हमारे समाज में हिंदू महिलाएं शादी से पहले भाई की पूजा करती हैं, फिर शादी के बाद पति की पूजा करती हैं। विवाहित हिंदू स्त्रियां अपने पतियों की लंबी उम्र के लिए तीज, करवाचौथ, वट सावित्री इत्यादि व्रत करती हैं और बच्चे होने के बाद बच्चों की खुशहाली, स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिए भी व्रत करती हैंI ऐसा लगता है जैसे पूरे परिवार के स्वास्थ्य, लंबी उम्र और बढ़ोतरी के लिए व्रत रखने की जिम्मेवारी महिला के कंधे पर ही हैI महिलाओं का, बहन या पत्नी या माँ के रूप में पूजा न किया जाना उन्हें कहीं न कहीं सामाजिक असमानता का शिकार बनाता हैI इसके अलावा भ्रूण हत्या, लैंगिक असमानता, दहेज प्रथा, महिला उत्पीड़न और घरेलू हिंसा जैसे विभिन्न रूपों में महिलाओं की स्वतन्त्रता और समानता की आहुति दी जाती है।
दुनिया की आबादी का दो-तिहाई असाक्षर लोग लोग महिलाएं हैंI आजादी के 75 साल हो रहे हैं, लेकिन अब तक केवल एक महिला राष्ट्रपति और एक महिला प्रधानमंत्री हुई I लगभग 11 प्रतिशत हाईकोर्ट जज महिलाएं हैं I 17वीं लोकसभा में सांसदों के रूप में अभी तक सबसे अधिक महिला भागीदारी है जो महज 14.4 प्रतिशत है जबकि संसद में महिलाओं की भागीदारी का वैश्विक औसत 24.6 प्रतिशत हैI यूएस में 32 प्रतिशत कानून निर्माता महिलाएं हैं। यहां तक कि बांग्लादेश में भी यह संख्या 21 प्रतिशत हैI
वैश्विक आर्थिक मंच द्वारा जारी ताजा ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट-2021 में 156 देशों की सूची में भारत 140वें स्थान पर है। भारत में महिलाओं की हर स्तर पर भागीदारी बहुत कम है जिसे बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है I हर विकसित देश में महिलाओं को भारत की तुलना में काफी स्वतन्त्रता और समानता हासिल हैI हमारे देश के जिन राज्यों में महिलाओं को स्वतन्त्रता और समानता अच्छी प्राप्त है वे राज्य अन्य राज्यों की तुलना में काफी आगे हैं, जैसे केरल, पुडुचेरी, पश्चिम बंगाल, असम, इत्यादिI
अभी हमारे देश में हर 1000 पुरुष पर केवल 948 महिलाएं हैं I आप मार्केट, चौक-चौराहों पर निकल के देखें लड़कियां तुलनात्मक रूप से कम दिखेंगीI इसका एक कारण इनकी कम संख्या है और दूसरा, इन्हें पुरुषों के पाखंडी समाज ने मान मर्यादा, इज्जत, लिहाज जैसी बेड़ियों से चारदीवारियों में बांध कर रख दिया है। पुरुष कुछ भी करें सब चलता है लेकिन जब महिलाएं वही करे तो उन्हें कुलटा, निर्लज्ज और न जाने कैसी संज्ञाएं दी जाती हैंI आदर्श ये होना चाहिए कि महिलाएं भी स्वच्छंद और निर्भय होकर कभी भी बाहर निकल सकें और पारिवारिक वित्तीय जिम्मेदारियों और निर्णय में भागीदार हों। आदर्श ये होना चाहिए कि यदि कोई पुरुष अपनी महिला मित्र बनाता हो तो उसे अपनी बहन के पुरुष मित्र होने पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इस मामले में हमारा समाज वहीं है जहां सौ साल पहले था। राजा राम मोहन रॉय, दयानंद सरस्वती जैसे कई समाज सुधारक और अंग्रेजों के कड़े नियमों का सम्मिलित प्रयास था कि कुछ कुप्रथाएं खत्म हो पायीं।
समय के साथ हमने महिलाओं से संबन्धित बहुत सारी समस्याओं का समाधान किया है लेकिन अब भी बहुत सारी समस्याएं जैसे भ्रूण हत्या, लैंगिक असमानता, दहेज प्रथा, प्रतिनिधित्व की असमानता विकराल होती जा रही हैं। उन्हें खत्म करने की जरूरत है। आज भी बहुत सारी जगहों पर विधवा पुनर्विवाह को जायज नहीं माना जाता। हमारे समाज में गांवों और शहरों में अधिकतर मध्यमवर्गीय परिवारों में सिर्फ पुरुष अर्थोपार्जन करते हैं, पितृसत्तात्मक विचारों के वर्चस्व में महिलाओं को आज भी काम करने बाहर नहीं जाने दिया जाता है। यदि महिलाएं भी बाहर जाकर काम करें और पारिवारिक आय में भागीदारी निभाएं तो हमारे देश का घरेलू उत्पाद और आय भी कई गुना बढ़ सकता है I
यदि महिलाओं की समाज में भागीदारी बढ़े, पारिवारिक वित्त अर्जन करें और पारिवारिक निर्णय में भी भागीदारी हो, हर स्तर पर प्रतिनिधित्व में समानता हो, तो हमारा समाज और देश बहुत तेजी से आगे विकास के रास्ते पर बढ़ेगा जिससे बहुत सारी सामाजिक समस्याएं स्वतः खत्म हो जाएंगी I यह सिर्फ सरकार के द्वारा सख्त नियम बनाने से नहीं होगा बल्कि एक व्यापक सामाजिक जागरूकता, चिंतन और जिम्मेवारी से संभव है। इसीलिए यदि समाज में ऐसे पर्व का भी प्रचलन हो जिसमें भाई, बहन की पूजा करे और पति, पत्नी की पूजा करे तो सामाजिक स्तर पर एक सामूहिक जागरूकता आएगी जिससे महिलाओं के प्रति पुरुषों का नजरिया आदर्श हो पाएगा और महिलाएं अधिक स्वतन्त्रता, सम्मान और समानता से आगे बढ़ेंगी।
लेखक आइआइटी गुवाहाटी में रिसर्च फैलो रहे हैं I