हाथरस कांड के पेंच बढ़ते ही जा रहे हैं। न जाने कहां से एक ‘नक्सली’ भाभी निकल आयी हैं! इससे पहले एक ‘वेबसाइट बनाकर पैसे उगाहने’ की बात भी फिजाओं में तैर चुकी है। इस बीच घटना के तीन-चार आयाम, दर्जनों पक्ष सामने आ चुके हैं और अगर आप अव्वल दर्जे के मूर्ख या धूर्त न हों, तो इस विषय पर निर्णयात्मक कुछ भी लिखने से डरेंगे।
इसलिए डरेंगे क्योंकि असल बात अब कहीं दूर दफन हो चुकी है; परिवार ने सीबीआइ और नार्को टेस्ट से मना कर दिया है; रेप की या गैंगरेप की पुष्टि हुई है या नहीं यह भी अब एक शंकास्पद सवाल बन कर रह गया है। खुद लड़की के भाई और मां ने ऑनिर किलिंग की हो सकती है, यह भी एक आशंका व्यक्त की जा रही है। याद रहे, ये सारी जानकारी हम तक बुद्धू बक्सा पहुंचा रहा है। इस बीच एसआइटी की जांच अपनी गति से चल रही है जबकि प्रशासन अपनी मंथर गति के सहारे अपने छूटे कस-बल को पेंचदार बना रहा है।

जिन डॉक्टर राजकुमारी को कथित तौर पर एसआइटी खोज रही है औऱ जो ‘शहरी नक्सली’ हैं, वह 20 दिनों तक मृतका की भाभी बनकर रह गयीं, यह रहस्य भला किसकी समझ में आने वाला है। वही महिला तमाम एंटरटेनमेंट चैनल (नाम्ना आज तक और एबीपी चैनल) पर एक के बाद एक इंटरव्यू देती रह गयीं। यह क्या यक्ष-युधिष्ठिर संवाद की तरह आश्चर्यजनक नहीं है? क्या यह सवाल पूछना जायज़ नहीं है कि बिना परिवार की संलिप्तता के भला वह भाभी इतने दिनों तक कैसे रह सकती थीं?
समस्या यह है कि आप जाएंगे कहां। क्या इस दुनिया में कोई कोना ऐसा बचा है, जहां आप जा सकें? पिछले दो दिनों से जिस तरह दो चैनलों ने एक-दूसरे के खिलाफ बाकायदा युद्ध का यलगार कर दिया है, वह देखकर कोई भी स्वस्थ व्यक्ति बीमार पड़ जाएगा। ये लोग बाकायदा ऐसे तीक्ष्ण बैनर, मोंटाज और म्यूजिक दे रहे हैं कि भ्रम हो जाए कि आप अपने घर में हैं या कुरुक्षेत्र में बैठे हैं। आज का सुखद संयोग यह भी है कि आज ‘विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस’ भी है। एक प्रवक्ता की टीवी डिबेट के दौरान दिल का दौरा पड़ने से मौत हो ही चुकी है। बाकी बस ये है कि अब स्टूडियो में ही कट्टा वगैरह निकल जाए।
यह भी एक खोज का विषय है कि मीडिया हो या सोशल मीडिया (खासकर, ट्विटर), सब पर एक खास तरह की रिपोर्टिंग ही क्यों होती है? WSJ हो या न्यूयॉर्क टाइम्स, सबको अचानक से ही भारत में हिंदू साम्राज्य या मुसलमानों का दमन क्यों दिखने लगता है? दिल्ली के दंगों को अचानक से ही मुसलमान-विरोधी दंगे क्यों करार दिया जाता है? हमें तो पत्रकारिता के पाठ में यह सिखाया गया था कि दंगा बस दंगा होता है! हमारे जैसे ओल्ड-स्कूल वाले तो अब भी ‘दो समुदायों के बीच’ ही लिखना पसंद करेंगे।
यह लेकिन अब तय करना ही बिल्कुल बेकार सी बात है कि शुरुआत किसने की या किसने पहलकदमी कर इसे रोका। दिनकर की पंक्तियां बिल्कुल मुफीद हैं-
‘‘वृथा है पूछना, था दोष किसका?
खुला पहले गरल का कोष किसका?
जहर अब तो सभी का खुल रहा है,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है।”
यह भी एक बात है कि हाथरस हो या करौली, कठुआ हो या दादरी, इन सभी जगहों से अगर कोई चीज़ गायब होती है तो वह सत्य है। बाक़ी, ड्रामा, इमोशन, इत्यादि सब कुछ पाया जाता है, पोस्ट-ट्रुथ भी मिलता है, चीजें गड्डमड्ड रहती हैं, पर नहीं मिलता तो तथ्य और सत्य।
इन सबके बाद एक फिल्म की याद आती है। यह एक पोलिश फिल्म है, इंग्लिश में इसका नाम द हेटर है। फिल्म हमेशा की तरह वामपंथी बेंड (अंग्रेजी वाला बेंड, और ध्यान रहे मैं रुझान नहीं कह रहा हूं) वाली है, जहां दक्षिणपंथ एक विलेन, एक खलनायक की तरह पेश किया गया है।
कहानी कुछ यूं है कि एक बालक है (ब्लडी फकिंग मिलेनियल, ये फिल्म का डायलॉग है, जिससे मैं पूरी तरह सहमत हूं) जिसे Plagiarism के लिए यूनिवर्सिटी से निकाल दिया जाता है (थैंक गॉड OR whatsoever, वह भारत में नहीं था वरना उसको राष्ट्रपति बना दिया जाता) और वह सोशल मीडिया के जरिये अपनी यात्रा शुरू करता है।

वह सोशल मीडिया का एक्सपर्ट है, मने ट्रोल करना, फेक आइडी के सहारे हंगामा करना, सारे कानूनों को उनकी अमुक जगह में ठेल देनेवाला, अपने गॉडफादर को धोखा देना, जो परिवार उसकी शिक्षा को स्पांसर कर रहा है उसकी बेटी को फांसना, उसके बाद साइबर क्राइम…। एक के बाद एक यह मिलेनियल कमाल करता जाता है। बाद में, हमेशा की तरह दक्षिणपंथ गलत साबित होता है, यह बालक सब कुछ गंवाकर अपनी प्रेमिका (वही स्पांसर की बेटी) की बांहों में पनाह पाता है।
कुछेक डायलॉग कमाल के हैं इसके…
“Tribalism, nationalism, authoritarianism are dangerous as hell…“
“These fucking nationalists are like pigs. They suck.“
एक दृश्य है, जहां फिल्म के मेयर उम्मीदवार (एक होमोसेक्सुअल वामपंथी) के पक्ष में जुटी भीड़ के सामने दक्षिणपंथी भीड़ आ जाती है, जो ह्वाइट यूरोपियंस मात्र के लिए लड़ती है (और जिसे भारत में सनातनियों के लिए पेश कर दिया जाता है, जबकि यहां की लड़ाई कुछ और ही है) और तब नारीवादी नायिका कहती है… “इट सक्स!”
सचमुच, इट सक्स!
