बात बोलेगी: एक सौ चालीस करोड़ की सामूहिक नियति के आर-पार एक ‘थार’


अबकी बार सत्ता ने ‘थार’ नामक एक वाहन की सवारी की। थार गाड़ी का क्रेज़ आजकल इसलिए बढ़ा हुआ है क्योंकि यह बहुत शक्तिशाली इंजन से चलती है। इसके आगे कोई भी बाधा आए ये उसे पार कर जाती है। ये पहाड़ों को अपने पहिये से रौंद सकती है, रेगिस्तान की रेत का महीन लेकिन बहुत मजबूत किला ध्‍वस्‍त कर सकती है और नदियों की बहती धार के आर-पार निकल सकती है।

किसान और उनके आंदोलन ने जो किला बीते एक साल में लोकतंत्र का खड़ा किया है; जिसमें शांति, अहिंसा और सत्याग्रह के ईंट-गारे का इस्तेमाल किया गया है; उसे शाब्दिक अर्थों में कुचलने के लिए ऐसे ही किसी मजबूत वाहन की ज़रूरत थी जो पहाड़ों, नदियों और रेगिस्तान तक का सीना छलनी करने के लिए जाना जाता है। जिस किले को लोकतंत्र में मिली जिम्मेदारियों और उसके साधनों से साधने में यह तथाकथित मजबूत सरकार खेत हो रही हो रही है उसे थार से कुचलना एक आसान काम है जिसे अंजाम दिया गया है। और यह भूलना इस वक़्त भारी भूल होगी कि 2019 के बाद इस देश में केवल एक ही मंत्रालय है और एक ही मंत्री है जिसके अधीन पूरा देश लिया जा चुका है। यही इनकी महारत है और यही जनता के साथ इनके रिश्ते की ‘जंजीर’ भी है। मार्च 2020 से यह देश प्रशासनिक तौर पर भी पूरी तरह इसी मंत्रालय की गिरफ्त में है। संविधान कोरोना के आगे कानूनन स्थगित है । आपदा और महामारी के क़ानूनों से देश संचालित है। और इसके संचालन का जिम्मा देश के गृह मंत्रालय के पास है।

यहमंत्रालय अब और मजबूत अवस्था में है। मामला कहीं किसी मंत्रालय का हो उसे गृह मंत्रालय के अधीन लाकर ही उससे निपटने की इस सरकार की आजमायी हुई कार्यशैली ने लखीमपुर में सीधे तौर पर गृह मंत्रालय को ही उतार दिया, थार की स्टेयरिंग पकड़ाकर। थार में बैठे गृह मंत्रालय ने इस देश की दशा-दुर्दशा के सारे प्रतीकों, सारे युद्धास्त्रों और सारे बारूद को एक साथ जोड़ दिया है। जिन्हें सत्ता एक अमूर्त शै लगती है वे अब अपनी सगी नग्न आँखों से इसे भर नज़र देख सकते हैं।

लखीमपुर में मामला केवल सत्ता के किसी एक स्रोत का नहीं है। उस थार गाड़ी में एक ही सत्ता नहीं बैठी थी जिसने शांत चलते हुए किसानों पर पीछे से गाड़ी चढ़ा दी। लखीमपुर में किसानों को जिस गाड़ी से बेरहमी से कुचला गया उस गाड़ी में आज के मौजूदा दौर में उपलब्ध सत्ता के सारे स्रोत एक साथ बैठे थे। अगर शिनाख्त करें और उनकी सूची बनाएं तो हमें थार गाड़ी, दुनिया की उस सबसे बड़ी जन्मकुंडली की भांति नज़र आएगी जो जन्म लेते ही इस देश की बड़ी आबादी को अपने नक्शे में कैद कर लेती है। पंडित-पुरोहित हमारी चेतना को कुंडली के उन नौ घरों में पहले दिन से ही कैद कर लेते हैं। हमें बता देते हैं कि अब तुम्हारी नियति, तुम्हारा भविष्य, कागज़ पर बने इस चौघड़े में दर्ज़ हो चुका है और तुम्हारे लिए अंतिम सिद्धान्त यही रहेगा कि किस्मत से ज़्यादा और समय से पहले तुम्हें कभी कुछ नहीं मिलेगा। इस चौघड़े में उन तमाम ग्रहों को बैठा दिया जाता है जिन्हें भर ज़िंदगी पूरी दुनिया में सकल मानव जनसंख्या का करोड़वां अंश कभी अपनी आँखों से नहीं देख पाता। वह इस चौघड़े में लिखे नामों को पढ़कर अंदाज़ा लगाते रहता है कि दिन खराब चल रहे हैं क्योंकि राहु नाराज़ है, शनि की वक्र दृष्टि पड़ रही है, बुध सता रहे हैं, शुक्र का मुंह टेढ़ा हो गया है और ताज़िंदगी हमें इन्हें ही मानते रहना है। इन्‍हें मनाने का उपाय भी वो बताते रहते हैं जो ऐसे अदृश्य शत्रु सबकी ज़िंदगी में छोड़ देते हैं और उन्हें नियंत्रित करने का दावा कर-कर के ज़िंदगी को आसान बनाते-बनाते उसे और कठिन बनाते जाते हैं।

उस रोज़ थार गाड़ी में वे सभी दृश्य-अदृश्य ग्रह एक साथ बैठे हुए थे जो जनता पर राज करने के लिए गढ़े गए और उन्हें हर रोज़ नये-नये नामों से गढ़ा जाता जा रहा है। गृह राज्यमंत्री इस जन्मकुंडली में चले आ रहे ग्रहों से अलग एक नया गृह है। इसे आए तो अभी जुम्मा जुम्मा 75 साल ही हुए हैं, लेकिन जो वास्तव में गाड़ी चला रहा था, भौतिक रूप में वह एक ब्राह्मण है। और इस देश में ब्राह्मण कोई अकेला व्यक्ति नहीं रहा। कभी वह तमाम सामाजिक संस्थाओं का नियामक और उनका निर्माता रहा है। यह ब्राह्मण इस जन्मकुंडली से पहले ही लोगों की चेतना में शामिल है और दिलचस्प है कि यह आज भी उसी रूप में शामिल है जैसा तब रहा होगा जब जन्मकुंडली या गृह राज्यमंत्री के ओहदे का आविष्कार न हुआ होगा।

क्या लगता है कि थार में केवल देश के गृह राज्यमंत्री का बेटा बैठा था जो उसे चला रहा था? या यह महज एक आकस्मिक घटना थी? या यह एक एक्सीडेंट था? या इस घटना को अंजाम देते वक़्त और उसके बाद के कार्य-कारणों का आकलन नहीं किया गया था? सब कुछ किया गया था। ध्यान से देखें तो थार उस जन्मकुंडली के रूप में बदलती हुई दिखलायी देगी जो हमारी नियति को गढ़ने के लिए बनायी गयी है।  

इस बार सत्ता को अपनी सत्ता से ही सत्ता हासिल हो रही थी। गाँव जवार में अक्सर ऐसी ऐंठ या हेकड़ी देखकर लोगों में क्या पूछने का चलन शायद औपनिवेशिक दौर से शुरू हुआ होगा कि कहीं के लाट साहब हो का? बाप गवर्नर है का? यह बात 3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी में किसी को पूछने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। सबको पता था कि थार गाड़ी से किसानों को कुचल देने वाला व्यक्ति सत्ता का लाट साब है और उसका बाप गवर्नर से कहीं ज़्यादा पावरफुल है। उसका बाप इस देश का गृह राज्यमंत्री है।

लोकजीवन में प्रतीक अगर धीरे-धीरे बनते हैं तो उससे भी धीमी गति से मिटते हैं। आज भी सत्ता की हनक के लिए कलेट्टर, गवर्नर और लाट साब कहा जाना सबसे बड़े प्रतीक बने हुए हैं। इसका अर्थ ये भी है कि जनता सत्ता की हेकड़ी और उसकी पैदाइश के बीच के संबंध को समझना जानती है। इससे पहले के किसी दौर में राजाओं, जमींदारों, मालगुज़ारों और उनके कारिंदों के ज़ुल्मों को भी समझती थी, अंग्रेजों की सत्ता से निकले प्रतीकों को भी समझती थी और अब जब जनता की अपनी ही सरकार है पिछले 75 सालों से तब वह अपनी सरकार के लाट साहबों को भी समझने लगी है।

यह समझना इतना आम हो गया है कि लोकतंत्रने बेशर्मी के सारे पर्दे उघाड़ दिए हैं। उसे अब यह भ्रम नहीं बचा है कि लोकतंत्र की आड़ लेकर कम से कम ऐसी लाट साहबी नहीं की जा सकती है। वह कर रही है और पूरी बेहयाई से कर रही है। कोई है जो रोक सके? जवाब बहुत आदर्श है- कि जनता चाहे तो रोक सकती है। इसका जवाब ये भी है कि जनता चाहे तो अपने ऊपर लाट साहबी थोपने का जनादेश भी कर सकती है। बहुत दिनों से ज़िंदगी में कुछ किक नहीं मिल रही है तो चलो अब इस कतिपय शांत, सद्भावपूर्ण फिज़ाओं में थोड़ा जहर घोलें, ऐसी सत्ता को मजबूत करें जिससे हमें भी सत्ता का कुछ मज़ा मिले। सत्ता जब मज़े देती है तो ऐसे ही देती है। नमक अपने खारेपन के लिए ही नमक है, जैसे शक्कर अपने मीठेपन के लिए शक्कर है या जैसे कोई खट्टी चीज़ अपने खट्टेपन की वजह से ही खट्टी है। सत्ता अपने अहंकार, गुरूर, हनक, हेकड़ी और बर्बर होने की वजह से ही सत्ता है।

सत्ता ने नारंगी स्कार्फ गले में डाला हुआ था, धूप का चश्मा आँखों पर था और झक सफेद शर्ट में वह इतिहास में शायद सबसे ज़्यादा क्रूर भंगिमाओं से युक्त किसानों से मुठभेड़ कर रही थी। मुठभेड़ भी क्या, एकतरफा कार्रवाई पर आमादा थी। कार्रवाई की गयी। कुल जमा नौ ज़िंदगियों को सदियों से अर्जित और हड़पी हुई सत्ता ने थार गाड़ी में बैठकर लाशों में बदल दिया। केवल एक घटना से महज़ नौ ज़िंदगियाँ लेकर गृह मंत्रालय ने देश के एक सौ चालीस करोड़ नागरिकों को जिंदा लाशों में बदल दिया।

है किसी की हिम्मत जो खुद को इन नौ लाशों से पृथक करते हुए घोषणा कर सके कि हम ज़िंदा हैं? जो कह रहे हैं वे नागरिक नहीं हैं, देशद्रोही हैं। तय करने का यही शायद वक़्त है कि हम देशद्रोही होकर जिंदा होने को दिखाना चाहते हैं या चुप रहकर चुपचाप उन नौ लाशों के साथ उनके बगल में लेट जाना चाहते हैं…!



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