पृथ्वी सभी इंसानों की ज़रूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान करती है, लेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं।
महात्मा गाँधी
भ्रष्ट सत्ता और लालची कॉर्पोरेट का गठजोड़ खतरनाक होता है और जब ये दोनों मिलकर प्राकृतिक संसाधनों के लिए पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करते हैं तो इसका परिणाम बहुत घातक होता है। जंगल हमारी धरती के फेफड़े हैं, ये इंसानों द्वारा पैदा किये गये कार्बन को सोखकर ग्लोबल वार्मिंग को कम करते हैं। इन्हीं के बदौलत हमें साफ़ हवा मिलती है जो अब भी काफी हद तक मुफ्त और सबकी पहुँच में है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन की मारामारी ने तो हमें समझा ही दिया है कि बिना ऑक्सीजन के कोई भी इंसान बिन पानी के मछली की तरह है। इन सबके बावजूद विकास के नाम पर इंसानी लालच का आत्मघाती खेल मुसलसल जारी है।
पिछले कुछ वर्षों से ब्राजील में अमेज़न के वर्षा वनों के साथ जो खेल खेला जा रहा उसे हम देख ही रहे हैं। ब्राजील के दक्षिणपंथी राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो पर विकास के नाम पर अमेज़न वर्षा वन को नष्ट करने का आरोप है। कुछ ऐसा ही खेल भारत के बुंदेलखंड में भी खेला जा रहा है जहां बदकिस्मती से जंगल की जमीन में हीरे का भंडार खोज लिया गया है। अब इस हीरे के भंडार को सत्ता और कारपोरेट दोनों मिलकर हासिल करना चाहते हैं फिर चाहे इसकी कीमत एक बसा-बसाया जंगल ही क्यों न हो।
क्या है ‘प्रोजेक्ट बकस्वाहा’?
“बकस्वाहा” मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले में एक छोटा सा कस्बा है जो अपने जंगल के लिए मशहूर रहा है। बकस्वाहा के इसी जंगल में 3.42 करोड़ कैरेट हीरे दबे होने का अनुमान लगाया गया है, जिसे देश का सबसे बड़ा हीरा भंडार बताया जा रहा है साथ ही इसकी गुणवत्ता भी बहुत अच्छी बतायी जा रही है। इसी हीरे के भंडार को निकालने के लिए बकस्वाहा के करीब 382.131 हेक्टेयर जंगल क्षेत्र को खत्म करने की योजना है और सरकारी अनुमान के मुताबिक़ इसमें करीब 2 लाख 16 हजार पेड़ काटे जाएंगें। जाहिर है वास्तविक रूप में यह संख्या कहीं अधिक हो सकती है, लेकिन यह सिर्फ पेड़ों की कटाई का ही मसला नहीं है बल्कि इससे एक जंगल का ईकोसिस्टम भी खत्म हो जाएगा, जिसमें इस जंगल में रहने वाले हजारों जानवर, पक्षी, औषधीय पेड़, पौधे और अन्य जीव शामिल हैं। किसी भी जंगल के ईकोसिस्टम को बनने में हजारों साल लग जाते हैं।
गौरतलब है कि मई 2017 में मध्यप्रदेश के जियोलॉजी एंड माइनिंग विभाग और हीरा कंपनी रियो टिन्टो द्वारा पेश की गयी रिपोर्ट में बताया गया था कि बकस्वाहा के जंगल में तेंदुआ, बाज, भालू, बारहसिंगा, हिरण, मोर जैसे वन्यजीव पाये जाते हैं लेकिन अब बताया जा रहा है कि इस जंगल में संरक्षित वन्यजीव नहीं हैं।
लंबे समय से बुंदेलखंड गरीबी और पलायन का शिकार रहा है, यहां की हरियाली और जलस्रोत पहले से ही नाजुक स्थिति में पहुंच चुकी है, लेकिन अब इस इलाके के बचे-खुचे हरे हिस्से पर भी इस प्रोजेक्ट की नजर लग गयी है। बकस्वाहा क्षेत्र की ज़मीन में दफन हीरा ही उसका दुश्मन बन चुका है। हीरे के चक्कर में अगर जंगल नष्ट किया जाता है तो पहले से पानी की कमी की मार झेल रहे बुंदेलखंड के इस क्षेत्र में पानी की भीषण समस्या और गहरा सकती है। इसका असर पूरे बुंदेलखंड इलाके के ईकोसिस्टम पर असर पड़ना तय है। हीरा निकालने के लिए खदान को करीब 1100 फीट गहरा खोदा जाएगा जिससे आसपास के इलाके का भूमिगत जलस्तर प्रभावित हो सकता है। साथ ही इस प्रोजेक्ट में रोजाना करीब 1.60 करोड़ लीटर पानी की जरूरत होगी जिसे ज़मीन से निकाला जाएगा, जिससे बुंदेलखंड जैसा पहले से ही सूखाग्रस्त क्षेत्र बंजर बन सकता है। इसी प्रकार से बकस्वाहा के जंगल पर आसपास के गावों के एक हजार से ज्यादा परिवार अपने जीविकोपार्जन के लिए जंगल पर निर्भर हैं, जिनमें से अधिकतर आदिवासी हैं। अगर जंगल नष्ट किया जाता है तो इन परिवारों का जीविकोपार्जन भी पूरी तरह से प्रभावित होगा। फिलहाल, प्रोजेक्ट बकस्वाहा को राज्य सरकार से हरी झंडी मिल चुकी है और केंद्र सरकार से मंजूरी के बाद “विकास” शुरू हो जाएगा।
सत्ता व कंपनी की गठजोड़ और “उच्च कोटि” के हीरे
अक्टूबर 2009 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बक्सवाहा में ऑस्ट्रेलिया की हीरा कंपनी रियो टिन्टो के हीरा सैम्पल प्रोसेसिंग प्लांट का उद्घाटन करते हुए कहा था कि जल्दी ही इस क्षेत्र में उच्च कोटि का हीरा मिलने की संभावना है, जिससे क्षेत्र का विकास होगा, आर्थिक समृद्धि आएगी और साथ ही स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा।
दरअसल, 2004 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा बुंदेलखंड क्षेत्र में हीरा की खोज के लिए सर्वे का काम रियो टिंटो कंपनी को दिया गया, जिसके तहत कंपनी को एक्सप्लोर करने का प्रॉसपेक्टिंग लाइसेंस दिया गया था। उस दौरान स्थानीय स्तर पर इस प्रोजेक्ट और कंपनी का भी काफी विरोध हुआ था। बाद में रियो टिंटो ने खनन लीज़ के लिए आवेदन किया था, लेकिन मई 2017 में रियो टिंटो ने अचानक यहां अपना काम बंद कर दिया और कंपनी इस पूरी प्रक्रिया से अलग हो गयी।
इसके बाद 2019 में आदित्य बिड़ला समूह की कंपनी एसल माइनिंग ऐंड इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड ने बकस्वाहा में माइनिंग के लिए सबसे ज्यादा बोली लगायी, जिसके बाद मध्यप्रदेश सरकार द्वारा इस कंपनी को जंगल 50 साल की माइनिंग लीज़ पर दिया गया है। स्थानीय अखबारों के अनुसार कंपनी ने कुल 382.131 हेक्टेयर का जंगल क्षेत्र मांगा है, जिसके एक हिस्से का उपयोग खनन करने और प्रोसेस के दौरान खदानों से निकला मलबा डंप करने में किया जाएगा। बताया जा रहा है कि है एक बार ये प्रोजेक्ट शुरू हो गया तो ये एशिया का सबसे बड़ा डायमंड माइन्स बन सकता है।
जंगल ज़मीन का निजीकरण!
मध्यप्रदेश में जंगल के जमीन के साथ एक और खेल चल रहा है। भारत वन स्थिति रिपोर्ट, 2019 के अनुसार मध्य प्रदेश की कुल भूमि का 25 प्रतिशत हिस्सा जंगलों से घिरा हुआ है। इस लिहाज से मध्यप्रदेश में सबसे ज़्यादा जंगल क्षेत्र हैं, लेकिन राज्य सरकार इनके एक बड़े हिस्से को निजी कंपनियों को देने की तैयारी कर चुकी है। इस सम्बन्ध में प्रदेश सरकार द्वारा अक्टूबर 2020 में “वनों की स्थिति को सुधारने” के नाम पर एक योजना पेश की जा चुकी है, जिसके तहत सूबे के करीब 40 फीसदी “बिगड़े” वन क्षेत्र को पीपीपी मॉडल के तहत निजी कंपनियों को देने की तैयारी है, जिसके तहत निजी कंपनियां वनीकरण करके जंगल के रूप में विकसित करेंगीं।
विरोध की चिंगारी
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बक्सवाहा जंगल में कटने वाले पेड़ों के एवज़ में क्षतिपूर्ति में एक के मुकाबले चार पेड़ लगाने की बात कर रहे हैं, लेकिन खुद शिवराज सरकार ने अभी तक जितने भी वनीकरण किये हैं, वो बस हवाई साबित हुए हैं। साथ ही हम सब जानते हैं कि एक जंगल की भरपाई पौधे लगाकर तो नहीं की जा सकती है, जंगल तो सदियों में बनते हैं। इसीलिए “प्रोजेक्ट बक्सवाहा” के विरोध का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। खास बात यह है कि इस मुद्दे के दायरे को बड़ा बनाने में युवाओं और सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है, स्थानीय युवा समूह बकस्वाहा के मुद्दे को ट्विटर पर कई बार ट्रेंड करा चुके हैं जिससे देश भर के लोग और समूह इससे परिचित हुए हैं और जुड़े हैं।
साथ ही इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका भी दायर की गयी है। शायद विरोध के दायरे को बढ़ता देखते हुए प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा को सामने आकर कहना पड़ा कि “बकस्वाहा प्रोजेक्ट का विरोध करने वाले लोग वामपंथी हैं जो विकास में रोड़ा पैदा कर रहे हैं”। इधर लॉकडाउन हटने के बाद से कुछ जमीनी कार्यवाही भी शुरू हुई हैं। इसी कड़ी में 1 से 4 जुलाई के दौरान युवाओं द्वारा दमोह शहर से बकस्वाहा के जंगल तक पदयात्रा निकाली गयी है, जिसका मकसद स्थानीय स्तर पर लोगों के बीच इस मुद्दे को पहुंचाते हुए उनका समर्थन जुटाना था।
इस मामले में नागरिक उपभोक्ता मंच द्वारा राष्ट्रीय हरित अधिकरण भोपाल में भी एक याचिका दायर की गयी थी, जिस पर बीती 2 जुलाई को सुनवाई करते हुए एनजीटी ने कहा है कि बिना वन विभाग की अनुमति के बक्सवाहा के जंगलों में एक भी पेड़ न काटा जाए। साथ ही एनजीटी ने बक्सवाहा मामले में फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट, इंडियन फॉरेस्ट एक्ट तथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये निर्देशों के पालन करने का भी निर्देश दिया है। एनजीटी द्वारा इस मामले में अगली सुनवाई 27 अगस्त को तय की गयी है।
बहरहाल, आज जब देश और दुनिया क्लाइमेट चेंज (मौसम में बदलाव) के रूप में अब तक का सबसे बड़ा पर्यावरणीय संकट झेल रहे हैं, प्रोजेक्ट बकस्वाहा जैसी परियोजनाओं का व्यापक देशव्यापी विरोध जरूरी है। साथ ही इसके बरअक्स हवा, पानी, जंगल और जानवरों को बचाने वाली परियोजना चलाये जाने की जरूरत है जो दरअसल इंसानों को बचाने की परियोजना होगी।
(जावेद अनीस भोपाल स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)