राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद: जड़ों की तलाश और अनैतिहासिक दृष्टि का खतरा


आधुनिक अर्थ में भारतीय राष्ट्र-राज्य, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की अवधारणाएं ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध चले लंबे स्वाधीनता संघर्ष के दौरान उभरीं और विकसित हुईं, लेकिन क्या इनके बीज हमारे सुदूर अतीत में ढूंढे जा सकते हैं? इसका सीधा और सरल जवाब यह है कि कोई भी चीज़ शून्य से पैदा नहीं होती। विचार और अवधारणाएं आकार लेने में लंबा समय लेते हैं। आज जो कल्पना है कल वही यथार्थ बन जाता है, लेकिन आज के यथार्थ को कल की कल्पना के स्थान पर रख देना अनैतिहासिक है। हिंदुत्ववादी दृष्टि से संपन्न लोग भारतीय अतीत को समझने के लिए इसी अनैतिहासिक दृष्टि को अपनाते हैं। इसीलिए उन्हें राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की आधुनिक अवधारणाएं भी ऋग्वेद और महाभारत में मिल जाती हैं।

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राजनीतिक चिंतन की परंपरा में इनके जीवाश्म मिलते हैं और उनके पनपने की प्रक्रिया के भी दर्शन होते हैं। लेकिन केवल इसी आधार पर आधुनिक अवधारणाओं को अतीत में प्रक्षेपित नहीं किया जा सकता।

अब यह बात सिद्ध हो चुकी है कि हड़प्पा सभ्यता के लोगों और मेसोपोटामिया के बीच घनिष्ठ व्यापार संबंध था। प्रसिद्ध इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता शिरीन रत्नागर ने अनेक विद्वानों द्वारा किये गए शोध के आधार पर लिखा है कि मेसोपोटामिया के लोग हड़प्पा को मेलुहा के नाम से जानते थे। यानी भारत के किसी भी भाग का यह सबसे पुराना नाम है क्योंकि हड़प्पा सभ्यता की लिपि के अभी तक न पढ़े जा सकने के कारण हमें तो यह भी नहीं पता कि हड़प्पावासी अपने क्षेत्र को किस नाम से पुकारते थे। अनेक विद्वानों का विचार है कि हड़प्पा सभ्यता की भाषा का संबंध द्रविड़ भाषा परिवार से था। अभी तक यह रहस्य भी नहीं खुल पाया है कि कैसे आज भी बलूचिस्तान के एक ख़ास इलाके में द्रविड़ भाषा परिवार की ब्राहुई भाषा बोली जाती है।

1990 के दशक के अंतिम वर्षों में मूर्धन्य इतिहासकार इरफ़ान हबीब ने ‘सोशल साइंटिस्ट’ पत्रिका में प्रकाशित अपने लेखों में इस बात का उल्लेख किया है कि ईसापूर्व चौथी शताब्दी में ही अपनी विशिष्ट सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं और संरचनाओं के कारण भारत को अन्य देशों से पृथक एक भिन्न भौगोलिक एवं सांस्कृतिक इकाई के रूप में स्वीकृति मिल गयी थी। ऋग्वेद में ‘जन’ का उल्लेख है, ‘राजा’ का उल्लेख है लेकिन क्षेत्र के रूप में केवल ‘सप्तसिंधु’ का उल्लेख है जिसका अर्थ सात नदियों वाला क्षेत्र है। जनों के बीच जब राज्य का उदय होने लगा तो जनपद और फिर महाजनपद अस्तित्व में आए और फिर साम्राज्य बने। इसलिए यह अकारण नहीं है कि एक देश के रूप में, जिसमें विभिन्न दिशाओं में विभिन्न जनपद स्थापित हो चुके हैं, भारत का सबसे पहला उल्लेख आरंभिक बौद्ध ग्रंथों में जम्बूद्वीप के नाम से मिलता है।

बुद्ध को शास्ता (शासन करने वाला) कहा जाता था और धर्मचक्र प्रवर्तन करने के कारण चक्रवर्ती भी। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के सम्राट अशोक मौर्य के एक शिलालेख में उस क्षेत्र के लिए जिसमें उनका साम्राज्य फैला हुआ था, जम्बूद्वीप नाम का उल्लेख है। बाद में ब्राह्मण ग्रंथों में भी इस नाम को स्वीकृति मिली, लेकिन भारतवर्ष नाम के बारे में ईसा पूर्व पहली शताब्दी तक अस्पष्टता बनी हुई थी क्योंकि कलिंग के सम्राट खारवेल के एक अभिलेख में इस बात का उल्लेख है कि सिंहासनारूढ़ होने के दसवें वर्ष में वह भारतवर्ष पर विजय प्राप्त करने के अभियान पर निकल पड़े। यानी, तब तक कलिंग भारतवर्ष के भीतर नहीं माना जाता था।

अनन्तर ‘महाभारत’ के दिग्विजयवर्णन में पूरे भारतवर्ष का भौगोलिक खाका मिलता है। प्रसिद्ध इतिहासकार बृजदुलाल चट्टोपाध्याय ने इस विषय पर लिखी अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक में भारतवर्ष की अवधारणा के स्रोत खोजने का नितांत मौलिक प्रयास किया है। इरफ़ान हबीब भी अल-बरूनी द्वारा ग्यारहवीं शताब्दी में ही भारत को एक ‘सांस्कृतिक इकाई’ के रूप में चित्रित किये जाने को स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि 1757 में अंग्रेजों द्वारा भारत को उपनिवेश में तब्दील करने की प्रक्रिया की शुरुआत होने तक भारत एक सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इकाई के रूप में अस्तित्व में आ चुका था और राष्ट्रीयता की कुछ पूर्व-शर्तों को पूरा करने लगा था। लेकिन क्या इस सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इकाई के भीतर किसी प्रकार की राजनीतिक एकता की चेतना और समान राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति की भावना भी विकसित हो पायी थी? इसका निर्विवाद उत्तर है- नहीं।

लेकिन इस अतीत से भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। सिकंदर ने आक्रमण किया था और पंजाब और सिंध के अनेक जनों को परास्त करता हुआ वह सिंधु नदी तक पहुँच गया था। कई सदियों तक पंजाब और पश्चिमोत्तर में यूनानियों का शासन रहा जिन्हें इंडो-ग्रीक कहा जाता है। अशोक का साम्राज्य अफगानिस्तान तक फैला था और ईरानी और यूनानी सभ्यता के साथ उसके रिश्ते बने थे। इसीलिए अशोक के बहुत-से शिलालेख यूनानी और आरमेइक भाषाओं में अफगानिस्तान तक में मिलते हैं। तब भिन्नता के कारण नफरत का नहीं, स्नेह का संबंध बनता था। आज के आधुनिक भारत राष्ट्र की राष्ट्रीयता और उसका राष्ट्रवाद यदि अतीत की इस समावेशी प्रवृत्ति का वरण करते हैं, तो यह हमारी गौरवशाली परम्परा का सबसे बड़ा सम्मान होगा।


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित है और काफी पहले आउट्लुक में छप चुका है


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