प्रधानमंत्री जी! लोकतांत्रिक सरकार की गाड़ी बिना रिवर्स गियर के चलाने की कोशिश मत करिए!


प्रधानमंत्री जी ने स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की जयंती पर कुछ चुनिंदा राज्यों के किसानों को संबोधित किया। इस बार भी वे आंदोलनरत किसानों से प्रत्यक्ष संवाद करने का साहस नहीं जुटा पाए। जो भी हो यह संबोधन बहुप्रतीक्षित था। किसानों के राष्ट्रव्यापी जन प्रतिरोध के मद्देनजर सबको यह आशा थी कि प्रधानमंत्री किसी सकारात्मक पहल के साथ सामने आएंगे। आदरणीय मोदी जी देश के 135 करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री हैं। देश की आबादी के 60-70 प्रतिशत हिस्से की आजीविका कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और यह स्वाभाविक था कि कृषि सुधारों से उपजी आशंकाओं के मध्य प्रधानमंत्री जी का भाषण बहुत ध्यान से सुना गया।

आदरणीय मोदी जी बोले तो अवश्य किंतु उनके लंबे भाषण में प्रधानमंत्री को तलाश पाना कठिन था। कभी वे किसी कॉरपोरेट घराने के कठोर मालिक की तरह नजर आते जो अपने श्रमिकों की हड़ताल से नाराज है; हड़तालों से निपटने का उसका अपना अंदाज है जिसमें लोकतंत्र का पुट बहुत कम है। वह हड़तालियों की मांगों को सिरे से खारिज कर देता है, उन पर प्रत्याक्रमण करता है और फिर बड़े गर्वीले स्वर में कहता है कि तुम मेरे सामने बैठकर मुझसे बात कर रहे हो क्या यह तुम्हारी कम बड़ी उपलब्धि है। तुम कितने किस्मत वाले हो कि मैंने अभी तक तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाया है, तुम पर कोई कार्रवाई नहीं की है।

कभी वे सत्ता को साधने में लगे किसी ऐसे राजनेता की भांति दिखाई देते जो हर अवसर का उपयोग चुनावी राजनीति के लिए करता है। उनके भाषण का एक बड़ा भाग बंगाल की राजनीति पर केंद्रित था और उन्होंने बंगाल के किसानों की बदहाली के जिक्र के बहाने अपने चुनावी हित साधने की पुरजोर कोशिश की। वे बंगाल के चुनावों के प्रति इतने गंभीर थे कि उन्होंने इस संबोधन की गरिमा और गंभीरता की परवाह न करते हुए चुनावी आरोप प्रत्यारोप पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया।

कभी वे उग्र दक्षिणपंथ में विश्वास करने वाले आरएसएस के प्रशिक्षित और समर्पित कार्यकर्त्ता के रूप में दिखते- वामपंथ से जिसका स्वाभाविक बैर भाव है और वामपंथ को जड़मूल से मिटा देना जिसका पुराना संकल्प।

आदरणीय मोदी जी ने बंगाल और केरल में भूतकाल और वर्तमान में शासनरत वामपंथी सरकारों पर किसानों की उपेक्षा का आरोप लगाया। उन्होंने किसान आंदोलन के लिए भी अप्रत्यक्ष रूप से वामपंथियों को ही जिम्मेदार ठहराया और उन्होंने वामपंथियों पर किसान आंदोलन को हाईजैक करने तथा किसानों को गुमराह कर उनके बहाने अपना एजेंडा चलाने के आरोप भी लगाए। पिछले कुछ दिनों से प्रधानमंत्री जी वामपंथ पर कुछ अधिक ही हमलावर हो रहे हैं। शायद वे किसानों और मजदूरों में बढ़ती जागृति से परेशान हैं और उन्हें लगता है कि आने वाले समय में कांग्रेस नहीं बल्कि वामपंथियों से उन्हें कड़ी चुनौती मिलने वाली है। शायद बिहार चुनावों में विपक्ष को एकजुट करने में वामदलों की केंद्रीय भूमिका से वे चिंतित भी हों। यह भी संभव है कि राजनीतिक शत्रु कांग्रेस को पराभूत करने के बाद अब वे अपने वैचारिक शत्रु वामदलों पर निर्णायक वार करना चाहते हों। बहरहाल प्रधानमंत्री जी ने वामपंथ को चर्चा में तो ला ही दिया है।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी आंदोलनकारियों के प्रति आश्चर्यजनक रूप से संवेदनहीन नजर आए। उन्होंने इस आंदोलन को जनता द्वारा नकार दिए गए विरोधी दलों का पब्लिसिटी स्टंट बताया। किंतु अंतर केवल यह था कि विरोधी दलों से उनका संकेत इस बार कांग्रेस की ओर कम और वाम दलों की ओर अधिक था। अराजनीतिक होना इस किसान आंदोलन की सर्वप्रमुख विशेषता रही है। किसानों ने राजनीतिक दलों से स्पष्ट और पर्याप्त दूरी बनाई हुई है। ठंड का समय है, शीतलहर जारी है। अब तक आंदोलन के दौरान लगभग 40 किसान अपनी शहादत दे चुके हैं। लाखों किसान इस भीषण ठंड में अपने अस्तित्व की शांतिपूर्ण और अहिंसक लड़ाई लड़ रहे हैं। यदि आदरणीय प्रधानमंत्री जी इस दुःखद घटनाक्रम को एक पब्लिसिटी स्टंट के रूप में देख रहे हैं तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। जब सर्वोच्च पद पर आसीन कोई जन प्रतिनिधि जनता के असंतोष को एक षड्यंत्र की भांति देखने लगे तो चिंता उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

प्रधानमंत्री जी ने फरवरी 2019 से प्रारंभ हुई पीएम किसान सम्मान निधि योजना की सातवीं क़िस्त जारी करने की एक सामान्य सी औपचारिक प्रक्रिया को एक मेगा इवेंट में बदल दिया। यदि इस मेगा इवेंट की तुलना भीषण ठंड में जारी किसानों के साहसिक और शांतिपूर्ण प्रदर्शन से की जाए तो यह सहज ही समझा जा सकता है कि पब्लिसिटी स्टंट की परिभाषा किस दृश्य से अधिक संगत लगती है।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने यह भी कहा कि किसानों के विषय पर हम हमारे विरोधियों से चर्चा करने को तैयार हैं बशर्ते यह चर्चा मुद्दों, तथ्यों और तर्क पर आधारित हो। किंतु दुर्भाग्य यह है कि आदरणीय प्रधानमंत्री जी का स्वयं का पूरा भाषण मुद्दों, तथ्यों और तर्क पर आधारित नहीं था। यह कोई चुनावी सभा नहीं थी बल्कि देश के आंदोलित अन्नदाताओं के लिए संबोधन था इसलिए यह अपेक्षा भी थी कि प्रधानमंत्री अधिक उत्तरदायित्व और गंभीरता का प्रदर्शन करेंगे।

आदरणीय मोदी जी को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना की नितांत अपर्याप्त और असम्मानजनक राशि के लिए खेद व्यक्त करना चाहिए था और किसानों से यह निवेदन करना चाहिए था कि आप पूरे देश के अन्नदाता हैं, हम सब आपके ऋणी हैं। इसके बावजूद मैं आपके साथ न्याय नहीं कर पा रहा हूं और बहुत संकोचपूर्वक यह छोटी सी राशि आपको भेंट कर रहा हूं। किंतु उन्होंने अपनी इस चुनावी योजना का जमकर गुणगान किया। वे पहले भी इस योजना को किसानों के प्रति अपनी संवेदनशीलता और उदारता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते रहे हैं जबकि सच यह है कि यह देश के किसानों के हक का पैसा है जो बड़ी कृपणता से उन्हें दिया गया है। इतनी छोटी और असम्मानजनक राशि को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि का नाम देना ही किसानों के साथ क्रूर मजाक जैसा था किंतु जिस प्रकार इस योजना को किसानों के लिए अनुपम सौगात के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है वह और दुःखद है। यह किसान हमारे अन्नदाता हैं कोई भिक्षुक नहीं हैं। यदि भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन बिना आंकड़ों का स्रोत बताए यह दावा करते हैं कि 6000 रुपए वार्षिक सहायता छोटे और मध्यम किसान परिवारों की वार्षिक आय के छठवें हिस्से के बराबर है तब भी उससे इस बात की ही पुष्टि होती है कि हमने किसानों को कितनी दीन दशा में पहुंचा दिया है। एनएसएसओ के आंकड़ों के आधार पर अनेक विश्लेषक यह दावा करते हैं कि 6000 रुपए की मदद किसानों की वार्षिक आय के 5 प्रतिशत से भी कम है।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में पुनः यह दावा किया कि उन्होंने स्वामीनाथन आयोग की उन सिफारिशों को लागू किया जिन्हें पूर्ववर्ती सरकारों ने फ़ाइलों के ढेर में दबा दिया था, किंतु न सरकारी आंकड़े और न जमीनी हकीकत इस दावे की पुष्टि करते हैं। 4 अक्टूबर 2006 को स्वामीनाथन आयोग की पांचवीं और अंतिम रिपोर्ट आने के बाद 201 एक्शन पाइंट्स तय किए गए थे जिनके क्रियान्वयन के लिए एक अंतरमंत्रालयी समिति का गठन किया गया जिसकी अब तक आठ बैठकें हुई हैं जिनमें से केवल तीन मोदी सरकार के कार्यकाल में हुई हैं। भारत सरकार का यह दावा है कि इन 201 में से 200 सिफारिशें लागू हो चुकी हैं। सरकारी आंकड़े यह बताते हैं कि इनमें से 175 सिफारिशें यूपीए सरकार के कार्यकाल में लागू हुईं और केवल 25 सिफारिशें मोदी सरकार द्वारा लागू की गई हैं। यूपीए और एनडीए सरकारों के स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के इन दावों के विपरीत विगत 15 वर्षों में किसानों की हालत बिगड़ी है और आज वे अपने अस्तित्व की निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं।

स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट की मूल भावना यह थी कि किसानों को सी2 लागत पर डेढ़ गुना मूल्य प्राप्त होना चाहिए; जिसमें कृषि के सभी आयामों यथा उर्वरक, जल एवं बीज के मूल्य के अतिरिक्त परिवार के श्रम, स्वामित्व वाली जमीन का किराया मूल्य और निश्चित पूंजी पर ब्याज मूल्य को भी सम्मिलित किया जाए।

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मोदी सरकार ने जो डेढ़ गुना एमएसपी घोषित की है वह ए2 एफएल लागत के आधार पर परिगणित है, जिसमें पट्टे पर ली गई भूमि का किराया मूल्य, सभी नकद लेन-देन और किसान द्वारा किए गए भुगतान समेत परिवार का श्रम मूल्य तो सम्मिलित किया जाता है, किंतु इसमें स्वामित्व वाली भूमि का किराया मूल्य और निश्चित पूंजी पर ब्याज मूल्य शामिल नहीं होता है।

स्वाभाविक है कि इस प्रकार एमएसपी की गणना करने से जो मूल्य प्राप्त होता है वह बहुत कम होता है और अनेक बार यह किसानों की उत्पादन लागत से भी कम अथवा जरा सा ही अधिक होता है। यदि हम केवल गेहूँ का उदाहरण लें तो सरकार के दावों की हकीकत सामने आ जाती है। सरकार ने वर्ष 2020 के लिए गेहूँ की एमएसपी पिछले वर्ष के न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपए में मात्र 2.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करते हुए 1975 रुपए निर्धारित की। यह वृद्धि विगत दस वर्षों में की गई न्यूनतम वृद्धि थी। उत्तर प्रदेश द्वारा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को प्रेषित गेहूँ की उत्पादन लागत 1559 रुपए प्रति क्विंटल जबकि पंजाब और हरियाणा द्वारा परिगणित उत्पादन लागत क्रमशः 1864 रुपए और 1705 रुपए है। इस प्रकार केंद्र द्वारा घोषित 1975 रुपए का समर्थन मूल्य उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा द्वारा प्रेषित उत्पादन लागत से क्रमशः 27, 6 एवं 16 प्रतिशत ही ज्यादा है। यही स्थिति चना, ज्वार, बाजरा, मक्का,धान तथा तुअर, मूँग और उड़द की फसलों की है। इनमें से किसी भी फसल के लिए केंद्र सरकार द्वारा घोषित एमएसपी राज्य द्वारा गणना की गई उत्पादन लागत का डेढ़ गुना नहीं है।

State_of_Rural_and_Agrarian_India_Report_2020

अनेक उदाहरण ऐसे भी हैं जब केंद्र द्वारा घोषित एमएसपी राज्य सरकार द्वारा बताई गई उत्पादन लागत से कम है। सच्चाई यह है कि केंद्र द्वारा सभी राज्यों का औसत निकालकर एक समर्थन मूल्य घोषित करना किसानों के लिए नुकसानदेह है और विभिन्न प्रदेश राज्य आधारित एमएसपी की मांग करते रहे हैं। आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक अध्ययन के अनुसार 2000 से 2017 के मध्य कृषकों को अपने उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण उन्हें 45 लाख करोड़ रुपए की क्षति हुई। वर्ष 2015 में भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन हेतु परामर्श देने के लिए गठित शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एमएसपी का लाभ मात्र 6 प्रतिशत किसानों को ही प्राप्त हो पाता है।

प्रधानमंत्री जी ने वाम दलों पर किसान विरोधी होने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में ममता सरकार किसानों को पीएम किसान सम्मान निधि का लाभ नहीं लेने दे रही है किंतु वहां वाम दल इस संबंध में कोई आंदोलन नहीं करते। पुनः यहां आदरणीय प्रधानमंत्री जी विमर्श को बुनियादी मुद्दों से भटकाने की कोशिश करते नजर आते हैं। अपने भाषण में बार बार राजनीतिक दलों का जिक्र कर प्रधानमंत्री इस किसान आंदोलन की सच्चाई और पवित्रता पर अपने अविश्वास की अभिव्यक्ति करते हैं। वे बार बार राजनीतिक दलों पर किसानों को भ्रमित करने का आरोप लगाते हैं। अनेक बार ऐसा संदेह होता है कि वे आंदोलनरत किसानों को किसान मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनकी दृष्टि में ये राजनीतिक पार्टियों और विशेषकर वाम दलों के एजेंट हैं जो दिल्लीवासियों को परेशानी में डालने और देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं। प्रधानमंत्री  जी पीएम किसान सम्मान निधि की तुच्छ और नाम मात्र की राशि को बार बार बहस और चर्चा का केंद्र बिंदु बनाना चाहते हैं जबकि देश का किसान बार बार यह कह रहा है कि सरकार अपने कृषि कानून और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि जैसी बिन मांगी सौगातें बेशक वापस ले ले किंतु वह एमएसपी को कानूनी दर्जा दे दे।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी पश्चिम बंगाल में वाम दलों के अभ्युदय के मूल कारण- स्वर्गीय ज्योति बसु द्वारा किए गए भूमि सुधारों- को अनदेखा करते नजर आते हैं। यह ज्योति बसु ही थे जिन्होंने जमींदारों के अधिकार की और सरकारी कब्ज़े वाली भूमि का मालिक़ाना हक़ लगभग 10 लाख भूमिहीन किसानों प्रदान किया और अपनी इस क्रांतिकारी पहल से ग्रामीण इलाकों में निर्धनता उन्मूलन में सफलता हासिल की। जमीन के जो पट्टे दिए गए वह महिलाओं और पुरुषों के संयुक्त नाम से दिए गए और अकेली महिलाओं के नाम पर भी पट्टे जारी किए गए। इन भूमि सुधारों से सर्वाधिक लाभ दलितों, आदिवासियों और किसानों को मिला। यह ज्योति बाबू ही थे जिन्होंने कृषि मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित की और त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था को रूपाकार दिया।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने यह भी कहा कि केरल में एपीएमसी और मंडियां नहीं हैं, वहां वामदल इनके लिए आंदोलन क्यों नहीं करते। पुनः वे यहां भौगोलिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक सत्यों की अनदेखी करते नजर आए। केरल अपने मसालों के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। केरल नेचुरल रबर के उत्पादन हेतु भी जाना जाता है। केरल की फसलों की प्रकृति देश के अन्य प्रांतों से एकदम अलग है। यही कारण है कि यहां अलग अलग कृषि उत्पादों हेतु अलग अलग बोर्ड बनाए गए जिनमें नीलामी की प्रक्रिया अपनाकर किसानों की फसलें बेची जाती है। केंद्र सरकार लगातार इन बोर्ड्स को कमजोर करने में लगी है। इन्हें पर्याप्त फण्ड नहीं दिया जाता, इनमें ढेर सारे पद रिक्त हैं जिनमें से कुछ तो शीर्ष अधिकारियों के हैं। केरल की 82 फीसदी फसलें स्पाइस और प्लांटेशन क्रॉप्स हैं। इनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार के उतार चढ़ाव पर निर्भर करती हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार के परिवर्तन किसानों के लिए फ्री ट्रेड एग्रीमेंट के कारण और घातक रूप ले लेते हैं। ऐसी दशा में यह एलडीएफ की सरकार ही है जिसने किसानों को संरक्षण दिया। प्रसंस्करण उद्योगों को बढ़ावा दिया गया, यथा परिस्थिति सहकारी समितियों के माध्यम से खरीद भी की गई। एलडीएफ सरकार ने केरल में सब्जियों हेतु भी बेस प्राइस तय की है। केरल की वाम सरकार किसानों को भारी सब्सिडी भी देती है और आसान शर्तों पर ऋण की सुविधा भी।

यदि आदरणीय प्रधानमंत्री जी तथ्यों, तर्कों और मुद्दों पर आधारित विमर्श करना चाहते हैं तो उन्हें यह बताना चाहिए था कि 28 फरवरी 2016 को वर्ष 2022 तक किसानों की आय दुगनी करने के उनके वादे का क्या हुआ? देवेंद्र शर्मा जैसे जाने माने कृषि विशेषज्ञ यह मानते हैं कि किसानों की आय इतनी कम है कि इसे दुगना करने पर भी किसानों के जीवन स्तर में बहुत सुधार नहीं होने वाला। 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 17 राज्यों में किसानों की औसत वार्षिक आय 20000 रुपए है। यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मात्र 1700-1800 रुपए मासिक आय में किसान अपना घर किस तरह चलाता होगा। देवेंद्र शर्मा ने एक अध्ययन द्वारा यह बताया था कि 1970-2015 की अवधि में गेहूं के समर्थन मूल्य में 20 गुना वृद्धि हुई। इसी अवधि में सरकारी कर्मचारियों की आय 120-150 गुना बढ़ गई जबकि कंपनियों में कार्यरत सामान्य स्तर के कर्मचारियों की आय 3000 गुना तक बढ़ती देखी गई। बहरहाल किसानों की आय वर्ष 2022 तक दुगुनी करने हेतु 10 प्रतिशत सालाना की कृषि विकास दर चाहिए थी किंतु कृषि विकास दर 2016-17, 2017-18 और 2018-19 में 6.3%, 5.0% और 2.9% रही है जबकि 2019-20 के लिए यह 2.8 प्रतिशत है। ऐसी दशा में किसानों की आय दुगुनी करने का वादा भी एक जुमला सिद्ध होने वाला है।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने अपने संबोधन में इस ऐतिहासिक अराजनीतिक अहिंसक किसान आंदोलन को विरोधी दलों का षड्यंत्र सिद्ध करने की पुरजोर कोशिश की। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि किसान विरोधी कृषि कानूनों को वापस लेने का उनका कोई इरादा नहीं है। सोशल मीडिया में मोदी जी के अंध समर्थक पहले ही आंदोलनरत किसानों को किसान मानने से इनकार करते रहे हैं और इनके लिए देशविरोधी, आतंकी एवं विभाजनकारी जैसे अनुचित संबोधनों का उपयोग भी करते रहे हैं। यह आशा थी कि प्रधानमंत्री जी अपने बेलगाम समर्थकों पर नकेल कसेंगे। इनकी निंदा करेंगे और किसानों से क्षमा याचना भी करेंगे किंतु उन्होंने अपने भाषण में इस जहरीले दुष्प्रचार का प्रच्छन्न समर्थन ही किया। उनके भाषण के बाद सोशल मीडिया में उनके अंध समर्थकों के यह मैसेज तैरने लगे हैं कि मोदी सरकार में रिवर्स गियर के लिए कोई स्थान नहीं है, आंदोलनकारियों को भले ही अपने प्राण गंवाने पड़ें पर सरकार पीछे हटने वाली नहीं है। कुछ पोस्टों में यह भी लिखा गया है कि अब समान नागरिक संहिता तथा काशी-मथुरा का नंबर है। लोकतांत्रिक सरकार की गाड़ी रिवर्स गियर के बिना नहीं चल सकती और अगर कोई ऐसी कोशिश होती है तो यह देश के लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।


डॉक्टर राजू पांडेय छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित लेखक हैं


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