति के सिक्ख तथा कमज़ोर वर्ग के अछूत, पिछड़ी जातियों के लोग, आदिम जातियों के लोग; शोषण का अंत, न्याय और प्रगति चाहने वाले सभी लोग; एक झंडे के तले संगठित हो सकें और पूंजीपतियों के मुकाबले में खड़े होकर संविधान तथा अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें।

दलित राजनीति और संगठन – भगवान दास

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बाबासाहेब द्वारा स्थापित राजनीतिक पार्टियों का उद्देश्य एक बहुवर्गीय पार्टी बनाना था जिसमें दलित, पिछड़े, मुसलमान, मजदूर तथा किसान शामिल हो सकते थे। पार्टी का एजंडा भी इन वर्गों के मुद्दों को लेकर ही बना था। उनकी पार्टियों का एजंडा जातिवादी बिल्कुल नहीं था।

अब अगर वर्तमान दलित राजनीति को देखा जाए तो इसमें बहुजन के नाम पर राजनीति सामने आती है। इसके मुख्य जनक कांशीराम कहे जाते हैं। कांशीराम जी की बहुजन की अवधारणा दलित, मुस्लिम तथा अन्य पिछड़ी जातियों के गठबंधन से बनी थी जिन्हें वे भारत की कुल आबादी का 85 प्रतिशत मानते थे तथा शेष 15 प्रतिशत सवर्ण। अतः उनकी बहुजन राजनीति 15 बनाम 85 के नाम से भी जानी जाती है। उनका मुख्य एजंडा 15 प्रतिशत सवर्णों से राजनीतिक सत्ता छीनना था। सुनने में यह फार्मूला बहुत अच्छा लगता है परंतु व्यवहार में ऐसा नहीं है। कांशीराम जी की बहुजन राजनीति में नेतृत्व दलितों, पिछड़ों तथा मुसलमानों के संभ्रांत लोगों के हाथ में ही था। वे ही पहुँच/पैसे के बल पर टिकट पाते थे और जीतकर मंत्री, विधायक तथा सांसद बनते थे। सरकार बनने पर वे ही उसका सबसे अधिक फायदा उठाते थे। आम दलित, ओबीसी तथा मुसलमान वोटर मात्र थे जो सरकार बनने पर अपनी समस्याओं के हल होने की अपेक्षा में जोर-शोर से वोट देते थे। परंतु चार बार बसपा की सरकार बनने पर भी उनकी भौतिक स्थितियों में कोई सुधार नहीं हुआ। 

बहुजन राजनीति का मुख्य उद्देश्य या तो राजनीतिक सत्ता को हथियाना या उसमें हिस्सेदारी करना था। उसकी नीतियां या एजंडा वर्तमान शोषक वर्ग की राजनीति की नीतियों या एजंडे को बदलना नहीं था। यद्यपि कांशीराम जी ने व्यवस्था परिवर्तन का नारा तो दिया था परंतु सत्ता में आने पर इसके लिए कुछ किया नहीं। वास्तव में उनकी अपनी कोई वैकल्पिक नीतियां या एजंडा नहीं था जिससे आम आदमी (दलित, पिछड़ा या अल्पसंख्यक या अन्य) का उत्थान हो। बहुजन राजनीति की धुरी दलित वर्ग का सरकारी नौकरियों में आया तबका था जिसका सबसे बड़ा मुद्दा आरक्षण था। अतः बहुजन राजनीति का मुख्य एजंडा भी आरक्षण, पदोन्नति तथा अच्छी पोस्टिंग आदि ही रहा। उसके एजंडे में आम दलित के लिए भूमि आवंटन, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं उत्पीड़न से मुक्ति नहीं रहा। मायावती के चार बार मुख्यमंत्री बनने से उनका भावनात्मक तुष्टीकरण तो हुआ और उत्पीड़न में भी कुछ कमी जरूर आई परंतु उनकी हालत में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। वास्तव में बहुजन राजनीति में हिन्दुत्व तथा कार्पोरेटपरस्त राजनीति से लड़ने की कोई क्षमता ही नहीं थी तथा इसका पतन होना लाजमी था। 

कांशीराम जी की बहुजन राजनीति के मुकाबले में यदि डॉ. आंबेडकर की राजनीति को देखा जाए तो उसके केंद्र में गरीब दलित, गरीब पिछड़ा, गरीब मुसलमान, मजदूर तथा गरीब किसान थे। बाबासाहेब ने अपने आगरा के भाषण में दलितों की भूमिहीनता पर गहरी चिंता जतायी थी तथा उनको जमीन दिलाने के लिए संघर्ष करने की बात कही थी। उनका उद्देश्य इन लोगों को एक पार्टी के झंडे के तले एकत्र करके पूंजीपतियों तथा ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खड़ा करके अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ना था। कांशीराम जी का मुख्य ध्येय किसी भी तरह से सत्ता प्राप्त करना था जिसके लिए उन्होंने घोर दलित विरोधी भाजपा से तीन बार समर्थन भी लिया जिससे बहुजन राजनीति दिशा भ्रमित हो कर पतन की ओर अग्रसर हो गई।

बाबासाहेब ने रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया को एक बड़े प्लेटफार्म के तौर पर बनाया था जिसमें दलितों के अलावा दूसरे वर्गों के लोग भी शामिल हो सकते थे। इसके माध्यम से बाबासाहेब एक वैकल्पिक राजनीति खड़ी कर रहे थे जिसके केंद्र में आम आदमी था। पार्टी का मुख्य उद्देश्य एक ऐसी पार्टी बनाना था जो संविधान में किये गए वादों के अनुसार हो और उन्हें पूरा करना उस का उद्देश्य हो। शुरू में जब पार्टी ने इन उद्देश्यों और एजंडे को लेकर काम किया तो उसे 1962 और 1967 के चुनावों में बहुत अच्छी सफलता भी मिली। 1964-65 में इसने बहुत बड़ा भूमि आंदोलन भी किया जिससे दलितों को भूमि आवंटन हुआ। बाद में यह पार्टी कुछ नेताओं के व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण विभाजित हो गयी जिसके पीछे कांग्रेस का बड़ा हाथ था। कांग्रेस ने पद का लालच देकर इसके नेताओं को तोड़ लिया और अब यह कई टुकड़ों में बटी हुई है और बेअसर है। आजकल दलित पार्टियों के नेता भी व्यक्तिगत लाभ के लिए इसी तरह पार्टियां बदलते रहते हैं।

वर्तमान में बहुजन राजनीति की मुख्य प्रतिनिधि बहुजन समाज पार्टी है। इसके अलावा महाराष्ट्र में रामदास आठवले की आरपीआइ(ए) तथा बिहार में रामविलास पासवान वाली लोक जनशक्ति पार्टी है जिसका भाजपा के साथ गठजोड़ है। इन सभी पार्टियों का एजंडा सत्ता प्राप्त करना या सत्ता में हिस्सेदारी करना मात्र है। इनका सत्ताधारी पार्टी भाजपा या कांग्रेस से भिन्न कोई नीति या एजंडा नहीं है। इसीलिए वे भाजपा की हिन्दुत्व तथा कारपोरेटपरस्त राजनीति का मुकाबला नहीं कर सकते। इन पार्टियों में लोकतंत्र की जगह अधिनायकवाद है और नेतृत्व एक व्यक्ति के हाथ में है। इसमें आम आदमी का कोई दखल नहीं है। इसीलिए इनके नेता व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी से भी गठजोड़ कर लेते हैं जिससे आम आदमी को कोई लाभ नहीं होता।

डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि राजनीतिक सत्ता सब समस्याओं की चाबी है। उन्होंने आगे कहा था कि राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए परंतु बहुजन राजनीति के नेताओं का आचरण इसके बिल्कुल विपरीत है। अतः उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए वर्तमान बहुजन राजनीति के स्थान पर दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों की नई राजनीति विकसित करने की जरूरत है जिसकी नीतियां एवं एजंडा भाजपा की हिन्दुत्व एवं कारपोरेटपरस्त राजनीति एवं वैश्विक पूंजी के हमले के विरोध में हो। इसके लिए वैकल्पिक नीतियां जैसे रोजगार को मौलिक अधिकार बनाना, शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना, स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर बनाना, निजीकरण पर रोक, कृषि को लाभकारी बनाना, भूमिहीनों को भूमि आवंटन, कारपोरेट के एकाधिकार को खत्म करना, लोकतंत्र की बहाली, काले कानूनों का खात्मा तथा धर्मनिरपेक्षता आदि की जरूरत है। इसके साथ ही समाज के जनतन्त्रीकरण जिसमें जाति का विनाश प्रमुख है, को भी लागू करने की जरूरत है। जाति की वर्तमान राजनीति हिन्दुत्व की ही पोशाक है। अतः इसके स्थान पर जनमुद्दों की राजनीति अपनायी जानी चाहिए।

हमारा प्रयास एक बहुवर्गीय पार्टी बनाने का है ताकि इसमें विभिन्न विचारधारा के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पार्टियां शामिल हो सकें और वर्तमान में भाजपा/आरएसएस के हिन्दुत्व एवं कारपोरेट के सहयोग से वित्तीय पूंजी के अधिनायकवाद को रोका जा सके। इसका मुख्य ध्येय संत रविदास की बेगमपुरा की अवधारणा को मूर्तरूप देना है। वैकल्पिक नीतियों एवं एजंडा के अभाव में वर्तमान बहुजन राजनीति इसमें बुरी तरह से विफल रही है। अतः अब बहुजन राजनीति को एक नए रेडिकल विकल्प की जरूरत है। 



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