दो दिन पहले, रविवार की सुबह, लगभग नौ बजे एकाएक ट्विटर पर एक खबर तैरने लगी। खबर यह थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली स्थित गुरुद्वारा रकाबगंज साहब पहुंच गए हैं बिना किसी सुरक्षा के तामझाम के। उनके वहां जाने के लिए ट्रैफिक को भी रोका नहीं गया। इतना ही नहीं, कहा तो यह भी गया कि उनके पहुंचने की कोई पूर्वसूचना गुरुद्वारा प्रबंधक को नहीं दी गई थी। गुरुद्वारा रकाबगंज साहब वही स्थल है जहां सिखों के नौवें श्री गुरु तेग बहादुर साहब जी का अंतिम संस्कार किया गया था, जिनकी औरंगजेब के आदेश पर हत्या कर दी गई थी।
प्रधानमंत्री मोदी के इस यात्रा को सरकार समर्थित मीडिया व टिप्पणीकारों ने कुछ इस रूप में पेश किया जैसे कि भारत सरकार व प्रधानमंत्री मोदी पंजाब के किसानों और सिखों की तकलीफ को बहुत अच्छी तरह समझते हैं और गुरुद्वारा जाकर उनके दुख-दर्द में हाथ बंटाना चाहते हैं और किसानों को यह कहना चाहते हैं कि वे उन पर विश्वास कर सकते हैं। एक दूसरा तबका भी है जो प्रधानमंत्री मोदी की इस धार्मिक यात्रा को अगले प्रहसन के रूप में लेता है।
उदाहरण के लिए, जिस रूप में सरकारी मीडिया व पत्रकारों ने इस बात को ट्वीट करना शुरू किया कि प्रधानमंत्री बिना किसी सूचना व सुरक्षा के तामझाम के गुरुद्वारा रकाबगंज साहब पहुँच गए, उनसे यह सवाल तो जरूर पूछा जाना चाहिए कि अगर मोदीजी की वह यात्रा इतनी अचानक थी तो इसकी इतनी व्यापक कवरेज कैसे संभव हुई?
दूसरी बात, पिछले छह वर्षों से जो लोग प्रधानमंत्री मोदी के वस्त्र विन्यास पर नजर रख रहे हैं वे जानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी का हर अवसर के लिए अलग तरह का वस्त्र होता है। उन्होंने इस दर्शन के लिए विशेष रूप से गेरुआ परिधान पहना अर्थात प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा पहले से तय थी। एक तथ्य यह भी है कि अंग्रेजी के गोदी पत्रकारों ने जो ट्वीट किया, वह कहीं से उनके पास आया ट्वीट था जिसे कट पेस्ट करके चिपकाया गया था क्योंकि ट्वीट में गुरुद्वारा रकाबगंज की जगह रकाबजंग लिखा हुआ था, जिसे सबने एक साथ प्रेषित कर दिया था।
फिर भी, गुरुद्वारा रकाबगंज में जो हुआ उसकी वही सूचना प्रेषित नहीं की गई जो वहां घटी थी। प्रधानमंत्री की सुरक्षा की जिम्मेदारी एसपीजी के हाथ में होती है जिसमें लेब्राडोर या गोल्डन रिट्रीवर नस्ल के कुत्ते होते हैं। सुरक्षा नियमों के अनुसार प्रधानमंत्री के पहुंचने से कम से कम आधा घंटा पहले उस क्षेत्र को सूंघ कर रेकी की जाती है कि वहां गोला, बम-बारूद या विस्फोटक पदार्थ तो नहीं है। इसी जांच-पड़ताल के लिए सुबह-सुबह जब रेकी के लिए डॉग स्क्वाड की यूनिट पहुंची तो गुरुद्वारा साहिब के सेवादारों ने सख्ती से कुत्तों को प्रवेश देने मना कर दिया। विवाद बढ़ने पर प्रबन्धन समिति के वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाए जाने के बाद उन्होंने कुत्तों को भीतर आने की अनुमति नहीं दी।
साथ ही, यह भी स्पष्ट कर दिया कि गुरुद्वारे की मान मर्यादा के अनुरूप नंगे पैर- मोजा भी नहीं- और सर को ढँक कर ही अंदर जाने दिया जाएगा (गुरुद्वारे में टोपी पहनने की इजाजत नहीं होती है, यहां तक कि सुरक्षाकर्मियों या सैन्यकर्मियों को भी अपनी टोपी उल्टी करनी पड़ती है)। एसपीजी वालों को गुरुद्वारे की इन शर्तों को मानना पड़ा। रविवार को मोदीजी जब गुरुद्वारे की शरण में पहुँचे, उस वक्त मुख्य ग्रंथी पंजाबी में जो सबद व्याख्या कर रहे थे, उसे देखिए:
तू चाहे चाहे धर्म-ग्रंथ पढ़, संगत कर, पर अगर तेरे सोच में तब्दीली नहीं आई, तूने मानवता का भला नहीं किया तो जब आख़िरी वक़्त आएगा तब किधर भागेगा, कब तक भागेगा?
चूंकि मोदीजी व उनकी सरकार हर चीज को ईवेंट मैनेजमेंट के रूप में देखती है इसलिए इस घटना को भी अपनी सदाशयता के रूप में वे पेश कर आए जबकि हम जानते हैं कि लाखों किसान पिछले 26 दिनों से दिल्ली के सिंघू, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर बैठे हुए हैं। शुरू में आई खबरों के अनुसार पंजाब से आए किसानों के पास अगले छह महीने का राशन है। अर्थात किसान यह मानकर चल रहे हैं कि सरकार उनकी मांग मानने में छह महीने तक का वक्त ले सकती है! लेकिन जिस रूप में मोदी सरकार किसानों के साथ दुर्व्यवहार कर रही है उससे लगता है कि सरकार के एजेंडा में किसान बिल्कुल ही नहीं है, बल्कि बातचीत की थोड़ी बहुत कोशिश भी है वह इस बात के लिए जिससे कि आम लोगों में भ्रम फैलाया जा सके।
प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा किसी भी रूप में सिर्फ गुरु तेग बहादुर को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए नहीं थी, बल्कि यह सामान्य हिन्दुओं के मन में आंदोलन कर रहे पंजाब के किसानों के प्रति घृणा फैलाने के लिए थी। प्रधानमंत्री मोदी सामान्य हिन्दुओं के मन में यह बात बैठाना चाहते हैं कि देखिए, प्रधानमंत्री मोदी सिखों की कितनी इज्जत करते हैं लेकिन ये पंजाब के सिख किसान हैं जो इनके खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं! अगर सचमुच प्रधानमंत्री मोदी का गुरु तेग बहादुर जी के प्रति आदर था तो यह दिन तो हर साल आता था, फिर अभी तक वे क्यों नहीं गए रकाबगंज? जबकि पिछले छह साल से वह प्रधानमंत्री हैं और यह स्थल प्रधानमंत्री कार्यालय या संसद भवन से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है?
बहुत पहले जब पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन अपने शबाब पर था, तो इतिहास के दो बड़े प्रोफेसर एस. गोपाल व बिपन चन्द्रा को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मिलने के लिए बुलाया। पता नहीं उसी पर बात करनी थी या बात उस ओर मुड़ गयी, लेकिन उनके बीच पंजाब की समस्या पर बात होने लगी। बिपन चन्द्रा ने कहा, “मैडम प्राइम मिनिस्टर, इतिहास में किसान आंदोलन के जितने भी लिखित रिकार्ड उपलब्ध हैं, उसके अनुसार किसान बहुत आसानी से विद्रोह पर नहीं उतरता है। उन्हें विद्रोह के लिए तैयार होने में काफी वक्त लग जाता है क्योंकि वे काफी धैर्यवान होते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि पंजाब में अभी हिंसा का जो दौर चल रहा है उसमें किसान शामिल नहीं हैं। अगर किसान इस आंदोलन में शामिल हो जाएगा तो लिखित स्रोत यह भी है कि उसे शांत या नियंत्रित करना लगभग असंभव हो जाता है।”
वह बात 1984 के मार्च महीने की थी। दो महीने के बाद 1 जून 1984 को ऑपरेशन ब्लूस्टार शुरू हुआ जो 8 जून तक चला। उस आंदोलन को खत्म कर दिया गया। किसान उस समय भी उसमें हिस्सेदार नहीं थे। आज जब वहां के किसान अपनी वाजिब मांग पर आंदोलन कर रहे हैं तो उन्हें खालिस्तानी कहा जा रहा है! और गौर कीजिए, वे सचमुच आज आंदोलन कर रहे हैं। वे विद्रोह पर भी उतर सकते हैं। इसलिए मोदी सरकार को उनके धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए!