बिहार चुनाव में नीतीश कुमार की फिसलती जुबान पर अधिकतर लोगों को आश्चर्य हुआ. उनमें जो कुछ अच्छाइयां रही हैं, उनमें सर्वोपरि उनकी जुबान थी. अमर्यादित और अनाप-शनाप भाषा-बोली का इस्तेमाल वह कभी नहीं करते थे. उन्हें लगभग पैंतालीस वर्षों से जानता हूं. लम्बे समय तक अंतरंगता रही है. साथ रहे और काम किया है. मैंने कभी नहीं देखा कि वह आपसी बातचीत में भी किसी के लिए अमर्यादित जुबान का इस्तेमाल कर रहे हों. 1994 में जब वह जनता दल से अलग हुए थे और समता पार्टी बनायी थी, तब हम लोग साथ थे. 1995 की सर्दियों में बिहार विधानसभा के चुनाव हो रहे थे. उन दिनों की ही बात है. एक अंग्रेजी अख़बार के पत्रकार ने इंटरव्यू के दौरान उनसे पूछा था- ‘ क्या लालू प्रसाद को आप मूर्ख राजनेता मानते हैं? ‘
नीतीश कुमार ने तुरत जवाबा था- लालू प्रसाद को मूर्ख मानने वाले से बड़ा मूर्ख कोई नहीं हो सकता.
पत्रकार ने तुरत दूसरा प्रश्न किया- उनकी कोई खास कमजोरी?
नीतीश हाजिरजवाब अंदाज़ में बोले- हम लोगों ने बहुत दिनों तक साथ काम किया है, साथी रहे हैं. इसका मतलब यह है कि हमारे बीच साथ होने के तत्व अधिक थे. हां ,इस बीच कुछ बिंदुओं पर हमारी तीखी असहमति हुई और आज हम अलग-अलग हैं.
इस तरह वह नपी-तुली जुबान का इस्तेमाल करते थे, लेकिन आज नीतीश जी आमसभाओं में जो बोल रहे हैं, उससे पता चलता है कि वह भीतर से अस्थिर और घबराहट में हैं. उनकी जुबान सुन कर मुझे आश्चर्य हुआ और उनकी स्थिति पर किंचित दया आयी. किसको कितनी बेटियां और बेटे हैं, या कोई निःसंतान-निर्बंश है, जैसे सवाल क्या नीतीश कुमार उठाएंगे! तब सड़कछाप आवारा कहे जाने वाले लोग क्या करेंगे. एक दो बार नहीं, लगभग प्रतिदिन उनकी जुबान फिसल रही है. और एक पुराने मित्र-साथी के नाते मेरे लिए यह निश्चय ही चिंता की बात है.
वह बार-बार लालू राज के पंद्रह साल की बात उठाते हैं. जंगलराज था, अंधकार राज था, आदि. ये सवाल जब वह 2005 में उठाते थे, तब प्रासंगिक था लेकिन आज यह हास्यास्पद है. वह यह भी भूल जाते हैं कि इस बीच उन्होंने लालू प्रसाद की पार्टी के सहयोग से सरकार चलायी है. 2013 जून में भाजपा से अलग होने के बाद उन्हें पूर्ण बहुमत नहीं था. फिर राज्यसभा चुनाव के वक़्त उनकी पार्टी के ही एक ग्रुप ने विद्रोह किया तब लालू प्रसाद की पार्टी के सहयोग से ही राज्यसभा चुनाव में उनकी इज्जत बची. 2015 का विधानसभा चुनाव उन्होंने भाजपा के साथ नहीं, राजद-कांग्रेस के साथ लड़ा था. तब भी लालू प्रसाद पर ये सारे तोहमत थे. यदि लालू इतने बुरे थे, तब उस वक़्त साथ क्यों हुए थे? अधिक सीटें राजद को आयीं. तब भी इन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. इन सब को एकबारगी भूल कर वह जनता को क्या बताना चाहते हैं कि वह कुछ भी नहीं जानती? सच्चाई यह है कि पब्लिक सब कुछ जानती है.
किसी भी व्यक्ति को तथ्यपरक बात करनी चाहिए. यह बात साफ़ है कि आज मैं नीतीश कुमार के सत्ता में बने रहने के पक्ष में बिलकुल नहीं हूं, लेकिन यह कैसे नहीं मानूंगा कि कुछ वर्षों तक उन्होंने इस सूबे की ईमानदार सेवा नहीं की है. आज भी व्यक्तिगत रूप से मैं उन्हें भ्रष्ट नहीं मानता, लेकिन वह भ्रष्टाचारियों के ईमानदार मैनेजर जरूर बने हुए हैं. इसी रूप को लेकर मैंने बहुत पहले उन्हें नमक का दरोगा कहा था. नमक का दरोगा प्रेमचंद की एक कहानी है, जिसमें एक ईमानदार दरोगा अंततः कालाबाजारी करने वाले उस सेठ व्यापारी का मैनेजर हो जाता है, जिसे पकड़ने के लिए उसे नौकरी से बर्खास्त होना पड़ा था.
बेईमान लोग ईमानदारों की जितनी कदर करते हैं, उतनी कदर सभ्य समाज के लोग नहीं करते. बिहार और देश की तमाम बेईमान ताकतें आज नीतीश के समर्थन में खड़ी हैं. अमित शाह यूं ही फतवा नहीं दे रहे कि कम सीटें मिलने पर भी नीतीश ही चीफ होंगे. दुर्भाग्य है कि नीतीश इस कुटिलता को अब भी नहीं समझ रहे. बेईमान ताकतों को एक कुशल और ईमानदार मैनेजर की जरूरत है. यदि कोई अपनी ईमानदारी और कुशलता का इस्तेमाल गलत लोगों के पक्ष में करता है, तब वह गलत रास्ते पर है. अपनी ऐसी भूमिका पर उसे विचार करना चाहिए.
मेरी दृष्टि में नीतीश कुमार को फ़रवरी 2015 में पुनः मुख्यमंत्री के रूप में नहीं लौटना चाहिए था और नवंबर 2015 में तो बिलकुल ही नहीं. उन्हें बिहार के लिए जो करना था, कर चुके थे. एक व्यक्ति के लम्बे समय तक सत्ता में रहने से प्रायः गड़बड़ियां होती आयी हैं. लालू प्रसाद के भी लम्बे समय तक बने रहने से ऐसी ही गड़बड़ी हुई, हालांकि कुछ अपवाद भी हैं. दुर्भाग्यपूर्ण यह हुआ कि लालू और नीतीश अपवादों वाली फेहरिस्त में नहीं आ सके. पिछले अनेक वर्षों से नीतीश बिहार को भुलावे में रखे हुए हैं. बिहार अब उनसे मुक्त होना चाहता है. नयी युवा पीढ़ी की आकांक्षाओं को वह नहीं समझ पा रहे हैं. सरकारी फिजूलखर्ची और जनधन की लूट मची हुई है. इन्हीं सवालों को उनके बेटे-भतीजे उठा रहे हैं. उनकी सभाओं में यही लोग कोहराम कर रहे हैं. इनसे संवाद करने का साहस उनमें नहीं रह गया है. वे खीझ-झल्लाहट से भर जा रहे हैं. ऐसी हालत में मेरे विचार से उन्हें किसी मनोचिकित्सक के पास जाने की सख्त जरूरत है. उनके चमचे उन्हें ऐसा नहीं करने देंगे.
सत्ता की वशिष्ठी शक्तियों ने पौराणिक राम और उनके बेटों लव-कुश को आमने-सामने कर दिया था. इन्हीं वशिष्ठी ताकतों ने सीता को वनवास और शम्बूक वध करवाया था. आज नीतीश की स्थिति लगभग वैसी ही हो गयी है. वह किस से लड़ रहे हैं, उन्हें पता भी नहीं चल रहा. तेजस्वी उन्हें अपना आदर्श और अभिभावक मान रहे हैं. चिराग उनके पांव छू रहे हैं और ‘राम’ हैं कि इन्हीं लोगों के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए हैं. रामकथा में भी राम को अंततः सरयू में जलसमाधि लेनी पड़ी थी.
नीतीश समय रहते संभल जाएं, तो अच्छा. वह सत्ता में भले नहीं रहें, लेकिन युग के नायक बन सकते हैं. कृष्ण बीच युद्ध से कई दफा भागे और इसलिए उनका एक नाम रणछोड़ है. नीतीश इन प्रतीकों से कुछ सीख सकें तो सीखें. आखिर वह कर क्या रहे हैं? बोल क्या रहे हैं? किस के खिलाफ वह लड़ रहे हैं? किस के पक्ष में वह लड़ रहे हैं? उन्हें आगे करके उनके चमचों को बिहार लूटना है. उन्हें गलत जानकारियां दी जा रही हैं. जिस चौकड़ी से नीतीश घिरे हैं, वह भ्रष्ट तो है लेकिन बहुत चालाक है. इनसे यदि वह बाहर नहीं आए तो यह उनका और बिहार का दुर्भाग्य होगा.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित है।