कोबाड गाँधी देश के चर्चित राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। “माओवादी” होने के आरोप में दस साल तक देश की विभिन्न ज़ेलों में गुज़ारने और अंतत: बरी होने के बाद वे आजकल मुम्बई में रह रहे हैं। हाल ही में उनके ज़ेल के अनुभवों पर आधारित किताब “फ्रैक्चर्ड फ्रीडम” आई है और काफ़ी चर्चा में है। प्रस्तुत है कोबाड गाँधी से डॉ. अनिल मिश्र की बातचीत। यह साक्षात्कार समयांतर पत्रिका के अगस्त 2021 अंक में प्रकाशित हो चुका है।
संपादक
सवाल: बातचीत की शुरुआत आपके ज़ेल के अनुभव से करते हैं। 2009 में जब आपको पहली बार गिरफ़्तार किया गया तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। 2019 के अंत में जब आप रिहा हुए तब भाजपा की सरकार आ गई। इन दस वर्षों में आपकी दुनिया में क्या बदलाव आ गए? ज़ेल से निकलने के बाद सामाजिक जीवन में तालमेल बैठाने में आपको किन समस्याओं का सामना करना पड़ा?
कोबाड गाँधी: देखिए, क्या है कि हमारी पूरी ज़िंदगी इसी काम में बीती है। और हम परिवार के संपर्क में ज़्यादा नहीं रहते थे। हम अपने ही कार्यों में ज़्यादा समय देते थे अतः उनसे मिलने का बहुत कम वक़्त होता था। फिर बाद में हम नागपुर शिफ़्ट हो गए तो दूरी भी न मिलने का एक कारण बन गई। पिता के साथ संबंध था, लेकिन वो 1995 में ही गुज़र गए। अनु के परिवार के साथ अच्छा संपर्क था। उसके माता-पिता भी कम्युनिस्ट पृष्ठभूमि से थे। अतः घर में एक उदारवादी माहौल था। तो ज़ेल में टेंशन तो रहता ही है कि केस कैसे चल रहा है, वकील क्या कर रहे हैं? अपनी किताब में भी मैंने ज़िक्र किया है कि भारत की न्याय व्यवस्था की संरचना ही कुछ ऐसी है कि वह इंसान को शारीरिक और मानसिक रूप से तोड़ देती है। और इस लिहाज़ से तिहाड़ सबसे ख़राब ज़ेल है जिसमें मुझे सबसे ज़्यादा वक़्त गुज़ारना पड़ा।
एक चीज़ है ज़ेल के अंदर कि अगर ज़ेल में आप शांतिपूर्वक रह सकते हैं तो आप काफ़ी कुछ सोच-विचार कर सकते हैं, जो कि बाहर आप नहीं कर सकते थे। बाहर हम भाग दौड़ में ही लगे रहते थे। तो जो शुरुआती तीन चार साल थे वे तुलनात्मक रूप से शांत थे, लेकिन उसके बाद तिहाड़ ज़ेल के अधिकारियों ने परेशान करना शुरू कर दिया, टॉर्चर करना, ये करना, वो करना। वो तो दूसरे साल भी करना पड़ा। शुरू में थोड़ा ठीक था तो मैंने दो चीज़ों पर विचार किया, कि अपनी चार दशक की जो गतिविधियाँ हैं उनसे क्या अनुभव ले सकते हैं। दूसरा ये था कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति में और भारतीय परिस्थिति में भी कम्युनिज़्म पीछे हट गया है, तो ये क्यों हुआ? जब 1960 के आख़िरी में मैं कम्युनिस्ट आंदोलन में सक्रिय हुआ तो यह समूची दुनिया में फैल रहा था। और यह भी कहा जा सकता है कि लगभग आधी दुनिया इसके प्रभाव में थी, और मेरे जीवन काल में ही अब यह बहुत कम बचा हुआ है। तो 2012 में हमने वो छह आलेख लिखे, फ्रीडम एंड पीपुल्स इमैंसिपेशन करके, मेनस्ट्रीम (साप्ताहिक) में, तो इस किताब (फ्रैक्चर्ड फ्रीडम) के बीज उन्हीं आलेख में हैं। हमने थोड़ा निष्कर्ष निकालने की कोशिश की है कि इसके अंदर क्या है।
एक बात और है, हमने ज़ेलों में रहते हुए, हैदराबाद या अन्य जगहों पर, जब दूसरे वामपंथियों से चर्चा होती थी तो वे सामान्यतः कहते थे कि राज्य के दमन के कारण, सत्ताधारियों के कारण हमारा आंदोलन पीछे हटा है, तो उसमें हम कहते थे कि ये तो बाहरी कारण हैं। ये कारण तो अनिवार्य है, लेकिन इसके आंतरिक कारण भी हैं। हमें उन्हें भी ढूँढ़ना होगा कि कमज़ोरी कहां है? हम सोचेंगे कि पूरी अर्थव्यवस्था बदल देंगे और वे दबाव नहीं लाएंगे, ये तो एक काल्पनिक बात है। ये तो होना ही होना है। मगर अपने अंदर की ख़ामियाँ भी हैं, जिनके कारण हम उनका मुक़ाबला भी नहीं कर पाए। तिहाड़ में तो चर्चा नहीं हुई। वहां तो कोई वामपंथी था ही नहीं लेकिन बाद में, हैदराबाद वग़ैरह में ये चर्चाएं होती थीं। तो ये सब इस किताब के तीसरे भाग में भी ज़्यादा व्यापक तरीक़े से है। ये एक कारण है। इसके बाद ज़्यादा कुछ सोच नहीं पाए क्योंकि ज़ेल की परिस्थितियों को सहन करना ही एक चुनौती थी, ख़ासी मुश्किल। मगर बाहर निकलने के बाद, परिवार के लोगों ने शुरू से ही बहुत मदद की। बाद में ज़ेल के सफ़र में मेरी बहन ने बहुत मदद की। केस के बारे में, कोई सामान भेजना वग़ैरह। मैं अभी भी उन्हीं के साथ रहता हूं, नहीं तो रहने की भी समस्या थी। उसके बाद कोविड ही आ गया तो कुछ खास हुआ नहीं। अभी हमारा नई किताब पर रिसर्च चल रहा है। देश दुनिया की परिस्थितियों पर, अर्थव्यवस्था पर। समस्याएं तो हैं इस ज़िंदगी से तालमेल बैठाने में, लेकिन हमें बहुत मदद मिली है, परिवार से। अनु के परिवार ने काफ़ी मदद की। ख़ासतौर से मेरी सिस्टर इन लॉ रीता समूचे ज़ेल जीवन के बाद से मदद करती रहीं और बाद में ज़ेल से निकलने के बाद भी व्यवस्थित होने में उनकी मदद रही। तो हमें उतनी समस्या नहीं हुई, जितनी समस्या का सामना अन्य लोगों को करना पड़ा।
सवाल: मेरा दूसरा सवाल यह है कि आप भाजपा और कांग्रेस की सरकारों के बीच क्या अंतर देखते हैं? ख़ासतौर से, वामपंथी आंदोलन के लिहाज़ से वे क्या अंतर हैं जो इन दोनों पार्टियों को एक दूसरे से अलग करते हैं? या अलग करते भी हैं या नहीं?
कोबाड गाँधी: देखिए, वामपंथी तो एक व्यापक शब्द है मगर अगर हम मार्क्सवादी दृष्टिकोण से कहें तो यह है कि दोनों की बुनियादी सोच एक ही है। वह है, नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था को लागू करना और उसे आगे बढ़ाना। इसमें दोनों पार्टियों की एक ही सोच है। वास्तव में, मनमोहन सिंह तो उसके गुरू ही हैं। उन्होंने ही ये अर्थव्यवस्था लाई है 1991 में लेकिन लागू करने में अलग तरीक़ा अपनाया है। नव-उदारवादी एजेंडा, जिसे ये सुधार बोलते हैं, या नव-उदारवादी व्यवस्था का जनता पर तो बुरा असर पड़ता है, कॉर्पोरेट का फ़ायदा होता है, यह तो स्पष्ट है। यह अमीरों और ग़रीबों के बीच विभाजन बढ़ाता है, लेकिन कांग्रेस का तरीक़ा ये था कि उसे आगे तो बढ़ाया लेकिन साथ-साथ लोगों के लिए कुछ सुधार भी दिया ताकि उसके जो बुरे असर हैं वे थोड़ा नरम पड़ जाएं। जैसे मनरेगा, आरटीआइ, वन अधिकार क़ानून, वग़ैरह। भाजपा बहुत आक्रामक तरीक़े से उस एजेंडे को आगे बढ़ाती है। भाजपा राष्ट्रवाद, हिंदुत्व के कारण वो कर भी सकती है क्योंकि जनता में वो अलग ढंग से आधार बना सकते हैं। और अगर कुछ विरोध हुआ तो फ़ासीवादी तरीक़े से दबाते हैं। दोनों का उद्देश्य तो एक ही है।
अभी ये जो किसान आंदोलन चल रहा है, और ये जो तीन क़ानून हैं, कुछ इसी तरह के सुधार कांग्रेस ने भी लाए थे। दो दशक से हर साल हज़ारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो किसी भी दल ने वास्तव में कोई चिन्ता नहीं दिखाई। ये तीन क़ानून किसान समुदाय के लिए ताबूत पर आख़िरी कील साबित होंगे। अब ये अलग बात है कि आज आंदोलन के कारण कांग्रेस किसानों के समर्थन में हैं जो कि अच्छी बात है। ये सब क़ानून और नीतियाँ अंतराष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन, आईएमएफ वग़ैरह के सहयोग से बन रही हैं। तो अगर हम मार्क्सवादी दृष्टिकोण से देखेंगे तो कांग्रेस और भाजपा में फर्क़ भी है और समानता भी है। और स्वाभाविक है कि आज किसी भी परिस्थिति में अगर नव-उदारवादी एजेंडे का विरोध करना है और जनता के ऊपर जो बुरा असर पड़ता है, उसमें कुछ सुधार लाना है ताकि हम आंदोलन कर सकें तो एक लोकतांत्रिक माहौल (डेमोक्रेटिक स्पेस) की ज़रूरत है। कांग्रेस ने भी ग़ैर क़ानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम (यूएपीए) वग़ैरह लाया है लेकिन लागू करने का तरीक़ा अलग है। डेमोक्रेटिक स्पेस रहने से विरोध करना एक हद तक आसान होता है। लक्षद्वीप का उदाहरण सामने है। दादरा नगर हवेली में जो सांसद था उसने कथित आत्महत्या किया, और वो तीन महीने हो गए और मामला दबा दिया गया। जिस आदमी को सुसाइड नोट में ज़िम्मेदार बताया गया है वह एक प्रशासक है जो बड़े कॉर्पोरेट और विदेशी शक्तियों के इशारों पर इन नीतियों को लागू कराने में लगा हुआ है। अभी विदेशी पूँजीपतियों के हित का एजेंडा बहुत आक्रामक तरीक़े से लागू किया जा रहा है। नव-उदारवाद का मतलब क्या है कि विदेशी पूँजीपतियों के दलाल लोग जैसे अंबानी-अडानी वग़ैरह, जिन्हें कि क्रोनी कैपिलिस्ट कहा जाता है, उनके हितों को आगे बढ़ाना। यहां तक कि कोविड में भी एक स्पष्टतया वर्गीय दृष्टिकोण है। ये जो बिग बुर्जुवाजी हैं, ये बहुत पैसा कमा रहे हैं और आम जनता और मध्यम वर्ग पिसते जा रहे हैं।
सवाल: क्या संसदीय वामपंथी पार्टियां सामाजिक-राजनीतिक बदलाव में किसी ठोस भूमिका की स्थिति में हैं? सामाजिक राजनीतिक बदलाव में इनकी क्या भूमिका होगी?
कोबाड गाँधी: संसदीय वाम में कई पार्टियाँ हैं, जैसे सीपीआइ, सीपीएम, लिबरेशन, आरएसपी वग़ैरह। समाजवादी लोगों को वामपंथियों में नहीं गिना जाता है। मुझे लगता है कि सभी वामपंथी लोग एक मंच पर आएं और जो नव-उदारवादी नीतियां हैं, उनका विरोध करें। साथ ही, जनवाद के लिए संघर्ष भी करें लेकिन इसमें सीपीएम के ऊपर प्रश्नचिन्ह है- चाहे वह केरल हो या बंगाल। ख़ासतौर से नेतृत्व। बंगाल में नेतृत्व ने जो भूमिका अपनाई वो भाजपा को ही साथ देने वाली भूमिका थी। केरल में इतने अवसरवादी हैं कि कई जगह पर कांग्रेस के साथ हाथ मिलाते हैं और उसी समय कांग्रेस के ख़िलाफ़ भी लड़ते हैं। सीपीएम की कोई सकारात्मक भूमिका नहीं दिखाई देती है, लेकिन बाक़ी वामपंथियों को एक मंच पर आकर लड़ना होगा। इसमें सीपीएम के वे कैडर भी शामिल होंगे जो अधिकतर ईमानदार हैं। साथ ही, जन आंदोलन के साथ एक राजनीतिक एजेंडा होना भी ज़रूरी है। अगर राजनीतिक एजेंडा नहीं होगा तो आंदोलन भी प्रभावी नहीं होगा। अगर जनवादीकरण और नव-उदारवादी नीतियों का विरोध नहीं होगा तो मुझे कोई भविष्य नहीं दिखाई देता है। और सीपीएम को इससे दूर रखना होगा, ख़ासतौर से नेतृत्व को क्योंकि अगर वो रहेंगे तो कोई काम भी नहीं करने देंगे।
सवाल: आपने अपनी किताब में उस दौर का विस्तार से बयान किया है जिसमें वामपंथी आंदोलन काफ़ी मज़बूत हुआ करता था, जिसके प्रभाव में पूरी एक पीढ़ी रही है। आज देश और दुनिया भर में वामपंथी आंदोलन में एक ठहराव है। आज के समय में वामपंथी आंदोलन को प्रभाव के लिहाज़ से आप कहां देखते हैं? साथ ही, इसी से जुड़ा एक सवाल और है कि सामाजिक और व्यक्तिगत दायरों में आए ठहराव से कैसे निकला जा सकता है?
कोबाड गाँधी: इसी कारण किताब के तीसरे हिस्से में हमने चर्चा की है कि निराशा से निकलने के लिए क्या किया जाए। साठ और सत्तर के दशक में जब हमने शुरू किया था, समाजवादी आंदोलन की काफ़ी बड़ी लहर थी। चाहे वह चीन हो या दक्षिण अमेरिका, इंडोनेशिया, या मध्य-पूर्व में। हर जगह निर्ममतापूर्वक दमन किया गया। फिर वह उठ नहीं पाया। आज की परिस्थिति आम जनता के नज़रिये से 60-70 के दशक से ज़्यादा ख़राब है। अभी समूचे पूँजीवाद के इतिहास की सबसे ज़्यादा ख़राब परिस्थितियां हैं। पूरी दुनिया भर में। पूंजीपतियों और आम जनता के बीच अंतर इतना ज़्यादा कभी नहीं था जितना आज है। 1930 के दशक की आर्थिक महामंदी को शायद छोड़कर। इन परिस्थितियों में वास्तव में वामपंथियों को ही एक विकल्प होना था, लेकिन वे कोई प्रभावी विकल्प नहीं हैं। भारत में वामपंथियों की जो कमज़ोरियां हैं, उन्हें अगर ठीक नहीं करेंगे तो वे लोगों में आशा और विश्वास को नहीं जगा पाएंगे। कुछ वामपंथी दुनिया में लोकप्रिय हैं, जैसे बर्नी सैंडर्स वग़ैरह, लेकिन उनका विकल्प के रूप में सामने आना महत्त्वपूर्ण है। सभी को एक मंच पर आना चाहिए और अपनी ख़ामियों को दूर करना चाहिए, तब लोगों के अंदर उम्मीद आ पाएगी। यह भी सच है कि दुनिया में कोई समाजवादी देश नहीं है इसलिए भी निराशा है लेकिन वामपंथियों को नये सिरे से संगठित होना होगा। वास्तव में ऐसे किसी विकल्प के उभार के लिए परिस्थितियां मुफ़ीद हैं। जैसे छह महीने के किसान आंदोलन को ही देख लिया जाए या कि जनता, सामान्य तौर पर, देश में जो कुछ भी हो रहा है उससे तंग आ चुकी है और इन परिस्थितियों में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही है।
सवाल: आपने अपनी किताब में लिखा है कि क्रांतियां विश्वयुद्ध के ज़माने में ही हुई हैं। तो क्या अब किसी तरह के रैडिकल राजनीतिक बदलाव अभी भी मुमकिन हैं? ख़ासतौर से इस आलोक में कि विश्वयुद्ध के ज़माने में राज्य-सत्ता इतनी मज़बूत नहीं थी। वर्तमान दौर में राज्य क्या ज़्यादा शक्तिशाली और खूँखार नहीं है, जिससे लड़ना और जीत हासिल करना अब मुश्किल है?
कोबाड गाँधी: असल में, मैंने एक तथ्य रखा था कि सशस्त्र संघर्ष विश्वयुद्ध के दौरान ही हुआ था। मैंने ये नहीं कहा कि क्या संभव है क्या नहीं। यह एक हक़ीक़त है। तो जब कोई वामपंथी व्यक्ति या संगठन प्रैक्टिस करते हैं तो इसे ध्यान में रखना चाहिए, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम विश्वयुद्ध के लिए रुकें, तभी कुछ होगा। दूसरी बात ये है कि महायुद्ध की संभावना भी आजकल कहां है? क्योंकि अगर हम देखें, तो 2008-09 से जो संकट चल रहा था, इसके बाद जापान, यूरोप और अमेरिका की अर्थव्यवस्था में जो गिरावट आई वह 1929 के बाद सबसे बड़ी गिरावट थी। अब ये कोविड की वजह से थोड़ा ढँक-छिप गया है लेकिन अंतर्विरोध बढ़े भी हैं। जैसे चीन और अमेरिका के बीच में। बाज़ार में चीन का पूरा दबदबा है, अमेरिका पीछे हट गया है और परिस्थितियां दोनों के बीच में परिपक्व पूरी है महायुद्ध के लिए। लेकिन ये हितों की ऐसी एकता है कि जो अंतर्विरोध हैं वे पता नहीं कितने टकराव की स्थितियों में तब्दील हो पाएंगे। एक समय अमेरिका महाशक्ति था, अब अगर उसकी स्थिति में बदलाव आएगा तो वह आक्रामक होगा। अगर अमेरिका चीन पर हमला करेगा तो एक तरह से ख़ुद की अर्थव्यवस्था पर हमला होगा क्योंकि अमेरिका का सारा सामान तो चीन में बनता है। इसलिए ये प्रश्न भी है कि विश्वयुद्ध होगा कि नहीं, लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए। साथ ही ये भी ध्यान रखना है कि समाजवादी अंदोलन को समूची दुनिया में कैसे और कितना दबाया गया है? इसलिए नई परिस्थिति के लिहाज़ से क्या तरीक़ा अपनाना है, वह जो लोग संघर्ष कर रहे हैं उन्हें सोचना होगा।
सवाल: कॉर्पोरेट पूँजी के उदय और नियंत्रण ने राज्य की परंपरागत संरचना को कैसे प्रभावित किया है?
कोबाड गाँधी: राज्य-सत्ता और कॉर्पोरेट के बीच हमेशा से अच्छे संबंध रहे हैं, लेकिन आज ये संबंध पहले से ज़्यादा गहन हुए हैं। अम्बानी और अदानी जैसे चंद बड़े कॉर्पोरेट्स जैसा चाहते हैं, वैसा ही होता है। इसके अलावा यह बात भी है कि इनके जैसे बड़े कॉर्पोरेट्स सच्चे उद्यमी नहीं हैं, ये मूलतः क्रोनी कैपिटलिस्ट हैं तो सरकार की मेहरबानी और कर में कटौती की वजह से बढ़े हैं। जैसे भारत में 20 कॉरपोरेट ऐसे हैं जो पूरी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करते हैं। फिर वित्तीय पूँजी की भी भूमिका है। भारत में यह रिश्ता छुपा हुआ है लेकिन चीन में जैसे राजकीय पूँजीवाद (स्टेट कैपिटलिज़्म) है। आज तो स्टेट और कॉर्पोरेट का संबंध यक़ीनन बहुत मज़बूत है लेकिन अंतर्विरोध भी हैं। अब इन अंतर्विरोध का वामपंथी कैसे इस्तेमाल करेंगे ये सोचने वाली बात है।
सवाल: एक सवाल अक्सर सामने आता है, कम्युनिस्ट समाज में नागरिक आज़ादी का। जैसे सोवियत राज्य या चीन के समाज के बारे में कहा जाता है कि कम्युनिस्ट शासन ने अपने नागरिकों की आज़ादी का पूँजीवादी राज्य के मुक़ाबले अधिक दमन किया है, हालाँकि यहां पर इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि पूँजीवादी राज्य-सत्ता में दमन की कार्यवाइयां ज़्यादा प्रचारित भी नहीं हैं क्योंकि मीडिया कॉर्पोरेट नियंत्रण में है। बावजूद इसके क्या यह सच नहीं है कि सोवियत और चीनी राज्य एक ख़ास तरह की जड़ नौकरशाही में तब्दील हो गए और अंततः बुर्जुवा वहां की सत्ता पर क़ाबिज़ हो गए? किसी भी कम्युनिस्ट समाज में नागरिक आज़ादी का सवाल कितना अहम है और नागरिक आज़ादी को एक मज़बूत चेतना बनाने के लिए और राज्यविहीन समाज के लिए क्या किया जाना ज़रूरी है?
कोबाड गाँधी: मैंने अपनी किताब फ़्रैक्चर्ड फ्रीडम के तीसरे हिस्से में समाजवादी देशों की इन्हीं अहम परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ख़ुशी वाली बात कही है। ख़ुशहाली की अवधारणा भी यहीं से आई है। अर्थव्यवस्था में बदलाव से जो विकास होता है, ख़ुशियाँ आती हैं लोगों के जीवन में, वो तो ज़रूरी है ही। साथ ही, आज़ादी की भी ज़रूरत है। अगर दबाव रहेगा, आज़ादी नहीं रहेगी तो अर्थव्यवस्था से निकली यह ख़ुशियाँ अस्थाई बन जाती हैं और इसका उपयोग प्रतिक्रियावादी शक्तियां भी कर सकती हैं। इसीलिए, खुशहाली (हैप्पीनेस) वाली अवधारणा शुरू से ही लाई जानी चाहिए ताकि उनकी भौतिक परिस्थिति के साथ साथ मानसिक परिस्थिति को भी बदल सकें और उनका विकास कर सकें। आर्थिक परिस्थितियां बुनियाद होती हैं लेकिन इसके साथ साथ ख़ुशहाली और आज़ादी की बात भी होनी चाहिए। बोलना आसान है, करना इतना आसान नहीं है। प्रतिक्रियावादी शक्तियों के पास बहुत तरीक़े हैं जिससे वे समाजवादी अर्थव्यवस्था से लड़ेंगे और इन आज़ादियों का इस्तेमाल समाजवादी परियोजना को बर्बाद करने में लगाएंगे। इसीलिए अर्थव्यवस्था, ख़ुशहाली और आज़ादी में एक संतुलन बनाना पड़ेगा। आर्थिक प्रश्न बुनियाद हो सकते हैं, लेकिन हमें अर्थवाद में नहीं फँसना है बल्कि हमें सामाजिक और मानसिक स्तर पर बदलाव की बात करनी होगी। अगर इतिहास देखेंगे, सोवियत संघ या चीन तो यहां कहीं न कहीं यह कमज़ोरियाँ थीं।
सवाल: सामाजिक और व्यक्तिगत रूपांतरण का “अनुराधा मॉडल” क्या है, जिसकी चर्चा आपने अपने किताब में भी की है? इसे सार्वजनिक जीवन में कैसे लागू किया जा सकता है?
कोबाड गाँधी: यह प्रश्न इसी से संबंधित है। अगर आपको ख़ुशहाली, कुशलता और स्वतंत्रता लानी है तो लोगों को व्यक्तिगत अधिकार और आज़ादी देनी होगी। अगर ये नहीं होगा तो एक तरह के दमनकारी वातावरण में हम जीने लगेंगे। तो इसलिए हरेक को अपनी सोच रखनी चाहिए। आपस में बहस-मुबाहिसे किए जाने चाहिए। लोग कुछ दबाव के कारण बात तो नहीं करते हैं लेकिन जब अंदर से असंतुष्ट रहेंगे तो कुछ समय बाद निराशा विकसित होती है और लोग अक्सर बहुत कड़वी यादों के साथ आंदोलन की दुनिया को छोड़ देते हैं। आज़ादी और ख़ुशहाली के प्रश्न को हमारे मूल्यों (वैल्यू सिस्टम) में बदलाव के बिना लागू और स्वीकार करना असंभव है, जिसे मैंने ‘अनुराधा मॉडल’ कहा है। यह ऐसा है कि सरलता, बेबाकी और ईमानदारी आदि के मूल्य को स्वीकार करना है और बुर्जुवाजी और सामंती मूल्य बोध, जिसे हम अपने बचपन से सीखते हैं, को खारिज़ करना है। यह भारत में ख़ासतौर से महत्त्वपूर्ण है जहां जाति व्यवस्था एक अंदरूनी तौर पर वर्चस्ववादी और दमनकारी संस्कृति सिखाती है।
हमारे पास चीन का अनुभव है जिसका हम अध्ययन कर सकते हैं। और इसके बारे में बात करना बहुत ज़रूरी है तभी समाजवाद के प्रति लोगों का आकर्षण होगा। मैंने खुद देखा है कि अंदर और बाहर इतनी क्षुद्रताएं हैं कि लोग ख़ुश नहीं रहते हैं। अगर हम यांत्रिक तरीक़े से सोचेंगे तो इस जटिल परिस्थिति का मुक़ाबला कैसे कर पाएँगे? मीडिया का इतना बुरा प्रभाव है कि लोग सच और झूठ के बीच फर्क़ भी नहीं कर पाते हैं।
सवाल: भारते में जाति-विरोधी जन आंदोलन और ख़ासतौर से कम्युनिस्ट आंदोलन में जाति के सवाल पर काफ़ी भ्रामक समझदारी रही है। आप अपने राजनीतिक एक्टिविज़्म के शुरूआती दौर में जाति-विरोधी आंदोलन को संगठित करने में एक प्रमुख भूमिका में रहे। भारतीय समाज में जाति का सवाल कैसे और क्यों एक अहम सवाल है जिसके बारे में कम्युनिस्ट पार्टियों या कम से कम क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को एक नई समझ के साथ सामने आने की ज़रूरत है?
कोबाड गाँधी: इसके बारे में तो हमने काफ़ी कुछ लिखा है और अनुराधा ने तो सबसे ज़्यादा लिखा है। जब हम शुरुआत कर रहे थे तो मैं तो कुछ नहीं जानता था, लेकिन संयोग ये था कि हम जिस इलाक़े में काम कर रहे थे वहां जब दलित पैथर्स के संपर्क में आए तब हक़ीक़त पता चली। भारत के मार्क्सवादी जाति के सवाल को वर्ग में ही देखते थे, लेकिन जाति के बंधन को तोड़ने के बाद ही एक राष्ट्रीय सोच सामने आ सकती है। जाति अपने आप तो टूटेगी नहीं, यह तो अवचेतन में बसी चीज़ है। यांत्रिक सोच से तो जाति जाने वाली नहीं है। कम्युनिस्ट नेतृत्व अधिकतर कथित ऊँची जातियों से ही है क्योंकि कम्युनिस्ट आंदोलन में अधिकतर नेतृत्व विद्यार्थियों से आता है और यहां शिक्षा व्यवस्था में अधिकतर ऊँची जातियाँ ही पहुँच पाती हैं। यह अपने आप में समस्या नहीं है। समस्या यह है कि हम अपने आप को बदल नहीं सकते और अपने कैडर को बदलने के लिए प्रभावित और प्रेरित नहीं कर सकते जो कि ख़ुद ऐसे ही जातिवादी सोच के साथ पीड़ित होते हैं। दूसरी बात, पहचान की राजनीति भी है, जो कि पर्याप्त नहीं है। पहचान की राजनीति दलित पहचान को मज़बूत करते हुए जातिवादी शोषण के ख़िलाफ़ मामूली तौर पर ही किसी उद्देश्य को हासिल करती है। यह जातियों के बीच के विभाजन को क़ायम रखती है, उन्हें ख़त्म नहीं करती है। यहां यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सभी जातियों और शोषित लोगों की एकता बनाते हुए इन विभाजनों को दूर करना है और ब्राह्मणवाद और उसके प्रमुख संरक्षकों को निशाना बनाना है और जाति व्यवस्था का पूरा ख़ात्मा करना है। बिना जाति व्यवस्था का ध्वंस किए हम इस देश का जनवादीकरण नहीं कर सकते। ब्राह्मणवाद भारत के सामंती सोच का परिचायक है। एक प्रमुख दुश्मन ब्राह्मणवाद और इसे सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करने वाली विचारधाराएं हैं। यहां यक़ीनन पूँजीवादी और सामंती व्यवस्था दोनों को निशाना बनाना होगा जो किसी भी तरह के बदलाव के ख़िलाफ़ हैं। इससे लड़ाई लड़े बिना, जाति व्यवस्था को पूरी तरह से विध्वंस किए बिना, हमारे देश में लोकतांत्रिक भावना (डेमोक्रेटिक स्पिरिट) भी नहीं आ सकती है।
सवाल: वर्तमान समय में चल रहे किसान आंदोलन के बारे में आपकी क्या राय है? क्या यह मोदी सरकार को चुनौती देता हुआ लग रहा है?
कोबाड गाँधी: एक हद तक तो चुनौती दे रहा है, मुझे लगता है। छह महीने (साक्षात्कार के वक्त) तो हो गए, लेकिन इसका भविष्य क्या होगा कुछ कह नहीं सकते। केंद्र सरकार तो क़ानून को पीछे नहीं लेनी वाली है क्योंकि विदेशी शक्तियों का ज़ोर है कि पीछे नहीं हटना है क्योंकि बड़े पूँजीपति (बिग बुर्जुवाजी) के लिए ये एक ज़रूरी सुधार है। खेती का बाज़ार एक गारंटी वाला मार्केट है। ख़ासतौर से एक ऐसे समय में जब ग़रीब और मध्यम वर्ग की क्रय शक्ति में गिरावट की वजह से अन्य वस्तुओं के बाज़ार का गिरना तय है। ये वर्ग अन्य ख़र्चों में कटौती कर सकते हैं, लेकिन जीवित रहने के लिए भोजन तो ख़रीदना ही होगा। अतः यह बाज़ार के क़ब्ज़े का एक अहम क्षेत्र होने जा रहा है। इसके अतिरिक्त भंडारण (स्टोरेज़) है, ज़मीन है। इस बाज़ार में पहले ही अंबानी और अदानी आ चुके हैं। बाज़ार में एक ज़बर्दस्त संकट है, इसलिए मुझे नहीं लगता है कि सरकार पीछे हटने वाली है। अब किसानों के पास क्या रणनीति है, पता नहीं।
सवाल: आपने अपनी किताब के आख़िरी अध्याय में लिखा है कि “ख़ुशियाँ हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है कि ग़ैर-बराबरी से लड़ने की जगह सभी के लिए ख़ुशियों के उद्देश्य को हासिल करना है तो गोलपोस्ट को शिफ़्ट/बदलना होगा।” कई लोग आपके इस बयान का मतलब मार्क्सवाद से विचलन से लगा रहे हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
कोबाड गाँधी: देखिए, बराबरी और आजीविका का सवाल एक आर्थिक माँग का सवाल है, हालाँकि यह बुनियादी है, लेकिन मेरा कहना है कि यह अंतिम उद्देश्य नहीं है। हम जो भी आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाएं, वे लोगों के जीवन में ख़ुशहाली का आधार बनें अन्यथा हमारे बदलाव का कोई कारण नहीं है। अतः इसके लिए आज़ादी चाहिए। हमें अपने अलगाव भरे जीवन से भी आज़ादी चाहिए जिसके बग़ैर, मार्क्स कहते हैं कि लोग एक “पंगु दैत्य” बन जाते हैं। अपनी किताब में मैंने विस्तार से आज़ादी की अवधारणा पर चर्चा की है जो कि न सिर्फ़ सरकार के स्तर पर होनी चाहिए बल्कि व्यक्तिगत स्तर भी होनी चाहिए। और मैंने स्पष्टता के साथ बताया है कि यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि हम अपने मूल्यों (वैल्यू सिस्टम) में बदलाव नहीं लाते हैं। इसे ही मैंने ‘अनुराधा मॉडल’ कहा है। तीनों- ख़ुशहाली, आज़ादी और बदलाव वाले मूल्य आपस में जुड़े हुए हैं। सभी एक दूसरे पर परस्पर निर्भर हैं। अब लोग बोलेंगे कि मार्क्स, लेनिन, स्तालिन और माओ ने कहां लिखा है? लेकिन प्रश्न यह नहीं है कि उन्होंने लिखा है या नहीं, हालाँकि मार्क्स ने ज़रूर इस पर लिखा है। माओ ने भी लिखा है लेकिन उन्होंने ये शब्द इस्तेमाल नहीं किया है।
मुख्य सवाल है कि यह हमारी क्रांतिकारी परियोजना में फ़िट बैठता है या नहीं। किसने क्या कहा है यह मुद्दे को तय नहीं करता है। हमने संगठनों के अंदर देखा है कि अगर छोटा सा भी लीडर है तो वह दूसरों की ख़ुशियों को दबा देता है। अगर उसे चमचागिरी पसंद है तो वह अपने चमचों को ही ख़ुशियाँ देने में लगा रहता है। दूसरी बात गुटबाज़ी की है। मतभेद हो सकता है लेकिन इन मतभेद को कैसे देखना है और कैसे सुलझाना है, इसके लिए अलग दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है। हमने जो अपने राजनीतिक जीवन में देखा है, उसकी समीक्षा अगर हम करेंगे तो ये सब अहम कारक (फ़ैक्टर) हैं। जो लोग ये कहते हैं कि ये वर्गीय दृष्टिकोण से दूर है उनका कहना है कि मार्क्स, लेनिन ने ये सब कहां लिखा है? सवाल यह नहीं है उन्होंने लिखा है या नहीं बल्कि मुद्दा ये है कि मार्क्सवादी साहित्य को हमने पढ़ा कैसे है- एक डोग्मा के बतौर या अपने कामों के लिए एक ज़रूरी निर्देशिका के बतौर। जब तक हम जीवन में बुनियादी ज़रूरतों को पूरा नहीं करते हैं, तो खुशियां नहीं आ सकती हैं। हमारा लक्ष्य सामाजिक राजनीतिक बदलाव है तो ये तो रहेगा ही, लेकिन हमें व्यक्तिगत मूल्यों की भी बात करनी होगी। ख़ुशियां अमूर्त में नहीं होती हैं। उनका एक भौतिक आधार होता है। एक नया समाज बनाने के लिए और इन विचारों को विकसित करने की ज़रूरत है।
कल्पना करिए कि भारत और दुनिया के तमाम वामपंथी संगठनों में ख़ुशहाली की लहर फैल जाए तो इस नई विचारधारा से हरेक इंसान जुड़ना चाहेगा क्योंकि सभी अपने जीवन में ख़ुशहाली की तलाश में हैं और बदले में उन्हें कुछ नहीं मिल रहा है सिवाय अवसाद, अलगाव, व्यक्तिवाद और प्रतिद्वंदिता के जो उम्मीद और ख़ुशियों की भावनाओं को कुचल रही है। और अगर वामपंथी भी बाक़ी के समाज की तरह ही मूल्यों को जन्म देंगे तो लोग इसे एक प्रभावी विकल्प के बतौर नहीं देखेंगे। अगर दूसरी तरफ़ सभी वामपंथियों के चेहरे पर एक ताज़ी चमक होगी तो उनके ख़िलाफ़ किए जाने वाले कुत्सा मीडिया प्रचार का कोई प्रभाव नहीं होगा। सभी ग़रीब और मध्यम वर्ग, बुद्धिजीवी सहित, इसकी रोशनी की तरफ़ परवानों की तरह खिंचे चले आएंगे। अतः इस रोशनी से न सिर्फ़ एक नयी सामाजिक व्यवस्था की शुरुआत करनी है बल्कि एक नया इंसान भी गढ़ना है।
(अनिल मिश्र मीडिया के शिक्षक हैं। यह साक्षात्कार समयांतर पत्रिका के अगस्त 2021 अंक में प्रकाशित हो चुका है)