कामेश्वर-कैलू की ज़िंदगी और मुकेश की मौत में देखिए प्रवासी मजदूरों की पीड़ा का अक्स


इकोनॉमी का भी एक इकोसिस्टम होता है. अगर उस इकोसिस्टम को बैलेंस रखने वाला एक भी तत्व या अवयव खत्म या निष्क्रिय हो जाता है तो इकोसिस्टम धाराशायी हो जाता है. लॉकडाउन ने इकोनॉमी के इकोसिस्टम को ही धाराशायी कर दिया है. बड़े महानगरों में काम कर रहे प्रवासी मजदूर, अंसगठित क्षेत्रों में रोजगार कर रहे कामगार समेत वो सारे लोग जिससे महानगरों में जिंदगी आबाद थी वो सभी काम ठप होने, रोजगार खत्म होने के बाद गांव-घर की ओर भाग रहे हैं. यह संकट एकतरफा नहीं है. यह संकट गांव और शहर दोनों को लीलने जा रही है. ये बात अलग है कि जब-जब हमारे सामने कोई आसरा-सहारा नहीं रहता है तो हम घर की ओर ही भागते है, क्योंकि ऐसे आपदा काल में हमें घर पर ही अंतिम आसरा और अंतिम सहारा दिखता है.

मगर जरा ठहर कर सोचिए. अभी जो लाखों की संख्या में मजदूरों और कामगार महानगर से पलायन कर वापस अपने गांव-घर और जड़ की ओर लौट रहे हैं, क्या वहां उनके लिए सच में गांव के लोग, घर के लोग आसरा-सहारा स्वागत की थाल लिए खड़ा है. बिल्कुल नहीं. भावना की बयार में बह कर फिलहाल घर सभी को अच्छा लग रहा है, मगर एक-दो महीने के बाद ही गांव सभी को डराने लगेगा, बेकारी और भूख फिर से महानगर की ओर भागने के लिए विवश कर देगा क्योंकि गांव में स्थायी रोजगार है ही नहीं. खेती-बाड़ी, मनरेगा, सीजनल काम और छिटपुट निर्माण कार्य के अलावा क्या है गांवों में जिसके दम पर कोई मजदूर-कामगार जीवन भर अपने बाल बच्चे को भरपेट भोजन खिला सकता है, पढ़ा सकता है, बीमार मां-बाप का इलाज करवा सकता है. महाजनों के कर्जे को चुका सकता है. गिरवी पर ऱखे जमीन के टुकड़े को छुड़ा सकता है. बच्चे जब महीने दो महीने के बाद भूख से बिलबिलाने लगेगें तो फिर वापस शहर-महानगर की ओर ही भागना ही पड़ेगा. क्या करेंगे?

जीवन का यही सबसे बड़ा सच है. कोरोना तात्कालिक एक महासंकट है मगर भूख तो एक स्थायी संकट है. कोरोना का संकट समय के साथ कम होता ही जाएगा, क्योंकि इससे बड़ों-बड़ों को अरबों का जो नुकसान जो हो रहा है और वो नहीं चाहेंगे उनका नुकसान इसी तरह होता रहे.

इस संकट को समझने के लिए मैं बस आपके सामने एक ऐसे रिक्शा चालक की केस स्टडी को सामने रखना चाहता हूं, जो मेरे जीवन का लॉकडाउन से पहले तक एक अहम हिस्सा हुआ करता था और आज वो और मैं एक जैसे हो गए हैं. बेकार और घर में बंद. कामेश्वर कामत नाम है उसका. लॉकडाउन होने के बाद भी हफ्ते भर तक वो मेरे जीवन की सांस को थामे हुआ था. नोएडा सेक्टर 55-56 से लेकर 12-22, 18 से लेकर अट्टा मार्केट और उधर दिल्ली के मयूर विहार फेज थ्री, कोंडली तक वो सवारी लेकर जाता है. मगर उसे सबसे ज्यादा कमाई सेक्टर 55-56, रजत विहार और इंडियन ऑयल की सोसायटी में होती है. स्कूल के बच्चों को ले जाने, ले आने में. मैडम लोगों को मार्केट ले जाने, ले आने में. यहां उसे सोसायटी की मैडम लोग एडवांस में हजार-दो हजार से लेकर पांच-पांच हजार रुपये तक देते रहती हैं. सोसायटी के इन्हीं मैडम और बाबू के दम पर वो घर में अपने बाल बच्चों को पढ़ा रहा है, बीमार पत्नी का इलाज करवा रहा है और पर्व-त्योहार घर जाकर बच्चों के लिए नए-नए कपड़े और सामान भी लेकर जाता है.

लॉकडाउन के पहले हिस्से में उससे मेरी बराबर बात होती थी. मैं उससे कहते रहता था घर चले जाने के लिए मगर वो बार-बार मुझसे कहते रहता था, मैं कहीं नहीं जाऊंगा. घर-द्वार, गांव में रखा ही क्या है. मैं ही नहीं उसकी पत्नी और बच्चे भी जिद कर रहे हैं घर चले आने के लिए मगर वो नहीं जा रहा है. बिहार के झंझारपुर के एक गांव में घर है उसका. पहले बाप-दादा की खेतीबाड़ी थी, मगर वो भी सब बेटी-बहन के शादी, बीमारी सबमें कर्जा लेकर बहा दिया सब ने मिलकर. खेतीबाड़ी रहता भी तो गेंहू-धान उपजा कर क्या वो पहाड़ सी जिंदगी काट सकता है. दो बेटों को पढ़ा लिखा कर कमाऊ पूत बना सकता है, जवान बेटी की शादी करा सकता है. इस बार वो सोचे हुए था कि किसी तरह वो लोन लेकर एक ई-रिक्शा निकालेगा. मगर अब लॉकडाउन जब दोबारा बढ़ा दिया गया तो उसका भी हौसला टूट गया है, कहता है कब तक शहर में एक टाइम पानी बला खिचड़ी मांग-मांग कर खा कर जिंदा रहेंगे. पता नहीं अब कब फिर से सब कुछ सामान्य होगा. जिंदगी पटरी पर लौटेगी.

भविष्य के प्रति यही अनिश्चितता लाखों मजदूरों को महानगरों से पलायन करने को मजबूर कर रही है और जो फंसे हैं वो लगातार भूख से टूट रहे हैं, उनके जीवन की अब आस भी खत्म होने लगी है तभी तो ऐसे भयावह खबर भी आने लगी है. लाकडाउन में काम नहीं मिलने की वजह से गुड़गांव के एक प्रवासी मजदूर ने 17 अप्रैल को खुदकुशी कर ली. काम नहीं होने के कारण उसके पास पैसे नहीं थे. पत्नी और चार बच्चों को वह क्या खिलाएगा, यह सोच-सोचकर परेशान चल रहा था. तीस वर्षीय मुकेश बिहार के गया जिले के बारा गांव का रहने वाला था. सेक्टर-53 में बनी झुग्गियों में परिवार के साथ रहता था. वह सफेदी का काम करता था. मृतक की पत्नी पूनम के मुताबिक गुरुवार को मुकेश में ढाई हजार में अपना फोन बेचा था. उन रुपयों से वह आटा, दाल सहित राशन लेकर आया था, दोपहर को जब खा-पी कर पत्नी बच्चों के साथ सो रही थी उसी समय उसने फंदा लगाकर खुदकुशी कर ली. पुलिस इस मौत को मुकेश के खराब मानसिक स्वास्थ्य से जोड़ रही है। मानसिक स्वास्थ्य खराब क्यों हुआ, क्या इस पर भी पुलिस सोचेगी?

महानगरों से भाग कर जो गांव लौटे हैं उनमें तो अभी कितनों को घर ही नहीं आने दिया जा रहा है, जो कोई चोरी-छिपे आइसोलेशन सेंटर से भाग कर घर आया भी है, उनके सिर पर भी विपत्ति का ही पहाड़ टूटा है. घर में खाने को अन्न का दाना नहीं हैं और ऊपर से कुदरत का कहर.

बीते 17 अप्रैल की रात तेज आंधी, बारिश और ओलावृष्टि खेत में खड़ी मकई की फसल और बाग में लगे आम के फलों पर कहर बन कर गिरी है. इस बार आम के पेड़ टिकोले से लदे हुए थे. जिन किसानों ने बड़ें-बड़े आम बाग लाखों रुपये फंसा कर खरीदे थे उनके ऊपर तो पहाड़ ही टूट कर गिर पड़ा है. आम एकदम नगदी सौदा है. मंजर से लदे पेड़ देखकर किसानों ने बेहतर फल की उम्मीद देखकर बाग लाखों में खरीदे, मगर तूफान और पत्थर ने सब चौपट कर दिया. गेंहू की कटनी तो अधिकांश किसानों ने कर ली है, मगर जिन किसानों ने नहीं काटे थे अभी तक, वहां-वहां गेहूं की फसल को भी नुकसान पहुंचा है. वहीं जिन किसानों ने गेंहू काटकर थ्रेसिंग करवा कर बोरे में भर कर रख लिया है, उनको बस इस बात का डर सता रहा है कि कहीं लॉकडाउन में अनाज मंडी में व्यापारी कम आए तो फसल के सही दाम नहीं मिलेंगे. खाद-बीज-बोरिंग-पटवन-स्प्रे, कटाई मजदूरी और थ्रेसिंग सब मिलाकर हजारों खर्च हो जाता है और फसल का सही दाम नहीं मिलता है तो किसान के कलेजे पर पत्थर ही गिरता है न!

सुपौल के पिपरा खुर्द के कैलू मंडल जो हमारे यहां प्रायः रोज आते थे, फिलहाल लॉकडाउन की वजह से नहीं आ रहे हैं. वो शहर के कई घरों में दूध बेचने आते थे पहले. मगर डेयरी के पैकेटबंद दूध ने उसके इस धंधे पर भी पानी फेर दिया है. अभी भी उनके कुछ ग्राहक परमानेंट बने हुए हैं. कैलू मंडल के तीन बेटे हैं, तीनों दिल्ली के करोलबाग में रहते हैं. तीनों हेलमेट बेचने का काम करते हैं. फैक्ट्री से हैलमेट खरीद कर हाइवे पर बेचते हैं. कैलू से जब हमने सुबह बात की तो उन्होंने बताया कि उसका बेटा सब वहीं हैं, कोई नहीं आया. आकर क्या करेगा यहां. खेती में अब कोई पैसा नहीं हैं जो पूरे परिवार के साथ जीवन गुजार लेगा. खेती अगर पच्चीस-पचास बीघा वाला होता तो फिर एक ठहार होता, मगर ऐसा अब मुश्किल है. बटाई में भी कोई फायदा नहीं. अब तो जमींदार भी खेतिहर जमीन सब बेच कर शहर में जमीन खरीद कर मकान बना रहे हैं. तो यही सच है गांवों में किसानी का. कोई चुनौती लेने वाला व्यावसायिक सोच का किसान ही गांवों में किसानी का कायाकल्प कर सकता है.

सत्तर साल बीत गए और हम गांव में खुशहाली का एक मॉडल तक नहीं ला सके. गांव में नियोलिबरल इकोनॉमी ने बाजार को तो घुसा दिया मगर गांव के तारणहार किसानों के हाथ में इतने पैसे नहीं दे सके जो वो इस बाजार के उपभोक्ता बन सके. गांव के बाजारों में भले अब सुज़ुकी, होन्डा, महिंद्रा एंड महिंद्रा, एलजी, सैमसंग और बड़ी टेलीकॉम कंपनियां जैसे वोडाफोन, एयरटेल, जियो और आइडिया भी ग्रामीण भारत पर ध्यान दे रही हैं मगर गांवों में हम अभी तक समृद्धि का मॉडल नहीं ला सके. हमारी इकोनॉमी में जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी फसल की कटाई के बाद किसानों के हाथ में और पैसा आने की उम्मीद से ही चमकता है और उद्योग-धंधे लहलहाते हैं. नियो लिबरल इकोनॉमी में खेती अब हार का सौदा बन चुकी है.

शहर और गांव को लेकर हिन्दी पट्टी के साहित्यकार और इकोनॉमिस्ट हमेशा से बहस करते आ रहे हैं. हमेशा से यह कहा जा रहा है कि कंक्रीट की दमघोंटू जिंदगी से बेहतर गांव की जिंदगी है. हमेशा से हम शहर को दुश्मन मानते आ रहे हैं. मगर क्या नहीं लगता है कि यह एक विकास विरोधी सोच है जो अनंत काल तक गांव को एक पिछड़े गांव जैसा ही देखना पसंद करती है. जबकि एक डेवलप्ड इकोनॉमी की अवधारणा है कि गांव की समृद्धि से ही महानगरों में समृद्धि आएगी.

कल्पना करिए कि भारत के 6.4 लाख गांवों में से सिर्फ आधे गांव आत्मनिर्भर हो जाएं और हर गांव में सभी लोग लखपति हों तो भारत के गांवों में 10 करोड़ लखपति होंगे. यह कितना सुखद भविष्य होगा. हर आपदा एक मौका देती है. कोरोना काल में भी एक मौका मिला है जिसमें सरकार के नीति-निर्धारकों को विकास के टिकाऊ मॉडल पर ध्यान देना चाहिए जिससे गांव समेत सभी छोटे और मझौले शहर में समृद्धि की बयार बहे.


About सतीश वर्मा

View all posts by सतीश वर्मा →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *