कोरोना वायरस संक्रमण के नियंत्रण के तमाम दावों के बाद वस्तुस्थिति यह है कि भारत में संक्रमण कम होने का नाम नहीं ले रहा। आंकड़ों में हमारा देश दुनिया के सबसे ज्यादा संक्रमित देशों में तीसरे नम्बर पर है और सम्भव है कि धीरे-धीरे हम पहले नम्बर पर पहुंच जाएं। देश में अब भी लोग कोविड-19 संक्रमण को लेकर गम्भीर नहीं हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि कई राज्य सरकारें। कुछ अपवादों को छोड़कर देश में अस्पताल और इलाज की स्थिति खस्ता है। कोरोना वायरस संक्रमण के मरीज़ तो मरीज़, इस महामारी से मर गए लोगों की लाशें बदइन्तजामी की वजह से या तो दिन भर बिस्तर पर ही पड़ी हैं या मॉर्चुरी में सड़ रही हैं। मार्च से जुलाई 2020 के मध्य तक संक्रमण का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है और लोगों के हालात बदतर हो रहे हैं फिर भी सरकार कोरोना पर विजय की दुंदुभि बजाने की तैयारी में है। सरकार के विभिन्न मंत्रियों/प्रवक्ताओं के ट्वीट तथा वक्तव्य तो यही बता रहे हैं कि संक्रमण अब जल्द ही खत्म हो जाएगा, हालांकि जमीनी स्थिति कुछ और है। ऐसे में देश के लोगों के धैर्य को सलाम कि इतनी जलालत झेलकर भी वे अपनी सरकार की जय बोल रहे हैं।
इन दिनों पूरी दुनिया टकटकी लगाए कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के टीके (वैक्सीन) और इसके उपचार की दवा के इन्तजार में हैं। दुनिया भर में इस कथित वैक्सीन के ट्रायल चल रहे हैं। कई देशों में तो इस संक्रमण के उपचार की दवा पर भी शोध और परीक्षण जारी है। इसके अलावा भी भारत में योग से आयुर्वेदिक दवा के व्यापार तक पहुंचे रामदेव और कई अन्य के अपने-अपने दावे हैं। पूरी दुनिया में वैक्सीन, दवा, दवा के पेटेन्ट, दवा की मार्केटिंग, आदि की चर्चा है। इस चर्चा में हमें यह याद रखना चाहिए कि हम पेटेन्ट एवं बौद्धिक सम्पदा के एकाधिकार के दौर में जी रहे हैं। पेटेन्ट एक तरह का बौद्धिक सम्पदा का अधिकार है जिसके तहत किसी भी नए आविष्कार पर उसके आविष्कारक व्यक्ति या संस्था को उस वस्तु के ऊपर अगले 20 वर्ष तक बनाने, बेचने का एकाधिकार मिल जाता है। इसके एवज में वह व्यक्ति या संस्था रॉयल्टी के नाम पर अकूत धन कमाती है। इसका अन्दाजा आप इससे ही लगा सकते हैं कि कोई भी नई दवा या वैक्सीन लांच करने के लिए सम्बन्धित कम्पनी कोई एक अरब डॉलर या इससे भी ज्यादा की रकम खर्च करती है। तो अन्दाजा लगा लीजिए कि इससे वह कम्पनी कितना मुनाफा कमाएगी?
नए पेटेन्ट कानून के अनुसार मौजूदा व्यवस्था में नई दवा या वैक्सीन के आविष्कार या निर्माण पर कुछ खास बड़ी कम्पनियों का एक तरह से दबदबा है। दवाओं के विकास के नाम पर कम्पनियां दवा की मनमर्जी कीमत रखती हैं। ये कम्पनियां ज्यादातर उन्हीं दवाओं पर शोध करती हैं जिन दवाओं से अकूत मुनाफा हो सकता है तथा जो दवा तकनीकी रूप से जटिल होती है ताकि उस दवा से मिलती-जुलती दवा बाजार में न आ सके। वैसे भी आजकल गरीबों से ज्यादा अमीरों को ध्यान में रखकर ही बड़ी कम्पनियां दवा या वैक्सीन में निवेश करती हैं।
कोरोना वायरस संक्रमण की वैक्सीन या दवा की बात करें तो इस समय दर्जनों बड़ी कम्पनियां वैक्सीन के निर्माण पर कार्य कर रही हैं। कहा जा रहा है कि कोविड-19 के वैक्सीन पर लगभग 70 फीसद रिसर्च विकसित देशों की बड़ी कम्पनियों में हो रहा है। यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि अमरीका जैसा देश तथा वहां की कई दवा निर्माता कम्पनियां इस महामारी का इलाज खोजने के अभियान में सहयोग और सबको दवा तथा वैक्सीन उपलब्ध कराने की मांग का विरोध करते रहे हैं। उदाहरण के लिए, यह चर्चा बहुत जोरों पर थी कि वैक्सीन के निर्माण को बढ़ावा देने के लिए एक पेटेन्ट समूह बना दिया जाए जो वैक्सीन के आविष्कारक एवं कम्पनी के हितों की रक्षा करेगा। सन् 2005 में ही जब सार्स वायरस का प्रकोप था तब यह माना गया था कि पेटेन्ट समूह से वैक्सीन के विकास और उसके विपणन में मदद मिलेगी। वैसे मेडिसिन्स पेटेन्ट पूल (एमपीपी) के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित यह व्यवस्था पहले से ही है।
अभी मई 2020 में योरोपीय संघ के नेतृत्व में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) में एक प्रस्ताव लाया गया जिसमें यह संकल्प व्यक्त किया गया था कि दवाओं, वैक्सीन और मेडिकल उपकरण उपलब्ध कराने के मामले में पूरी दुनिया एकजुट होकर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देगी। इस प्रस्ताव में आपसी सहयोग बढ़ाने के जिन तरीकों का जिक्र है उसमें ‘स्वैच्छिक पेटेन्ट पूल’ बनाने और वर्तमान व्यापार नियमों का इस्तेमाल करके दवाओं और वैक्सीन का उत्पादन और वितरण बढ़ाने का हवाला दिया गया है। अमरीका ने एक बयान जारी कर हालांकि इस प्रस्ताव की आलोचना की और खुद को इस प्रस्ताव से अलग कर लिया था। कई बड़ी दवा कम्पनियां जैसे फाइजर, ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन आदि ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया था। फाइजर ने तो कोविड-19 के इलाज पर रिसर्च में सहयोग के प्रस्ताव को बेहद खतरनाक बताया था।
इस समय कोरोना से संक्रमण के बचाव की वैक्सीन पर जो भी शोध या कार्य हो रहे हैं वह ज्यादातर अमरीका या ब्रिटेन में ही हो रहे हैं। ऐसे में यह चिन्ता की बात यह है कि वैक्सीन व दवा की सर्वसुलभता के लिए डब्लूएचओ में स्वैच्छिक पेटेन्ट पूल एवं व्यापार नियमों में सरलता के प्रस्ताव पर अमरीका और अन्य अमीर देशों को आपत्ति की है। इसके दुष्परिणाम खतरनाक होंगे। याद कीजिए कि कोई दो दशक पहले जब एचआइवी का हौवा था, तब इसके इलाज के नाम पर लोगों को दवा की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती थी। कई लोगों की तो जिन्दगी तबाह हो गई थी दवा के महंगे होने की वजह से। उस समय एचआइवी पाजिटिव व्यक्ति के लिए तीन स्तर वाले एन्टी रेट्रोवायरल दवा का खर्च लगभग 10 हजार डॉलर आता था। ऐसा इसलिए था कि दवा का पेटेन्ट एक खास कम्पनी के पास था और वह कम्पनी मनमाने तरीके से उसका मूल्य निर्धारित किए हुए थी। अपने देश में देखें तो यहां सालाना डेढ़ लाख बच्चे निमोनिया संक्रमण की वजह से मौत के मुंह में समा जाते हैं। निमोनिया से बचाव का टीका फाइजर नामक कम्पनी बनाती है। सरकारी सब्सिडी के बावजूद यह टीका इतना महंगा है कि आम आदमी इसका खर्च आसानी से नहीं उठा सकता।
हम फिर कोरोना वायरस संक्रमण पर लौटते हैं। इस वैश्विक संकट से निपटने के लिए पूरी दुनिया में दो तरह के प्रयास देखे जा सकते हैं। पहला तो दुनिया भर के मानवीय व समाजवादी सोच के वैज्ञानिकों/ चिकित्सकों ने यह घोषणा की है कि कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के लिए सभी सम्बन्धित सूचनाएं खुलकर साझा करेंगे ताकि मानवता की रक्षा के लिए शीघ्र वैक्सीन बनाई जा सके। इसके लिए वैज्ञानिकों ने ‘‘मुक्त कोविड प्रतिज्ञा’’ नामक शपथपत्र को स्वीकार किया है। इसमें कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के लिए सारी सूचनाएं मुफ्त उपलब्ध कराई जाती रहेंगी तथा वैज्ञानिक सीमाओं को खोलकर हर सम्भव सहयोग किया जाएगा। वहीं कुछ अमीर देशों के कुछ बड़बोले नेताओं का बयान सुनिए, जो उनके व्यापारिक व एकाधिकारवादी मंसूबे को दर्शाता है। ‘‘आपदा में अवसर’’ को भुनाने वाले ऐसे देश और कुछ नेताओं ने बहुत निराश किया है। हमारे देश में ही कोविड-19 के नाम पर श्रमिकों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ जो जुल्म हुए वह उनके प्रति सरकार व प्रशासन के संकीर्ण रवैये का द्योतक है।
कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव की वैक्सीन के शोध के बीच एक भारतीय कम्पनी ग्लेनमार्क फार्मा ने वायरस से संक्रमण के उपचार की दवा फेबीफ्लू बना लेने का दावा किया है। ऐसे ही सिप्ला नामक एक दवा निर्माता कम्पनी ने भी अपनी दवा रेमडेसिवर के लिए भारत के दवा महानियंत्रक से अनुमति मांगी है। सिप्ला अपने ब्रांड ‘‘सिप्रेमी’’ नाम से रेमडेसिवर को बाजार में उतारने की कोशिश में है। एक और दवा कम्पनी हेटेरो ड्रग्स भी अपनी कोरोना वायरस संक्रमण से उपचार की दवा के साथ तैयार है। जानकार बताते हैं कि दवा महानियंत्रक ने इनमें से कुछ को सशर्त मंजूरी भी दे दी है लेकिन सवाल है कि इस नए कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के लिए तुरन्त तैयार की गई दवा की वाजिब गुणवत्ता कितनी है यह तो समय ही बता पाएगा।
वैसे भी दुनिया में इन दिनों डर का तगड़ा कारोबार चल रहा है। वैक्सीन या दवा के नाम पर कुछ भी परोस दीजिए लूट मच जाएगी। होमियोपैथी की दवा को प्लेसिबो बताने वाले कथित साइंसदां और एलोपैथिक दवा के कारोबारी ‘‘प्लेसिबो’’ के ही सहारे करोड़ों डालर लूट रहे हैं। डब्लूएचओ डर की बीमारी के जरिये बाजार बनाता है और बड़ी दवा कम्पनियां उसका कारोबार करती हैं। कोरोना वायरस संक्रमण के मामले में भी आप इस ‘‘डर’’ फैक्टर को अच्छी तरह देख समझ सकते हैं। डब्लूएचओ को अमरीका, रूस व चीन वैसे भी कभी गम्भीरता से नहीं लेता। योरोप व दक्षिण एशिया में इसका थोड़ा दबदबा जरूर है। फिर भी कोविड-19 बीमारी की गम्भीरता और इसके बचाव की वैक्सीन के नाम पर डब्लूएचओ ने क्या क्या तिकड़म नहीं किए? हालांकि रूस ने डब्लूएचओ को दरकिनार कर कोविड-19 से बचाव की वैक्सीन बना ली है। उसे किसी अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की जरूरत भी नहीं पड़ी।
130 करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाला भारत इन दिनों दुनिया का एक महत्वपूर्ण बाजार है इसलिए भारत पर अमरीका, चीन दोनों की नजर है। यह नजर कभी कड़ी होती है तो कभी सॉफ्ट। दोनों कभी गलबहियां करते हैं तो कभी बाहें मरोड़ते हैं। हर बार देश के सीने की माप जांची जाती है। देश की आम अवाम अपने किए पर पछताने के अलावे और कर भी क्या सकती है। ‘‘आपदा में अवसर’’ केवल यहीं नहीं तलाशा जाता, इसके कई अन्तर्राष्ट्रीय दावेदार भी हैं। फिलहाल योरोपीय संघ के अनुसार 7.4 लाख अरब यूरो तो इस प्रोजेक्ट के लिए ‘डोनर कॉन्फ्रेंस’ से जुटा लिया गया है। रूस की कोविड-19 की वैक्सीन ‘‘गैम कोविड बैक ल्यो’’ को लांच करने की तैयारी पूरी कर ली गई है, हालांकि इस वैक्सीन को बनाने वाली गेमालेया इन्स्टीच्यूट ऑफ एपिडेमियोलाजी एण्ड माइक्रोबायोलॉजी के निदेशक अलेक्जेन्डर गिट्सबर्ग ने दावा किया है कि यह वैक्सीन अगले दो साल तक व्यक्ति को कोरोना वायरस संक्रमण से बचा सकती है। इस बात से आप यह सहज अन्दाजा लग सकते हैं कि अगले एक दो महीने में लांच होने वाली वैक्सीन भी कोई मुकम्मल वैक्सीन नहीं हैं। इसलिए भारत के आम लोगों के लिए मेरा यही सन्देश है कि अपने ‘‘लक’’ को बचाकर रखिए। संभल कर रहिए। मास्क पहनिए, हाथ धोते रहिए, भौतिक दूरी बनाए रखिए और भीड़-भाड़ में जाने से बचिए। यही फार्मूला टिकाऊ है। ‘वैक्सीन के उत्पादक और निर्माता बड़े व्यापारी हैं, ध्यान रखिए। यह आपदा उनके लिए अवसर है और आपके लिए आफत।
लाकडाउन के बाद दुनिया की अर्थव्यवस्था एक नए रंग में रंगी जा चुकी है। विश्व व्यापार संगठन (डब्लूएचओ) कोशिश में है कि डिजिटल डाटा का खुला प्रवाह इन्टरनेट व्यापार के लिए जरूरी है इसलिए दुनिया की बड़ी सूचना तकनीक कम्पनियों के एकाधिकार को मान्यता दिलाई जाए। तो प्यारे देशवासियों तैयार रहिए। इन्टरनेट, सूचना तकनीक और जानकारियों के नाम पर जो बाजार है उसकी आपको जानकारी है? इंटरेक्टिव डाटा कार्पोरेशन के अनुसार दुनिया में डाटा का जो व्यापार 2016 में 130.1 अरब डॉलर का था वह बढ़कर 2020 में 203 अरब डॉलर से भी ज्यादा का हो गया है। अभी कुछ ही दिनों पहले आपने खबर पढ़ी होगी कि कोरोना काल में भारत की रिलाएन्स इण्डस्ट्री (आरआईएस) अकेली ऐसी कम्पनी है जो सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाली दुनिया की दस बड़ी कम्पनियों में शामिल है। हाल ही में रिलायन्स की सालाना गवर्निंग बॉडी की बैठक में नीता अम्बानी ने कहा कि आप यकीन कर लें कि जब कोविड-19 की वैक्सीन बाजार में आएगी तब देश के हर शख्स तक इस वैक्सीन को पहुंचाने के लिए रिलायन्स फाउण्डेशन जियो के डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल करना होगा और इसे अवसर मानकर जियो अपनी पूरी क्षमता में सक्रिय है। इसका सीधा मतलब है कि कोविड-19 के वैक्सीन का डिजिटल सर्टिफिकेट का पूरा ब्लू प्रिंट तैयार है और वह है ID2020 जिसके संस्थापक साझेदार हैं माइक्रोसाफ्ट राकफेलर फाउन्डेशन तथा गावी (ग्लोबल एलाएन्स फॉरर वैक्सीन एण्ड इम्यूनाइजेशन)। गावी के माध्यम से ही वैक्सीन वितरण का काम होगा। उल्लेखनीय है कि गावी की नींव 1999 में बिल और मेलिंडा गेट्स ने ही डाली थी। यह ID2020 एक इन्टरनेशनल संस्था है जो दुनिया भर की आबादी के लिए डिजिटल आइडी की वकालत करती है। दरअसल यह एक इलेक्ट्रॉनिक आइडी प्रोग्राम है जो डिजिटल पहचान के लिए एक प्लेटफार्म के रूप में सामान्यीकृत टीकाकरण का उपयोग करता है। अलग-अलग देशों में ID2020 को लागू करने के लिए अलग-अलग संस्थाओं को चुना गया है लेकिन भारत में यह रिलायन्स जियो के द्वारा किया जा रहा है।
बहरहाल कोविड-19 से बचाव की वैक्सीन की कहानी इतनी जल्दी पूरी नहीं होगी क्योंकि कहानी में रहस्य है, रोमांच है और इसकी स्क्रिप्ट भी बदलती रही है। इसलिए फिर मैं पाठकों को यही कहूंगा कि पेटेन्ट और मुनाफे के इस दौर में वैक्सीन और दवा के बजाय अपने प्राकृतिक एवं पारम्परिक तरीके पर ज्यादा भरोसा कीजिए। बीमारी से ज्यादा कथित दवा से बचना जरूरी है। दवा से बचने के लिए प्रकृति से जुड़ना जरूरी है और यदि प्रकृति से जुड़ गए तो सहअस्तित्व के सिद्धान्त पर इन्हीं वायरसों के बीच सुरक्षित रहने की कला सीखनी होगी। यही एकमात्र सुरक्षित रास्ता मुझे दिख रहा है।