वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने चार किस्त में आपातकाल के कुछ काले अध्याय लिख कर जनपथ को भेजे हैं। दूसरी कड़ी में आपने पढ़ी न्यूजक्लिक के संस्थापक-संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की कहानी, जिन्हें गफलत में एक साल जेल काटनी पड़ी थी। आपातकाल कैसे लगा, इस बारे में शृंखला की पहली कड़ी यहाँ पढ़ सकते हैं। प्रस्तुत है तीसरा अंक जिसमें बताया गया है कि कैसे आरएसएस के कुछ नेताओं ने आपातकाल में भी माफी मांगने की सावरकरी परंपरा को जारी रखा था।
संपादक
इमरजेंसी पर देश की दोनों संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों का रुख एकदम भिन्न था। सीपीआइ ने इमरजेंसी का समर्थन किया पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ-एम) ने खुल कर और जोरदार ढंग से विरोध किया। देश भर में और खास तौर पर केरल तथा पश्चिम बंगाल में इसके नेताओं और कार्यकर्ताओं की बड़ी पैमाने पर गिरफ्तारी हुई।
21 जुलाई 1975 को लोकसभा की बैठक बुलायी गयी जिसका मुख्य मकसद राष्ट्रपति द्वारा घोषित आपातकाल का अनुमोदन करना था। इसमें सीपीएम के सांसद एके गोपालन ने जो भाषण दिया वह काफी चर्चा में रहा। उन्हें और मार्क्सवादी नेता ईएमएस नंबूदरीपाद को महज दो दिन पहले ही जेल से रिहा किया गया था। रेल में उनके साथ जो अमानवीय बर्ताव हो रहा था उसके खिलाफ उन्होंने भूख हड़ताल की और स्पीकर को तार भेजा, तब उनकी रिहाई संभव हो सकी।
71 वर्षीय सांसद गोपालन ने अपने भाषण में कहा कि श्रीमती गांधी ने आपातकाल किसी आंतरिक खतरे की वजह से नहीं बल्कि इसलिए लगाया है क्योंकि इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला उनके खिलाफ आ गया था और उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी जाती हुई दिखाई दे रही थी, गुजरात चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ हुए फैसले से वह परेशान थीं और उन्होंने पूंजीवादी विकास के दिवालिये रास्ते पर चलने की कोशिश में अर्थव्यवस्था को इतना तहस-नहस कर दिया है कि अमीर लगातार और अमीर होता जा रहा है और गरीब व्यक्ति और भी ज्यादा गरीब। उन्होंने इस बात पर भी अफसोस जताया और इसे दुर्भाग्यपूर्ण कहा कि सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी और भारत तथा दुनिया की कुछ कम्युनिस्ट पार्टियां श्रीमती गांधी के इस झांसे में आ गईं कि उन्होंने प्रतिक्रियावादियों की साजिश को विफल करने के लिए आपातकाल की घोषणा की।
इमरजेंसी लगने के 40 साल बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने चेतावनी देते हुए कहा कि वह विश्वासपूर्वक नहीं कह सकते कि इमरजेंसी दोबारा नहीं लगायी जा सकती। जून 2015 में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि आज वे ताक़तें ज्यादा मजबूत दिखाई देती हैं जो संवैधानिक और वैधानिक संरक्षण के बावजूद जनतंत्र का गला घोंट सकती हैं। उन्होंने आगे कहा कि, ‘मैं यह नहीं कहता कि राजनीतिक नेतृत्व परिपक्व नहीं है लेकिन कमियों के कारण विश्वास नहीं होता।’
क्या इमरजेंसी दोबारा लग सकती है? समय-समय पर यह सवाल उठाने वाले ही इसका जवाब भी देते रहे हैं कि इंदिरा सरकार ने इमरजेंसी लगाकर जो किया वह सब जब मोदी सरकार देश में या योगी सरकार उत्तर प्रदेश में बिना इमरजेंसी लगाये ही कर सकती है तो इसकी जरूरत ही क्या है। इंदिरा गांधी ने मीडिया को काबू में रखने के लिए सेंसरशिप का सहारा लिया पर आज तो समूचा मीडिया- इलेक्ट्रॉनिक से लेकर प्रिंट तक- मोदी सरकार की स्तुति में लगा हुआ है।
वैसे, अब से बीस साल पहले भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि आज जनतंत्र को बचाए रखने के मामले में हम अपेक्षाकृत ज्यादा कमजोर स्थिति में हैं। इसकी एक वजह यह है कि आजादी की लड़ाई के दिनों के वे कद्दावर नेता आज नहीं हैं जो जात-पांत से ऊपर उठकर सोचते थे, और दूसरी वजह यह है कि आज सत्ता के सभी केंद्रों पर एक कैडर आधारित फासिस्ट संगठन का नियंत्रण है। स्वामी ने यह बात अपने ‘अनलर्ण्ट लेसंस ऑफ इमरजेंसी’ शीर्षक लेख में लिखा था जो 13 जुलाई 2000 के ‘दि हिंदू’ में छपा था। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। आज तो स्थिति और भी भयावह है।
सुब्रमण्यम स्वामी ने अपने इस लेख में बताया है कि कैसे आरएसएस के नेता माधवराव मुले ने नवंबर 1976 के शुरुआती दिनों में उनसे कहा कि वह विदेश चले जाएं क्योंकि संगठन ने इंदिरा गांधी के सामने आत्मसमर्पण करने से संबंधित दस्तावेज तैयार कर लिया है। इस दस्तावेज़ पर जनवरी 1977 में हस्ताक्षर हो जाएगा और फिर ‘इंदिरा और संजय को तुष्ट करने के लिए तुम्हें बलि का बकरा बनाया जाएगा क्योंकि तुमने विदेशों में इनके खिलाफ काफी दुष्प्रचार किया है।’
स्वामी ने इमरजेंसी की 25वीं वर्षगांठ मनाने के भाजपा के फैसले को हास्यास्पद बताते हुए अपने इस लेख में लिखा:
1975-77 के दौरान भाजपा/आरएसएस के अधिकांश नेताओं ने इमरजेंसी के खिलाफ चल रहे संघर्ष के साथ विश्वासघात किया। महाराष्ट्र विधानसभा की कार्यवाही में यह तथ्य दर्ज है कि आरएसएस प्रमुख बालासाहब देवरस ने पुणे की यरवदा जेल से इंदिरा गांधी के नाम अनेक माफीनामे भेजे जिसमें जेपी के आंदोलन से आरएसएस के अलग होने और इंदिरा गांधी के कुख्यात 20 सूत्री कार्यक्रम के समर्थन की पेशकश की गयी थी लेकिन इंदिरा गांधी ने किसी माफीनामे का जवाब देने की जरूरत नहीं महसूस की। अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इंदिरा गांधी के पास एक माफीनामा भेजा और इंदिरा गांधी ने उन्हें उपकृत भी किया। बीस महीने की इमरजेंसी में अधिकांश समय तक वाजपेयी पैरोल पर रहे- उन्होंने लिखित आश्वासन दिया कि वह सरकार के खिलाफ किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लेंगे।
सुब्रमण्यम स्वामी, अनलर्ण्ट लेसंस ऑफ इमरजेंसी, 13 जुलाई 2000 का ‘दि हिंदू’
आखिरकार सावरकर की परंपरा का निर्वाह भी तो करना था!
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