गजानन माधव मुक्तिबोध उन गिने चुने कवियों में थे जिन्होंने विज्ञान और फैंटेसी के आधुनिक तथा कलात्मक बिंब और भाव कविता में लिए। उनकी एक कविता ‘मुझे मालूम नहीं’ में मनुष्य की उस असहायता का चित्रण है जिसमें वह यथास्थिति तोड़ नहीं पाता। वह दूसरों के बने नियमों तथा संकेतों से चलता है। उसका स्वयं का सोच दूसरों के सोच पर आधारित होता है। दूसरों का सोच सत्ता के आसपास का चरित्र होता है। सत्ता अपने को स्थापित करने के लिए मनुष्य के सोच का स्थिरीकरण करती है, परन्तु मनुष्य की चेतना कभी-कभी चिंगारी की भांति इस बात का अहसास कराती है कि वह जो सामने का सत्य है उससे आगे भी कुछ है। संवेदनहीन होते व्यक्ति की संवेदना को वह चिंगारी पल भर के लिए जागृत करती है।
कोई फिर कहता
कि देख लो-
देह में तुम्हारे
परमाणु केन्द्रों के आसपास
अपने गोलपथ पर
घूमते हैं अंगारे
घूमते हैं इलेक्ट्रॉन
निज रश्मि-रथ पर
बहुत खुश होता हूँ निज से कि
यद्यपि सांचे में ढ़ली हुई मूर्ति में मजबूत
फिर भी हूँ देवदूत
इलेक्ट्रॉन – रश्मियों में बंधे हुए
अणुओं का पुंजीभूत
एक महाभूत में
ऋण एक राशि का वर्गमूल साक्षात्
ऋण धन तड़ित् की चिनगियों का
आत्मजात
प्रकाश हूँ निज शूल
गणित के नियमों की सरहदें लाँघना
स्वयं के प्रति नित जागना
भयानक अनुभव
फिर भी मैं करता हूँ कोशिश
एक धन एक से
पुन: एक बनाने का यत्न है अविरत!
(संग्रह: चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृष्ठ – 74)
मुक्तिबोध गणित, भौतिकी और नक्षत्र विज्ञान की बात करते-करते क्रूर व्यंग्य करते हैं उन तथाकथित महापण्डितों पर जो अपने अहंकार के मद में रूढ़ियों में जकड़े पड़े हैं। इसी में उनका स्वार्थ पुष्पित पल्लवित होता है। उनका तेज, उनका प्रभामण्डल चकाचौंध तो पैदा कर सकता है पर विकासमान नहीं है और जो अवधारणा विकासवान नहीं है वह कालान्तर में नष्ट हो जाती है। ऐसी अवधारणाएं, ऐसी मान्यताएं, ऐसी क्रियाएं जो रूढ़िग्रस्त हैं अवैज्ञानिक हैं। मुक्तिबोध न केवल विज्ञान तथा वैज्ञानिक शब्दावली का चमत्कृत कर देने की हद तक उपयोग करते हैं बल्कि वैज्ञानिक बिम्बों तथा प्रत्ययों के माध्यम से अवैज्ञानिक सोच की निडर होकर तीव्र भर्त्सना भी करते हैं। मनुष्यता की वकालत समाज की बुराइयों तथा सड़ांघ को मिटाने का आवाहन करते हुए वह कहते हैं:
भागो लपको, पीटो-पीटो
कि पियो दुख का विष
उस मनुष्य-आमिष-आशी की
जिह्वा काटो
पियो कष्ट, खाओ आपत्ति-धतूरा, भागो
विश्व तराशो, देखो तो उस दिशा
बीच सड़क में बड़ा खुला है
एक अंधेरा छेद
एक अंधेरा गोल-गोल
वह निचला-निचला भेद,
जिसके गहरे-गहरे तल में
गहरा गन्दा कीच
उसमें फँसो मनुष्य
घूसो अंधेरे जल में
-गन्दे जल की गैल
स्याह भूत से बनो, सनो तुम
मैन-होल से मनों निकालो मैल
(भूरी भूरी खाक धूल, पृष्ठ 75)
मुक्तिबोध की कविता ‘भविष्यधारा’ की इन पंक्तियों में एक बड़े सीवर का चित्र है। मनुष्यता, मानवीय गुण, परोपकार की भावना, सामाजिक सरोकार लगता है जैसे एक बड़ी सीवर लाइन की तलहटी में समा गये हैं। मूल्यहीन समाज, चारों तरफ फैला गहन अंधकार, अनाचार यह सब कैसे साफ होगा। इसके लिए ‘मैन होल’ से सीवर लाइन में घुसना होगा, भूत की तरह बनना और सनना होगा कीचड़ में तभी मनों मैल निकल पाएगा।
समाज में व्याप्त बुराइयों, असंगतियों, विसंगतियों को आसानी से तो कदापि नहीं मिटाया जा सकता। उसके लिए तो बहुत बड़े प्रयत्न की आवश्यकता है, लगन की आवश्यकता है, इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। महज रोते रहने से ही तो समाज में व्याप्त असमानता और असहजता दूर नहीं हो सकती। उसके लिए पौरुष, सामर्थ्य और मनोबल वांछित है तभी मैल निकाला जा सकता है। यह कार्य इतना आसान नहीं है, इसमें बहुत लोगों को लगना होगा।
उनकी कविताओं में सूक्ष्म और स्थूल वैज्ञानिकता और रूमानीपन साथ-साथ मिलते हैं। कहीं-कहीं कविताएं साधारण सी जिज्ञासा से प्रारंभ होकर गहन रहस्य की सृष्टि भी कर जाती हैं। कहा जा सकता है ये कविताएं निराला की संवेदनशीलता और कबीर के अक्खड़पन का अद्भुत सम्मिश्रण हैं।
मुक्तिबोध की रचनाएं सृजन का विस्फोट हैं। वे सजग चित्रकार की भांति दुनिया का सुंदरतम उकेरना चाहते हैं। वे चाहते हैं उजली-उजली इबारत, मगर अंधेरे बार-बार उनकी राह रोक लेते हैं। अंधेरों के चक्रव्यूह में घिरे वे अभिमन्यु की तरह अकेले ही जूझते हैं अनवरत लगातार। यह युद्ध कभी खत्म नहीं होता, चलता ही रहता है उनके भीतर। वे लड़ते हैं आजीवन क्योंकि उन्हें लगता है कि उन जैसों के हाथ में सच की विरासत है; जिसे उन्हें आने वाले समय को, पीढ़ी को ज्यों का त्यों सौंपना है- ”वे आते होंगे लोग…/ अरे जिनके हाथों में तुम्हें सौंपने ही होंगे/ ये मौन उपेक्षित रत्न/ मात्र तब तक/ केवल तब तक/ तुम छिपा चलो धुरिमान उन्हें तम गुहा तले/ ओ संवेदन मय ज्ञान नाग/ कुन्डली मार तुम दबा रखो/ फूटती रश्मियां।”
”वे आते ही होंगे लोग/ जिन्हें तुम दोगे देना ही होगा पूरा हिसाब/ अपना सबका, मन का, जन का।”
सुविधापरक लोगों ने जिन मूल्यों को फेंक दिया है उसे वे ढूंढना चाहते हैं ताकि व्यवस्था में परिवर्तन हो सके। वे रागात्मक कविताओं का आह्वान करते हैं ताकि जान-बूझ कर फेंके गए रत्नों को ढूंढा जा सके- ”लहराओ लहराओ रागात्मक कविताओं/ झाड़ियों छिपो/ उन श्याम झुरमुटों तले कई/ मिल जाएं कहीं/ फेंके गए रत्न ऐसे/ जो बहुत असुविधा कारक थे/ इसलिए कि उनके किरण सूत्र से होता था/ पट-परिवर्तन, यवनिका पतन/ मन में जग में।”
वे समाज के ब्रह्मदेवों का पर्दाफाश करना चाहते हैं, उनका असली चेहरा दिखाना चाहते हैं। उन नीतियों को बदल देना चाहते हैं, जिनके चलते अमीरों के मुख दीप्त और गरीबों के मुख श्रीहीन नजर आते हैं। जिनकी वासना और लिप्सा विक्षिप्त युवतियों को भी नहीं बख्शती और वे उनकी लिजलिजी वासना को ढोने को विवश हो जाती हैं:
”वह पागल युवती सोयी है/ मैली दरिद्र स्त्री अस्त-व्यस्त/ उसके बिखरे हैं बाल व स्तन है लटका सा/ अनगिनत वासना ग्रस्तों का मन अटका था/ उनमें जो उच्छृंखल विश्रृंखल भी था/ उसने काले पल में इस स्त्री को गर्भ दिया।”
मुक्तिबोध एक समाजचेता रचनाकार हैं। वे अंधेरों से मुंह नहीं फेरते बल्कि अंधेरे की ओर उंगली उठाने का साहस रखते हैं। उसका दुष्परिणाम भी वे जानते हैं क्योंकि अंधेरे के साथी सभी प्रभावशाली लोग हैं फिर भी वे अंधेरे को उजागर करते हैं:
विचित्र प्रोसेशन/ गंभीर क्वीक मार्च कलाखतू वाला जरीदार ड्रेस पहने चमकदार बैंड दल/ बैंड के लोगों के चेहरे/ मिलते हैं मेरे देखे हुओं से/ लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार/ इसी नगर के/ बड़े-बड़े नाम अरे/ कैसे शामिल हो गए इस बैंड दल में। भई वाह! उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण। मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान। यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमा जी उस्ताद।
यह है हमारा, हमारी नैतिकता का असली चेहरा बड़ी-बड़ी बातें करने वाले साहित्यकार, पत्रकार अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए हत्यारों के साथ हो लेते हैं। मुक्तिबोध प्रश्न करते हैं अपने आपसे और अपने बहाने समाज से, हम सबसे। हम सब जो अपनी-अपनी खोल में सिमटे हुए हैं, सबके सब दोषी हैं। मुक्तिबोध की ये पंक्तियां आत्मालोचन करती हैं-
”अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया। बताओ तो किस किसके लिए तुम दौड़ गए। करूणा के दृश्यों से हाथ मुंह मोड़ गए। बन गए पत्थर। बहुत बहुत लिया। दिया बहुत कम। मर गया देश अरे जीवित रह गए तुम।”
और आलोचना के इन्हीं क्षणों में उन्हें महसूस होता है कि कोई है जो उनसे उम्मीदें रखता है। वह अपना अनुभव शिशु उनके सुरक्षित हाथों में सौंपना चाहता है-
”एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर/ मूर्ति की ठठरी/ नाक पर चश्मा हाथ में डंडा/ कंधे पर बोरा, बांह में बच्चा/ आश्चर्य अद्भुद यह शिशु कैसे/ मुस्करा उस द्युति पुरुष ने कहा, तब/ मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था/ संभालना इसको, सुरक्षित रखना।”
और उन्हें लगता है कि अब खतरे उठाने का समय आ गया है। वे संकल्प चाहते हैं देश से, समाज से, खासकर अपने आपको देश और समाज का प्रवक्ता कहने वाले लोगों से- ”अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे/ तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़/ पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार/ तब कहीं देखने मिलेगी बांहें/ जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता अरूण कमल एक।” वे शोषणमुक्त अन्यायरहित समाज चाहते हैं। तमाम अंधेरों को भेदकर एक किरण उतारना चाहते हैं, जो खिला सके उम्मीदों का अरूण कमल। मगर अफसोस तो यह है कि कोई साथ नहीं है। सब रक्तपायी व्यवस्था के साथ नाभिनाल आबद्ध हैं-
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक। चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं। उनके खयाल से यह सब गप है मात्र किवदन्ती। रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल बध्द ये सब लोग नपुंसक भोग शिरा जालों में उलझे।
समाज में व्याप्त अंधेरगर्दी और उससे उत्पन्न आमजन की लाचारी को स्वर देती उनकी कविताएं आमजन के पक्ष में खड़ी है। उनका मानना था कि जनता का भय ही उसकी विषम परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार है, वरना व्यवस्था इतनी ताकतवर नहीं है कि उसे बदला न जा सके। उनका मानना है कि जनता की भूल गलती ही दिल के तख्त पर विराजमान है-
भूल गलती आज बैठी है जिरह बख्तर पहनकर तख्त पर दिल के …खड़ी हैं सिर झुकाए सब कतारें। बेजुबां बेबस सलाम में/ अनगिनत खम्भों व मेहराबों थमे दरबार आम में…
आश्चर्य यह है कि व्यवस्था का वह शहंशाह रेत के ढूह के समान है और उसका जिरहबख्तर मिट्टी का बना है मगर हमारा डर उसे फौलादी बना देता है, हम उसे छूने से, उससे टकराने से डरते हैं। मगर मुक्तिबोध आशा का दामन नहीं छोड़ते, वे स्वप्न देखते हैं कि हममें से ही कोई एक विद्रोह का बीड़ा उठाएगा। वह हमारी ही अनुकृति होगा। हमारे ही हृदय की पुकार होगा- ”हमारी हार का बदला चुकाने आएगा संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर। हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर प्रकट होकर विकट हो जाएगा।”
मुक्तिबोध का रचना जगत चांद का मुंह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल, विपात्र, काठ का सपना, सतह से उठता हुआ आदमी, कामायनी: एक पुनर्विचार, नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, आखिर रचना क्यों, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, एक साहित्यिक की डायरी जैसी रचनाओं से परिपूरित हैं। मुक्तिबोध का सारा का सारा सृजन अंधेरे के खिलाफ उजाले की लड़ाई है। मुक्तिबोध की कविता अंधेरे से दो दो हाथ करने को तत्पर है। उन्हें मालूम है कि उनके अकेले या उनके जैसे चंद लोगों के लिए इस दुनिया को बदल पाना संभव नहीं है बल्कि वे व्यवस्था के जर्जर महल के मलबे में दबकर रह जाएंगे। मगर उन्हें सुकून है कि वे अपने हिस्से का विद्रोह कर पाएंगे, अव्यवस्था के खिलाफ आवाज तो उठाएंगे-
”दु:ख तुम्हें भी है। दुख मुझे भी। हम एक ढहे हुए मकान के नीचे दबे हैं, क्योंकि हम बागी थे। आखिर बुरा क्या हुआ? पुराना महल था। ढहना था। ढह गया।”
मलबे के नीचे दबकर भी वे कोशिश करते हैं, हिम्मत नहीं हारते। वे स्वयं भी कोशिश करते हैं और आशा का संचार भी-
”खण्डहर में दबी हुई अन्य धुकधुकियों। सोचो तो कि स्पन्दन अब पीड़ा भरा उत्तरदायित्व भार हो चला, कोशिश करो। कोशिश करते। जीने की जमीन में गड़कर भी।”
मुक्तिबोध की हर कविता एक आईना है – गोल, तिरछा, चौकोर, लम्बा आईना। उसमें चेहरा या चेहरे देखे जा सकते हैं। कुछ लोग इन आईनों में अपनी सूरत देखने से घबराएंगे और कुछ अपनी निरीह-प्यारी गऊ-सूरत को देखकर आत्मदर्शन के सुख क अनुभव करेंगे। मुक्तिबोध ने आरोप, आक्षेप के लिए या भय का सृजन करने के लिए कविता नहीं लिखी – फिर भी समय की विद्रूपता ने चित्रों का आकार ग्रहण किया है – आईनों का। ’अंधेरे में’ कविता इस संग्रह का सबसे बड़ा और भयजन्य आईना है…
अमृता भारती
….लौटते हुए खिड़की पर कुहरा नहीं होता था – न डिब्बे में एकान्त – बस पटरियाँ बजती रहतीं थीं और यात्रियों की आवाजें – इन सबके बीच मुक्तिबोध की कविता चलती रहती थी- कहीं कोई नहीं टोकता था- कहीं कोई नहीं रोकता था – बस, कविता चलती रहती थी – अविराम ….।”
मुक्तिबोध हमेशा एक विस्तृत कैनवास लेते हैं जो सामाजिक जीवन की विसंगतियों और व्यक्तिगत चेतना से जुड़कर एक रंगभूमि तैयार करता है। वे अनुभूत यथार्थ से कतराते नहीं, बल्कि भावना के फावड़े और कुदाल से अनुभव की धरती को उर्वरक बनाने की लगातार कोशिश करते हैं। अपने दायित्व को भूलना उन्हें कबूल नहीं है चाहे प्राप्य कुछ भी न हो। वे मध्यवर्ग के अपने निजी कवि हैं। मध्यवर्गीय संघर्ष और विषमताओं को वे अपनी ताकत बनाते हैं। मुक्तिबोध के भीतर एक कसक, एक छटपटाहट है जो उन्हें चैन नहीं लेने देती। सच तो यह है कि उनके भीतर ही एक ब्रह्मराक्षस पैठा है जो ज्ञानपिपासु है और अपनी पीड़ा की जकड़ में कैद है मगर दूसरे की पीड़ा उन्हें खलती है- ‘मैं ब्रह्म राक्षस का सजल उर शिष्य होना चाहता/ जिससे की उसका वह अधूरा कार्य/ उसकी वेदना का स्रोत संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक/ पहुंचा सकूं।’
सातवें दशक के मध्य में धर्मयुग, ज्ञानोदय, लहर, नवभारत टाइम्स- साप्ताहिक, मासिक और दैनिक प्राय: सभी पत्र पत्रिकाओं में गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर 1917 – 11 सितंबर 1964) विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो उठे थे, क्यों? सब एकाएक उनका परिचय पाठकों को देने लगे और दिल्ली की साहित्यिक दुनिया में एक नयी हलचल सी आ गयी!
‘मुक्तिबोध हिन्दी संसार की एक घटना बन गये। कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से ऑंखें मूंद लेना असंभव था। उनका एकनिष्ठ संघर्ष, उनकी अटूट सचाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावनाओं के केन्द्रीय मंच पर सामने आ गये और सभी ने उनके कवि होने को नयी दृष्टि से देखा। कैसा जीवन था वह और ऐसे उसका अंत क्यों हुआ? और वह समुचित ख्याति से अब तक वंचित क्यों रहा?’ यह तल्ख टिप्पणी शमशेर बहादुर सिंह की है जो उन्होंने बड़े बेबाक ढंग से हिन्दी जगत के साहित्यकारों की निस्संगता पर कही है।
बीसवीं सदी की हिंदी कविता का सबसे बेचैन,सबसे तड़पता हुआ और सबसे ईमानदार स्वर हैं गजानन माधव मुक्तिबोध। मुक्तिबोध की कविता जटिल है। भगवान सिंह ने उनकी कविता की जटिलता का बयान इस तरह किया है, ”वे सरस नहीं हैं, सुखद नहीं हैं। वे हमें झकझोर देती हैं, गुदगुदाती नहीं। वे मात्र अर्थग्रहण की मांग नहीं करतीं, आचरण की भी मांग करती हैं।” तारसप्तक में मुक्तिबोध ने स्वयं कहा है, ”ये मेरी कविताएं अपना पथ ढूंढने वाले बेचैन मन की अभिव्यक्ति हैं। उनका सत्य और मूल्य उसी जीवन-स्थिति में छिपा है।”
‘ब्रह्मराक्षस’ और ’अंधेरे में’ वे प्रतिनिधि कविताएं हैं जिनसे मुक्तिबोध की कविता और उनकी रचना प्रक्रिया को समझा जा सकता है। मुक्तिबोध की कविताओं में सदैव एक साथीपन का भाव रहा है। सबसे बड़ी बात उनमें यह है कि उनके अंदर मस्तिष्कहीन (माइंडलेस फीलिंग) नहीं है। उनके भावों के ज्वार के पीछे विचारों का दीर्घ दोहन है। मुक्तिबोध उस चेहरे की तलाश करते हैं जो इतिहास के मलबे के नीचे दब गया है, मगर मर नहीं गया है। बहुत नीचे की तहों से भी वह कहते हैं:
कोशिश करो
कोशिश करो
कोशिश करो
जीने की-
जमीन में गड़कर भी।
भूल-गलती
भूल-गलती
आज बैठी है जिरह बख्तर पहिनकर
तख्त पर दिल के
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक
ऑंखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर की
खड़ी हैं सिर झुकाये, सब कतारें
वे जुबां बेबस सलाम में,
अनगिनत खंभों व मेहराब थामे
दरबारे आम में।
‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ के प्रकाशन के पन्द्रह-सोलह बरस बाद ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की कविताओं में जाना वयस्कता से बचपन में लौटने जैसा रोमांचक अनुभव है। इसमें एक तरफ तो छायावादी संस्कारों से मुक्त होने की छटपटाहट है और दूसरी तरफ अपनी काव्य-परम्परा के रूप में उसे स्वायत्त कर लेने की तड़प भी। एक तरफ समाजवादी जीवनादर्शों की खुली स्वीकृति है तो दूसरी तरफ जीवन-विवेक को साहित्य-विवेक की तरह ही लेने की जिद। कवि अंगारों की तरह उड़ तिर कर चुपचाप और चोरी-चोरी हमारी छत पर आना चाहता है- लेकिन अपनी कविता से हमें जलाने के लिए नहीं। द्वंद्वस्थिति में स्थापित उसका वजनदार लोहा भयंकर अग्नि-क्रियाओं में तेज ढकेला जाकर पिघलते और दमकते तेज-पुंज, गहन अनुभव का छोटा सा दोहा बनना चाहता है। (ओ अप्रस्तुत श्रोता : पृ. 47-48)
जिन्दगी की लड़ाई में बुरी तरह हारकर मुक्तिबोध कविता में जीत जाते हैं। कविता उनके लिए हारिल की लकड़ी थी। किसी ने उनका साथ नहीं दिया। मन, विचार और सपनों के लोक में सिर्फ कविता उनके साथ थी जिसके सहारे उन्होंने अपने आकुल हृदय के भीतर ऐसे उधार और मुक्त समाज को रच लिया जहां वे जी सकते थे। सारी अनगढ़ता के बावजूद ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की कविताओं में प्यार से धड़कता बेहद संवेदनशील मन छाह से लहराता दिखायी देता है जिसमें जोखिम से भरे ढेर सारे फैसले लेने का बेपरवाह साहस है। भावना और विचारों की आत्मसृद्धि एक दिन चुपचाप ही किस तरह रचना को बड़ा कर जाती है यह देखने के लिए ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की बारीक चलनी से धीरज से चालना होगा। निश्चय ही सोने के असंख्य कण हाथ लगेंगे।
‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ की तुलना में इस संग्रह की कविताएं मुखर प्रगतिवादी बल्कि कुछ तो भविष्यवादी भी लगती हैं। इस संग्रह की राजनीतिक आशा की बेहद मुखर और लाउड कविताओं के बरक्स ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ की कविताओं को रखकर देखने से जाहिर हो जाता है कि मुक्तिबोध ने दस-पन्द्रह बरस के छोटे से काल-खण्ड में ही कितना लम्बा सफर तय किया था- वह भी निपट अकेले। बड़ी कविता निर्मम आत्मदान माँगती है। सचमुच मुक्तिबोध ने अपने को मारकर कविता को जिला लिया- हम लोगों तक पहुंचाने के लिए।
अगर किसी हद तक ‘एक साहित्यिक की डायरी’, ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ की कुंजी है तो ‘नये साहित्य का सौन्दर्य-शास्त्र’, ‘भूरी भूरी खाक धूल की’।
और बैलगाड़ी के पहिये भी बहुत बार/ ठीक यहीं टूटते/ होती है डाकेजनी/ चट्टान अंधेरी पर/ इसीलिए राइफल सम्हाले/ सावधान चलते हैं/ चलना ही पड़ता है/ क्या करें।/ जीवन के तथ्यों के/ सामान्यीकरणों का/ करना ही पड़ता है हमें असामान्यीकरण।
(इसी बैलगाड़ी को : पृ. 30)
प्रमोद वर्मा कहते हैं कि:
“मुक्तिबोध की कविता में आत्मसाक्षात्कार के भीतर सचित्र साक्षात्कार जितना उनका खुद का है, उससे कहीं ज्यादा दूसरों का या अपने वर्ग का है। मैं क्या करता था अब तक, जैसे सवाल वे अपने से ही नहीं अपने वर्ग से भी पूछते हैं। भक्त कवियों की तरह उनकी भी आत्म-ग्लानि निजी नहीं है। न उनकी व्यापक खोज मात्र अपनी अस्मिता की खोज हो। जहां तक उनका व्यक्तिगत सवाल है उन्होंने हमेशा बेशक तकलीफ भरी लेकिन बेहद साफ-सुथरी जिन्दगी ही जीने की कोशिश की थी। कम से कम समझौते करते हुए। तरक्की की गोल-गोल घुमावदार चक्करदार सीढिय़ों पर चढ़ने से हमेशा इंकार किया। जीवन की तथाकथित सफलता को पाने की फुर्सत कभी नहीं निकाली। अपने वर्ग का चारित्रिक पतन उनकी कविता में कभी क्षोभ तो कभी दुखभरे प्रश्नों में बदलकर बार-बार आता है।”
अपन दोनों भाई हैं/ और दोनों दुखी हैं/ दोनों ही कष्टग्रस्त/ फिर भी तुम लड़ते हो हमसे/ वे गेहूं जल्दी से जल्दी मंडी ले जाना चाहते हैं/ ताकि मूल्यों के गिरने से पहले उसका देश में सब जगह बंटना संभव हो सके/ जो इसके आड़े आते हैं उनसे मुक्तिबोध का कोई समझौता नहीं हो सकता/ क्षमा करो तुम मेरे बंधु और मित्र हो/ इसीलिए सबसे अधिक दु:खदायी भयानक शत्रु हो।
मुक्तिबोध और लम्बी कविता हिन्दी में एक तरह में समानार्थी शब्द बन गए। अपनी डायरी में उन्होंने लिखा भी है कि यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते हैं और पूरा यथार्थ गतिशील, इसलिए जब तक पूरे का पूरा यथार्थ अभिव्यक्त न हो जाये कविता अधूरी ही रहती है। ऐसी अधूरी कविताओं से उनका बस्ता भर पड़ा था जिन्हें पूरी करने का वक्त वे नहीं निकाल पाये। अधूरी होने के बावजूद मुक्तिबोध के मन में इनके प्रति बड़ा मोह था और वे चाहते थे कि उनके पहले संग्रह में भी इनमें से कुछ जरूर ही प्रकाशित करा दी जायें। अपनी छोटी कविताओं को भी मुक्तिबोध अधूरी ही मानते थे। मेरे खयाल से उनकी सभी छोटी कविताएं अधूरी लम्बी कविताएं नहीं हैं। उनकी भावावेशमूलक रचनाएं अपने आप में सम्पूर्ण हैं जिनमें से कई इस संग्रह की शोभा हैं, जैसे ‘साँझ और पुराना मैं’ या ‘साँझ उतरी रंग लेकर’, उदासी का शीर्षक रचनाएं। ‘भूरी भूरी खाक धूल’ में संग्रहीत लम्बी कविताएं ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ की तुलना में कमजोर, शिथिल और बिखरी-बिखरी सी जान पड़ती हैं। कारण स्पष्ट है। कवि के जीवन के उत्तर-काल की होने के कारण ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ की लम्बी कविताएं फिनिश्ड रचनाएं हैं और खाट पकडऩे के पहले कवि ने उनका अन्तिम प्रारूप तैयार कर लिया था। शेष कविताओं पर काम करने का वक्त उन्हें नहीं मिल पाया।
लम्बी कविता को साधने के लिए मुक्तिबोध नाटकीयता के अलावा अपनी सेंसुअसनेस का भी भरपूर उपयोग करते हैं। इस कला में महारत उन्हें अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में ही हासिल हुई। परवर्ती लम्बी कविताओं में उनकी लिरिकल प्रवृत्ति एकदम घुल-मिल गयी है। शायद इसीलिए अपने अन्तिम वर्षों में उन्हें शुद्ध लिरिकल रचनाएं लिखने की जरूरत महसूस नहीं हुई। इसके विपरीत ‘भूरी भूरी खाक धूल’ में प्रगीतात्मक रचनाओं के अलावा विशिष्ट मन:स्थितियों के भी अनेक चित्र मिल जाएंगे जिनका होना, संभव है कुछ लोगों को चौंकाये लेकिन इनका होना अकारण नहीं है। उदासी और अनमनेपन की ये कविताएं अपने स्वाद और रंग में उनकी जानी-पहचानी और मशहूर रचनाओं में बहुत भिन्न है। मनुष्य के भीतर के फूटनेवाला शब्द कैसे मन आत्मा की हजार-हजार भाषा बोल लेता है, ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ पढ़ते हुए इसका अनुभव बखूबी होता चलता है लेकिन ‘सांझ और पुराना मैं’ जैसी कविताओं की भाषा जितनी करुण है उतनी ही तरल-पारदर्शी। शब्द यहां संगीत में बदल गये हैं- बेहद मोहक और सरल संगीत में:
आभाओं के उस विदा-काल में अकस्मात्/ गंभीर मान में डूब अकेले होते से/ वे राहों के पीपल अशांत/ बेनाम मंदिरों के ऊँचे वीरान शिखर/ प्राचीन बेखबर मस्जिद के गुम्बद विशाल/ गहरे अरूप के श्याम-छाप/ रंग विलीन होकर असंग होते/ मेरा होता है घना साथ क्यों उसी समय/ सबसे होता एकाग्र संग/ मुंद जाते हैं जब दिशा-नयन/ खुल जाता है मेरे मन का एकांत भवन/ अब तक अनजाने मर्म नाम ले ले कर क्यों/ पुकारते हैं मुझको/ मानो उनमें जा बसने को बुला रहे हों।
अपने इसी लिरिसिज्म को कवि जब उत्तर-काल में अपनी लम्बी रचना के कथ्य में घुला देता है तो वह कुछ इस रूप में सामने आता है:
सूनी है रात अजीब है फैलाव/ सर्द अंधेरा/ ढीलीआँखों से देखते हैं विश्व/उदास तारे/ हर बार सोच और हर बार अफसोस/ हर बार फिक्र/ के कारण बढ़े हुए दर्द का मानो कि दूर वहां दूर वहां/ अंधियारा पीपल देता है पहरा/ हवाओं की नि:संग लहरों में कांपती/ कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज काँपती है दूरियां गूंजते हैं फासले/ बाहर कोई नहीं कोई नहीं बाहर।
(अँधेरे में : पृ. 273)
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह का मानना है कि 1959 से 1964 के बीच मुक्तिबोध ने लगभग 65 कविताएँ लिखी हैं, जिनमें ‘एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्मकथन’, ‘दिमागी गुहांधकार का ओरांग-उटांग’, ‘ओ काव्यात्मन् फणिधर’, ‘चकमक की चिनगारियाँ’, ‘एक स्वप्नकथा’, ‘ब्रहमराक्षस’, ‘अंधेरे में’, ‘लकड़ी का रावण’ और ‘भूल-गलती’ जैसी अधिकांश लम्बी कविताएँ शामिल हैं। विसंगतियों को नयी काव्यभाषा और फैंटेसी के रूपक-बिम्ब -प्रतीक के माध्यम से मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष की व्याप्ति, नीरंध्र अंधलोक और मक्कार शासकवर्ग की छलना के नये उद्धाटित सत्य अंकित किये हैं।
इन्हीं रचनाओं के भाष्य के क्रम में आधुनिकतावादी और कलावादी अपने विरसे में मुक्तिबोध की उपलब्धियों को हड़पने की कोशिश करते रहे हैं। अगर इन रचनाओं के युग-संदर्भ, सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल के घटना-प्रसंग को ध्यान में रखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजवाद के लिए संघर्ष की उद्विग्नता इन कविताओं का प्राणतत्व है। रूपवादी दृष्टि से मुक्तिबोध के काव्योत्कर्ष को सिर्फ भाषा-शैली, रूपक, बिम्ब, प्रतीक और फैंटेसी में ढूंढना एकांगी विश्लेषण की ओर ले जाता है। उनकी कहानियों, अपूर्ण उपन्यास, समालोचनात्मक निबंध और डायरियों को कविताओं के साथ-साथ पुनर्पाठ करने पर कहीं संदेह नहीं रह जाता कि वे पश्चिम के किसी प्रतिक्रियावादी दर्शन के शिकार नहीं हुए थे। ऐसा आरोप लगाकर मुक्तिबोध को लांछित करने का अभियान अब पराजित अतीत के अधोलोकों में दफ़न हो चुका है।
खासकर इस संदर्भ में बर्गसां के संदेहवाद और फ्रायड की मनोग्रंथि का प्रभाव उन पर बताया जाता रहा है जबकि उनकी रचनाओं से इस प्रभाव का कोई संकेत नहीं मिलता। मुक्तिबोध कला के तीसरे क्षण में रचना प्रक्रिया पर बात करते हैं। रचना के लिए यथार्थ और फैन्टेसी का सही-सही अनुपात बताते हैं। वे अपनी कविताओं में भी कविता की रचना प्रक्रिया और विषय वस्तु के चयन व उसकी दुविधा की बात करते हैं। वे मानते हैं कि वर्तमान समय में रचनाकार के लिए विषय वस्तु की कमी नहीं है बल्कि उसकी अधिकता ही संकट है। वे लिखते हैं-
और मैं सोच रहा कि, जीवन में आज के / लेखक की कठिनाई यह नहीं कि/ कमी है विषयों की / वरन् यह कि आधिक्य उनका ही / उसको सताता है / और वह ठीक चुनाव नहीं कर पाता है’
मुक्तिबोध के लेखन का बहुत थोड़ा हिस्सा उनके जीवन-काल में प्रकाशित हो सका था। जब उनकी कविता की पहली किताब छपी तब वे होश-हवास खो चुके थे। एक तरह से उनका सारे का सारा रचनात्मक लेखन उनके मरने के बाद ही सामने आया। आता जा रहा है। मरणोत्तर प्रकाशन के बारे में जाहिर है हम जितनी भी एहतियात बरतें, थोड़ी होगी क्योंकि हमारे पास जानने का साधन नहीं होता कि जीवित रहता तो कवि अपने लिखे का कितना हिस्सा किस रूप में प्रकाशित कराने का फैसला करता। खासतौर से मुक्तिबोध जैसे कवि के बारे में तो हम अपने को हमेशा ही संशय और दुविधा की स्थिति में पाते हैं। वे दूसरों को लेकर जितने उदार थे खुद को लेकर उतने ही निर्मम और निर्मोही। जो लोग उनकी रचना-प्रक्रिया से परिचित हैं, जानते हैं कि अपनी हर रचना वे कई-कई बार लिखते थे। कविता ही नहीं गद्य भी। ‘कामायनी एक पुनर्विचार’ किताब-रूप में उन्होंने सन् 50 के आसपास ही लिख डाली थी और वह मुद्रित भी हो चुकी थी, लेकिन किन्हीं कारणों से प्रकाशित नहीं हो सकी। कोई दस बरस बाद जब उसके प्रकाशन का डौल जमा तो मुक्तिबोध ने संशोधन के लिए एक महीने का समय मांग कर पूरी की पूरी किताब नये सिरे से लिखी। ‘वसुधा’ में प्रकाशित डायरी-अंशों और ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के प्रारूपों को आमने-सामने रखकर इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। कविता के मामले में तो वे और भी सतर्क और चौकस थे। जब तक पूरी तरह संतुष्ट न हो जाएं कि उनका अभिप्राय शब्द के खांचे में एकदम ठीक-ठीक बैठ गया है, वे अपनी रचना को अधूरी या ‘अन्डर रिपेयर’ कहते थे। दोबारा-तिबारा लिखी जाने पर उनकी मूल रचना सर्वथा नया रूपाकार पा पाती। मुक्तिबोध की पांडुलिपियों को खंगालते हुए किसी भी दूसरे आदमी के लिए तय करना सचमुच बहुत मुश्किल है कि उनकी रचना का कौन-सा प्रारूप अंतिम है। जीवित होते तो शायद उनके लिए भी यह तय करना बहुत आसान न होता।