कोरोना वायरस संक्रमण से होने वाली ‘‘कोविड-19’’ वैश्विक महामारी आठ महीने बाद भी उतना ही खौफ़ बनाए हुए है जितना शुरू में था। इस संक्रमण ने दुनिया भर में औसतन डरे हुए लोगों में जितनी दहशत पैदा की है उतना ही दुनिया भर के शातिर प्रशासकों, नेताओं को अपनी मनमर्जी करने की छूट भी दे दी है। लोकतंत्र के नाम पर कई देशों में तानाशाही जैसा माहौल है और जनता परेशान बदहाल है। मौत का खौफ़ और सरकार के डंडे ने करोड़ों लोगों में ऐसा डर भर दिया है कि वे खुलकर न तो बोल पा रहे हैं और न ही जी पा रहे हैं। कुछ महीनों से कोविड-19 से बचाव के लिए जो वैक्सीन की उम्मीद जगी थी उस पर भी खतरनाक आशंकाओं ने कब्जा कर लिया है।
चैन्ने के एक 40 वर्षीय व्यक्ति (जिसे कोरोना की संभावित वैक्सीन कोविडशील्ड (सीरम इन्स्टीच्यूट, पुणे) से गम्भीर दुःप्रभाव झेलने पड़े) ने कम्पनी को पांच करोड़ रुपये के मुआवजे के लिए कानूनी नोटिस भेजा है। उनका आरोप है कि वैक्सीन के उपयोग के बाद उनकी तबीयत गम्भीर रूप से बिगड़ी और वह बहुत परेशान हो गये। इसके बदले में सीरम इंस्टिट्यूट ने उक्त व्यक्ति के ऊपर ही 100 करोड़ की मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया है। इधर 5 दिसम्बर को हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री श्री अनिल विज, जिन्होंने महज 15 दिन पहले ही स्वेच्छा से कोरोना से बचाव की वैक्सीन लगवायी थी, वे भी कोरोना पॉजिटिव हो गए हैं। जाहिर है कि कोरोना वायरस से बचाव की वैक्सीन अभी तक मुकम्मल नहीं है, इसलिए इस पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता।
दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल एवं वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज में कम्युनिटी मेडिसिन के प्रमुख प्रो. जुगल किशोर कहते हैं, ‘‘एस्पिरिन से लेकर जिंक की गोली तक दुनिया की कोई भी ऐलोपैथिक दवा बिना साइड इफेक्ट के नहीं होती। वैक्सिन टीकाकरण के कई प्रतिकूल प्रभाव होते हैं।‘’ विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) भी कहता है, ‘‘परफेक्ट वैक्सीन जैसी कोई चीज़ नहीं है जो सभी को सुरक्षा दे।’’ हमारे देश की भोली जनता को यह समझाने की जरूरत है कि वैक्सीन, दवा और उपचार के अपने जोखिम होते हैं। यह निहायत ही वैज्ञानिक व तकनीकी मामला है। किसी भी वैक्सीन के ट्रायल में यह सब जोखिम शामिल होते हैं। हर ट्रायल की नीति समिति, केन्द्रीय क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री, औषधि महानिरीक्षक, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद जैसी संस्थाएं सब निगरानी करती हैं फिर भी वैक्सीन बनाने वाली मुख्य कम्पनी की अपनी तिकड़म भी तो है। लोगों को समझना चाहिए कि वैक्सीन न तो जुमलों से बनता है और न ही राजनीति से। इसमें न तो टोटके काम आते हैं और न ही कोई अन्धविश्वास। यह एक कठिन, कड़वी वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसलिए वैक्सीन जल्द आ जाए यह उम्मीद तो हम न ही करें और किसी भी प्रकार की जल्दबाजी में लापरवाही भी न करें।
दवा और उपचार के क्षेत्र में अभी तो कई आविष्कारों और अनुसंधान की जरूरत है। स्वास्थ्य सुविधाओं पर गरीब देशों में उनके जीडीपी का 3-5 फीसद ही खर्च होता है जबकि अमीर देशों में 9-11 फीसद। अमरीका में 17 फीसद खर्च किया जाता है। दवा, शोध और सेहत से जुड़े उद्योगों में दुनिया के 20 करोड़ से ज्यादा लोग काम करते हैं। यह क्षेत्र 22 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा तो मुनाफा कमाता है। हां, इस धंधे में जोखिम ज्यादा है इसलिए तमाम सम्भावनाओं के बावजूद इस क्षेत्र का विस्तार नहीं हो पा रहा है। कोरोना काल में दुनिया का दवा व सेहत व्यापार अब लगभग 85 फीसद बदल चुका है। चिकित्सा सेवा डिजिटल हो गयी हैं। रिमोट मेडिकल कन्सलटेशन, मॉनिटरिंग ने अस्पतालों के खर्चे घटा दिये हैं और आमदनी बढ़ा दी है। हेल्थ ऐप स्टार्टअप, बीमा कम्पनियां, दवा कम्पनियां, अमेज़न, एपल, गुगल जैसी तकनीकी कम्पनियों ने डिजिटल स्वास्थ्य सेवाएं शुरू कर दी हैं। मेकिंसी नामक कन्सलटेंसी कम्पनी की मानें तो टेलिमेडिसिन ऑनलाइन दवा सप्लाई आदि का कारोबार 25 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2024 तक 44 लाख करोड़ तक पहुंच सकता है। नये वैक्सीन, नयी दवा तथा नयी चिकित्सा तकनीक अब ब्रांड के नाम पर बिकेंगे, लेकिन विकासशील देशों खासकर भारत में आम लोगों के अंधविश्वास व अन्धभक्ति के कारण उनके ठगे जाने की आशंका भी उतनी ही ज्यादा है।
कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव की वैक्सीन को लेकर मेरी आशंकाएं शुरू से ही हैं। मैंने अपने पिछले कई लेखों में इस वायरस से बचाव की मुकम्मल वैक्सीन पर कई आशंकाएं जाहिर की हैं। आज जब कम्पनियां अपनी-अपनी वैक्सीन के पक्ष में तर्क दे रही हैं और कई भुक्तभोगी स्वयंसेवकों की वैक्सीन की गुणवत्ता और ‘‘सुरक्षित होने’’ को लेकर संदेह के मामले सामने आ रहे हैं, तब चिन्ता और बढ़ जाती है। वैक्सीन की जल्दी में जितने इसके निर्माण और अनुसंधान से जुड़े चिकित्सक और वैज्ञानिक नहीं हैं उससे ज्यादा तो कम्पनियां और सरकारें सक्रिय हैं। मानो वैक्सीन न हो जैसे सत्ता का कोई सर्वोच्च पद हो जिसे तुरन्त जैसे-तैसे हासिल कर लेना है। यह वैक्सीन आज दुनिया में कम्पनियों के व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का खुला खेल बन गयी है। रोजाना वैक्सीन को लेकर नये दावे आ रहे हैं तो कुछ ही दिनों बाद उन दावों की असलियत भी सामने आ रही है।
अभी दुनिया में कोरोना से बचाव की 213 वैक्सीनों पर शोध चल रहा है, इसमें 10 वैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल अब तीसरे चरण में है। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि ये वैक्सीन पूरी तरह से दुनिया में लोगों तक पहुंचने में चार वर्ष यानि 2024 तक का समय लग सकता है, हालांकि युनिसेफ के अनुसार वर्ष 2021 के अन्त तक यह वैक्सीन दुनिया के 100 गरीब देशों में (लगभग 200 करोड़ खुराक) पहुंचायी जा सकती है।
कोरोना की वैक्सीन की चर्चा के बीच एक और डरावनी खबर पर गौर कर लें। इन दिनों जहां पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है, वहीं एशिया के सबसे अमीर देश जापान में कोरोना के दहशत व अन्य कारणों से लोग खुदकुशी कर रहे हैं। विगत अक्टूबर में जापान में 2153 लोगों ने आत्महत्या की। यह संख्या वहां कोरोना से मरने वाली संख्या से कहीं ज्यादा है। जापान में आत्महत्या के ज्यादा मामलों के पीछे एकाकीपन, काम के ज्यादा घंटे, मानसिक तनाव, बीमारियों के प्रति लोगों की नकारात्मक धारणाएं, अन्धविश्वास आदि तत्व ज्यादा पाए गए हैं। हमारे देश में भी विगत कुछ वर्षों में बहुसंख्यक जनता में यही तत्व घर करता आ रहा है। लोग सही सूचना और स्वस्थ अध्ययन के बजाय अंधभक्ति, अंधविश्वास, झूठ, नफरत, हिंसा में झोंके जा रहे हैं। ऐसे में खतरा है कि भारत मानसिक रोगियों व अन्धभक्तों का देश न बन जाए।
आंकड़े देखें तो जापान में कोरोना से पहले के नौ महीने में 2,087 लोगों ने आत्महत्या की थी, लेकिन कोरोना काल के महज एक महीने में ही 2,153 लोगों द्वारा की गयी आत्महत्या किसी भी सभ्य समाज के लिए बेहद डरावनी है। कोरोना काल में भारत में लगभग 40 करोड़ लोग आर्थिक रूप से ऐसे प्रभावित हुए हैं जिन्हें जल्द यदि काम नहीं मिला तो उनकी हालत भयानक हो जाएगी। वे अवसाद और हिंसा में फंसेंगे। इससे देश में निराशा और अस्थिरता बढ़ेगी। वैक्सीन की अलग अलग खबरें भी देश में लोगों को आश्वस्त नहीं कर पा रही हैं।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में सचिव श्री राजेश भूषण के हवाले से पिछले दिन ही आयी खबर कि, ‘‘सरकार ने कभी भी पूरे देश में टीकाकरण की बात नहीं की’’ से आशंका और गहरी हो गयी है। श्री भूषण ने कहा है कि ‘‘मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि सरकार ने कभी भी पूरे देश में टीकाकरण की बात नहीं की है। सिर्फ उतनी ही आबादी को टीका लगाया जाएगा जिससे कोरोना संक्रमण की कड़ी टूट जाए।’’ कोरोना की वैक्सीन पर इधर राजनीति गर्म है तो उधर भारत में कोरोना की वैक्सीन बनने वाली कम्पनी एस्ट्राजेनेका, सीरम इन्स्टीच्यूट आदि बार-बार अपनी वैक्सीन की गुणवत्ता को स्थापित करने के लिए बयान पर बयान जारी कर रहे हैं। सीरम इन्स्टीच्यूट तो अब तक तीन बार ‘‘कोविडशील्ड’’ के सुरक्षित होने की बात कर चुका है। कम्पनी यह भी कह रही है कि यह ‘‘इम्युनोजेनिक’’ भी है तथा इस वैक्सीन के निर्माण में सभी नियामक एवं नैतिक प्रक्रियाओं और दिशानिर्देशों का पालन किया गया है। कम्पनी यह सफाई इसलिए भी दे रही है कि ट्रायल में शामिल कुछ वालन्टियर ने वैक्सीन पर ‘‘गम्भीर खतरनाक’’ असर के आरोप लगाए हैं और आर्थिक मुआवजे का दावा भी ठोका है।
कोरोना की वैक्सीन को लेकर इतनी आशंकाओं की ठोस वजहें भी हैं। दरअसल, किसी भी वैक्सीन या दवा के निर्माण की प्रक्रिया में अब तक कई बड़ी कम्पनियों ने ऐसे-ऐसे घोटाले किए हैं जिसे चिकित्सा एवं व्यापार की भाषा में अनैतिक एवं फ्रॉड कहा जाता है। कई ऐसे प्रमाण और उदाहरण हैं कि बड़ी दवा कम्पनियां फर्जी शोध के आधार पर अपनी सन्दिग्ध दवा को लॉन्च कर उसकी मार्केटिंग कर लेती हैं। अतीत से लेकर अब तक ऐसे कई उदाहरण हैं।
नवम्बर 1999 एवं फरवरी 2000 में त्रिवेन्द्रम के क्षेत्रीय कैंसर केंद्र में जॉन हॉपकिन्स के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर अमरीका में खोजे गसे दो रसायन M4N तथा G4N का गैरकानूनी परीक्षण किया गया। यह परीक्षण मुंह के कैंसर से ग्रस्त 26 लोगों पर किया गया था। ऐसे ही जनवरी 2000 से अगस्त 2008 तक अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान, दिल्ली के शिशु रोग विभाग में 42 ट्रायल्स की गई थीं जिसमें 4142 बच्चे शमिल थे। इनमें से 2728 बच्चे तो एक साल से भी कम उम्र के थे। इन ट्रायल्स के दौरान 49 बच्चों की मौत हो गयी थी। इन ट्रायल्स में जिन दवाओं के परीक्षण हुए वे हैं- जिंक की गोलियां, आल्मेसरटेन तथा वाल्सरटेन (रक्तचाप से जुड़ी समस्या के लिए रिटुक्सिबेस (दिमागी रोग के लिए), जिन एक्टीवेटेड ह्यूमन ग्लूकोसेरेब्रोसाइटिस (लीवर के लिए)। सवाल है कि रक्तचाप से जुड़ी दवाओं का बच्चों पर परीक्षण करने की क्या जरूरत थी?
ऐसे ही कोरोना वायरस संक्रमण के इलाज में प्रयुक्त रेमिडेसिविर नामक दवा को काफी महीनों बाद डब्लूएचओ ने खारिज कर दिया है। ऐसे ही एचसीक्यू के उपयोग पर भी सवाल उठ रहे हैं। स्पष्ट है कि नये रोगों के उपचार व बचाव की दवा के परीक्षण में कम्पनियां व सरकारी और गैर-सरकारी एजेन्सियां तमाम तिकड़म लगाती हैं क्योंकि उन्हें अपने मुनाफे की परवाह है न कि आपकी जान की।
कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव की कथित वैक्सीन के शीघ्र आने की मुनादी हो चुकी है। मार्केटिंग भी जारी है। कई देशों से करोड़ों डोज़ के आर्डर भी मिल गए हैं। अब कम्पनियों में होड़ है कि किसकी वैक्सीन कितनी ज्यादा बिकती है। इसी बीच वैक्सीन के परीक्षण को लेकर कुछ जानकारियां लीक हो रही हैं या की जा रही हैं, कहा नहीं जा सकता। नवम्बर में कोरोना वैक्सीन के निर्माण में लगी कम्पनी मार्डना तथा फाइजर/बायोएनटेक कम्पनियों की कोविड-19 वैक्सीन के 95 फीसद सफल होने की खबर है। कई वैज्ञानिकों को तो इस वैक्सीन के इतना अधिक कारगर होने पर आश्चर्य हो रहा है। आम लोग तो अखबार में छपी इस खबर से ही खुश हैं कि वैक्सीन आ रही है मगर स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि इन वैक्सीन से ऐसी राहत नहीं मिलेगी जैसी उम्मीद की जा रही है। अध्ययन यह बता रहे हैं कि ये वैक्सीन किसी भी व्यक्ति में संक्रमण फैलने से रोकने की बजाय लोगों को खतरनाक और गम्भीर रूप से बीमार होने से रोकेगी। वैक्सीन आने के राजनीतिक शोर में यह तथ्य दब गया है कि इन वैक्सीनों की जिस 95 फीसद सफलता का दावा किया जा रहा है उसमें संक्रमण रोकने की क्षमता का जिक्र नहीं है। इसमें वायरस से होने वाली बीमारी से बचाव में प्रभावी होने की बात कही गयी है।
कोरोना वैक्सीन के बाजार में आने की चर्चा के बीच भारत में सत्ताधारी दल इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने में ज्यादा रूचि ले रहा है। कहा जा रहा है कि देश में कोरोना वैक्सीन के भंडारण के लिए 28 हजार कोल्ड चेन सेन्टर बनाए गए हैं जहां वैक्सीन पहुंचाने के लिए भारतीय वायुसेना की मदद ली जाएगी। अखबारों और संचार माध्यमों के जरिये खबर फैलाकर भारतीय वायुसेना ने कहा है कि 100 से ज्यादा विमान और हेलीकाप्टर को रिजर्व कर वैक्सीन की ‘‘लास्ट पॉइन्ट डिलीवरी’’ सुनिश्चित की जाएगी। यह सब नोटबंदी, चुनावी प्रबन्धन की तर्ज पर होगा। बहरहाल ऐसी तैयारियां निश्चित ही अच्छी हैं यदि आपात स्थिति में कोई ‘‘आपरेशन’’ को अंजाम देना हो। यह तो रही देश में वैक्सीन पहुंचाने के लिए सरकार की तैयारी। उधर दवा कम्पनी फाइजर ने ब्रिटेन और बहरीन में अपनी कोरोना वैक्सीन लगाने की इजाजत ले ली है और अब वह भारत में वैक्सीन के आपात इस्तेमाल की अनुमति चाहती है। कम्पनी चाह रही है कि भारत में उसे इस्तेमाल से पहले क्लिनिकल ट्रायल से छूट मिल जाए ताकि बिना देरी वैक्सीन भारत में भी उपयोग में आ सके। खबर है कि अभी 4 दिसम्बर की रात कम्पनी ने भारत के सेन्ट्रल ड्रग्स स्टैन्डर्ड कन्ट्रोल आर्गेनाइजेशन (सीडीएससीओ) से भारत में वैक्सीन के आयात के इस्तेमाल की अनुमति मांगी है।
कोरोना वायरस संक्रमण के वैश्विक प्रचार और दहशत के बाद अब जो चर्चा सरेआम है वह है इसके वैक्सीन से उपजी दहशत की। वैक्सीन की वैधता, गुणवत्ता तथा भविष्य में इसके दुष्परिणाम पर छिटपुट बहस के अलावा लगभग हर ओर चुप्पी है। सरकारें भी स्पष्ट नहीं हैं कि वैक्सीन सरकार लाएगी या बाजार। कीमत और उपलब्धता भी स्पष्ट नहीं है। यदि वैक्सीन आ भी गयी तो उसे खुले बाजार में निर्धारित कीमत पर बेचने की कम्पनियों की मजबूरी होगी या बाध्यता? यह भी स्पष्ट नहीं है।
इसके अलावा, कोरोना वायरस संक्रमण के आंकड़े भी रहस्यमय ही हैं। मौजूदा व्यवस्था में सरकार और कम्पनियां यदि चाहें तो कोरोना वायरस संक्रमण की भयावहता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर सकते हैं। ऐसे में मुझे तो लगता है कि वर्ष 2021 देशवासियों के लिए वैक्सीन की मारा-मारी में ही बीतेगा। मैं तो अपनी तरफ से यही कह सकता हूं कि जनता डर से बाहर निकले, सतर्कता बरते, वायरस के संक्रमण से बचने के लिए मास्क लगाये, छह फीट की दूरी रखे और हाथ धोये। ये एहतियात किसी वैक्सीन से कम नहीं हैं। हौसला रखिए, सकारात्मक बनिए।