जब यह लेख लिखा जा रहा है, उस समय लगभग पूरे अमेरिका में हिंसा भड़की हुई है. वहां के अश्वेत सड़क पर उतरे हुए हैं और उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर गोरे भी अपने देश में नागरिकों की हिफाजत के लिए उनके साथ हैं.
अभी कुछ दिन पहले जॉर्ज फ्लॉयड को गोरी अमेरिकी पुलिस ने सरेआम गला चांप कर मार दिया था. उसके बाद शुरू हुए प्रदर्शन कई और अश्वेतों की हत्या के बाद देश के कम से कम 40 शहरों में फैल चुके हैं. दो दिन पहले सोशल मीडिया पर 22-23 साल की एक ब्लैक लड़की गुस्से में लेकिन काफी तार्किक ढ़ंग से अपनी बात रख रही थी, “अमेरिकी गोरों ने अश्वेतों को लूटा है, नेटिव्स को लूटा है और हमने लूटना भी गोरों से ही सीखा है, हिंसा करना भी हमने गोरों से सीखा है.” आगजनी का बचाव करते हुए वह आगे कहती है, “लोग गुस्से में हैं इसलिए ये सब हो रहा है अगर गोरे सुधर जाएं, अपराधियों को सजा मिल जाए तो सब कुछ शांत हो जायेगा.” वह अपनी बातों में गोरा राष्ट्रवाद और गोरा वर्चस्ववाद को चिह्नित करती है और बताती है कि अमेरिका इसी सिद्धांत पर संचालित हो रहा है.
अमेरिका में सत्ता प्रतिष्ठान से बाहर के गोरों ने ब्लैक पर हुए इस ज्यादती के लिए माफी मांग ली है, ब्लैक के सम्मान और अधिकारों के लिए वे उनके संघर्ष में साथ हैं. ब्लैक के साथ कंधा मिलाने के लिए उन्हें श्वेत समाज में अपमानित नहीं किया जा रहा है, शायद खुद इसमें शामिल न हो पाने के लिए वे असहज भी महसूस कर रहे होंगे. अमेरिकियों में अपराधबोध होता है, दुख है, पश्चाताप होता है, वे बराबरी की लड़ाई में, समानता में, रंगभेद में ब्लैक के साथ मिलकर लड़ते हैं क्योंकि वे भारतीयों की तरह पाखंडी नहीं होते, जातिवादी नहीं होते.
अब अपने देश हिन्दुस्तान का उदाहरण लीजिए. कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज की प्रिंसिपल डॉक्टर आरती लालचंदानी कह रही हैं कि मुसलमानों को ज़हर के इंजेक्शन देकर मार देना चाहिए. उसके खिलाफ भारत में गुस्सा होने की बात छोड़िए, उसके पक्ष में तो कहीं मुहिम भी शुरू हो चुकी होगी कि अगर उसने ऐसा कहा है तो क्या गलत कहा है?
भारत में आलम यह है कि जातिवाद व ब्राह्मणवाद के खिलाफ लिखने वालों को जातिवादी घोषित कर दिया जाता है जबकि अमेरिका में गोरे अपनी चुप्पी को हिंसा मान रहे हैं. अमेरिका में या पश्चिमी देशों में नस्लभेद के खिलाफ लड़ने वाले को नस्लभेदी नहीं बोला जाता है. यहां जातिगत भेदभाव के खिलाफ बहुसंख्यक सवर्ण समाज चुप्पी मारे बैठा रहता है, एक तरह से मौन समर्थन प्रदान करता है. अन्याय, सवर्ण वर्चस्व के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोलता है. क्या किसी ने जातिवाद के खिलाफ सवर्ण समाज का कोई बड़ा आंदोलन देखा है जिसमें सर्वाधिक भागीदारी सवर्णों ने की है? दलित उत्पीड़न से लेकर तमाम भेदभाव वाले मामलों पर सवर्ण समाज कमोबेश चुप्पी साधकर रहता है (अपवाद कहां नहीं होता). बदले में अगर किसी ने यह सवाल उठा दिया तो सवर्ण समाज से प्रतिप्रश्न होता है, “जो भी हो, दलितों-बहुजनों की भाषा काफी हिंसक थी और वे आक्रोश में बोल रहे थे.”
कल्पना कीजिए कि भारत में कोई दलित, अल्पसंख्यक या फिर अतिपिछड़ा सवर्णों को निशाना बनाकर आक्रमक भाषण दे रहा है. मोदी सरकार, योगी सरकार, सवर्णवाद, सवर्ण वर्चस्व, कोर्ट-कचहरी, पुलिस-प्रशासन, प्रेस-मीडिया, नौकरशाही की धज्जियां उड़ा रहा है. थोड़ी देर में, मामला शांत होने से पहले ही उसके हाथों में हथकड़ी डाल दी गयी होती है, उसपर राजद्रोह का मुकदमा चल रहा होता है, सारा का सारा दलित, पिछड़ा नेतृत्व (जिसने इनके नाम पर अपना ज़मीर बेच दिया है और उसकी कीमत वसूल कर अपने बेटे के लिए लोकसभा-विधानसभा की सीट सुरक्षित कर ली है और अरबों-खरबों की संपत्ति जुटायी है) अपने समुदाय के ऊर्जावान लड़के-लड़कियों को चेतावनी देना शुरू कर देता है.
सवाल उठता है कि वैसा कब से शुरू हुआ या फिर भारत में हमेशा से ही वैसा होता रहा है? ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो हो सकता है कि स्थिति इतनी भी अच्छी न रही हो, फिर भी आजादी के बाद बेहतर करने या किये जाने की कोशिश जरूर हुई. आजादी से पहले और उसके कुछ दिनों के बाद तक लोकतांत्रिक व प्रोग्रेसिव संस्थानों का बनना शुरू हुआ. कारण शायद यह भी रहा हो कि आजादी के समय के बहुत से लीडरान वैसे थे जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा पायी थी और जिसने अंग्रेजी शिक्षा नहीं पायी थी वे समाज के बड़े विमर्श और हलचल से अवगत थे. उनमें ‘नेशनल इंस्पिरेशन’ की कद्र थी. अगर वे सचमुच आधुनिक समाज नहीं बनाना चाहते थे तब भी उनमें अपने साथ काम करने वाले नेताओं का लिहाज था कि शायद वे सही हैं, इसलिए हमें उनकी बात मान लेनी चाहिए.
फॉर्मेट भले ही ब्रिटिश रहा हो, लेकिन देश में जुडिशियरी एक संस्थान के रूप में काम करती थी. इसे हम वर्षों तक सुनते आ रहे थे कि अगर पुलिस-प्रशासन में न्याय नहीं मिलेगा तो अदालत में तो न्याय मिलकर ही रहेगा. और लगभग ऐसा होता था कि जब निचली अदालत में न्याय नहीं मिलता था तो अधिकांश मामले में लोगों को बड़ी अदालत से न्याय मिल जाता था. लेकिन आज के दिन न्याय की सारी अवधारणा ध्वस्त हो गयी है. इस देश में कोई ऐसा संस्थान नहीं बचा है जिस पर किसी को भरोसा है कि कुछ भी हो जाय, वहां अमीर-गरीब, जाति-धर्म के आधार पर फरियादी के साथ भेदभाव नहीं होगा!
आखिर क्या कारण है कि जिन संस्थाओं ने काम करना शुरू किया वही संस्थाएं आजादी के महज 70 साल बाद इतना जर्जर हो गयीं वहां लोगों को न्याय मिलना बंद हो गया? या इस सवाल को उलट दें तो आखिर क्या कारण है कि पहले लोगों का इन संस्थानों पर विश्वास था और अब विश्वास खत्म हो गया है?
देश की तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट किये जाने की शुरुआत मंडल आयोग की अनुशंसा लागू किये जाने के बाद वर्ष 1990 में हुई. सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे सवर्णों को लगने लगा कि जिस देश को वे ‘अपना’ मानकर बैठे हुए थे वास्तव में वह ‘सबका’ है. अर्थात क्या इस देश को इसलिए वैसा रहने दिया जाय जहां अब पिछड़ी जाति के साथ बराबरी पर काम करना पड़ेगा? सवर्णों के मन में इस बात को लेकर सदियों से चली आ रही घृणा ने फिर से जबर्दस्त ढंग से घर करना शुरू किया कि क्या यह कम था कि दलितों के साथ पिछड़ों को भी बर्दाश्त करना पड़ेगा! और यही वह वक्त था जब सवर्णों ने दलितों के साथ-साथ पिछड़ों की उपस्थिति के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद करना शुरू किया. सवर्णों को लगने लगा कि अगर यह देश बच भी जाय, अगर ये संस्थान बच भी जाएं, तो इसका लाभार्थी कौन होगा- दलित व पिछड़े! फिर सवर्णों के लिए क्या बचेगा?
यही वह मंडल आयोग की अनुशंसा थी जिसने देश के जातिवादी सवर्णों को भस्मासुर बनाकर रख दिया. जातिगत घृणा व विद्वेष में उसने यह भी नहीं सोचा कि अगर ये संस्थाएं नहीं बचेगीं और जब कभी वहां गुजारिश करनी होगी तो फिर वहां उसे न्याय कैसे मिलेगा या फिर किसके सामने वह न्याय की फरियाद करेगा.
आजादी के बाद, मतलब 1947 के बाद से 1990 तक देश में बन रहे विभिन्न संस्थानों को देखें तो वे न्याय और समानता के आधार पर काम करते हुए दिखती थीं. हां, यह अलग बात है कि गरीबों को उन संस्थानों में पहुंचने में मशक्कत करनी पड़ती थी लेकिन अगर कोई गरीब से गरीब इंसान वहां पंहुच जाता तो वह मानकर चलता था कि उन्हें न्याय मिलेगा और सामान्यतया उन्हें न्याय मिल जाता था.
1990 के जब मंडल आयोग की अनुशंसा को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी तो वह संभवतः अंतिम अवसर था जब 9 सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने बहुमत से (6 बनाम 3) इसके पक्ष में फैसला सुनाया था. आजादी के बाद बनी संस्थाएं अगर ठीक से काम नहीं कर पाती थीं तो विधायिका और न्यायपालिका की कोशिश होती थी कि उसे बेहतर करने की दिशा में कुछ सुझाव दे या फिर हस्तक्षेप करे. लेकिन मंडल के बाद न्यायपालिका ने इस तरह का हस्तक्षेप करना लगभग बंद कर दिया. सारे प्रोग्रेसिव कानूनों को जब सरकार खत्म करने की तैयारी करने लगी तो इन संस्थाओं ने सरकार का पक्ष लेना शुरू किया.
ऐसा नहीं कि ये सब सिर्फ संस्थानों के द्वारा हुआ. इसकी जड़ में पिछड़ा व दलित नेतृत्व भी था जो सत्ता में हर कीमत पर हिस्सेदारी चाहता था. परिणाम यह हुआ कि अपने निजी हित के लिए उन्होंने सवर्णों के साथ गठजोड़ कर लिया जिसका एकमात्र मकसद अपने व अपने परिवार को सुरक्षित करना हो गया.
इसलिए जब हम देखते हैं कि एक समय का बेहतर संस्थान आज धराशायी हो गया है जबकि अमेरिका का हर संस्थान राजसत्ता के सामने अकड़कर खड़ा हो जाता है और उसके फरमान को मानने से मना कर देता है, तो इसके पीछे एकमात्र कारण यह है कि पिछले चार सौ वर्षों में वहां पब्लिक इंस्टीट्यूशन को बनाने की कोशिश की गयी है तब जाकर उसकी स्वायत्तता बरकार रह पायी है. अपने यहां चालीस साल में ही उन संस्थाओं की सवर्णों ने मिलकर भ्रूण हत्या कर दी है. इसलिए जब सिविल सोसायटी इन संस्थानों को बचाने की बात करता था तो उन्हीं सवर्णों द्वारा उसे टारगेट किया जाता था जहां से सिविल सोसायटी के लोग खुद आते थे.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। कवर तस्वीर न्यूयॉर्क पोस्ट से साभार है। क्रेडिटः Taidgh Barron/NY Post
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