आज से छह साल पहले गुजरात से आए नरेंद्र मोदी को अपना सांसद और देश का प्रधानमंत्री चुनकर बनारस ने पूरी दुनिया को चौंका दिया था। उनके खिलाफ़ चुनाव लड़ने दिल्ली से आए अरविंद केजरीवाल को भी इस शहर ने हाथोहाथ लिया था और इतने भी कम वोट नहीं दिए। बीते दो साल से जब बनारस में लगातार मंदिर तोड़े गये, काशी विश्वनाथ को व्यावसायिक रूप दे दिया गया और सैकड़ों शिवलिंगों और विग्रहों को कूड़ेदान के हवाले कर दिया गया, तब भी इस शहर ने सबको चौंकाया। न आंदोलन, न हो हल्ला। सदियों से धर्म की संसद लगाने वाले और शास्त्रार्थों में शंकराचार्य को हराने वाले इस शहर ने सनातन धर्म का नाश किए जाने पर चूं तक नहीं की। अब जबकि पूरा शहर तालाबंदी में अपनी गति खो चुका है, तो एक बार फिर यहां के कुछ लोगों ने चौंकाने वाला एक काम किया है।
एक रसोई बनायी गयी है शहर में। रसोई के खानसामा पिछड़े और दलित समुदाय से हैं। खाना बांटने वाले तमाम सहयोगी उच्च वर्णों से हैं। जिन्हें भोजन दिया जा रहा है वे गरीब दलित और मुसहर हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि इस रसोई को अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज एक संस्था जनमित्र न्यास के साथ मिलकर चला रहा है जिसके कर्ताधर्ता रघुवंशी यानी राम के वंशज हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था की अनिवार्यता वाले हिंदू धर्म का गढ़ कहा जाने वाला बनारस आज वैश्विक महामारी से उपजे संकट में वर्ण और नस्ल की दीवारें तोड़ चुका है।
बनारस शहर में वरुणा नदी के पार पांडेयपुर नाम के इलाके में मौजूद काली मंदिर के बाहर एक विशाल सामुदायिक रसोई में पूड़ियां छन रही हैं और सब्ज़ी बन रही है। यहीं से खाना गरम रखने वाले फॉयल में पैक कर के करीब 300 गरीब वंचित परिवारों और 35 प्रवासी मजदूर परिवारों का पेट नियमित भरा जा रहा है। आइटीसी के सहयोग से नूडल्स आए हैं तो टाटा कंपनी के सहयोग से चाय। सात सौ किलो गेहूं आया है तो रीयल फ्रूट जूस के डिब्बे भी। हज़ारों रुपये की दवाएं भी बांटी जा रही हैं। इस रसोई के काम का क्षेत्र है चौकाघाट के पास स्थित बेलवरिया, जहां शहर के सबसे गरीब वंचित प्रवासी समुदाय रहते हैं।
इस काम के पीछे एक दम्पत्ति हैं− लेनिन रघुवंशी और श्रुति नागवंशी। “कोई अंडा बेचता है तो कोई रेहड़ी लगाता है। कोई चंदौली से है, कोई बिहार से। राशन कार्ड किसी के पास नहीं है क्योंकि दुर्भाग्य से इनके घर बने हुए हैं, लेकिन असल दुर्भाग्य यह है कि इनके पास खाने को अन्न नहीं है”, ब्राह्मण समाज के साथ मिलकर रसोई को चलाने वाली संस्था जनमित्र न्यास के लेनिन रघुवंशी रसोई के बारे में फोन पर यह बताते हुए एक शब्द कहते हैं− नवदलित रसोई!
अब हमारे चौंकने की बारी है। ये सामुदायिक रसोई भी ब्राह्मण और दलित होती है क्या? जब उच्च और निम्न जातियों के भेद को खत्म करने का दावा यहां किया जा रहा है तो नवदलित कहने का क्या तात्पर्य? रघुवंशी समझाते हैं, कि दरअसल वर्णों के सद्भाव और सहयोग की यह सामाजिक प्रक्रिया ही नवदलित आंदोलन की मूल वैचारिकी है।
लंबे समय से डॉ. लेनिन नवदलित आंदोलन चला रहे हैं। इस विषय पर बनारस और हरिद्वार में इन्होंने दो बड़े कनवेंशन भी किए हैं। इस “नवदलित” के साथ हाल ही में उन्होंने “माइक्रो माइनॉरिटी” शब्द को भी जोड़ा है। ये बात अलग है कि अब तक नवदलित की अवधारणा से ही कम लोग परिचित हैं।
वे बताते हैं, “नवदलित सभी सेकुलर और और लिबरल ताकतों को मिलाने, उच्च और निम्न जातियों को एक मंच पर लाने और इसके सहारे पुरुषवादी वर्चस्व वाले साम्प्रदायिक फासीवाद से लड़ने का विचार है।” इस विचार का व्यावहारिक रूप वे बताते हैं कि सदियों से वर्ण व्यवस्था के लाभार्थी रहे उच्च वर्णों के लिए अब समय आ गया है कि वे उत्पीड़ितों से क्षमायाचना करें।
“यह रसोई क्षमायाचना का ही एक स्वरूप है, जहां उच्च वर्ण के लोग निम्न वर्ण के वंचित लोगों को भोजन पहुंचाने में लगे हुए हैं।”
नवदलित आंदोलन पर पत्रकार सिद्धांत मोहन ने एक स्टोरी मीडियम डॉट कॉम पर लिखी थी, जिसमें लेनिन पूछते हैं, “आखिर सवर्ण हिंदुओं, दलितों, मुसलमानों और तमाम निम्न वर्गों को एक दूसरे के बारे में एक दूसरे से संवाद क्यों नहीं करना चाहिए? देश से फासीवाद को समाप्त करने के लिए इस किस्म के संवाद की आज बहुत ज़रूरत है। यही नवदलित आंदोलन की वैचारिकी है, जो अब युनिवर्सिटी परिसरों में भी ज़ोर पकड़ रही है।”
देश भर में आज गरीबों की मदद के लिए तमाम संगठन और लोग रसोई चला रहे हैं तथा वंचितों भूखों को खाना खिला रहे हैं। यह विशुद्ध धर्मार्थ कार्य है और विडम्बना है कि कम्युनिस्ट पार्टियों को भी पहली बार इस तरह के कामों में देखा जा रहा है। यहीं बनारस में भाकपा−माले से लेकर सोशलिस्ट पार्टी और साझा संस्कृति मंच तक गरीबों को भोजन बांट रहे हैं। दिल्ली में भी कम्युनिस्ट से लेकर गांधीवादी समाजवादी राजनीति के लोग रसोई चला रहे हैं।
जनमित्र न्यास और अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज की सामुदायिक रसोई इन सब से इस मायने में भिन्न है कि ये इसे महज धर्मार्थ कार्य नहीं मानते। “चैरिटी विद पॉलिटिक्स”− यानी राजनीति के साथ धर्मार्थ कार्य! यही नवदलित रसोई का मूल मंत्र है।
इस रसोई के अलावा मल्टीविटामिन दवाओं से लेकर नूडल्स और चाय बांटने तक के तमाम काम को राजनीतिक विचार से प्रेरित धर्मार्थ काम के रूप में परिभाषित करना अपने आप में नया और मौलिक है। बनारस यहीं चौंकाता है।
रसोई स्थापित करने और खाना बांटने का काम शुरू करने से पहले लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में न्यास कागज़ी कामों में लगा हुआ था। बनारस में खाना बांटने का शुरुआती काम साझा संस्कृति मंच और भाकपा−माले ने किया। नवदलित रसोई बहुत बाद में आयी, लेकिन अपनी राजनीति के साथ आयी, जब अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज के राकेश रंजन त्रिपाठी को इस सामुदायिक काम के लिए साथ जोड़ा गया और स्वीडन में रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता पारुल शर्मा ने इसके परिचालन के लिए आर्थिक सहयोग दिया।
लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में कोरोना से बचाव के उद्देश्य से कैदियों को जेल से रिहा करने के लिए न्यास ने मानवाधिकार आयोग में एक पत्र भेजा और प्रचार किया। दबाव का असर यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार ने 11000 कैदियों को पैरोल पर रिहा कर दिया। उसे पहले पिंडरा के कोइरीपुर में भुखमरी के कगार पर पहुंचे मुसहरों को भोजन दिलवाने में भी लेनिन और श्रुति के संगठन की बड़ी भूमिका रही, लेकिन न्यास के एक सदस्य को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। न्यास के जिस सदस्य मंगला प्रजापति ने सबसे पहले अपने फेसबुक पर मुसहरों की भुखमरी के बारे में लिखा, उन पर प्रशासन ने एक और मामले में फर्जी मुकदमा लगा दिया।
फिर आयी रसोई की बारी। आज रोज़ दो टाइम तीन तीन सौ खाने के पैकेट तैयार किए जा रहे हैं और गरीब, दलित, पिछड़ों के घर घर भेजे जा रहे हैं। आगे की योजना और दिलचस्प है। न्यास अब लॉकडाउन से पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर काउंसलिंग का काम शुरू करने वाला है।
यूथ की आवाज़ वेबसाइट पर संस्था के सचिव मोहनलाल पंडा ने लिखा है कि आने वाले समय में प्रवासी मजदूरों, पुलिस, पैरामेडिक, स्वच्छता कर्मचारियों आदि के मानसिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ रखने के लिए काउंसलिंग यानी परामर्श कार्यक्रम भी चलाया जाएगा, जिसके प्रस्ताव पर अभी काम जारी है।
फिलहाल रसोई में रात के खाने की तैयारी चल रही है। उधर डॉ. लेनिन अपने कार्यकर्ता मंगला पर हुए मुकदमे के खिलाफ एक पिटीशन चला रहे हैं। घर से लेकर समाज तक, ब्राह्मण से लेकर मुसहर तक, नवदलित की वैचारिकी काशी में फुल स्पीड में है।