बात बोलेगी: हर शाख पे उल्लू बैठे हैं लेकिन बर्बाद गुलिस्ताँ का सबब तो कोई और हैं…


अपने देश की दुर्दशा के कारणों पर जब भी बात होती है, तो सुधिजन पता नहीं क्यों अपने वक्तव्य को छोटा और सारगर्भित बनाने की ललक में लाखों बार सुनाया जा चुका एक शेर अक्सर बाँच दिया करते हैं- ‘बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफी है’। फिर थोड़ा रुककर, सामने बैठे श्रोताओं की तरफ निहारते हुए, इस शेर का काफ़िया उवाचते हैं मानो यह पहली दफा कहा जा रहा हो और उन्हीं में यह कहने का माद्दा हो कि, ‘हर शाख पे उल्लू बैठे हैं, अंजामे गुलिस्ताँ क्या होगा’।

यह वाकया इतनी दफा सामने से गुज़रा होगा कि उल्लू, शाख, गुलिस्ताँ सब अपनी ज़िंदगी का हिस्सा लगने लगे हैं और इतने करीबी कि पूछिए मत। बचपन में उल्लू को देखकर अक्सर यही खयाल आता रहा कि कितना शांत पक्षी है, स्थितप्रज्ञ होकर एक शाख पकड़कर पूरा-पूरा दिन ऐसे ही बैठा रहता है। बाद में जाना कि बंदे को दिन में दिखलायी नहीं देता है।

जब बड़े हुए और इस तरह के भाषणों ने कानों में जाना शुरू किया और उल्लू, बर्बाद, गुलिस्ताँ आदि आदि सुना और याद हो गया, उसके बाद जब कभी उल्लू को किसी शाख पर बैठे देखा तो एक ही खयाल आया- ‘ये हमारा गुलिस्ताँ बर्बाद करने बैठा है’। तब तक गुलिस्ताँ का मतलब हालांकि समझ नहीं आया था। और ये भी बात सही है कि बचपन में उल्लू के बैठे रहने की जिस मुद्रा को स्थितप्रज्ञ जैसा मान रहा था, अब उसमें एक शंका ने डेरा डाल लिया था। अब लगने लगा था कि ये बहुत शातिर जीव है, बिना हिले-डुले भी हमारे गुलिस्ताँ को बर्बाद कर सकता है। यह शांत नहीं बैठा है, बल्कि इसके ऐसे बैठने से ही गुलिस्ताँ बर्बाद होता है इसलिए ये ऐसे बैठा है।

बात बोलेगी: लोकतंत्र के ह्रास में बसी है जिनकी आस…

जिस घर में नवजात होते हैं उन घरों में आज भी एक हिदायत सालों भर चलती रहती है और उसका पालन घर के सारे लोग करते हैं, कि बच्चे के एक भी कपड़े को रात में आँगन या छत पर नहीं छोड़ा जाय। क्या है कि रात को उल्लू आएगा और उन कपड़ों को देखेगा, तो बड़ा अपशकुन हो सकता है। यानी जब वो शांत बैठा है दिन में क्योंकि उसको बेचारे को कुछ सूझता या दिखायी नहीं देता तब वो गुलिस्ताँ को बर्बाद करता है और जब रात को उसे आँखें मिल जाती हैं तो वो बच्चों के कपड़ों पर कुदृष्टि डालता है। कई-कई रातें इसी में बर्बाद हो गयीं कि आज तो उल्लू को देखते हुए देखूंगा। यह ऐसा कैसे देखता है कि इसके देखने से बच्चों के कपड़ों पर अपशकुन हो जाता है! लेकिन ऐसा हो न सका। भर ज़िंदगी उल्लू को देखते हुए न देख सका। कोशिश तो उसकी दिन की हरकतों पर नज़र रखने की भी खूब की। देखें तो, आखिर कैसे ये गुलिस्ताँ को बर्बाद करता है, पर वहाँ से भी कुछ हासिल न हुआ।  

जब देख नहीं सके और अच्छे विश्वविद्यालयों और अच्छे शिक्षकों की संगत से मिली शिक्षा-दीक्षा ने संदेहवादी बना दिया तो बात-बात में कुछ न सूझने पर इस शेर की छौंक लगाने वाले हर वक्ता को ही घूरने लगे, लेकिन बोलने वाले ने कभी खुद को घूरे जाने का लोड न लिया। बात आयी-गयी सी हो गयी। ज़हन से उल्लू और गुलिस्ताँ का संबंध उचट सा गया। प्राणीमात्र की प्रतिष्ठा के साम्यवादी विचार ने एक अलग आफत मचा दी कि इस तरह से एक प्राणी समुदाय को गुलिस्ताँ के बर्बाद होने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उसकी तार्किक और वैज्ञानिक विवेचना होना चाहिए। और उल्लू ही क्यों? उस प्राणी को जो बेजुबान है, जो  अपनी सफाई में कुछ कह नहीं सकता, उस पर इस तरह की तोहमतें लगाना क्या उचित है? इस तरह के खयालों ने एक नये सवाल को जन्म दिया बल्कि अन्वीक्षा को दिमाग में घुसा दिया कि उल्लू को जब तक समाज, देश, व्यवस्था के बिगाड़ का जिम्मेदार माना जाता रहेगा तब तक असली गुनहगारों के बारे में दुनिया को जागरूक नहीं किया जा सकता। उल्लू को निर्दोष साबित करने के लिए ज़रूरी हो गया कि असली दोषियों का पता लगाया जाए। यह अल्पकाल के लिए ज़िंदगी का मिशन जैसा हो गया।

ये खोज जब तक पूरी नहीं होगी तब तक बेचारे शाख पर बैठे उल्लुओं को ही ‘हर हुए और किए’ का दोषी माना जाएगा। बड़ी चुनौती- शुरू कहाँ से करें? घर से? पड़ोस से? गाँव से? समाज से? प्रांत से या देश से? क्योंकि गुलिस्ताँ का मतलब अब भी काफी व्यापक था।

इस खयाल में डूबे हुए थे कि पड़ोस से महिला की चीखें सुनीं। पता लगा पिट रही है। पति देर से लौटा है। पीता है, पीकर ही लौटता है, लौटते ही पीटने लगता है। लगा ये ठीक मौंजू है। यहां दूर-दूर तक उल्लू का नामोनिशान नहीं है। महिला ने सोये हुए बच्चों को जगा लिया है। घर से रोती हुई बाहर निकल आयी है। सड़क पर सवारी का इंतज़ार कर रही है। सुबह की पहली बस से पीहर जाने की तैयारी है। गुलिस्ताँ टूट रहा है। ठीक मेरी आँखों के सामने। उल्लू कहीं दिखलायी नहीं दे रहा है। हो गया जी साबित। बिना उल्लू की दखल के भी गुलिस्ताँ बर्बाद हो सकते हैं।

सुबह-सुबह चर्चाओं पर कान दिये। पता चला कल रात जो घर टूटा है उसमें दारू का दोष है। कुछ ने कहा पति का दोष है, कुछ ने कहा पत्नी का दोष है। किसी ने नहीं कहा कि उल्लू का दोष है। बीच चर्चा में अपनी टांग भी घुसायी, पूछ लिया- तो इसमें उल्लू का तो कोई दोष नहीं है न? इस पर चर्चारत लोगों ने नाक-भौं सिकोड़ दिये और हिकारत इस तरफ उछाल दी। एक पायदान सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। यह साबित हुआ कि जब एक परिवार उजड़ता है या बर्बाद होता है तो उसमें उल्लू की कोई भूमिका नहीं होती।

बात बोलेगी: ‘प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया’ से ‘प्रतिक्रिया ही प्रतिक्रिया’ तक

उल्लू को बाइज़्ज़त बरी होने की खुशी में दूसरे मोहल्ले की तरफ रुख किया। वहां अलग ही कानाफूसी हो रही थी। कलंक लग गया जी खानदान पर, नाक कट गयी, बर्बाद हो गया सब। बर्बाद शब्द ने ध्यान खींचा। अनवरत चल रही कानाफूसी पर कान दिये तो पता चला कि फलां की बेटी और फलां का बेटा बीती रात कहीं भाग गए। कई महीनों से दोनों की छतों से तीर नज़रों के चल रहे थे। घरवालों को पता था पर ये नहीं सोचा था की इस तरह गहने जेवरात लेकर भाग जाएंगे। खैर इससे दो-दो घर बर्बाद हो गए। इसके जिम्मेदार कौन हैं, यह सुने बिना ही पूछ डाला- क्या उल्लू की वजह से हुआ सब? कानाफूसी में तन्मयता से मुब्तिला कुछ चेहरों ने खा जाने की निगाह से देखा और घनघोर नाराजगी में कहा- यहां उल्लू का क्या काम? उल्लू ने नहीं ‘जवानी’ ने बर्बाद किया। दूसरे ने यह भी कहा कि जवानी से ज़्यादा जवानी को दी गयी छूट ने बर्बाद किया। कुछ ने फिल्मों का नाम लिया। कुछ पढ़ाई-लिखाई को दोष देने लगे। खैर, अपनी तसल्ली तो इसी से हो गयी कि इन दो घरों की बरबादी, बदनामी में अपने उल्लू का कोई दोष नहीं। लगा कि प्रमेय का दूसरा हिस्सा भी हेन्स प्रूव्ड हुआ।

अब देखा कि स्कूल में मास्टर साल भर नहीं आए। मास्टर साहब शहर में रहते थे। थे वो उसी गाँव के लेकिन अपने बच्चों के भविष्य को लेकर सतर्क थे सो शहर में ही रहने लगे बच्चों की खातिर। शहर के बढ़े हुए खर्चों में कटौती के लिए उन्होंने गाँव के स्कूल आना छोड़ सा दिया और शहर में ही बीमा करने की एजेंसी ले ली ताकि बच्चों की शिक्षा में कोई कमी न रहे। जब मास्टर साहब नहीं आए तो गाँव में बच्चों की पढ़ाई न हुई। जब पढ़ाई न हुई तो बच्चे फेल हो गए। मास्टर साहब साल भर नहीं आए, इस पर भी ध्यान तब गया जब सारे बच्चे फेल हो गए। जिज्ञासा अब पैदा हुई कि दोष किस पर जाएगा?  मास्टर साहब पर जो साल भर नहीं आए, बच्चों पर जो बिना मास्टर के साल भर पढ़ते रहे और इम्तिहान में बैठ गए? या फिर अभिभावकों पर जिन्होंने अपने-अपने बच्चों से यह नहीं पूछा कि कैसी चल रही है पढ़ाई? पूछते अगर तो बच्चे बताते भी कि क्या खाक चलेगी जब कोई पढ़ाने वाला ही नहीं आएगा? तय हो रहा था कि मास्टर जिम्मेदार है, किसी ने कहा बच्चे। बच्चों ने कहा- माता-पिता। माता-पिता ने कहा- मास्टर। बड़ा चक्रीय मामला हो गया, हालांकि यहां भी किसी ने उल्लू का नाम नहीं लिया जबकि बच्चों का एक साल बर्बाद हो गया। एक साल भी तो गुलिस्ताँ ही हुआ।

दुनिया के एक शहर में अचानक से एक अगम-अगोचर बीमारी फैली। फिर दूसरे शहर में फैली। दुनिया में फैल गयी या उसके फैल जाने का खतरा पैदा हो गया, लेकिन उस खतरे से बेपरवाह अपने देश के निज़ाम ने उसे फैलने दिया। कुछ संकल्प थे जिन्हें सिद्धि तक पहुँचना था। पहुंचे। बल्कि पहुंचाए गए। संकल्प बड़ा नहीं था। एक निर्वाचित सरकार को पदच्युत करना था और अपने दल की सरकार की प्राण प्रतिष्ठा करना थी। जब बीमारी की खबरों पर लौटे तो देश को आराम दे दिया। यह उनका अपना अंदाज़ था और जिसकी कायल थी उसकी बनायी जनता। उन्होंने कहा कि हम वायरस को इस मुगालते में रख देंगे कि धरती के इस भूगोल पर कोई रहता ही नहीं। वायरस आयेगा, संक्रमित करने के लिए लोगों को ढूंढेगा। जब लोग नहीं मिलेंगे तो थक हार कर या तो खुद मर जाएगा या कहीं और चला जाएगा। वैसे भी निर्जनता का शास्त्रीय महत्व रहा है इस देश में।

खैर, वायरस को इससे फर्क नहीं पड़ा। वो फैला,  जितना उसे फैलना था, लेकिन सब बंद करने के मुगालते में अर्थव्यवस्था नाम की मशीन बर्बाद हो गयी। चली ही नहीं। जंग लग गयी पुर्जों में। कहा गया अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गयी। देश बर्बाद हो गया। एकाध अखबार ने लिखा- एक सनकी ने अपनी सनक से देश को बर्बाद कर दिया। किसी ने कहा वायरस ने किया। किसी ने माना कि लोगों ने ही किया। किसी ने किसी को तो किसी ने किसी को दोष दिया। लगभग 10 महीने चली इस दोषारोपण की प्रकिया में कहीं भी उल्लू का ज़िक्र तक न हुआ। अपुन ने भी नहीं पूछा। ज़रूरत ही नहीं थी। जब कोई ज़िक्र ही नहीं कर रहा तो ख्वांखवा क्यों याद दिलाना। साबित हुआ कि देश को आर्थिक रूप से बर्बाद करने में उल्लू का कोई हाथ नहीं है।

इस तरह हर मोर्चे पर उल्लू बेदाग बरी होता जा रहा था, लेकिन अभी भी कुछ बचा था। जैसे चुनाव। वोटर चुनाव से पहले जितना बड़बोला था, उत्साहित था, सबक सिखाने की कसमें खा रहा था और दूसरों को भी इस बात के लिए तैयार कर रहा था कि अबकी तो देख लेंगे, सब मिलकर देखेंगे, दूसरा भी पहले के जोश से जोशीला हो रहा था। देखते हैं क्या, चुनाव बाद दोनों एक दूसरे को शक की निगाह से देख रहे हैं। आखिर तो वही जीत गया न जिसे हराना था, सबक सिखाना था। मीमांसा शुरू हुई। हार से ज़्यादा जीत की। कोई नहीं पूछ रहा था हारा कैसे। सब पूछ रहे थे- जीता कैसे?

किसी ने ईवीएम नामक यंत्र को दोष दिया। किसी ने जात-पांत में बंट गए और दारू-शारू में बिक गए वोटरों को दोषी माना, किसी ने कहा कि अंत समय में चुनाव अधिकारी ने वोट गिनने में बदमाशी की और किसी ने माना कि जो भी हुआ इससे लोकतंत्र बर्बाद हो गया। चुनाव अगर पारदर्शी और निष्पक्ष नहीं होंगे तो लोकतन्त्र का अपहरण हो जाता है। यह चुनाव नहीं अपहरण हुआ है। इन सब बातों का कुल सार यह रहा जो किसी ने कहा नहीं और जिसे सुनने को अपुन बेताब थे कि जम्हूरियत के इस अपहरण के मामले में अपने उल्लू का कोई दोष नहीं है। उसे इस मामले में घसीटा नहीं गया। वो बेदाग रहे। बाकी जिन पर दाग हैं उनके नाम तो गिनाये ही जा रहे हैं।

बात बोलेगी: जीत के सौ अभिभावक और हार का अनाथ हो जाना

जम्हूरियत है तो लोग हैं या लोग हैं तो जम्हूरियत है। इतना सीधा और अनिवार्य संबंध कम ही दो चीजों के बीच पाया जाता है। सरकार है तो कुछ करेगी, लोग हैं तो उस किये पर बात करेंगे। जिनके हित में नहीं होगा वो आवाज़ उठाएंगे। आवाज़ उठाएंगे तो सरकार को पसंद नहीं आएगा। जब पसंद नहीं आएगा तो वो आवाज़ें दबाने के लिए उसके पास उपलब्ध साधनों मसलन पुलिस बल का प्रयोग करेगी। अब तो खैर मीडिया भी है जो पुलिस से ज़्यादा वफादार है। उसे लगाएगी। फिर भी लोग नहीं माने तो उन्हें मनवाने के लिए उनसे मुलाक़ातों के दौर चलाएगी। लोग सरकार की बखिया उधेड़ेंगे। बताएंगे कि सरकार ने जो भी किया अपने मन से नहीं किया। इसने भेदभाव किया। अमीरों का पक्ष लिया। और जैसे होता आया है, गरीबों के खिलाफ जाकर अमीरों को फायदा पहुंचाया। फिर कई-कई दौर की गैरज़रूरी बैठकों के बाद तनाव की स्थिति में निष्पक्ष कही जाने वाली अदालतों के समक्ष मुद्दे को ले जाया जाएगा। अदालत के बाहर न्यायाधीशों के पदनामों की नेमप्लेटों में निष्पक्ष जस्टिस भले लिखा हो पर बायोडेटा कोई चीज़ होती है। वो दीवारों पर चस्पा नहीं किए जाते। मेल से भेजे जाते हैं या फाइलों में नत्थी कर के।

तो खैर, लोगों ने अदालत में लगी नेमप्लेट्स देखीं, हालांकि जो सरकार से लड़ रहे थे वो वहां जाना ही नहीं चाहते थे और न गए। फिर भी फैसला हुआ और अबके भी ‘क़ातिल की गवाही’ से ही लिखा गया। इस पंचइती का बड़ा मज़ाक बना। भद्द पिटी। कहा जाने लगा कि जब देश की अदालतें बर्बाद हो जाती हैं तो देश भी बर्बाद हो जाते हैं। आज अदालत की वजह से देश बर्बाद हो गया। लो जी, विवेचना शुरू हुई।

बात बोलेगी: भारतेन्दु की बकरी से बाबरी की मौत तक गहराता न्याय-प्रक्रिया का अंधेरा

सुधिजनों ने माना कि भीष्म को मारने के लिए शिखंडी को सामने खडा कर के उसका इस्तेमाल हुआ। किसी ने कहा कि यह एकपक्षीय निष्पक्षता है। किसी ने कहा कि हार्ले डेविडसन पर फूल खिला है। किसी ने कहा कि राज्यसभा की कुछ सीटें खाली हुई हैं, वगैरह वगैरह। इस मामले में जितना समझ में आया देश की तमाम ताकतवर ताक़तें एक सफ़ में खड़ी कर दी गयीं। जनता एक तरफ मोर्चा संभाले खड़ी है और सारी ताक़तें, धनबल, बाहुबल, पुलिसबल, विधि का बल, बिके हुई सहाफ़ियों का बल, प्रचार का बल, तर्कों-कुतर्कों का बल। और सुधिजन इन्हीं तमाम बलों को यह दोष दे रहे हैं कि इन्हीं बलों की दुरभिसंधियों की वजह से देश बर्बाद हो रहा है। जम्हूरियत बर्बाद हो रही है। बड़े गौर से सुनते हुए अपुन को उल्लू के बारे में कुछ भी सुनने को नहीं मिला। आपको मिला हो तो बताएं।

अब आते हैं अपने अल्पकालिक शोध के निष्कर्ष पर– यह तय पाया गया कि परिवार, समाज, देश, अर्थव्यवस्था, चुनाव, शिक्षा, कानून, जम्हूरियत की बर्बादी का ठीकरा बेचारे स्थितप्रज्ञ उल्लू के सर पर फोड़ना उचित नहीं है। आप जान तो गए हैं कि किन लोगों और बलों की वजह से देश बर्बाद हो रहा है। फिर उल्लू को क्यों घसीटते हैं भाई? उसे बख्श दीजिए।

दुनिया के बड़े दानिश हेगेल साहेब उल्लू की तरह बनने की नसीहत दे गए हैं क्‍योंकि उल्लू अंधेरे में होने वाले अपराधों और साज़िशों पर नज़र रखते हैं चूंकि उन्हें अंधेरे में देखने की शक्ति प्राप्‍त है। उल्लुओं की तरह देखना सीखिए, लेकिन इसके साथ ही कुत्तों की तरह भौंकना भी। जो रात में देखा, उसे सुबह सबको बताना भी तो है…।



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