क्या सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा दी जा सकेगी?
पचहत्तर साल का लम्बा वक्फा गुजर गया जब संविधान के संस्थापकों ने इस मामले में साफ साफ रुख अपनाया था कि ‘सरकारी खर्चे से चलने वाले किसी भी शिक्षा संस्थान में किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।’ यही वह वक्त़ था जब वह नवस्वाधीन भारत के भविष्य की रूपरेखा कैसे होगी इसका खाका पेश कर रहे थे।
अगर हम उन दिनों की संविधान समिति की बैठकों को देखें तो यह बात साफ होती है कि समिति के सदस्य – जिनका बहुलांश आस्तिक था – इस राय के थे कि स्कूल, जिनका बुनियादी मकसद बच्चों के दिमागों को खोलना है और बेकार की सूचनाओं का कूड़ादान नहीं बनाना है, वहां किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। भारत के संविधान की धारा 28 के तहत इसे साफ किया गया था:
“सरकारी खर्चे से चलने वाले किसी भी शिक्षा संस्थान में किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।’’ सिवाय ऐसे मामलों के ‘‘जहां किसी ट्रस्ट के तहत या अक्षय निधि /एनडोमेण्ट/ के तहत स्कूल का निर्माण हुआ हो, जिसके लिए जरूरी हो कि ऐसी संस्था में धार्मिक शिक्षा दी जाए।’‘
दरअसल वह विभाजन के दौरान हुई प्रचंड आपसी हिंसा के अपने अनुभव से इस बात को देख पा रहे थे कि धार्मिक उन्माद से प्रेरित शिक्षा किस तरह मनों को विषाक्त बना सकती है और किस किस्म का कहर बरपा कर सकती है और वह इस बात के लिए संकल्पबद्ध थे कि आज़ाद भारत का निर्माण धर्मनिरपेक्ष आधारों पर ही किया जाएगा।
रफ्ता–रफ्ता पिछले दरवाजे से धार्मिक शिक्षा
वैसे इस अन्तराल में गंगा, यमुना और मुल्क की तमाम नदियों से ढेर सारा पानी बह चुका है और अब लगने लगा है कि रफ्ता-रफ्ता ही सही संविधान के इस अहम प्रावधान को हल्का करने की कोशिश चुपचाप चल रही है और पिछले दरवाजे से सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा के लिए रास्ता सुगम किया जा रहा है।
गौरतलब है कि जिस तरह सूबा उत्तर प्रदेश में हुकूमत सम्भाली योगी सरकार ने अचानक सरकारी स्कूलों में रामायण और वेदों को लेकर कार्यशालाएं चलाने का निर्णय लिया- जिसके पहले किसी से भी कोई सलाह मशविरा नही किया गया- यह सरकार के इसी रुख का परिचायक है।
हमें बताया जा रहा है कि ऐसी कार्यशालाएं अयोध्या स्थित ‘इंटरनेशनल रामायण एण्ड वैदिक रिसर्च इन्स्टिटयूट’ के तहत संचालित की जाएंगी और उसमें रामलीला, रामचरितमानस का पाठ, वैदिक मंत्रोच्चार, पेंटिंग और मुखौटा बनाना आदि गतिविधियां शामिल होंगी।
प्रश्न उठता है कि क्या यह निर्णय संविधान के प्रावधान के अनुरूप है?
अगर हम संविधान की धारा 28 की तरफ फिर लौटें तो पाते हैं कि वह इस मामले में बिल्कुल साफ है और किसी भी किस्म की अस्पष्टता नहीं छोड़ती, जहां तक उस पर अमल करने का सवाल है।
‘‘कोई भी व्यक्ति जो राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या उसके द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त संस्थान से शिक्षा ग्रहण कर रहा है उसे उपरोक्त शिक्षा संस्थान में प्रदान की जाने वाली धार्मिक शिक्षा में सहभागी होने की आवश्यकता नहीं है या उसे ऐसे संस्थानों में संचालित की जाने वाली धार्मिक पूजा में भी शामिल होने की जरूरत नहीं है, जब तक ऐसा व्यक्ति अल्पवयस्क हो और उसके अभिभावक ने सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों को लेकर अपनी सहमति प्रदान की हो।’’
वैसे धार्मिक शिक्षा से हमारे क्या मायने हैं?
यहां धार्मिक शिक्षा का सीमित मतलब है। इसके मायने यही हैं कि रूढ़ि/प्रथा, पूजा के तरीके, रस्म, अनुष्ठान, धार्मिक संस्कार आदि की शिक्षा राज्य द्वारा वित्तपोषित शिक्षा संस्थानों में नहीं दी जा सकती। स्थूल रूप में देखें तों सरकार के इस ऐलान को लेकर तीन सवाल खड़े होते हैं:
– एक, वह संविधान की धारा 28 के बिल्कुल खिलाफ पड़ता है और इस तरह संवैधानिक सिद्धांतों और मूल्यों का निषेध है।
– दो, एक ऐसे राज्य में जहां अलग अलग आस्थाओं से जुड़े लोग सदियां से साथ रहते आए हों, वहां बहुसंख्यकों के धर्म को वरीयता प्रदान करना – सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ तथा गिने-चुने नास्तिक छात्रों के साथ खुल्लमखुल्ला भेदभाव का मामला है।
– तीसरे, ऐसी कार्यशालाएं इन धार्मिक ग्रंथों में गहरे रूप में नज़र आने वाले जेण्डर और जाति भेदभावों को नयी मजबूती प्रदान करेंगी।
वैसे शिक्षा विभाग अगर विद्यार्थियों के लिए गर्मियों में कार्यशालाएं चलाना चाहता है तो यह बेहतर होता कि उसका फोकस संविधान पर होता। छात्र-छात्राओं को संविधान के अलग पहलुओं से, उसके इतिहास से और उसके बुनियादी सिद्धांतों से अवगत कराया जाता, उन्हें यह बताया जाता कि मुल्क के बंटवारे के वक्त़ जब धर्म के नाम पर राष्ट्र बनाने का उन्माद उरूज पर था – जिसके चलते अलग मुल्क भी बन गया – उस वक्त़ हमारे संविधान निर्माताओं ने किस तरह एक भविष्य के भारत का नक्शा देखाा और यह तय किया कि स्वाधीन भारत का निर्माण धर्मनिरपेक्षता के रास्तों पर होगा, जहां किसी के साथ धर्म, जाति, नस्ल आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
शिक्षा में धर्म का घालमेल
अगर हम ठहर कर देखने की कोशिश करें तो योगी सरकार के इस आनन-फानन कदम में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। ध्यान रहे कि केन्द्र और तमाम राज्यों में भाजपा के सत्तासीन होने के बाद यही समा बना है कि तमाम रास्तों और तरीकों से धर्मविशेष को – हिन्दू धर्म को – प्रत्यक्ष तरीके से या परोक्ष रूप में अधिकाधिक बढ़ावा दिया जाए।
– हम यूपी के पड़ोसी सूबा मध्य प्रदेश की इस ख़बर पर गौर कर सकते हैं जहां मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों में हिन्दू धार्मिक पाठों को पाठयक्रम का हिस्सा बनाया गया।
– राजस्थान में भाजपा के उसके पहले के कार्यकाल में उसका एक विवादास्पद कदम सुर्खियां बना था जब उसकी तरफ से संतों-महात्माओं के सरकारी स्कूलों में प्रवचनों की योजना बनायी गयी थी।
– यह बात भी अब इतिहास हो चुकी है कि किस तरह हरियाणा सरकार ने प्रधानमंत्री मोदी के पहले कार्यकाल के शुरुआती दिनों में ही भगवदगीता को स्कूली पाठयक्रम का हिस्सा बनाया था।
वैसे अगर हम विस्तार में जाकर यूपी सरकार के इस कदम की समीक्षा करें – जिसके तहत गर्मियों की छुट्टियों में सरकारी स्कूलों में रामायण और वेदों पर केन्द्रित कार्यशालाएं चलाने की योजना बनी है – तो कुछ बातें अधिक साफ होती हैं:
धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन
हर कोई जानता है कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को बुनियादी विशिष्टता मानता है (देखें, एसआर बोम्मई बनाम भारत सरकार, 1994)। सरकारी स्कूलों में रामचरितमानस और वेदों को अनिवार्य बनाना – जो हिन्दू धार्मिक ग्रंथ हैं – एक तरह से खास धर्म का प्रचार करना है। यह कदम संविधान की धारा 28/1 का उल्लंघन करता है, जो सरकारी स्कूलों मे धार्मिक शिक्षा को प्रतिबंधित करती है। अरूणा रॉय बनाम संघीय सरकार (2002) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि धर्मनिरपेक्ष संदर्भ में धर्मो का तुलनात्मक अध्ययन संभव है लेकिन एक खास धर्म को प्रोत्साहित करना असंवैधानिक है।
जाति और जेण्डर भेदभाव को बढ़ावा
अगर हम धार्मिक ग्रंथों की बारीकी से पड़ताल करें तो वहां हमें ऐसी बातें मिलती है जो शूद्रों और स्त्रियों को अपमानित करती हैं। तय बात है कि ऐसी पंक्तियां संविधान की धारा 14 (कानून के सामने समानता), संविधान की धारा 15 (भेदभाव का उन्मूलन) और धारा 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) का विरोध करती हैं। ऐसे पाठों को स्कूलों में बढ़ावा देना, न केवल अनुसूचित तबकाों और स्त्रिायों के अधिकारों का उल्लंघन करता है बल्कि सामाजिक समानता को भी कमजोर करता है।
वैज्ञानिक चिन्तन पर हमला
संविधान की धारा 51ए (एच) हर नागरिक का यह कर्तव्य मानती है कि वह वैज्ञानिक चिन्तन, मानवतावाद, खोज की प्रवृत्ति और सुधार को बढ़ावा दे। अगर हम स्कूलों में धार्मिक किताबों को या मिथकीय ग्रंथों को प्रोत्साहित करें तो वह न केवल तार्किक चिन्तन और वैज्ञानिक खोज को कमजोर कर देगा। याद रहे सन्तोष कुमार बनाम सचिव, भारत का मानव संसाधान विकास मंत्रालय मामले में (1994) आला अदालत ने यही कहा कि शिक्षा को चाहिए कि वह वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन को – न कि धार्मिक अंधश्रद्धा को – बढ़ावा दे।
अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन
संविधान की धारा 29 और 30 अल्पसंख्यकों को यह अधिकार प्रदान करती है कि वह अपनी संस्कृति और शैक्षिक स्वायत्तता की रक्षा करे। अगर आप रामचरितमानस जैसी हिन्दू केन्द्रित रचना को मुस्लिम, ईसाई, सिख और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों पर लादते हैं, तो यह उनके सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों का हनन होगा (सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात सरकार, 1974)।
प्रशासकीय गलती को अंजाम देना
इस गलती को यूं समझा जा सकता है कि इस मामले में यूपी सरकार के संस्कृति विभाग के मातहत एक संस्थान द्वारा राज्य सरकार के शिक्षा विभाग के अधिकारियों के लिए आदेश जारी किया गया, यह प्रशासकीय शिष्टाचार का उल्लंघन है। अगर हम वर्ष 2006 के गंगाधरन बनाम केरल सरकार मुकदमे को देखें तो उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया था कि प्रशासकीय कामों में स्थापित शिष्टाचार पर ध्यान देना ही होगा। यूपी सरकार का उपरोक्त आदेश शिक्षा विभाग के सलाह के बिना जारी किया गया है, वह गैरकानूनी है और मनमाना है।
इसके अलावा यह भी छोटी बात नहीं कि वह सरकारी पैसे के दुरुपयोग को आसान बनाता है। याद रहे संविधान की धारा 27 करदाताओं के पैसे को किसी खास धर्म को बढ़ावा देने का विरोध करती है। ध्यान रहे प्रफुल्ल गोराडिया बनाम संघीय सरकार (2011) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी पैसे को हिन्दू धार्मिक मूल्यों के प्रशिक्षण या सामग्री के मामले में उपयोग का विरोध किया था। ऐसे कदम संवैधानिक नैतिकता का भी विरोध करते हैं।
संविधान की हिफाजत करते अदालती हस्तक्षेप
इस बात पर भी जोर देना जरूरी है कि संविधान के इन उसूलों के अलावा अदालतों के ऐसे कई हस्तक्षेप हैं या फैसले हैं, जो इस बात के प्रति स्पष्ट हैं कि स्कूलों में धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए।
जबलपुर, मध्य प्रदेश के वकील विनायक शाह द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर इस याचिका पर गौर करें, जिसके तहत केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत प्रार्थनाओं की प्रस्तुति को चुनौती दी गयी है। उनके द्वारा दायर याचिका के मुताबिक, ऐसा करना ‘सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त स्कूलों में धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा देना है’ जो संविधान की धारा 28/3 का उल्लंघन है, जो बताती है कि राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या वित्तीय सहायता प्राप्त शिक्षा संस्थान में शिक्षा ग्रहण कर रहे छात्र के लिए संस्थान के अंदर या उससे जुड़े परिसर में किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता बशर्ते वह अल्पवयस्क हो और उसके अभिभावकों ने इसके प्रति सहमति प्रदान की हो।
यह याचिका मूलतः तीन मुद्दों के इर्द-गिर्द केंद्रित है:
– एक, यह उचित नहीं है कि सभी धर्मों के बच्चों को, जिनमें ऐसे परिवार भी होंगे, जो नास्तिक हों या अज्ञेयवादी हो, हिन्दू प्रार्थना गाने के लिए मजबूर किया जाए।
– दूसरे, इस बात को मददेनज़र रखते हुए कि सरकार द्वारा वित्तपोषित स्कूलों में धार्मिक शिक्षा पर संवैधानिक प्रतिबंध है, देश भर में फैले 1,100 केन्द्रीय विद्यालयों में हर दिन ऐसी प्रार्थना सभाओं का आयोजन न किया जाए।
– तीसरे, प्रार्थना गीत एक तरह से छात्रों में वैज्ञानिक चिन्तन के विकास को बाधित करते हैं, जो एक तरह से भारत के संविधान की धारा 51(ए) का उल्लंघन है, जो कहती है कि हर नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक चिन्तन, मानवता, खोज एवं सुधार की प्रवृत्ति को विकसित करे।
इस मुद्दे की व्यापक अहमियत देखते हुए न्यायमूर्ति रोहिन्टन नरीमन और न्यायमूर्ति विनीत सरण की द्विसदस्यीय पीठ ने इस मामले को भारत के मुख्य न्यायाधीश को संदर्भित किया था ताकि समूची संवैधानिक पीठ इस मामले की पड़तााल करे, जिसमें कम से कम पांच सदस्य शामिल हों।
हम सूबा महाराष्ट्र के उस मामले पर भी गौर कर सकते हैं जब एक शिक्षक संजय सालवे ने, जो नाशिक के एक स्कूल में अध्यापनरत थे, स्कूल के प्रबंधन के खिलाफ अकेले एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी, जिनकी वेतन में बढ़ोत्तरी को स्कूल ने रोका था क्योंकि वह स्कूल की प्रार्थना के वक्त़ हाथ नहीं जोड़ते थे। इस मामले को लेकर सालवे ने अदालत की शरण ली थी और उनकी अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की मांग की थी। उनका कहना था कि स्कूलों में होने वाली प्रार्थना के वक्त़ उन्हें खड़े होने और हाथ जोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रार्थना पढ़ना एक तरह से धार्मिक शिक्षा प्रदान करना है, जो संविधान की धारा 28(1) का उल्लंघन है।
मुंबई उच्च न्यायालय की द्विसदस्यीय पीठ ने शिक्षक के पक्ष में निर्णय सुनाया था और कहा था कि ‘’प्रार्थना के वक्त हाथ जोड़ने के लिए शिक्षक को मजबूर करना बुनियादी अधिकारों का हनन होगा।‘’
हम चाहें तो नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एण्ड टेनिंग (एनसीईआरटी) द्वारा तैयार उस मैन्युअल पर भी गौर सकते हैं जिसमें उसने अल्पसंख्यक समुदायों की जरूरतों को लेकर विशेष तरीके से संवेदीकृत करने पर जोर था।
क्या नैतिक शिक्षा के नाम पर धार्मिक शिक्षा मुमकिन?
सूबा उत्तर प्रदेश में सत्तासीन योगी सरकार के ताज़ा आदेश के मद्देनज़र इस मसले पर भी गौर करना जरूरी है कि क्या कोई शिक्षा संस्थान अपने छात्रों को नैतिक शिक्षा के नाम पर धार्मिक शिक्षा के लिए मजबूर कर सकता है? यह पूछने की वजह यही है कि अक्सर छात्रों को ‘मूल्यपरक’ शिक्षा देने के नाम पर धार्मिक शिक्षा प्रदान की जाती है।
गौरतलब है कि संविधान की मसविदा कमेटी – जिसकी अध्यक्षता डॉ. अम्बेडकर कर रहे थे – इस संभावना से वाकिफ थी और कमेटी ने इस बात को स्पष्ट किया था कि ऐसा कोई भी कदम संविधान की धारा 19 का उल्लंघन होगा, जो हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है और उसका उल्लंघन, एक तरह से संविधान के आर्टिकल 25(1) का उल्लंघन होगा जो कहती है कि:
सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य और इस हिस्से के अन्य प्रावधानों को देखते हुए, सभी व्यक्ति समान रूप से विवेक की स्वतंत्रता के हकदार हैं, और जिन्हें अपने धर्म के स्वीकार, आचरण और प्रसार को अधिकार होगा।
अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो हम संविधान के इन विभिन्न अनुच्छेदों के प्रगतिशील स्वरूप को देख सकते हैं, जिनको संविधान समिति के उन सदस्यों ने ही परिभाषित किया जिनका बहुमत खुद आस्तिक था और उनमें से शायद ही कोई घोषित नास्तिक था- जो इस बात के लिए प्रतिबद्ध थे कि किसी भी सूरत में राज्य द्वारा संचालित स्कूलों में किसी भी रूप में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। जाहिर है बंटवारे की विभीषिका को अनुभव करने के बाद, जिसमें धर्म को राष्ट्रीयता का आधार बनाने की बात जनता के एक हिस्से को प्रभावित की थी, वह इस बात की भविष्यवाणी कर सकते थे कि धर्म को निजी दायरों तक सीमित क्यों रखना चाहिए।
अंततः क्या योगी सरकार, संविधान के इन प्रावधानों तथा इन अहम अदालती हस्तक्षेपों के मद्देनज़र- रामायण और वैदिक कार्यशालाओं को सरकारी स्कूलों में आयोजित करने के अपने विवादास्पद आदेश पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार होगी? या संवैधानिक सिद्धांतों के क्षरण को आसान करने वाले इस कदम को लेकर आला अदालत खुद हस्तक्षेप के लिए प्रेरित होगी!
बात जो भी हो संविधान को बचाने की लड़ाई अनथक जारी रहेगी।