विकास की बलिवेदी पर: पहली किस्‍त


आंबेडकर जयन्‍ती पर चली गोली से घायल अकलू चेरो, ग्राम सुन्‍दरी, सोनभद्र 



इस साल अक्षय तृतीया पर जब देश भर में लगन चढ़ा हुआ था, बारातें निकल रही थीं और हिंदी अखबारों के स्‍थानीय संस्‍करण हीरे-जवाहरात के विज्ञापनों से पटे पड़े थे, तब पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के कुछ घरों में पहले से तय शादियां अचानक टाल दी गई थीं। कई अनब्‍याही लड़कियों के अभागे बाप बेमौसम बरसात और ओले से बरबाद फसल की भेंट गए, तो कई के भाई लेटी हुई गेहूं की बालियों और सड़े हुए आलू देखकर सदमे आ गए थे। खबरों की मानें तो बुलंदशहर, इटावा, बुंदेलखण्‍ड और मैनपुरी के किसान आगरा के पागलखाने के चक्‍कर लगा रहे थे। तबाही पूरब में भी हुई थी, लेकिन बनारस से सटे सोनभद्र में कहर कुदरत ने नहीं बल्कि पुलिस की लाठियों ने बरपाया था। इस इलाके में कम से कम दो शादियां ऐसी थीं जो टाल दी गयीं।
बायें से देवकलिया और किसमतिया 
फौजदार (पुत्र केशवराम, निवासी भीसुर) के बेटे का 22 अप्रैल को तिलक था। अगले हफ्ते उनके बेटे की शादी होनी थी। पड़ोस के गांव में 24 अप्रैल को देवकलिया और शनीचर (पुत्र रामदास, निवासी सुन्‍दरी) की बेटी की शादी थी। फौजदार समेत देवकलिया और शनीचर सभी 20 अप्रैल तक दुद्धी तहसील के ब्‍लॉक चिकित्‍सालय में भर्ती थे। देवकलिया की बेटी घर पर अकेली थी। 20 की शाम को अचानक फौजदार और शनीचर को गंभीर घायल घोषित कर के पांच अन्‍य मरीज़ों के साथ जिला चिकित्‍सालय में भेज दिया गया जबकि देवकलिया को दस मरीज़ों के साथ छुट्टी दे दी गयी। देवकलिया जानती थी कि चार दिन में अगर वह शादी की तैयारी कर भी लेगी तो उसके पति शनीचर को अस्‍पताल से नहीं छोड़ा जाएगा क्‍योंकि उत्‍तर प्रदेश के समाजवादी राज में अस्‍पताल का दूसरा नाम जेल है। समाजवाद की इस नयी परिभाषा को आए यहां बहुत दिन नहीं बीते हैं।
सोनभद्र उत्‍तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा जि़ला है। यहां की आधे से ज्‍यादा ज़मीन जंगल की है और दुनिया के सबसे पुराने जीवाश्‍म भी यहीं की विंध्‍य श्रृंखलाओं में पाए जाते हैं। आदिवासी बहुल यह जि़ला अपने आप में इकलौता है जिसकी सीमा चार राज्‍यों से एक साथ लगती है- छत्‍तीसगढ़, बिहार, झारखण्‍ड और मध्‍यप्रदेश। पिछले पांच महीने से अचानक इस जि़ले को ‘विकास’ नाम का रोग लग गया है। इसके पीछे पांगन नदी पर प्रस्‍तावित कनहर नाम का एक बांध है जिसे कोई चालीस साल पहले सिंचाई परियोजना के तहत मंजूरी दी गयी थी। झारखण्‍ड (तत्‍कालीन बिहार), छत्‍तीसगढ़ (तत्‍कालीन मध्‍यप्रदेश) और उत्‍तर प्रदेश के बीच आपसी मतभेदों के चलते लंबे समय तक इस पर काम रुका रहा और बीच में दो बार इसका लोकार्पण भी हुआ। समय बीतने के साथ इसकी लागत भी आरंभिक 23 करोड़ रुपये से बढ़कर 2800 करोड़ रुपये हो गयी। चूंकि 2014 के लोकसभा चुनाव ने तय कर दिया था कि इस देश पर वही राज करेगा जो ‘विकास’ का जुमला रटेगा, लिहाजा खुद को समाजवादी कहने वाले भी इस लोभ से अछूते न रह सके। पिछले साल जिस वक्‍त अखिलेश यादव की सरकार ने नयी-नयी विकास परियोजनाओं का एलान करना शुरू किया, ठीक तभी उनकी सरकार को इस भूले हुए बांध की भी याद हो आयी। 

छावनी में तब्‍दील हो चुका है कनहर बांध का इलाका 
कहते हैं कि उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव ने इसमें खास दिलचस्‍पी दिखायी और सोनभद्र को हरा-भरा बनाने के नाम पर इसका काम शुरू करवा दिया। खुली निविदा के माध्‍यम से हैदराबाद की कंपनी हिन्‍दुस्‍तान इंजीनियर्स सिंडीकेट (एचईएस) इन्‍फ्रा प्राइवेट लिमिटेड को बांध निर्माण का सौ फीसदी ठेका दे दिया गया। दिसंबर में काम शुरू हुआ तो ग्रामीणों ने विरोध करना शुरू किया। प्रशासन से उनकी पहली झड़प 23 दिसंबर 2014 को हुई। इसके बाद 14 अप्रैल, 2015 को आंबेडकर जयन्‍ती के दिन पुलिस ने धरना दे रहे ग्रामीणों पर लाठियां बरसायीं और गोली चलायी। एक आदिवासी अकलू चेरो को छाती के पास गोली लगकर आर-पार हो गयी। वह बनारस के सर सुंदरलाल चिकित्‍सालय में भर्ती है। इस घटना के बाद भी ग्रामीण नहीं हारे। तब ठीक चार दिन बाद 18 अप्रैल की सुबह सोते हुए ग्रामीणों को मार कर खदेड़ दिया गया, उनके धरनास्‍थल को साफ कर दिया गया और पूरे जिले में धारा 144 लगा दी गयी। स्‍थानीय अखबारों की मानें तो यह धारा अगली 19 मई तक पूरे जिले में लागू है। अब तक दो दर्जन से ज्‍यादा गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। आंदोलनकारियों को चुन-चुन कर पकड़ा जा रहा है।
फौजदार, शनीचर और देवकलिया उन पंद्रह घायलों में शामिल सिर्फ तीन नाम हैं जिन्‍हें 20 अप्रैल तक दुद्धी के ब्‍लॉक चिकित्‍सालय में बिना पानी, दातुन और खून से लथपथ कपड़ों में अंधेरे वार्डों में कैद रखा गया था। प्रशासन की सूची के मुताबिक 14 अप्रैल की घटना में 12 पुलिस अधिकारी/कर्मचारी घायल हुए थे जबकि सिर्फ चार प्रदर्शनकारी घायल थे। इसके चार दिन बाद 18 अप्रैल की सुबह पांच बजे जो हमला हुआ, उसमें चार पुलिसकर्मियों को घायल बताया गया है जबकि 19 प्रदर्शनकारी घायल हैं। दोनों दिनों की संख्‍या की तुलना करने पर ऐसा लगता है कि 18 अप्रैल की कार्रवाई हिसाब चुकाने के लिए की गयी थी। इस सूची में कुछ गंभीर गड़बडि़यां हैं। मसलन, दुद्धी के सरकारी चिकित्‍सालय में भर्ती सत्‍तर पार के जोगी साव और तकरीबन इतनी ही उम्र के रुकसार का नाम सरकारी सूची में नहीं है। इसी तरह सुन्‍दरी गांव से दो महिलाएं 18 अप्रैल की घटना के बाद से ही लापता बतायी जा रही हैं (एक का नाम शांति देवी है जो सुन्‍दरी की निवासी हैं) जिनके बारे में तीन तरह की बातें सुनने में आयी हैं। एक स्‍थानीय पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर दावे से कहते हैं कि इनकी मौत हो गयी है और इन्‍हें पुलिस ने मौके पर ही दफना दिया है। कुछ दूसरे पत्रकारों का मानना है कि वे दोनों 14 अप्रैल की घटना में नामजद थीं और अभी जेल में हैं। जिले के पुलिस अधीक्षक शिवशंकर यादव कहते हैं कि कोई भी लापता नहीं है, यह सब अफ़वाह है। 

सरकारी भाषा में इसे ‘विकास’ कहते हैं  

पुलिस अधीक्षक की बात पर इसलिए आशंका होती है क्‍योंकि 14 अप्रैल की घटना में गोली से घायल अकलू चेरो के दो साथी लक्ष्‍मण और अशर्फी, जो अकलू के साथ बनारस तक गए थे, वे भी 20 अप्रैल तक लापता ही माने जा रहे थे जब तक कि खुद यादव ने इस संवाददाता के पूछने पर यह स्‍वीकार नहीं कर लिया कि वे दोनों मिर्जापुर की जेल में बंद हैं। इसका मतलब है कि जो लापता बताये जा रहे हैं वे जेल में भी हो सकते हैं। हमारा अंदाज़ा 26 अप्रैल को सही साबित होता है जब भाकपा(माले) के प्रोफेसर शरद मेहरोत्रा मिर्जापुर की जेल में बंद गम्‍भीरा प्रसाद से मिलने जाते हैं और वहां बंद नौ लोगों की सूची लाते हैं जिसमें कम से कम चार लोग ऐसे हैं जिनके नाम प्रशासन द्वारा मुहैया करायी गयी घायलों की सूची में शामिल है। ये चार हैं माता प्रसाद, मनोज कुमार खरवार, धर्मजीत और राम प्रसाद। इन नौ लोगों में शांति देवी का नाम नहीं हैं। शांति की ही तरह चार और लोग ऐसे हैं जो न तो जेल में पाये गये और न ही अस्‍पताल में। इनके नाम हैं- संतोष, राजदेव, रूपशाह और विजेन्‍द्र जायसवाल। 14 और 18 अप्रैल की घटना में घायल कुल पांच लोगों का अब तक पता नही लग सका है।  

अगर आपको लगता है कि 14 और 18 अप्रैल की घटना के संबंध में दी गयी उपर्युक्‍त सूचनाएं अधूरी हैं, तो आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं। जान जोखिम में डालकर भी अगर इतने ही तथ्‍य निकल पाएं, तो हम समझ सकते हैं कि सच्‍चाई को छुपाने के लिए प्रशासन की ओर से कितना ज़ोर लगाया जा रहा होगा। हम वास्‍तव में नहीं जान सकते कि बांध की डूब से सीधे प्रभावित होने वाले गांवों सुन्‍दरी, भीसुर और कोरची के कितने घरों में इस लगन बारात आने वाली थी, कितने घरों में वाकई आयी और कितनों में शादियां टल गयीं। कितने घर बसने से पहले उजड़ गए और कितने बसे-बसाये घर बांध के कारण उजड़ेंगे, दोनों की संख्‍या जानने का कोई भी तरीका हमारे पास नहीं है। दरअसल, यहां कुछ भी जानने का कोई तरीका नहीं है सिवाय इसके कि आप सरकारी बयानों पर जस का तस भरोसा कर लें। वजह इतनी सी है कि यहां एक बांध बन रहा है और बांध का मतलब विकास है। इसका विरोध करने वाला कोई भी व्‍यक्ति विकास-विरोधी और राष्‍ट्र-विरोधी है। 

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One Comment on “विकास की बलिवेदी पर: पहली किस्‍त”

  1. जबरदस्त! एक तमाचा सरकार के मुह पर और एक उलटे हाथ का मीडिया के मुँह पर. आपकी लेखी में तो दम है ही मगर content की संजीगता का क्या कहना. बस आपके लेख पढ़ पढ़ कर हिंदी सुधर रहा हूँ. आपकी लेखनी जीवित रहे और 'राष्ट्र विरोधी' लोगों के काम आये. आमीन

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