आधी सदी तक सक्रिय एक राजनीतिक जीवन के विरोधाभास


भारतीय राजनीति में ‘मौसम वैज्ञानिक’ कहे जाने वाले नेता रामविलास पासवान नहीं रहे। पचास साल से लंबे अपने सक्रिय राजनीतिक करिअर वाले पासवान सामाजिक न्याय के नेताओं में सबसे वरिष्ठ थे। उनके ऊपर ढाई साल पहले एक बेहतरीन संस्मरण मशहूर दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय ने लिखा था। रामविलास पासवान को श्रद्धांजलि स्वरूप जनपथ पर प्रकाशित यह अंश फॉरवर्ड प्रेस पर 27 मई, 2018 को प्रकाशित उसी लंबे संस्मरणात्मक आलेख का संक्षिप्त रूप है और वहाँ से साभार पुनर्प्रकाशित है।

संपादक

रामविलास पासवान जी बिहार की ऐसी पृष्ठभूमि से हैं, जहां सामन्तवाद अपने क्रूर रूप में रहा है। आजादी के बाद भी लोग जातियों के जंजाल में शायद सबसे अधिक फंसे रहे हैं, हालांकि उनकी मुक्ति के लिए प्रयास हुए लेकिन उतने कारगर वे सिद्ध न हो सके। उसका सबसे बड़ा कारण था कि ज्यादातर नेता गांधी से प्रभावित थे, जिनमें दलित नेता भी थे। हरिजन शब्द का खुलकर प्रयोग होता था। उसका एक महत्वपूर्ण कारण बाबू जगजीवन राम थे, जिनकी आंबेडकर से प्रतिस्पर्धा थी और गांधी से नजदीकी।

आरम्भ में पासवान जी भी हरिजन शब्द का ही प्रयोग करते थे, पर बाद में दिल्ली के आंबेडकरवादी साथियों के सान्निध्य से वे दलित शब्द का प्रयोग करने लगे थे। इसी तरह वे आंबेडकर के करीब आते गए और गांधी से दूर होते गए। यही उनकी राजनीतिक परिपक्वता भी थी। देर से सही वे बाबा साहब के विचारों से प्रभावित हुए। कहना न होगा कि दलित राजनीति में यह उनके लिए प्रेरक तत्व भी था जिसने उन्हें देश भर में दलित नेता के रूप में उभारा। उसका कारण यह भी था कि बी.पी. मौर्य से लेकर बाबू जगजीवन राम पार्श्व में आ चुके थे। उनका राजनीतिक प्रभामण्डल लगभग अस्त होने लगा था। उनके अलावा कांशीराम जी का सूरज उदय हो रहा था। एक कारण और, दलित समाज के लोग अब परिवर्तन चाहते थे। वे पुरानों से ऊब गए थे और नए को आंबेडकर आंदोलन की कमान सौंपना चाहते थे।

उनका जन्म 1946 में बिहार के खगड़िया जिला के शहरबन्नी गांव में दलित (भारतीय वर्ण व्यवस्था में अछूत) परिवार में हुआ था। उन्होंने एम.ए. के साथ एल.एल.बी. भी की। साफ सुथरी छवि और उच्च शिक्षा लेकर उन्होंने अपने जीवन की रणनीति बनाई राजनीति में आने की।

संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान (बायें से) लालू प्रसाद, शरद यादव और रामविलास पासवान: साभार फॉरवर्ड प्रेस

रामविलास पासवान की राजनीति की सीढ़ियों की अगर हम बात करें तो उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से राजनीति की पहली सीढ़ी चढ़ी। 1969 में वे बिहार विधानसभा में इसी पार्टी के टिकट पर चुन कर आये। और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा, हालांकि हाजीपुर चुनाव क्षेत्र से उन्हें 2009 में लोकसभा का चुनाव हारना पड़ा। उनके सामने जीतने वाले थे जनता दल युनाइटेड के राम सुन्दर दास, जो बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके थे। यहां यह भी बताना जरूरी है कि राम सुन्दर दास भी दलित थे।

रामविलास पासवान जी के राजनीति के आरंभिक दौर की अगर हम बात करें तो वह न केवल उनके स्वयं का, बल्कि उत्तरी भारत के दलित आंदोलन का भी सुनहरा युग था। तब ब्राह्मणवाद कहीं न कहीं चरमराने लगा था। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को लोग पढ़ने और समझने लगे थे। राजनीति में आंबेडकर और लोहिया के मिले जुले सपनों को पूरा करने के अभियान भी आरम्भ होने लगे थे।

शुरुआती दौर में रामविलास जी से अक्सर मेरी मुलाकात सुरेंद्र मोहन के निवास वी.पी. हाउस में, बामसेफ की सभाओं में या फिर उनके घर पर होती थी। वे उस समय साउथ एवेन्यू रहते थे। रामविलास जी और मेरे बीच संवाद को आगे बढ़ाने में विशेष रूप से जिन दो साथियों ने मदद की, उनमें थॉमस मैथ्यू और विजय प्रताप भी थे। थॉमस मैथ्यू केरल से कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में दिल्ली के हम साथियों के सामने आए थे। वे आइएएस थे। दलित आंदोलन के लिए वे प्रतिबद्ध साथी थे। बाद के दौर में आंबेडकर से प्रभावित होते गए, पर कम्युनिस्ट विचारधारा को भी पकड़े रहे। दूसरे विजय प्रताप, जो लोकायन में रजनी कोठारी के साथ थे और गांधीवादी थे। उत्तरी भारत में आंबेडकर के बढ़ते प्रभाव को समझ आंबेडकरी आंदोलन के साथियों से रिश्ते बनाने लगे थे। मैं भी कुछ वर्ष लोकायन में रहा था।

1977 में रामविलास पासवान जनता पार्टी से हाजीपुर चुनाव क्षेत्र से पहली बार चुनाव जीत कर आये। उनके इस चुनाव की जीत अधिकतम मतों से हुई, जो वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हुआ। राजनीति में यह उनकी जोरदार दस्तक थी। ऐसी दस्तक जिससे राजनीतिक पंडित भी एक बार को चौंक गए थे। वहीं दलितों को लगा था कि उनका मसीहा उन्हें मिल गया है।

यूं पासवान जी पढ़ने-लिखने वाले दलित नेता थे। जब जनपथ पर उन्हें बंगला मिला तो एक कमरे में उन्होंने बहुत सारी किताबें रखीं। मैं वहीं बैठ कर किताबें पढ़ता था। द्रविड़ कड़गम के जनरल सेक्रेटरी के. वीरमणि की एक पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ द स्ट्रगल फॉर सोशल एंड कम्यूनल जस्टिस इन तामिलनाडु’ मैं उनसे लाया भी, जो मेरे पास अब भी है। वे लोगों से खूब मिलते-जुलते भी थे। घर पर भी उन्हें बुलाते थे। कहने का मतलब यह कि अपना अधिकतम समय दलित आंदोलन को देते थे। शुरुआत की यही उनकी दिनचर्या थी।

साभार फॉरवर्ड प्रेस

उन्होंने ‘न्याय चक्र’  नाम से एक मासिक पत्रिका भी शुरू की जिसके सम्पादक गुरवचन बने। चित्रपाल जी इसके लिए चित्र आदि बनाते थे। वे आगरा से थे। दलित चित्रकार थे और उन दिनों रंजीत नगर दिल्ली में रहते थे। इस बहाने भी पासवान जी के यहां मेरा जाना होता था। इन दोनों के साथ मैं तीसरा था ‘न्याय चक्र’ में कूदने वाला। बाद में एक दो वर्ष के लिए ‘न्याय चक्र’ को सम्पादक के रूप में मैंने देखा। इसी दौरान लगभग हर दूसरे या तीसरे दिन जनपथ स्थित उनके निवास पर जाना होता था। मेरे लिए उन्होंने अपने निवास में ही एक कमरे की व्यवस्था की। कभी कभी उनकी पत्नी से मुलाकात हो जाती थी। वे मेरे लिए चाय भिजवाती थीं। स्वयं पासवान जी ने उनसे परिचय भी कराया था।

‘न्याय चक्र’ मूल रूप से आंदोलन की पत्रिका थी। उसमें दलित सेना के कार्यक्रमों की रपट भी छपती थी। चार पांच हजार प्रतियां उसकी छपती थीं। देश भर के साथियों से विचार-विमर्श होता था। जहां तक रामविलास जी को मुझसे क्या लाभ हुआ, यह तो वे जानें लेकिन न्याय चक्र के माध्यम से मेरे मित्रों की सूची में इजाफा जरूर हुआ। ऐसे साथी जो आंदोलन के साथ साहित्य सृजन भी करते थे। उनमें कुछ साथी महाराष्ट्र से थे।

सम्भवतः 1989 में वे पहली बार केंद्र में मंत्री बने। समाज कल्याण के साथ उन्हें श्रम मंत्री भी बनाया गया। उस समय वी.पी.सिंह प्रधानमंत्री थे। बाबासाहब डॉ. आंबेडकर जन्म शताब्दी समारोह समिति  का गठन होने जा रहा था। दलित नेताओं में रामविलास पासवान जी शीर्ष पर थे। विजय प्रताप, सुरेंद्र मोहन और रजनी कोठारी आदि के सहयोग तथा सलाह से मुझे केंद्रीय स्तर की इसी समिति में लिया गया। हो सकता है, पासवान जी की इसमें भूमिका रही हो। तब उनसे मिलना जुलना अधिक होता था। सामाजिक विषयों पर बातचीत होती थी।

बाद में, जब वे जून 1996 में रेल मंत्री बने तो मुझे रेल मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति का सदस्य बनाया। उन्हें जानने समझने का और भी अवसर मिला एक मित्र के रूप में, एक कार्यकर्ता के रूप में, एक मंत्री के रूप में। उन दिनों वे इन तीनों की भूमिका निभा रहे थे, लेकिन मंत्री पद उन पर हावी होता जा रहा था। पुराने साथी छूटने लगे थे, नए जुड़ने लगे थे। ऐसा लगभग सभी के साथ होता रहा है। पासवान जी अपवाद नहीं थे।

बहुत सारे लोग उनसे मिलने आते थे जिनमें आम और खास दोनों होते थे। उन्हीं दिनों फूलन देवी लोकसभा का चुनाव जीत कर आई थीं। एक बार वे पासवान जी के घर पर आईं तो उनसे मेरा परिचय कराया। बाद में कई बार फूलन देवी से मुलाकात हुई। मैंने उन पर आलेख भी लिखा, ‘फूलन देवी इन्टर्स लोकसभा’। यह अंग्रेजी के साथ पांच भाषाओं में छपा था।

फूलन देवी, रामविलास पासवान और पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह: साभार फॉरवर्ड प्रेस

रामविलास पासवान जी का एक बहुत ही हिट चुनावी नारा रहा है- “जिस घर में अन्धेरा है, मैं उस घर में चिराग जलाने निकला हूं।’’ वैसे हर चुनावी नारा सिर्फ नारा ही होता है जिसके सहारे प्रत्याशी चुनाव जीतते हैं। किसी अंधेरे घर में उजाला हो या न हो। किसी बेरोजगार को रोजगार मिले या न मिले, वह अलग बात है, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि लगातार जब कोई सत्ता की सीढ़ियां चढ़ता जाता हो तो उसके और जनता के बीच फासला अधिक हो जाया करता है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि रामविलास पासवान जी बाबूजी बन गए हैं और सत्ता के लिए समझौता करने लगे हैं। बिहार से बाबूजी ने भी सत्ता की राजनीति में लम्बी पारी खेली थी। पासवान जी भी बाबू जगजीवन राम की लंबी पारी के नजदीक तो पहुंच ही गये हैं। बहुजन समाज पार्टी को छोड़कर वे लगभग हर पार्टी में अवसर देखकर शामिल हो जाते हैं।

मेरे साथ उनके पुराने साथियों को उनके द्वारा दल बदलना या भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी में शामिल हो जाना, बुरा तो लगता ही है, लेकिन राजनीति यही है। अगर राजनीति यही है तो उन लोगों का क्या होगा जो हर चुनाव में इस आशा से अपना मत देते हैं कि चुनाव जीतने वाले अवश्य ही वायदे पूरे करेंगे।

सवाल किसी एक पासवान का नहीं है। सवाल है तथाकथित प्रतिनिधियों का। रामविलास पासवान जी अपने जीवन के आरम्भ में जुझारू दलित नेता रहे हैं। उन्होंने दलितों की सुरक्षा के लिए दलित सेना भी बनाई थी। उनकी सेना कितने दलितों की सुरक्षा कर पाई?

पासवान जी के साथ बहुत सारे संस्मरण और यादें जुड़ी हैं। इसलिए कि लगभग बीस से भी अधिक बरसों का मेरा साथ रहा है। 70 के दशक के शुरुआती दौर में जब उनके साथ मैं ऑटो में अक्सर जाता था। कभी पैदल भी। फिर जब वे सांसद बने तो डीटीसी की छोटी बस से घर से संसद जाते थे। उस समय बड़ी-बड़ी कार नहीं होती थी। कुछ सांसद तो ऑटो पर ही आते थे, कुछ पैदल। तब तक राजनीति में समाजवाद था। दिखावा न था। आदर्श थे। ईमानदारी थी। साथियों  से नेता अच्छी तरह बात करते थे। पासवान जी भी उन्हीं आदर्श का पालन करते थे। पता ही नहीं चलता था कौन मंत्री है और कौन सन्तरी, कौन चपरासी है और कौन अफसर। जीवन में सादगी थी। लगभग सभी के भीतर कुछ करने की भावना। जुनून था साथियों के बीच। मैं कहना चाहूंगा राजनीति का वह आदर्श युग था।


यह संस्मरण फॉरवर्ड प्रेस पर 27 मई, 2018 को प्रकाशित एक लंबे आलेख का संपादित रूप है और वहाँ से साभार पुनर्प्रकाशित है।


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