भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच बातचीत के बाद बीते कुछ हफ़्तों से वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चल रही तनातनी में फिलहाल नरमी के संकेत हैं. रिपोर्टों के अनुसार, दोनों देशों की सैन्य टुकड़ियाँ डेढ़-दो किलोमीटर पीछे हटी हैं, हालांकि तनाव कम होना स्वागतयोग्य है लेकिन सीमा विवाद को लेकर झड़प होने या अपनी-अपनी दावेदारी के हिसाब से आगे बढ़ने की घटनाओं की आशंका ख़त्म नहीं हुई है.
दोनों देशों के मीडिया और मीडिया के माध्यम से जनमत को प्रभावित करने वाले विशेषज्ञ अपने-अपने देशों की सरकार और सेना को सतर्क रहने की हिदायत दे रहे हैं. इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि जहां भारतीय मीडिया में पूर्वी लद्दाख, सैनिकों की झड़प और चीन के रवैये को लेकर लगातार ख़बरें, लेखों और बहसों का प्रकाशन व प्रसारण हुआ है और हो रहा है, लेकिन चीन में चीनी भाषा की मीडिया में इस मसले को बहुत प्राथमिकता नहीं दी गयी है और आम तौर पर वहां के अंग्रेज़ी मीडिया ने ही मोर्चा संभाला हुआ है. इसका एक निष्कर्ष यह है कि भारत में जो विमर्श है, वह मुख्य रूप से घरेलू जनता और राजनीति को संबोधित है तथा चीन का मीडिया भी भारत और पश्चिमी देशों से ही मुख़ातिब है.
इसका एक संकेत हम डोवाल और वांग की बातचीत के बाद हुई मीडिया रिपोर्टिंग में देख सकते हैं. भारत सरकार के आधिकारिक बयान में जहां बहुत सधे हुए शब्दों का प्रयोग हुआ और इस बात का ख़्याल रखा गया है कि कोई कूटनीतिक रार न हो, लेकिन हमारे मीडिया ने इस समझौते को भारत की जीत के रूप में पेश करने की कोशिश की है. चीन के विदेश मंत्रालय के बयान से अगर आप भारत के बयान की तुलना करें, तो दोनों में बहुत अंतर है और विपक्ष और सरकार के आलोचकों ने इसे मुद्दा भी बनाया है. दोनों बयानों और विपक्ष की प्रतिक्रिया को यहां पढ़ा जा सकता है, लेकिन संक्षेप में दोनों बयानों के बारे में ‘द टेलीग्राफ़’ ने कुछ बिंदु रेखांकित किये हैं, जिनका उल्लेख करना ज़रूरी है कि दोनों में अंतर क्या है.
भारत के बयान में गलवान का उल्लेख नहीं है, जबकि चीन ने न केवल गलवान की चर्चा की है बल्कि उसके बारे में अपने दावे को सही ठहराने की कोशिश भी की है. भारत का मुख्य ज़ोर नियंत्रण रेखा पर शांति बनाए रखने का है ताकि दोनों देशों के संबंधों को बेहतर किया जा सके. चीन भी यही कह रहा है, पर वह आपसी रिश्तों की अहमियत को ख़ास तौर पर रेखांकित करता है. भारत का कहना है कि नियंत्रण रेखा का सम्मान होना चाहिए और यथास्थिति को बदलने की एकतरफ़ा कोशिश नहीं होनी चाहिए. इसके बरक्स चीन न तो नियंत्रण रेखा और न ही एकतरफ़ा कोशिश का उल्लेख करता है लेकिन सीमा पर शांति पर उसका भी ज़ोर है. भारतीय बयान में जनमत के बारे में कुछ नहीं कहा गया है, लेकिन चीन के बयान में कहा गया है कि जनमत को सही दिशा देने की कोशिश होनी चाहिए.
बहरहाल, भारत-चीन तनातनी के मौजूदा मसले और समझौते को समझने के लिए दो लेख बहुत मददगार हो सकते हैं. जाने-माने कूटनीतिक और पूर्व राजदूत एमके भद्रकुमार ने अपने लेख के शीर्षक में ही कह दिया है कि सीमा विवाद पर भारत में बनी समझ को अमेरिकी लॉबीस्टों से प्रभावित किया है. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लेह यात्रा की उचित ही प्रशंसा की है क्योंकि इससे उन्हें वहां की स्थिति को समझने में सहायता मिली और वे उसके बाद डोवाल को बातचीत के लिए कहकर मसले को शीर्ष स्तर से सुलझाने का प्रयास कर सकते है.
जैसा कि भद्रकुमार ने लिखा है, ऐसे मसलों के बारे में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार राजनीतिक नेतृत्व को ही होना चाहिए. उल्लेखनीय है कि अजीत डोवाल चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बनी प्रक्रिया में भारत के विशेष प्रतिनिधि हैं और चीन की ओर से यह ज़िम्मेदारी उसके विदेश मंत्री की है. भद्रकुमार जैसा वरिष्ठ और अनुभवी कूटनीतिक जब यह कहता है कि डोवाल की कोशिशों को नाक़ामयाब बनाने और उसे ग़लत साबित करने की रिपोर्टों और विश्लेषणों के पीछे दिल्ली में मौजूद ताक़तवर अमेरिकी लॉबी है, तो हमें गंभीरता से इसे सुनना-समझना चाहिए.
याद रहे, तनाव गहराने के साथ ही बहुत सारे राजनीतिक लोगों से लेकर भू-राजनीतिक और सामरिक विद्वान व जानकार ललकार और युद्ध की भाषा बोलने लगे थे. इस माहौल को सरकार ने भी भुनाने की कोशिश की. एक तो उसने अंतरराष्ट्रीय समुदाय में चीन-विरोधी ताक़तों को यह संकेत देने की कोशिश की कि चीन के बरक्स वह उनके साथ है. इसी की एक कड़ी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत के ‘चतुष्क’ (क्वैड) को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना, जबकि सच यह है कि यह चतुष्क अभी भ्रूण में भी नहीं है. यह एक स्पष्ट विचार तक नहीं है कि इसका उद्देश्य या स्वरूप क्या होगा.
इसी के साथ मीडिया में यह ख़बर ख़ूब चली की कि ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत सामरिक गठबंधन कर रहा है और इससे चीन को घेरने में बड़ी सहायता मिलेगी. चीन हमें घेर रहा है या हम चीन को घेर लेंगे जैसी भाषा असल में भारतीय मानस में बैठे उस साइनोफ़ोबिया का परिचायक है, जो एप बंद किए जाने पर भी तुष्ट होकर झूमने लगता है. तो, सरकार ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए उस फ़ोबिया को भी तुष्ट करने की कोशिश की है. इसका नुक़सान यह हुआ कि प्रधानमंत्री की लेह यात्रा के महत्व और अजीत डोवाल की असली उपलब्धियों को सरकार और सरकार चला रही पार्टी ठीक से भुना नहीं सकी. आदतन या कोई और उपाय न होने की वजह से उसकी कोशिश यही रही कि देश के भीतर प्रधानमंत्री की छवि को और मजबूत बनाकर चुनावी लाभ लेने की प्रक्रिया जारी रखी जाए.
अगर यह ख़बर सही है कि डोवाल और वांग की बातचीत की ख़बरों को मैनेज करने के लिए मीडिया के वरिष्ठ संपादकों को 15 बिंदुओं का एक नोट व्हाट्सएप के ज़रिये भेजा गया था, तो मानना पड़ेगा कि सरकार की चिंता में घरेलू राजनीति अधिक है. इस कारण पूर्वी लद्दाख के मामले में भ्रम भी ख़ूब फैला और सरकार से सवाल करने की उचित स्थिति भी बनी. आख़िर युद्धोन्माद तो सरकार चला रहे लोगों की विचारधारा का ख़ास हिस्सा है. ऐसे में अमेरिकी लॉबी को अपना काम करने में सुविधा ही हुई होगी.
ख़ैर, वापस आते हैं भद्रकुमार के लेख पर. उनके अनुसार डोवाल एक सक्षम वार्ताकार हैं और सुरक्षा चुनौतियों को लेकर उनके पास बहुत सारा अनुभव है. वे प्रधानमंत्री के सबसे भरोसेमंद लोगों में से भी हैं. भद्रकुमार की यह बात भी अहम है कि डोवाल उन कुछ बचे हुए लोगों में हैं, जो सुरक्षा चुनौतियों को पूरी तरह से राष्ट्रीय हित के लेंस से देखते हैं और विदेश में कोई उनका संरक्षक/नियंत्रक नहीं है. यह स्थिति नियंत्रण व प्रभाव के आग्रही अमेरिकी लॉबी के लिए बहुत परेशानी का कारण है. इसीलिए इस समझौते को कमतर और बेमतलब साबित करने की होड़ मची हुई है. भद्रकुमार की यह बात भी अहम है कि कोई भी देश बाज़ार गॉसिप से अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी नीतियों को संचालित नहीं होने दे सकता है और शीर्ष नेतृत्व को शासन के कुछ हिस्सों से सावधान रहना चाहिए, जो निहित स्वार्थों के लिए मीडिया में ख़बरें परोस रहे हैं.
इस संबंध में विश्लेषक एंड़्र्यू कोरीब्को की टिप्पणी भी महत्वपूर्ण हैं. सरकार की युद्धोन्माद की वैचारिकी को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि भारत ने अपने को महाशक्ति (सुपरपॉवर) होने का भ्रम पाल रखा है. दूसरी ओर, चीन इस बात को लेकर स्पष्ट है कि भारत ने अपने को अमेरिकी ख़ेमे में पूरी तरह से शामिल कर लिया है और गलवान प्रकरण में उसकी कार्रवाई उस प्रक्रिया को कुछ देर के लिए रोकने की मंशा से प्रेरित हो सकती है, पर वह यह भी समझता है कि आपसी संबंधों को भारत-अमेरिकी संबंधों की छाया से जितना अलग कर रखा जा सके, उसके हित में है.
ऐसे में भारत को अपने हितों को प्राथमिकता देकर चीन के साथ संबंधों की दशा और दिशा तय करने की कोशिश करनी चाहिए तथा उन घरेलू व बाहरी समझदारियों व पैंतरों से सावधान रहना चाहिए, जो चीन-विरोधी या युद्ध का माहौल इसलिए बनाए रखना चाहते हैं ताकि या तो उनके राजनीतिक या भू-राजनीतिक स्वार्थ सधें या फिर उनकी साइनोफ़ोबिया तुष्ट हो सके.