सरे-आग़ाज़े मौसम में अंधे हैं हम…


दिल्‍ली, वसंत, कुछ अजनबी चेहरे और अनसुनी आवाज़ें 

अभिषेक श्रीवास्‍तव 

1

अभी दो दिन पहले दिल्‍ली से टहल-फिर कर रात में जब मैं घर लौट रहा था, तो अपनी गली में कुछ बच्‍चे एक जगह इकट्ठा दिखे। वे सब आकाश में देख रहे थे जैसे कुछ बूझने की कोशिश कर रहे हों। ये बच्‍चे मुझे शक्‍ल से जानते हैं। रोज़ देख-देख कर मुस्‍कराते हैं। इनमें एक नहर वाली बच्‍ची भी है। इस मोहल्‍ले में उसकी पहली पहचान ग़ाजियाबाद के वैशाली और इंदिरापुरम इलाकों को बांटने वाली एक नहर से है जहां बरसों पहले उसे फेंका हुआ पाया गया था। मेरे बगल की बिल्डिंग में रहने वाले लम्‍बू उसे अपने घर ले आए थे और अपने बच्‍चों के साथ पाल कर उसे बड़ा किया। उसी बच्‍ची ने सबसे पहले मुझे आते देख पूछा, ”अंकल, ये बताओ ये चांद चल रहा है कि बादल?” मैंने आकाश में देखा। पहली नज़र में बादलों के झुटपुटे में चांद चलता हुआ नज़र आया। ध्‍यान से देखा तो चांद स्थिर था, बादल चल रहे थे। मैंने यही जवाब दिया। नहर वाली बच्‍ची ने फिर पूछा, ”अंकल, अगर बादल चल रहा है तो चांद बार-बार छुप क्‍यों जा रहा है?” मैंने सोचा, उसे कहूं कि धरती भी तो चल रही है जिस पर वो खड़ी है, लेकिन मैं चुप रह गया। मेरी चुप्‍पी से बच्‍चे इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे कि चांद ही चल रहा था। नहर वाली बच्‍ची मेरी हार से खुश थी। उसे उन बादलों का ज़रा भी अहसास नहीं था, जो पिछले कुछ दिनों से चांद पर मंडरा रहे थे।

जाने कितने दिनों से ये बादल मेरे इलाके में मौजूद थे, लेकिन मुझे उसी सुबह इनकी झलक मिली थी जब मैं घर से निकला था। उस वक्‍त लम्‍बू का पान-प्रेमी भतीजा बबलू की पान की दुकान पर खड़ा मिला था। वह दर्जी है। बबलू के ठीक बगल में वह अपनी दुकान लगाता है। दुकान मने एक स्‍टूल, एक मेज़ और एक सिलाई मशीन। उससे कुछ मीटर आगे लम्‍बू की पत्‍नी और ढेर सारे बच्‍चे चाय का ठीहा संभालते हैं। नहर वाली बच्‍ची भी यहीं बैठती है। लम्‍बू रिक्‍शा भी चलाते हैं। कभी-कभार गर्मियों में नहर वाली बच्‍ची गली के बाहर भुट्टा भी बेचती दिख जाती है। भरा-पूरा परिवार है। मेरे बगल वाली बिल्डिंग से उसका क्‍या रिश्‍ता है, ये मैंने आज तक पता नहीं किया। वह किरायेदार है या मकान मालिक, अवैध कब्‍ज़ा है या किसी का मकान अगोरता है, मैं नहीं जानता। मेरी गली इस मामले में बहुत रहस्‍यमय है। छह साल पहले जब मैं यहां आया था तो सामने वाली बिल्डिंग में एक सब्‍ज़ी वाला रहता था। कुछ दिनों बाद वो पीलिया से मर गया। दो दिनों तक उसकी लाश ठेले पर ढंकी पड़ी रही। मेरी बालकनी से सामने ही फूली हुई लाश दिखती थी। दूसरे दिन पता चला कि दफ़नाने के लिए परिवार के पास पैसे नहीं थे। गली के बाशिंदों से पैसे जुटाकर उसका काम निपटाया गया। मैंने तब भी नहीं पता किया कि कौडि़यों का मोहताज वह परिवार उस एमआइजी फ्लैट में क्‍या कर रहा था। लम्‍बू तब से या उससे पहले से यहां रह रहे हैं।
ऐसे बहुत से चेहरे हैं मेरे पड़ोस में जिनके नाम मैं नहीं बता सकता। कभी पूछा ही नहीं। सब एक-दूसरे को चेहरे से जानते हैं। लम्‍बू का भतीजा मुझे पान की दुकान पर सवेरे-सवेरे देखकर मुस्‍कराया, जैसा वह रोज़ करता है। अभी उसका पान लग रहा था। उसके बाद मेरी बारी थी। नालियों से ताज़ा-ताज़ा कूड़ा निकाला गया था। कूड़े की भीनी-भीनी सोंधी महक धूपबत्‍ती के साथ मिलकर अजब माहौल रच रही थी। इसके रचयिता बेलदार बगल में ही बैठे थे। मैंने उनकी ओर देखते हुए कहा- शुक्र है दो साल बाद नगर निगम को सफाई की याद तो आई। बेलदार के शरीर में कोई हरकत नहीं हुई लेकिन ठीहे पर पान लगाते बबलू के छोटे भाई ने गरदन झुकाए-झुकाए ही टिप्‍पणी की, ”भइया, यहां मुल्‍ले बहुत बढ़ गए हैं, इसीलिए गंदगी भी ज्‍यादा है।” मैंने कहा, ”मतलब?” उसने लम्‍बू के भतीजे को कनखियाते हुए कहा, ”देखो, नाली में से सब कपड़ा ही कपड़ा निकला है जो ये साला दिन भर काट-काट के फेंकता रहता है। सफाई करनी है तो पहले मुल्‍लों को यहां से हटाओ।” बात मेरी समझ में अब आई। लम्‍बू के भतीजे ने पान की पीक नाली में मारी और मेरी ओर देखकर पनवाड़ी पर तंज़ किया, ”इसके ताऊ ने साफ की है ये नाली, जो इतना बोल रिया है। अबे, मुल्‍ला गंदा करता है तो मुल्‍ला ही साफ भी करता है।” उधर से पान बढ़ाते हुए बबलू का भाई हंसते हुए बोला, ”मुलायम सरकार के कारण इनका दिमाग खराब है आजकल।” अपनी स्‍टूल की ओर मुड़ते हुए लम्‍बू के भतीजे ने जवाब दिया, ”जाने दे… मुलायम भी जाओगो… इब तो आम आदमी की बारी है।”
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2

गाजि़याबाद के एक अनाम मुसलमान वोटर के मुंह से आम आदमी का नाम सुनकर मुझे कुछ अजीब सा लगा। मैं सीधा कनॉट प्‍लेस पहुंचा जहां मेरे पुराने मित्र सुलतान भारती मेरा इंतज़ार कर रहे थे। वहां बिग एफएम का एक चुनावी मजमा लगना था और सुलतान भाई ही उसे कोऑर्डिनेट कर रहे थे। आगे बढ़ने से पहले बता दूं कि सुलतान भाई एक स्‍थापित व्‍यंग्‍यकार हैं। तमाम पत्र-पत्रिकाओं में उनके व्‍यंग्‍य नियमित छपते हैं। एक ज़माने में क्राइम रिपोर्टर हुआ करते थे और करीब डेढ़ दशक तक दिल्‍ली का संगम विहार उनका ठिकाना था। संगम विहार तब हत्‍याओं के लिए कुख्‍यात था। रोज़-ब-रोज़ वहां यूपी-बिहार के प्रवासियों और स्‍थानीय गुर्जरों के बीच झड़पें होती थीं। सुलतान भाई पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते उन मसलों को सक्रियता से निपटाते थे। उनके वहां रहते हुए कभी कोई साम्‍प्रदायिक तनाव की स्थिति नहीं बनी। एक तरह से वे समुदाय की सर्वस्‍वीकार्य आवाज़ थे। उस वक्‍त रमेश बिधूड़ी जैसे नेताओं का उभार भी नहीं हुआ था। बाद में जब वे करीब डेढ़ दशक पहले संगम विहार से उठकर गोल मार्केट चले आए, तो वहां की सियासत बदली। नए-नए चेहरे आए। इसके बावजूद उनकी लोकप्रियता का आलम यह रहा कि आज भी कोई विवाद होता है तो पंचायती के लिए उन्‍हें बुलावा भेजा जाता है। पिछले ही साल राजनीति और अपराध पर केंद्रित उनके एक उपन्‍यास का लोकार्पण इंडियन लॉ इंस्टिट्यूट में जब हुआ, तो मैं वहां उनके चाहने वालों की भीड़ देखकर दंग रह गया था। रमेश बिधूड़ी, विजय जॉली से लेकर कांग्रेस और अन्‍य पार्टियों के स्‍थानीय नेताओं समेत पूरा तुग़लकाबाद, गोल मार्केट और संगम विहार उठकर चला आया था। करीब तीन घंटे चले इस कार्यक्रम में पांच सौ से ज्‍यादा लोग लगातार मौजूद रहे थे। बालमुकुंद सिन्‍हा जैसे बड़े और सम्‍मानित पत्रकार की अध्‍यक्षता में हुए इस लोकार्पण को देखकर हिंदी के किसी भी लेखक को रश्‍क़ हो आता।
बहरहाल, सुलतान भाई अपने मिज़ाज के मुताबिक वहां लोगों को इकट्ठा कर चुके थे। एक ओर मोहनसिंह प्‍लेस के ठीक सामने सड़क पार वाली मस्जिद में डेढ़ बजे की नमाज़ में आने वाले नमाज़ी थे तो दूसरी ओर उसके बगल के पीपलेश्‍वर काली मंदिर के बाहर कुछ लोगों का मजमा लगा था। नमाज़ के कारण कुछ देरी होने के चलते कुछ नमाज़ी लौट चुके थे, हालांकि मस्जिद के मुतवल्‍ली हाजी साहब वहीं टिके थे। वे कुछ बोलने में शरमा रहे थे। नई दिल्‍ली विधानसभा की समस्‍याओं पर उन्‍होंने बडी विनम्रता से कहा, ”मैं क्‍या बोलूं… ये सब तो पॉलिटिशियनों के काम हैं। सब कुछ ठीक ही है। पारक भी बन गए हैं। बस बच्‍चों के खेलने की जगहें पारकों में बन जाएं तो अच्‍छा हो।” उनकी ज़बान से पता लगा कि वे कश्‍मीर से हैं। गिलगिट के रहने वाले हैं। यहां कनॉट होटल में एक टूर एंड ट्रैवल एजेंसी भी चलाते हैं। पीपलेश्‍वर मंदिर के पंडितजी की समस्‍या यहां के स्‍मैकिये और नशेड़ी थे। वे हाजी साहब की ओर देखते हुए बोले, ”बताओ हाजी सा‍हब, हम लोग पहले कितने आराम से रहते थे। ये जो आप मंदिर में ग्रिल देख रहे हो, इन्‍हीं स्‍मैकियों के कारण लगवाना पड़ा है। जब देखो तब कुछ न कुछ चुरा ले जाते हैं।” पंडितजी समस्‍तीपुर के निवासी हैं। बीस साल से इस मंदिर में झाड़ू-पोंछा मारते हुए पंडित बने हैं। पहले पीपल के नीचे पीपलेश्‍वर मंदिर बनाया, फिर धीरे-धीरे अपने रहने की भी जगह निकाल ली। उसके बाद सामने खाने के दो ठीहे और एक नाऊ को बसा दिया जिनसे किराया आता है। हाजी साहब उनकी बात सुनकर मुस्‍कराते रहे। पंडितजी बोले, ”ये एनजीओ वाले जब तक रहेंगे, नशेड़ी खुलेआम घूमते रहेंगे।”
मैंने नज़र घुमाकर देखा, चारों ओर स्‍मैकिये हमेशा की तरह पसरे हुए थे। अच्‍छी धूप थी। उन्‍हें इस ठंड में और क्‍या चाहिए था। एक स्‍मैकिया बगल में दिलीप यादव के पेटिस कॉर्नर पर कुछ हल्‍ला मचाए हुए था। वह बार-बार दस रुपया मांग रहा था और दुकान वाला उससे बिखरे हुए चाय के कप साफ़ करने को कह रहा था। दूसरा स्‍मैकिया मेरे बगल में आकर बैठ गया और खुद से कुछ बात करने लगा। उसे कहीं से एक ब्रेड पकौड़ा हाथ लगा था। वह उसे खाने की वृहद् योजना बना रहा था। अचानक पहला स्‍मैकिया उड़ीसा हैंडलूम के सामने बैठी स्‍प्राउट खाती और चाय पीती सम्‍भ्रांत महिलाओं पर फट पड़ा, ”आप लोग यहां चाय के कप फेंक कर गंदा करते हो?” उसकी बदकिस्‍मती से एक महिला पंजाबी निकली। वह चिल्‍लाने लगी, ”भाग यहां से… सुबह-सुबह मेरा दिमाग मत खराब कर।” ”मैं दिमाग खराब कर रहा हूं? दिमाग आपका खराब है जो सवेरे-सवेरे गंदगी फैला रहे हो।” महिला बोली, ”भाई, मैं तो अभी चाय पी रही हूं। किसी और ने फेंका होगा। और तू कौन सा इंस्‍पैक्‍टर है जो चिल्‍ला रहा है? चल भाग यहां से।” स्‍मैकिया कुछ बड़बड़ाते हुए सफाई करने लगा। उसने सारे गंदे कप बंटोरे और डस्‍टबिन में डाल दिए। फिर वह पेटिस कॉर्नर वाले के पास गया, जो इतनी देर से स्‍मैकिये और पंजाबी महिला की झड़प से मौज ले रहा था। उसने उसकी जेब में हाथ डाल दिया। दुकान वाले ने उसका हाथ झटका और दस रुपये निकाल कर उसे दे दिए।
दस रुपया पाते ही स्‍मैकिये की देह में अचानक कुछ हरकत हुई। उसने अपने चीथड़ी जींस के पीछे वाली पॉकेट में दस का नोट खोंसा और नारा लगाने की मुद्रा में एक कदम आगे बढ़ाकर और दूसरा कदम पीछे टिकाकर हवा में हाथ उछालते हुए पंजाबी महिला से बोला, ”एक शेर सुनाऊं?” दुकानदार मुस्‍कराया। मेरे बगल वाला स्‍मैकिया ब्रेड पकौड़े की शिनाख्‍त चालू कर चुका था। महिला बोली, ”चल भाग यहां से…।” स्‍मैकिया बोला, ”कहो तो एक शेर सुना दूं… नहीं? चलो, सुना देता हूं…।” फिर वो अपनी स्‍वाभाविक मुद्रा में आया और देशभक्ति का गाना गाने से पहले जिस तरह देह को ऐंठा जाता है, वैसा करते हुए चिल्‍लाकर बोला:
”दिल में अरमान थे कि सफ़र करें… क्‍या?  सफ़र करें… दिल में अरमान थे कि सफ़र करें… सफ़र पर निकले तो मैदान मिले।”
और ऐसा कहते हुए वह काफी तेज़ी से पीछे की ओर मुड़ा जहां दुकानदार बैठा था। बोला, ”क्‍या बॉस? सही है?” दुकानदार हंसता रहा।
”दिल में अरमान थे कि सफ़र करें… सफ़र में निकले तो सामने मैदान मिले / मैदान में एक तरफ़ हड्डियां थी, शमशान थे… क्‍या थे?
दुकानदार बोला, ”समसान”।
”सुनो फिर… मैदान में एक तरफ हड्डियां थीं, शमशान थे… (पंजाबी औरत की ओर देखते हुए) ऐ सफ़र करने वालों, तुम्‍हारी तरह हम भी तो कभी इंसान थे!
”मैडsssम, हम भी इंसान थे। क्‍या?
पंजाबी महिला दो और महिलाओं के साथ अब उठकर जाने को खड़ी हुई। मेरे बगल वाला स्‍मैकिया ब्रेड पकौड़े में दांत गड़ा चुका था। शायर स्‍मैकिया अचानक कहीं सब-वे में गायब हो गया जहां आदिवासी कला मेला लगा हुआ था। दुकानदार पहले की ही तरह मौज ले रहा था। मंदिर से एक आवाज़ मुझे काफी देर से पुकार रही थी। पता चला वहां समरेंद्रजी खड़े थे।
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3
समरेंद्रजी यूएनआइ के पुराने पत्रकार हैं। कई बरस बाद मिले थे। वे मंदिर पर जुटे मजमे का हिस्‍सा थे, हालांकि सुलतान भाई से उनका कोई पूर्व परिचय नहीं था। इतनी देर में रेडियो वालों ने चुनावी चर्चा निपटा ली थी। उनके परस्‍पर परिचय के बाद हम लोग बतियाने लगे। पंडितजी भी आकर खड़े हो गए। हाजी साहब जा चुके थे। उस इलाके में सफाई करने वाली दो बेलदार औरतें भी रेडियो पर अपनी बात कहने के बाद वही जमी हुई थीं। दोनों काफी खुश थीं। मैंने पूछा, ”क्‍या माहौल है?” ”भइया, अबकी तो केजरीवाल।” मैंने पूछा, ”आप लोग नई दिल्‍ली की ही वोटर हैं?” ”हां भइया, ये जितने लोग यहां दिख रहे हैं सब यहीं के वोटर हैं। सब केजरीवाल के वोटर।” ”और ये स्‍मैकिये?” ”कुछ के पास वोटर कार्ड होंगे। कई तो यहीं अपना घर बनाकर रहते हैं। ये सारे केजरीवाल के हैं।” पंडितजी ने जुगुप्‍सा में मुंह बिचकाया। बोले, ”भाई साहब, एनजीओ वालों के कारण ही ये साले यहां पड़े रहते हैं और हमें दिक्‍कत करते हैं।” औरतें कुछ बड़बड़ाते हुए निकल गईं। मैंने समरेंद्रजी से चाय पीने चलने को कहा, तो उन्‍होंने बताया कि अभी पार्टी की मीटिंग हो रही है यहां। ”कौन सी पार्टी?” ”अरे अपनी पार्टी है… राष्‍ट्रीय हस्‍तक्षेप पार्टी।” हम लोग चलने को हुए तो सुलतान भाई ने टीप मारी, ”एक बात तो है भाई साब… ये बिहारी जहां कहीं भी रहते हैं, हस्‍तक्षेप जरूर करते हैं।”
(समवेत् स्‍वर में हंसी के ठहाके)
गोल मार्केट में बंगला फूड पर पूड़ी-सब्‍ज़ी खाने के बाद हम सुलतान भाई के घर चाय पीने बैठ गए। गोल मार्केट के पास बने सरकारी क्‍वार्टरों में उनका एक किराये का फ्लैट है। कई साल से वे यहीं रह रहे हैं। रह-रह कर मकान बदलते रहते हैं। किराया अब भी दिल्‍ली के हिसाब से काफी कम है। गोल मार्केट में रहने की वजह यह है कि कई साल से सुलतान भाई अखबारी पत्रकारिता छोड़कर गोल मार्केट के चौराहे पर मौजूद पॉपुलर केमिस्‍ट के यहां प्रबंधकीय सेवाएं दे रहे हैं। कभी निकले और फिर बंद हो गए जेवीजी टाइम्‍स और कुबेर टाइम्‍स के लिए काम करने के बाद उन्‍हें लगा कि अखबार के भीतर रहकर इज्‍जत नहीं मिल सकती, बाहर से लिखकर ज्‍यादा इज्‍जत कमायी जा सकती है। इसीलिए आजीविका का साधन उन्‍होंने दवा की दुकान को बनाया और व्‍यंग्‍य व लेख आदि लिखते रहे। उनका दूसरा उपन्‍यास ”शिनाख्‍़त” छपने को तैयार पड़ा है। इज्‍जत तो सुलतान भाई ने खूब कमायी, लेकिन पैसा नहीं कमाया। बच्‍चे अलबत्‍ता अच्‍छी-अच्‍छी जगह इंजीनियरी-डॉक्‍टरी की पढ़ाई कर रहे हैं। अब उम्र के पांचवें दशक के अंत में पॉपुलर केमिस्‍ट का सहारा भी छिनने की आशंका खड़ी हो गयी है। दुकान बस बिकी नहीं है, यही गनीमत है। सारा स्‍टॉक खत्‍म है। कभी सवा लाख प्रतिदिन की बिक्री करने वाली इस दुकान में आज रोज ढाई हज़ार का माल बमुश्किल बिक पाता है। सुलतान भाई के चेहरे पर हालांकि कोई खास शिकन नहीं है। रात 11 बजे तक वे संगम विहार और तुगलकाबाद में आम आदमी पार्टी के दो उम्‍मीदवारों की मीटिंगें करवाते रहे और सो नहीं पाए हैं, फिर भी ताज़ादम हैं।
तीसरे माले पर स्थित उनके फ्लैट की सीढि़यां नापते वक्‍त मैंने देखा कि हर दरवाज़े में नूपुर शर्मा का चुनावी परचा खोंसा हुआ था। उसमें पूरा बायोडेटा लिखा था। जन्‍म 1985… जानकर हैरत हुई। मैंने कहा, ”भाई साब, तीस साल से कम की उम्र में ये लड़की चुनाव में खड़ी हो गयी। आपको सामाजिक काम करते हुए इतने बरस हुए, आप कभी चुनाव में नहीं खड़े हुए। आपको बहुत पहले लड़ लेना चाहिए था।” घर में घुसते हुए वे बोले, ”छोड़ो यार… एक समय था कि संगम विहार और तुग़लकाबाद में मेरे कहे बगैर एक काम नहीं होता था। आज भी हर दूसरे दिन बुलावा आ जाता है। मुझे ये सब नहीं करना। करना होता तो बहुत पहले कर लिए होते।” चाय आती है। मैं कुछ पूछने को होता हूं कि उनका फोन आ जाता है। कहीं से बुलावा है मीटिंग के लिए, वे उसे टाल रहे हैं। फोन रखने के बाद मैंने पूछा, ”सच बताइए, आप तो पूरी दिल्‍ली देख रहे हैं इतने बरस से, क्‍या केजरीवाल सरकार बना लेगा?
”बंधु, केजरीवाल की सरकार अगर बन गई तो जान जाओ कि यूपी और बिहार में भाजपा को रोकने वाला कोई मां का लाल नहीं होगा फिर।”
”वो कैसे? और अगर ऐसा ही है तो आप आम आदमी पार्टी के उम्‍मीदवारों का प्रचार क्‍यों कर रहे हैं?
सुलतान भाई हंसे, ”मेरी छोड़ो यार… मैं तो दोस्‍त-मित्रों के बुलाने पर चला जाता हूं अपने इलाके में। उन्‍हें लगता है कि सुलतानजी के साथ इलाके में जाने से फ़र्क पड़ेगा, तो मैं भी चला जाता हूं। मेरा किसी पार्टी-वार्टी से क्‍या लेना-देना। लेकिन ये जान लो कि लोकसभा चुनाव में जो यूपी और बिहार में हुआ था, वहां के विधानसभा चुनाव में बिलकुल वही रिपीट होगा अगर दिल्‍ली में केजरीवाल की सरकार बन गई तो… अभी हाजी साहब से यही सब बातें तो हो रही थीं। मैं तो देख रहा हूं न, कि किस तरह मुसलमान झर के आम आदमी पार्टी के पास आ रहे हैं। ये बहुत खतरनाक है।”
यह बात मेरे लिए नई नहीं थी। मैं जिन इलाकों में बीते दो-तीन दिनों में गया था, वहां कुछ इसी तरह की बातें पढ़े-लिखे मुसलमान कर रहे थे। मटियामहल, बल्‍लीमारान, ओखला, सीलमपुर आदि क्षेत्रों में स्‍थापित मुस्लिम चेहरों पर इस बार हार का खतरा मंडरा रहा है। चांदनी चौक में घूमते वक्‍त मुझे एक भी दुकानदार ऐसा नहीं मिला जिसने कहा हो कि हारुन यूसुफ़ जीत जाएंगे। मतीन अहमद और शोएब इक़बाल की हार को लेकर भी ऐसे ही क़यास लगाए जा रहे हैं। दरीबा में साड़ी की दुकान लगाने वाले मिश्राजी उन्‍नांव के मूल निवासी हैं और करीब दो दशक से यहां रह रहे हैं। दो दिन पहले वे कह रहे थे कि दिल्‍ली से इस बार पुराना मुसलमान नेतृत्‍व गायब हो जाएगा। मैंने पूछा था कि यूपी के बारे में क्‍या खयाल है। वे बोले, ”यूपी में तो भाजपा ही आएगी, चाहे दिल्‍ली में कोई भी जीते।” यह बात मुझे सुलतान भाई से मिलने के पहले उतनी समझ में नहीं आई थी क्‍योंकि अपनी बिरादरी के जितने लोगों से हम रोज़ाना मिलते-जुलते हैं, सब एक ही रट लगाए हुए हैं कि मोदी की लहर को रोकने के लिए ज़रूरी है कि दिल्‍ली में केजरीवाल जीत जाए। लोग कह रहे हैं कि यूपी और बिहार में इससे भाजपा का मनोबल टूटेगा और उसका विजय रथ फंस जाएगा। पढ़े-लिखे लोगों के बीच यह धारणा बहुत आम है।
दरअसल, आम मुसलमान वोटरों के लिहाज से देखें तो मामला इसका उलटा है। दिल्‍ली के चुनाव का असर यूपी और बिहार पर अगर पड़ेगा, तो वह सिर्फ और सिर्फ मुस्लिमों के वोटिंग पैटर्न के संदर्भ में होगा। जिस तरह से यहां आम आदमी पार्टी के पक्ष में एकतरफ़ा रुझान मुसलमानों का दिख रहा है, अगर केजरीवाल ने सरकार बना ली तो यह संदेश बहुत दूर तलक जाएगा कि भाजपा विरोधी राजनीतिक धड़े में केजरीवाल दांव लगाने के लायक है। सुलतान भाई कह रहे थे, ”याद करो पिछले साल क्‍या हुआ था। यूपी और बिहार से मुसलमान नेताओं का तांता लगा हुआ था आम आदमी पार्टी के दफ्तर के बाहर। जबरदस्‍त समर्थन था। यह हाल था कि बनारस में सिर्फ महीने भर के काम से इस पार्टी ने तीन लाख वोट बंटोर लिए, सारे के सारे मुसलमानों के। मुस्लिम वोट बंट गया, हिंदू वोट भाजपा के पक्ष में कंसोलिडेट हो गया।” इसका मतलब यह हुआ कि अगर केजरीवाल यहां सरकार बना लेते हैं, तो यूपी और बिहार का मुस्लिम मतदाता ‘आप’ और स्‍थानीय पार्टी के बीच बंट जाएगा जिसका फायदा भाजपा को होगा। अगर केजरीवाल हार जाते हैं तो शायद मुस्लिमों को यह समझ में आए कि थक-हार कर उसे यूपी में समाजवादी पार्टी के साथ और बिहार में महागठबंधन (आरजेडी/जेडीयू) के साथ ही जाना होगा, और कोई विकल्‍प नहीं। ऐसे में मुस्लिमों का एकतरफ़ा वोट भाजपा की गाड़ी को फंसा सकता है।
अभी एक दिन पहले लेखक विष्‍णु खरे से ई-मेल के माध्‍यम से दिल्‍ली के चुनावों के संबंध में मेरी बात हो रही थी। मैंने यह थ्‍योरी उनके सामने रखी थी। उन्‍होंने इस पर कहा था कि इसमें ”मुसलमानों को भुच्‍च समझने की स्‍वीकृति है”। उन्‍होंने पूछा था कि आखिर यूपी-बिहार का मुसलमान ”दिल्‍ली को भेड़चाल क्‍यों बनाएगा?” मैंने तकरीबन यही सवाल सुलतान भाई से पूछा था। वे मुस्‍करा कर बोले, ”देखो, मुसलमानों के साथ एक दिक्‍कत बड़ी अजीब है। सब जानते हैं कि उनकी बदहाली की जिम्‍मेदार इतने बरसों में कांग्रेस ही रही है, उसके बावजूद वे भाजपा को बरदाश्‍त नहीं कर सकते। यह जानते हुए कि कांग्रेस उन्‍हें बरबाद कर देगी, वे लगातार भाजपा के विरोध में कांग्रेस को वोट करते रहे। आप उन्‍हें नहीं समझा सकते कि एक बार भाजपा को भी वोट देकर देखो। वे उसी को वोट देंगे जो भाजपा के खिलाफ़ मज़बूत दिखेगा और दिल्‍ली के मुसलमानों की तो यूपी-बिहार में इतनी रिश्‍तेदारियां हैं कि बात आगे बढ़ते देर नहीं लगती। अगर ‘आप’ यहां जीत गई तो यूपी-बिहार में लोकसभा का दुहराव होना ही होना है।”
”तो क्‍या यह मनाएं कि दिल्‍ली में भाजपा जीत जाए?
”क्‍या बुरा है?” सुलतानजी बोले, ”काम तो होगा। केंद्र सरकार यहां के प्रोजेक्‍टों में अड़ंगा तो नहीं लगाएगी। इसके अलावा, यूपी और बिहार के मुसलमानों में भ्रम फैलने से रहेगा कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस का विकल्‍प है। समाजवादी पार्टी मजबूत होगी। इस बात को मत भूलना कि भाजपा को केंद्र में लाने की सबसे बड़ी जिम्‍मेदार आम आदमी पार्टी ही है।” मेरे सामने अचानक सवेरे मिले लम्‍बू के भतीजे का चेहरा घूम जाता है जो आम आदमी की बात कर रहा था।  
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4

चाय पीकर हम कनॉट प्‍लेस की ओर निकले तो देखा कि पूरी सड़क भगवा झंडों-बैनरों से पटी पड़ी थी। नई दिल्‍ली विधानसभा क्षेत्र से भाजपा की उम्‍मीदवार नूपुर शर्मा का रोड शो था। आउटर सर्किल से लेकर बंगला साहब गुरद्वारे तक लंबी कतार थी। सबसे आगे सैकड़ों की संख्‍या में हुड़दंगी चल रहे थे और मोदी-मोदी का नारा लगा रहे थे। उनके बीच पगड़ी पहना एक मोदी का डुप्‍लीकेट भी था। बीच में एक खुली छत वाली जीप पर नूपुर शर्मा, किरण बेदी और सतीश उपाध्‍याय खड़े जनता का अभिवादन कर रहे थे। हम लोग स्लिप रोड पर ही रुक गए। तकरीबन रैला सा उमड़ता हुआ आ रहा था। सबसे ज्‍यादा नौजवान और लड़कियां इसमें थीं। सामने से एक चने बेचने वाला बूढा सा आदमी अपनी टोकरी कंधे पर लिए चला आ रहा था। उसके सिर पर भाजपा की टोपी थी। मैंने उसे पुकार कर कहा, ”का हो मोदी?” यह सुनते ही वह झटके से रुका और सिर पर लगी भाजपा की टोपी उतार कर उसने सड़क किनारे लगी झाड़ में फेंक दी। मैं हतप्रभ रह गया। उसे मैंने पास बुलाया तो डरता-डरता वो मेरे पास आया। उसे लगा कि मैं भी इसी जत्‍थे का हिस्‍सा हूं। उसे टोपी फेंकते हुए एक अधेड़ प्रचारक ने देख लिया था। पीछे-पीछे वो भी मेरे पास आया। मैंने चने वाले से पूछा, ”टोपी पहने क्‍यों थे और मेरे कहने पर फेंक क्‍यों दिए भाई?” वो खीझ कर बोला, ”हम नाहीं पहना रहा… जबरी पहना दिहिन… हम केजरीवाल के साथ हैं… भाजपा के नाहीं।” बोली से लगा कि वो अवध का होगा। ”कहां घर है…?” ”भइया, अब तो जो है दिल्लिये में है। वइसे बहराइच का रहे वाला हैं।”
तब तक पीछे खड़ा भाजपा प्रचारक हरकत में आ चुका था। उसने झाड़ पर से टोपी उठायी। मैंने उससे पूछा, ”क्‍या भाई, कहां से आए हो? दिल्‍ली के वोटर हो?” उसने बताया कि वह जौनपुर का रहने वाला है। बनारस से 29 जनवरी को प्रचार करने आया है। करीब 500 लोगों की टीम बनारस और जौनपुर से यहां आई है। वे यहां किसी अटलांटा होटल में रुके हुए हैं। किराया, खाना-पीना मुफ्त। मुझे अचानक हफ्ते भर पहले ग़ाज़ीपुर के अपने एक मित्र का भेजा वह एसएमएस याद आया जो बनारस के भाजपा कार्यालय से लोगों को भेजा गया था:
प्रिय मित्रो, काशी क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओ का दल, दिल्ली विधान सभा चुनाव 2015 के प्रचार एवं प्रसार के लिए 28 और 29 जनवरी को वाराणसी से रवाना हो रहा है। दिल्ली जाने वाले समस्त इच्छुक कार्यकर्ता दिनांक 27 जनवरी सायं 04 बजे या 28 जनवरी सुबह 10 बजे तक अपना नाम, उम्र, मोबाइल नंबर और पता डॉ. आदित्य 9453369678 एवं डॉ. गिरीश को 9005841234 को बता दें (मैसेज या व्हाट्स एप्प के माध्यम से), जिससे सभी का आरक्षण (आने एवं जाने) का ट्रेन में कराया जा सके तथा भोजन एवं आवास की व्यवस्था सुनिश्चित की जा सके। सभी की देल्ही से वाराणसी वापसी ट्रेन द्वारा दिनांक 05/02/2015 को होगी।”
आपको अगर इसकी जानकारी न भी हो तो कुछ देर के लिए राजीव चौक मेट्रो के गेट नंबर 7 के बाहर बस खड़े हो जाइए। गुटखा चबाते, गले में भाजपा का गमछा डाले, पूरी देह को झकझोरते हुए कोई सस्‍ता फिल्‍मी गाना गुनगुनाते तमाम पुरबिया नौजवान आजकल दिख जाएंगे। उनके लिए चढ़ते वसंत में दिल्‍ली का यह दौरा जिंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। ठीक वैसे ही जैसे दिल्‍ली के ”ग्रास” प्रेमी नौजवानों के लिए बनारस का मई वाला प्रवास था, जब अरविंद केजरीवाल का प्रचार करने के लिए वे थोक के भाव वहां भेजे गए थे। ऐसा लगता है कि नौ महीने में ही कुछ ”पोएटिक जस्टिस” जैसा दिल्‍ली में घट रहा है, और यह वास्‍तव में काव्‍यात्‍मक भी है क्‍योंकि मई की चिलचिलाती बनारसी धूप में दिल्‍ली के लड़कों के लिए गांजे का मज़ा उतना नहीं रहा होगा जितनी मौज आज बनारसी लड़कों को दिल्‍ली के वसंत में बियर के कैन दे रहे हैं। सब कुछ वैसा ही लगता है आज की दिल्‍ली में, जैसा मई 2014 में बनारस में लग रहा था। एक फिल्‍म, जो उस वक्‍त बन रही थी, अब बनकर तैयार है।
”डान्‍स फॉर डेमोक्रेसी”- यही नाम है कमल स्‍वरूप की उस बहुचर्चित फिल्‍म का, जो उन्‍होंने लोकसभा चुनाव के दौरान बनारस में भीड़ और सत्‍ता के आपसी रिश्‍तों को लेकर बनाई है। यह अब तक रिलीज़ नहीं हुई है। इसका एंटी-थीसिस या कहें पूरक फरवरी 2015 में दिल्‍ली में खेला जा रहा है। मुख्‍य खिलाड़ी वही हैं- अरविंद केजरीवाल और मोदी- बाकी छिटपुट खिलाड़ी मंच के इर्द-गिर्द सजा दिए गए हैं। बनारस के सिद्धगिरी बाग स्थित एक गेस्‍ट हाउस में इसकी पूरी टीम रुकी हुई थी। अप्रैल 2014 की जिस दोपहर मैं गेस्‍टहाउस में अचानक पहुंचा था, उस वक्‍त धूप इतनी तेज़ थी कि स्‍कूटर चलाते वक्‍त उंगलियों के नाखून तक महसूस हो रही थी। कमरे का दरवाज़ा खोलते ही किसी अंधेरी फिल्‍म का एक अवसादग्रस्‍त दृश्‍य मेरी आंखों के सामने था। पांच लोग जहां-तहां लेटे और बैठे हुए थे। बिस्‍तर पर कुछ भूंजा, कुछ अधभरी बोतलों में पानी, सिगरेट के असंख्‍य टोटे, पान मसाले के पाउच, आदि दृश्‍य थे। बाकी सब कुछ गांजे के गाढ़े धुएं में अदृश्‍य हो गया था, जो घूमती हुई चिलम के बीच मित्रों के मुंह से अहर्निश निकलता ही जा रहा था। कुछ भी बोलने से पहले इंतज़ार करना होता था कि धुआं निकलना पहले बंद हो। मुझे याद है, वहां पहले से मौजूद एक पत्रकार मित्र और कमल स्‍वरूप की टीम के अनिवार्य सदस्‍य अविनाश दास ने पूरे आत्‍मविश्‍वास से कहा था- केजरीवाल की जबरदस्‍त जीत हो रही है।
बनारस में ऐसा मानने वाले बहुत से लोग उस वक्‍त मौजूद थे। अधिकतर वे ही थे जो दिल्‍ली आदि जगहों से आम आदमी पार्टी की ओर से प्रचार करने आए थे। उनके अलावा कोई नहीं मानता था कि केजरीवाल जीतेंगे। ठीक वैसे ही जैसे आजकल दिल्‍ली में बनारस से आए चेहरे भाजपा की जीत का दावा कर रहे हैं और अगले ही पल बियर की बोतलों व कनॉट प्‍लेस की रंगीनियों में खो जा रहे हैं। हो सकता है दिल्‍ली की इस जंग पर भी कोई फिल्‍म बना रहा हो। बेहतर तो यह होता कि खुद कमल स्‍वरूप ऐसा करते। अधूरी और पुरानी कहानियों से अब लोगों को भरमाना कठिन है, फिर मई 2014 तो इतिहास बन चुका है जबकि लोकतंत्र का तांडव अब भी जारी है।
भटकाव के लिए माफी चाहूंगा, लेकिन कनॉट प्‍लेस की सड़कों पर उस दिन नूपुर शर्मा के रोड शो में बनारस-जौनपुर के लोगों को उछलता देखकर बिलकुल नौ महीने पहले के बनारस की याद आ गई थी। तो यह तय रहा कि बाहरियों के कहने से बहुत कुछ नहीं होता। जो जिसका गांजा पीता है, उसी का धुआं भी उगलता है। असल सवाल स्‍थानीय बाशिंदों का है- उन बेआवाज़ बेचेहरा नागरिकों का, जो किसी शहर को बनता-बिगड़ता देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं। सवेरे से ऐसे ही लोगों से मैं मिल रहा था, फिर भी उस दिन मेरे भीतर ऐसे ही किसी और शख्‍स की तलाश बची हुई थी। जाने क्‍यों लगता था कि बात मुकम्‍मल नहीं हो पा रही है।
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5

अपने गुरु के बारे में किस्‍से सुनाते हुए रामगोपाल बोले, ”कहते हैं जिन खोजां तिन पाइयां। अरे? भाई, जिसने खोजा उसे मिल गया। वो तो चला गया न? मेरे गुरु कहते थे- हम खोजां हम पाइयां।” अपनी ही बात पर ठहाका मारते हुए वे मेरा हाथ अपने हाथों में लेते हुए बोले, ”जिसने खोजना था, खोज लिया। उन्‍होंने जो सर्च किया वो छोड़ो, हमें तो री-सर्च करनी है।”   पास खड़े मैगज़ीन वाले और अंडेवाले ने हुंकारी भरी।
मुझे लगता है कि रामगोपाल ने यह बात मेरे लिए ही कही थी। मैं जिस बेचेहरा, बेआवाज़ शख्‍स को दिल्‍ली की सड़क पर उस दिन सुबह से खोज रहा था, वह 75 साल के एक बुजुर्ग रामगोपाल के रूप में देर शाम मुझे शिवाजी स्‍टेडियम बस स्‍टैंड पर मिला, जब मैं लौटने के मूड में था। दरअसल, कनॉट प्‍लेस पर भाजपा का रोड शो खत्‍म हो जाने के बाद हम लोग कुछ देर के लिए लाइव इंडिया पत्रिका के दफ्तर विमल झा से मिलने चले गए थे। वहां से लौटते-लौटते अंधेरा होने लगा। गोल मार्केट में सुलतान भाई को विदा कहने के बाद मैं पैदल कॉफी हाउस की ओर निकला। एक पैंट सिलने को मोहनसिंह प्‍लेस में दी हुई थी, तो सोचा लेते हुए चला जाए। अचानक शिवाजी स्‍टेडियम के सामने सड़क पार करते वक्‍त मेरे पैर ठिठक गए। जाने क्‍यों, पीछे मुड़कर मैं पत्रिकाओं के उस पुराने स्‍टॉल को बस स्‍टैंड के आसपास खोजने लगा जहां से मेरा अखबार वाला पत्रिकाएं लेकर आता है। स्‍टॉल अपनी जगह पर कायम था। उसके मालिक भी वहीं थे। कई बार उन्‍हें देखा है, लेकिन परिचय कभी नहीं हुआ था। जगतजी राजस्‍थान के भरतपुर के रहने वाले हैं, यह उसी दिन पता चला जब कुछ पत्रिकाएं खरीदने के बहाने मैंने उनसे चुनाव के बारे में बात छेड़ी। जगतजी बोले, ”देखो जी, मैं तो कट्टर भाजपा वाला हूं। असल में मेरा भतीजा भरतपुर में नगर निगम का भाजपा से चेयरमैन है न… इसलिए मैं तो आंख मूंद कर भाजपा को ही वोट देता हूं।”
ढलती शाम राजनीति की महक पड़ते ही पलक झपकते कम से कम तीन और लोग गोलिया गए। एक सज्‍जन हाथ में फाइल लिए हुए थे, कुछ कहना चाह रहे थे लेकिन हड़बड़ी में भी थे। दूसरे सज्‍जन अंडेवाले थे जिनकी रेहड़ी पर एक चेला आमलेट पका रहा था और वे खुद तफ़रीह ले रहे थे। तीसरे सज्‍जन से मैं नज़र नहीं हटा पा रहा था। बुजुर्ग चेहरा, हलका झुका शरीर, झक सफेद दाढ़ी बिलकुल अज्ञेय कट, गले में लाल मफ़लर (जिसे इस तरह से लपेटा गया था कि उसे गुलूबंद कहना ही मुनासिब हो), लंबा फि़रननुमा कुर्ता और उसके ऊपर काली सदरी, आंखों पर पतले फ्रेम का बल्‍लीमारान कट चश्‍मा और सिर पर बिलकुल पतली सी गांधी टोपी, लेकिन काली। वे पत्रिकाएं टटोल रहे थे और हमारी बात ग़ौर से सुन रहे थे। जब बात दिल्‍ली में ‘किसकी सरकार बनेगी’ पर आकर टिकी, तो वे मुड़े और थोड़ा नीचे से आदाब की मुद्रा में हाथ उठाते हुए बोले, ”… ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती / ये खज़ाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिलें”। और फिर ज़ोर का ठहाका, फिर पत्रिकाओं पर निगाहें…। मुझे लगा गोया कोई पुराना अदीब सामने खड़ा हो, कोई कश्‍मीरी नवाब या फिर कोई एजेंट! ऐसे एकाध लोग मंडी हाउस पर कभी-कभार दिख जाया करते थे। अब तो कहीं नहीं दिखते। यह शख्‍स आखिर शिवाजी स्‍टेडियम पर क्‍या कर रहा है? कौन है ये? मैंने घुसने की कोशिश की, ”आपने मेरी पसंदीदा ग़ज़ल सुनाकर मेरी दिलचस्‍पी बढ़ा दी है। आप…?” मैं बात पूरी नहीं कर पाया। वे बिलकुल सामने आकर खड़े हो गए।
”इसी दिल्‍ली के सीताराम बाज़ार का बाशिंदा हूं हज़रात। 1940 की पैदाइश है। पांचवीं तक पढ़ा हूं लेकिन जिंदगी का ज्ञान ठीकठाक है। सफ़र बहुत किया है जिंदगी में…।” मैंने कहा, ”आपके चेहरे से अज्ञेय की झांक आती है। अज्ञेय को जानते हैं?
”ओजी, उन्‍हें कौन नहीं जानता। बड़े महान लेखक थे। यायावर थे। हालांकि उनसे भी बड़ा एक शख्‍स था जिससे मैं मिला हूं। एक बार मेरे लालाजी ने कहा कि बेटा चल, एक बड़े अदीब एलएनजेपी अस्‍पताल में भर्ती हैं, उन्‍हें देख आवें। मैं चला गया जी। बेड पर एक लंबे से महापुरुष लेटे हुए थे। मैं तो दूर ही खड़ा रहा। लालाजी से कह कर उन्‍होंने मुझे अपने पास बुलवाया। बोले- जमोगे, जमोगे, इसी दिल्‍ली में जमोगे…। मैं कुछ समझ न पाया। हां, हां करता रहा। फिर उन्‍होंने एक कविता सुनाई- ‘सैर कर दुनिया की गाफि़ल जिंदगानी फिर कहां…।”
वे आगे भूल गए थे। काफिया मैंने पूरा कर दिया। वे बोले, ”तो आपकी उम्र है जो आप इसे समझ पा रहे हो। मैं तो उस वक्‍त पंद्रह साल का था। मुझे क्‍या मालूम कौन है ये आदमी और क्‍या बोल रिया है। सैर करने को बोल रिया है। भाई, माजरा क्‍या है। लालाजी ने बाद में निकल कर बताया कि वे राहुल सांकृत्‍यायन थे। मैं ऐसे-ऐसे महान लोगों से मिला हूं, लेकिन पांचवीं पास बुद्धि कितना पकड़ेगी। मैंने तो बस सैर की…।”
अंडेवाले ने बीच में टोका, ”हांजी, वो महाकाल वाली यात्रा तो गज़ब थी।” बुजुर्ग बोले, ”हां, हां, ये मेरे साथ गया था न उज्‍जैन… वहां भी ग़ज़ब हुआ था कसम से।” अब मुझे लगा कि ये कोई दूसरे ही किस्‍म का शख्‍स है। मैंने पूछा, ”आप यहां रोज़ आते हैं?” जवाब अंडेवाले ने दिया, ”ओजी, बगल में ही तो है। इत्‍ता सा पैदल चलना होता है। ये रामगोपालजी हैं। बहुत पुराने बाशिंदे।” रामगोपाल बोले, ”ये तो क्‍या ही दूरी है… हम तो मेहरौली चले जाते थे उन दिनों। यहीं कनॉट प्‍लेस के एफ ब्‍लॉक में लालाजी की साइकिल की दुकान हुआ करती थी। उन्‍होंने मुझसे पूछा था कि बेटा, क्‍या करना है। मैंने कहा, जी पढ़ना है। वे बोले- ठीक है, आ जइयो कल से मेहरौली में… वो जहां पृथ्‍वीराज चौहान वाली मज़ार है न जंगलों के बीच… वहीं बुलाया था।”
”मैं अगले दिन सुबह छह बजे निकला। उन दिनों यहां से दो बसें चलती थीं। एक राम की, दूसरी चौधरी की। एक साकेत तक जाती थी, दूसरी मेहरौली तक। दो घंटे लगते थे सवारियां भरने में। मैंने कहा, इतना इंतज़ार कौन करे, पैदल ही निकल लो। तो जी, निकल पड़े हम पैदल। वहां पहुंचे तो एक महापुरुष से बैठे हुए दिखे। मैंने बताया कि लालाजी ने भेजा है। उन्‍होंने कहा- बैठो और बैठकर सुनते रहो। मैंने सोचा, भाई जे कौन सी पढ़ाई है। ख़ैर, मैं रोज़-रोज़ उनके पास आने लगा। ये जो दरियागंज है न, उसके आगे जहां एक्‍सप्रेस बिल्डिंग-विल्डिंग हैं, वहां झुग्गियां होती थीं। नशे में टुल्‍ल लोग बैठे रहते थे। औरतें होती थीं गाय-भैंसे चराती हुई। सड़क तक कब्रिस्‍तान ही कब्रिस्‍तान था। वे जाने वालों को देखकर आवाज़ें लगातीं- आजा दिलवाले, दिलवाले, दही रोटी जमा ले। कभी-कभार उनके यहां ताज़ा सिंकी रोटी और खीस खाने को मिल जाती। आज की नई पीढ़ी तो खीस नहीं जानती होगी। आप जानते हो?
”जी… शायद.. वो बियाई हुई गाय से बनता है जो…।”
”हां, आप तो समझदार हो। आजकल तो मां-बाप तक भूल गए हैं ये चीज़ें। जैसे हमारे यहां कुदरत के हिसाब से जीवन होता था। कहावत थी- सावन साग, भादों दही, क्‍वार करेला, कार्तिक माही, इनसे बचे तो घर वैद नहीं आयी। अब कहां किसी को याद है ये सब… हां, तो मैं कह रिया था कि वहां हम जाते रहे, बैठे रहे, और एक दिन पता चला कि बैठे बैठे ही बहुत कुछ सीख गए हैं। फिर एक दिन महात्‍मा जी का कोई एयरपोर्ट पर आने वाला था। वे मुझे लेकर वहां गए। मैंने पहली बार हवाई जहाज़ देखा। बैनचो, इत्‍ती बड़ी चीज़ मैंने कभी देखी ही नहीं थी। कमाल की चीज़ थी साहब… मैंने सोचा क्‍या है ये। मुझे खोया देखकर महात्‍मा जी ने पूछा- क्‍या सोच रहे हो? मैंने शर्माते हुए कहा, ”मुझे यहां नौकरी मिल जाएगी?‘ उन्‍होंने तड़ से आवाज़ लगायी, ”मिस्‍टर कटारिया, इस लड़के को काम पर लगा लो।’ तोजी, अगले दिन कटारिया साहब मुझे लेकर तीस हज़ारी कोर्ट गए। उस वक्‍त वो ऊबड़-खाबड़ हुआ करता था। बीच में लाइन से स्‍टूल लगाकर अपने टाइपराइटर लिए वकील बैठे रहते थे। एक जगह तोप रखी हुई थी जंजीरों से घेरकर। उन्‍होंने मेरे कागज़ बना दिए। मैं हेल्‍पर पर लग गया। वहीं से हेड हेल्‍पर होकर रिटायर हुआ। तो ये है कहानी…।”
अंडेवाले ने कहा, ”अरे, बहुत पहुंचे हुए है साहब… पूरी दिल्‍ली इन्‍होंने देखी है… क्‍यों साहबजी”?
मैंने पूछा, ”आप 75 साल से दिल्‍ली को देख रहे हैं। कोई एक फ़र्क बताना हो जो तब में और अब में आया है तो क्‍या कहेंगे?
वे बोले, ”एक फ़र्क यह आया है कि ये दिल्‍ली एक धरमशाला होती थी। अब करमशाला बन गई है। जो अपने बाप को बाप नहीं कहता, वो पड़ोसी को चाचा कैसे कहेगा। कैरेक्‍टर बदला है आदमी का। लाज, शरम, सम्‍मान, इज्‍जत, सब खत्‍म हो गए। ये अंडे उठाकर बाहर फेंक दो नाली में, क्‍योंकि ये नयी तहज़ीब के अंडे हैं…।” अंडेवाला पीछे मुड़कर अपने ठीहे को देखने लगा। पत्रिका वाले जगतजी सिर हिला रहे थे। हड़बड़ी में आया हुआ आदमी बात गंभीर होते देख बस पर चढ़ चुका था। आमलेट की महक सर्वत्र फैल रही थी। अचानक एक बस के ड्राइवर ने एक्‍सीलेटर पर पैर दाब दिया और हों हो कर के पूरा इलाका गूंज उठा। रामगोपाल जी बोले, ”मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्‍यों-ज्‍यों दवा की… तो ये है जी दिल्‍ली। दवा की नौबत ही क्‍यों आने दी? भाई हमने तो जिंदगी में कोई नशा नहीं किया। पान, पत्‍ती, दारू, कुछ नहीं ली। साली स्‍टील की बॉडी थोड़ी है बस की तरह। खराब-वराब हो जाए तो? लेकिन नहीं जी, नशा करेंगे, फिर इलाज भी करेंगे। इसे ही विकास कहते हैं आजकल…।”
बस की आवाज़ बंद होने तक सब कुछ ठहरा रहा। फिर मैंने पूछा, ”आप तो जम गए। ये बताइए, दिल्‍ली में कौन जमेगा इस बार?” रामगोपालजी ने ठहाका लगाया और बच्‍चे की तरह समझाते हुए बोले, ”देखो, जनता देख रही है कि ये जो नया आदमी आया है उसने नयी चेतना पैदा की है। यार, ये घायल है… जनता भी घायल है। घायल की गति घायल ही जाने…।” यह कहते हुए एक अस्‍पष्‍ट मुद्रा में उन्‍होंने अपने हाथों की उंगलियों को किसी कीमियागर की तरह हवा में हिलाया जैसे कुछ पकड़ रहे हों। अचानक पत्रिका वाले जगतजी ने जैसे सफाई देते हुए डिफेंस में कहा, ”लेकिन हम तो जी कट्टर बीजेपी वाले हैं न। दरअसल, अपना भतीजा भरतपुर में बीजेपी से चेयरमैन है नगर निगम का…।” रामगोपालजी बोले, ”अरे भगतजी, अपना क्‍या है, जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए। ये बताओ, एक मोदी साहब ही गद्दी पर बैठेंगे? अरे, करोड़ों हैं लाइन में… जिनकी जिंदगी चेयरमैन और पार्षदी में ही कट जा रही है। उधर उस बंदे को देखो… आंधी की तरह आया… ठैं… ठैं… ठैं… और गद्दी को लात मार दी। है किसी में है इतना साहस कि मिली हुई मिल्कियत को ठुकरा दे? हिले ना डुले, बैठा ही बैठा तुले…?
अंडेवाले और पत्रिका वाले ने हां में सिर हिलाया, ”जे तो है… बात सौ फीसदी सही कही आपने…।”
बुजुर्ग ने मेरी ओर देखा और बोले, ”मैं इतनी देर किसी से बात नहीं करता। आपकी लकीरें ठीक दिख रही हैं, इसलिए इतना बोल गया। वरना अपना तो हाल ये है कि ‘न खुशी अच्‍छी है न मलाल अच्‍छा है, तू जिस हाल में रक्‍खे वो हाल अच्‍छा है…।’ हम तो सफ़र में हैं। ऐसे ही किसी दिन और मुलाकात हो जाएगी, यहीं…।”
मैंने जाते-जाते कहा, ”लेकिन आपने मंत्र अच्‍छा दिया- घायल ही जाने घायल की गति।” वे मुस्‍कराए और बोले, ”तो एक मंत्र और लेते जाओ। दिल सफ़ा, हर दम नफ़ा… क्‍या? फिर से बोलो। दिल सफ़ा…?” सबने मिलकर कहा, ”… हर दम नफ़ा।” रामगोपाल बोले, ”हां, तो आप जानते हो कि किसका दिल सफ़ा है और किसका नहीं। या ये भी बताना पड़ेगा?”  
रात के साढ़े आठ बज चुके थे। हमने विदा ली।
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लौटते वक्‍त रात दस बजे के करीब अपनी गली में नहर वाली बच्‍ची ने जब मुझसे सवाल किया कि चांद चल रहा है या बादल, तो मैंने दिन का आखिरी मंत्र याद करते हुए जान-बूझ कर चुप्‍पी ओढ़ ली थी। मैं जानता था कि उसका कम से कम दिल साफ़ है। वो जो भी कहेगी, दिल से कहेगी। उसने कहा, चांद चलता है, मैंने मान लिया। दिल्‍ली के दिल में भी वसंत अभी-अभी उतरा है। क्‍या जाने उसका दिल साफ़ ही हो! थोड़ा सब्र करें और दिल्‍ली में ही ठहरें, बक़ौल ग़ालिब:
सरे-आग़ाज़े मौसम में अंधे हैं हम
कि दिल्ली को छोड़े लोहारू को जाएं
     

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3 Comments on “सरे-आग़ाज़े मौसम में अंधे हैं हम…”

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