किसान आंदोलन के साथ जनता का सिर्फ़ पेट नहीं, उसकी बोलने की आज़ादी भी जुड़ी हुई है!


कोरोना के आपातकाल में भी दिल्ली की सीमाओं पर यह जो हलचल हो रही है, क्या वह कुछ अलग नहीं नज़र आ रही? हज़ारों लोग- जिनमें बूढ़े और जवान, पुरुष और महिलाएँ सभी शामिल हैं- पुलिस की लाठियों, अश्रु गैस के गोलों और ठंडे पानी की बौछारों को ललकारते और लांघते हुए पंजाब, हरियाणा और अन्य राज्यों से दिल्ली पहुँच रहे हैं। उस दिल्ली में जो मुल्क की राजधानी है, जहां जो हुक्मरान चले गए हैं उनकी बड़ी-बड़ी समाधियाँ हैं और जो वर्तमान में क़ायम हैं उनकी बड़ी-बड़ी कोठियाँ और बंगले हैं।

कोरोना के कारण पिछले आठ महीनों से जिस सन्नाटे के साथ करोड़ों लोगों के जिस्मों और साँसों को बांध दिया गया था उसका टूटना ज़रूरी भी हो गया था। लोग लगातार डरते हुए अपने आप में ही सिमटते जा रहे थे। चेहरों पर मास्क और दो गज की दूरी प्रतीक चिन्हों में शामिल हो रहे थे। लगने लगा था कि मार्च 2020 के पहले जो भारत था वह कहीं पीछे छूट गया है और उसकी पदचाप भी अब कभी सुनाई नहीं देगी। पर अचानक से कुछ हुआ और लगने लगा कि लोग अभी अपनी जगहों पर ही क़ायम हैं और उनकी आवाज़ें भी गुम नहीं हुईं हैं।

अभी कुछ महीनों पहले की ही तो बात है जब ऐसे ही हज़ारों-लाखों लोगों के झुंड सड़कों पर उमड़े थे, पर वे डरे हुए थे। सब थके-माँदे और किसी अज्ञात आशंका के भय से बिना रुके अपने उन घरों की ओर लौटने की जल्दी में थे जो काफ़ी पहले उनके पेट ने छुड़वा दिए थे। इन तमाम लोगों के खून सने तलवों की आहटें कब सरकारें बनाने के लिए ख़ामोश हो गईं, पता ही नहीं चला। अपनी परेशानियों को लेकर किसी भी तरह की नाराज़गी का कोई स्वर न तो किसी कोने से फूटा और न ही ईवीएम के ज़रिये ही ज़ाहिर हुआ। राजनीति, वोटों के साथ आक्रोश को भी ख़रीद लेती है। सब कुछ फिर से सामान्य भी हो गया। जो पैदल लौट कर गए थे उन्हें वातानुकूलित बसों और विमानों से वापस भी बुला लिया गया। मशीनें और कारख़ाने फिर से चलने लगे। मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में जीडीपी में सुधार भी नज़र आने लगा।

यह जो हलचल अब पंजाब से चलकर हरियाणा के रास्ते राजधानी पहुँची है उसकी पदचाप भी अलग है और ज़ुबान में भी एक ख़ास क़िस्म की खनक है। सरकार माँगों को लेकर उतनी चिंतित नहीं है जितनी कि इस नई और अप्रत्याशित हलचल को लेकर। राजधानी दिल्ली पहले भी ऐसे कई आंदोलनों को देख चुकी है। कई बलपूर्वक दबा और कुचल दिए गए और कुछ उचित समर्थन मूल्य पर ख़रीद लिए गए। आंदोलन, सरकारों और आंदोलनकारियों, दोनों के धैर्य की परीक्षा लेते हैं। नागरिकों की भूमिका आमतौर पर तमाशबीनों या शिकायत करने वालों की होती है। वैसे भी ज़्यादातर नागरिक इस समय वैक्सीन को लेकर ही चिंतित हैं जो कि जगह-जगह ढूँढी भी जा रही है। निश्चित ही सारी पदचापें सभी जगह सुनाई भी नहीं देतीं हैं।

सरकार ने किसानों को बातचीत के लिए आमंत्रित किया है। बातचीत होगी भी पर तय नहीं कि नतीजे किसानों की मांग के अनुसार ही निकलें। अपवादों को छोड़ दें तो सरकारें किसी ख़ास संकल्प के साथ लिए गए फ़ैसलों को वापस लेती भी नहीं। वर्तमान सरकार का रुख़ तो और भी साफ़ है। पिछली और आख़री बार अनुसूचित जाति/जनजाति क़ानून में संशोधन को लेकर व्यापक विरोध के समक्ष सरकार झुक चुकी है। ठीक वैसे ही जैसे राजीव गांधी सरकार शाहबानो मामले में झुक गई थी, पर तब आरिफ़ मोहम्मद नाम के एक मंत्री इस समझौते के विरोध में मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देने के लिए उपस्थित थे।

किसान आंदोलन से निकलने वाले परिणामों को देश के चश्मे से यूँ देखे जाने की ज़रूरत है कि उनकी माँगों के साथ किसी भी तरह के समझौते का होना अथवा न होना देश में नागरिक-हितों को लेकर प्रजातांत्रिक शिकायतों के प्रति सरकार के संकल्पों की सूचना देगा। ज़ाहिर ही है कि किसान तो अपना राशन-पानी लेकर एक लम्बी लड़ाई लड़ने की तैयारी के साथ दिल्ली पहुँचे हैं पर यह स्पष्ट नहीं है कि उनके साथ निपटने की सरकारी तैयारियाँ किस तरह की हैं! शाहीन बाग़ के सौ दिनों से ज़्यादा लम्बे चले धरने के परिणाम स्मृतियों से अभी धुंधले नहीं हुए हैं। किसानों ने दिल्ली के निकट बुराड़ी गाँव की ‘खुली जेल‘ को अपने धरने का ठिकाना बनाने के सरकारी प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। तो क्या सरकार किसानों की मांग मानते हुए ‘‘जंतर मंतर’ को नया शाहीन बाग़ बनने देगी?

ऐसा लगता तो नहीं है। तो फिर क्या होगा ?

देश की एक बड़ी आबादी इस समय दिल्ली की तरफ़ इसलिए भी मुँह करके नहीं देख पा रही है कि मीडिया के पहरेदारों ने अपनी चौकसी बढ़ा रखी है। इस तरह के संकटकाल में मीडिया व्यवस्था को निःशस्त्र सेनाओं की तरह सेवाएँ देने लगता है। अतः केवल प्रतीक्षा ही की जा सकती है कि किसान अपने आंदोलन में सफल होते हैं या फिर उन्हें भी प्रवासी मज़दूरों की तरह ही पानी की बौछारों से गीले हुए कपड़ों और आंसुओं के साथ ख़ाली हाथ अपने खेतों की ओर लौटना पड़ेगा! किसानों के आंदोलन के साथ देश की जनता के सिर्फ़ पेट ही नहीं, उनकी बोलने की आज़ादी भी जुड़ी हुई है।


लेखक दैनिक भास्कर के पूर्व समूह संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं

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