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प्रो. विद्यार्थी चटर्जी |
बहरहाल, एक बार फिर चंद्रेश पर लौटते हैं। उसने एक दिन मुझसे पूछा कि क्या मैं इस जज़ीरे के आखिरी छोर पर उसकी खरीदी एक प्रॉपर्टी देखना पसंद करूंगा। उसने मुझे हालांकि चेतावनी भी दी कि वहां जाने वाली सड़क अभी बन ही रही है और हो सकता है कि यात्रा काफी थकाऊ हो। मैं तैयार हो गया और हम तीन यानी चंद्रेश, मैं, उसकी बहन निकल पड़े। बहुत जल्द मुझे अहसास हो गया कि रास्ता काफी कठिन रहने वाला है और हमें दिन ढलने से पहले शहर तक लौट कर भी आना है। हमारी गाड़ी इधर-उधर डोल रही थी। सड़क इतनी खस्ताहाल थी कि गाड़ी की चाल घोंघे की तरह थी। इसके अलावा हमें और देर इसलिए भी हो रही थी क्योंकि रास्ते में कुछ लोग हाथ मार कर हमें रुकवा रहे थे और चंद्रेश उन्हें गाड़ी रोक कर बैठा ले रहा था। ये स्थानीय लोग थे जो चंद्रेश को जानते थे। अपना गांव आते ही वे उतर जाते। हमने सफर में कई गांव, खेत और मस्जिदों को पार किया। लोग अपने-अपने काम में जुटे थे। ये सब गरीब और मेहनतकश लोग थे जिनका इस देश के सम्पन्न हिस्से स्टोन टाउन से कोई लेना-देना नहीं था। दोनों में भारी अंतर था।
काफी राहत मिली जब मैं प्रॉपर्टी के मुख्य द्वार पर उतरा। चारों ओर पेड़-पौधे और झाडि़यां थीं। तमाम किस्म के फल और फूल इस जगह की सुंदरता को बढ़ा रहे थे। पिछली इमारत गिरा कर एक आधुनिक पर्यटन रिजॉर्ट यहां बनाया जा रहा था जिससे चंद्रेश को उम्मीद थी कि वह कई सैलानियों को आकर्षित कर सकेगा। बस एक समस्या सड़क की थी, लेकिन उसका कहना था कि रिजॉर्ट के उद्घाटन से पहले सड़क भी बनकर तैयार हो जाएगी। हिंद महासागर का पानी हमें तकरीबन छू रहा था। इस दौरान नीचे पड़े मलबे में अचानक मेरी नजर कुछ टाइलों पर पड़ी जिन पर खुदा था, ‘बंगलोर टाइल फैक्टरी, 1895’। इसका मतलब यह हुआ कि एक वक्त था जब जैंजि़बार के लोग अपनी जरूरत का तकरीबन हर सामान भारत से ही खरीदते थे। अब भी हालांकि यहां के कारोबारियों की आदत में यह शुमार है कि वे बंबई की उड़ान पकड़ते हैं, जहाज पर माल लदवाते हैं और काम निपटा कर वापस यहां आ जाते हैं।
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आम तौर पर लौंग के लिए प्रसिद्ध जैंजिबार में तितलियां भी पाली जाती हैं |
इस सफर में मैं इतना थक गया था कि होटल लौटने पर हल्का-फुल्का कुछ खाकर सोने चला गया। अगले कई घंटों तक मैं ठूंठ की तरह बिस्तर पर पड़ा रहा, लेकिन जब सुबह आंख खुली तो मैं बिल्कुल ताज़ादम था। पिछली रात होटल के दरवाजे पर चंद्रेश ने यह कहते हुए कि दार-एस-सलाम में रहने वाली उसकी मां ने मेरे लिए एक तोहफा भिजवाया है, उसने मुझे कागज का एक पैकेट दिया। पैकेट खोलते ही मेरे हाथों में दुनिया का वो सबसे रंगीन कपड़ा था जो आज तक मैंने देखा था। इसी को अफ्रीकी शर्ट कहते हैं। ऐसा लगता था जैसे किसी ने उस पर रंगों और चित्रों की जंग छेड़ दी हो। भारत में सार्वजनिक तौर पर ऐसे कपड़े पहनने का साहस मेरे पास नहीं है। लेकिन मुझे अक्सर उस महिला की विनम्रता याद आती रहती है। वक्त कम था वरना मैं जरूर दार तक जाकर उनका शुक्रिया अदा कर आता।
जाहिर है भारतीय पहनावे के हिसाब से तो यह शर्ट काफी भड़कीली थी, लेकिन अफ्रीकी स्त्रियों और पुरुषों के बीच ढीले-ढाले रंगीन कपड़ों या आकर्षक जूते-चप्पलों के साथ और रंगीन चश्मों के साथ मेल खाने वाले कपड़ों का चलन है। यहां तक कि जैंजि़बार का सबसे गरीब आदमी भी जानता है कि अपने इस विशिष्ट परिधान में वह सबसे बेहतर कैसे दिख सकता है। शुक्रवार की नमाज के वक्त आप उन्हें देखिए तो वे अपने सबसे अच्छे कपड़ों में आपको मिलेंगे। हफ्ते के बाकी दिन भी, खासकर नमाज के वक्त वे इतने ही खूबसूरत दिखते हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि सिर्फ मस्जिद या उसके आस-पड़ोस में वे बन-ठन कर निकलते हैं। बाज़ारों में, सड़कों पर और समुद्र के पास वे आपको अपने सबसे बेहतरीन परिधानों में दिख जाएंगे। गरीबों को आप उनकी कातर नजरों से पहचान सकते हैं, लेकिन उनकी चाल-ढाल और दूसरी शारीरिक भंगिमाओं में भी एक स्वाभाविक आकर्षण होता है।
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बहुरंगी अफ्रीकी शर्ट में नेलसन मंडेला |
कहना मुश्किल है कि इन तमाम चीजों का उस ऐतिहासिक सच से कोई लेना-देना हो सकता है कि जैंजि़बार सदियों से अपनी किस्मत की तलाश में सरजमीं छोड़कर निकल पड़े तमाम संस्कृतियों और नस्लों के जहाजियों का मिलन स्थल रहा है- अफ्रीकी, अरबी, भारतीय, चीनी, यूरोपीय और अन्य। आने वाली सभ्यता की हर लहर के साथ विचार, भाषा, खानपान, कपड़े, कारोबार और नवाचार की विशिष्ट शैलियां और प्रवृत्तियां यहां आई हैं। अलग-अलग नस्ल के इंसानों के बीच बनते रिश्तों से जो बच्चे पैदा हुए हैं वे बड़े रंगीन और आत्मविश्वास से भरे हुए दिखते है। भारत में शायद ज्यादा तड़क-भड़क वाले कपड़े सामाजिक या पारिवारिक आयोजन में पहनने में लोगों को झेंप हो, लेकिन सामान्यतः अफ्रीकियों और खास तौर से जैंजि़बारियों में कपड़ों को लेकर कोई वर्जना नहीं है। यहां का सम्पन्न तबका अगर औपचारिक यूरोपीय परिधान या अनौपचारिक कपड़ों में घरेलू सा महसूस करता है, तो गरीब-गुरबा जनता भी अपनी जमीन से जुड़ने के लिए ऐसे कपड़े पहनती है जिनसे उनकी मिट्टी की खुशबू आती है।
21
जुलाई 2006
को महोत्सव में आए हम प्रतिनिधियों को अलग-अलग किस्म के वाहनों में बैठाकर मकुनदीची गांव में ले जाया गया। हर साल यहां पारंपरिक नववर्ष या ‘
वाका कोगवा’ (
Mwaka Kogwa)
का आगमन मनाने के लिए जैंजि़बार का सबसे रोमांचक पारंपरिक कर्मकाण्ड किया जाता है। हम यहां एक ऐसे कर्मकाण्ड के गवाह बने जो जितना खूबसूरत था उतना ही अधिक भयावह। आसपास के गांवों के ढेर सारे पुरुष अपने दुश्मन गांवों के पुरुषों को केले के तने से बेरहमी से पीटे जा रहे थे। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि पिछले साल अधूरी रह गई शिकायतों और शिकवों से निजात पाई जा सके। एक ओर जहां पुरुष एक-दूसरे पर सनक की हद तक हमलावर थे,
वहीं स्थानीय महिलाएं साथ जुटकर गीत गा रही थीं और नुत्य कर रही थीं।
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शिकवे-शिकायतों से यहां ऐसे निजात पाई जाती है |
गाइड ने हमें बताया कि दिन ढलने के साथ यहां तस्वीर और भयावह होती जाएगी। उसने कहा कि अंधेरा होने तक रुकना ठीक नहीं है क्योंकि उस वक्त कर्मकाण्ड के तौर पर विशेष रूप से तैयार की गई एक झोपड़ी में आग लगाई जाती है। दरअसल, दोपहर ढलने के बाद वास्तव में ऐसा लगने लगा कि चीजें हाथ से निकलती जा रही हैं। कई नौजवान ऐसा लग रहा था कि बस दूसरों की जान ही ले लेंगे। वे ऐसे कृत्य कर रहे थे जिन्हें उत्सव मनाने की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता। हमारे निर्णायक मंडल के तंजानियाई सदस्य सिरिल कोंगा भी साथ थे, तो मैंने उन्हीं से पूछा कि वे मुझे महिलाओं और पुरुषों का गाया गीत अनुवाद करके समझाएं। उन्होंने बताया कि उनके गीत का अर्थ यह है कि जब अंधेरा गांव को अपने आगोश में ले लेगा, तो वे एक-दूसरे के साथ ऐसे कृत्य करेंगे जो सबसे भयावह और बर्बर होंगे। कोंगा एक कैथोलिक हैं और यह मानते हुए कि उन्हें ईश्वर से डर लगता है, उन्होंने स्वीकार किया कि वे लोग जो गीत गा रहे हैं, उसके बोल इतने भद्दे हैं जिनका अनुवाद किया जाना संभव नहीं।
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विशेष तौर पर बनाई एक झोंपड़ी में आग लगाने की परंपरा |
बाद में एक स्थानीय व्यक्ति से मुझे पता चला कि नववर्ष की रात कोई भी पुरुष गांव की किसी भी महिला के साथ परस्पर सहमति से संभोग कर सकता है। यह यहां एक परंपरा का हिस्सा था जिस पर गांव के बुजुर्गों समेत गांव के किसी को भी कोई एतराज नहीं होता।
हालांकि, हाल के दिनों में कुछ आधुनिकतावादियों/कट्टरपंथियों के बीच यह धारणा पनपी है कि इस चलन को खत्म किया जाना चाहिए। स्थानीय बाशिंदे ने बताया कि यदि इन विवाहेतर संबंधों से किसी बच्चे का जन्म होता है, तो परिवार और समाज में उसे जन्म देने वाली महिला के अन्य बच्चों के समान ही दर्जा दिया जाता है। मैंने जब उससे पूछा कि क्या यह चलन जैंजि़बार के इस्लाम पूर्व अतीत का अवशेष है, तो उसका कहना था कि यह संभव है, हालांकि पक्के तौर पर वह नहीं कह सकता। (क्रमश:)
(‘वाका कोगवा’ उत्सव का दिलचस्प वीडियो नीचे देखें:)
अच्छा है। उन गीतों के अनुवाद सुनने /पढ़ने का मन हुआ।