जीवन-प्रवाह में बहता एक घुम्मकड़: राहुल सांकृत्यायन


अपनी साहसिक यात्राओं एवं उनके रोचक विवरण के लिए प्रसिद्ध राहुल सांकृत्यायन का जन्म आज ही के दिन 9 अप्रैल 1893 को हुआ था। उनका जन्म यद्यपि वर्तमान उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिला अनुस्थित एक सनातनी भूमिहार-ब्राह्मण परिवार में हुआ, परन्तु उन्होंने अपनी जीवन यात्रा के दौरान बहुआयामी रूपों एवं भूमिकाओं को आत्मसात किया।

अपने जीवन के विभिन्न पड़ावों के दौरान वो कभी साधु, कभी आर्यसमाजी, कभी बौद्ध भिक्षु, कभी साधारण बौद्ध उपासक, कभी पंथ निरपेक्ष, कभी घुमक्कड़, कभी प्रगतिशील लेखक, तो कभी समाजवादी मार्क्सवादी विद्वान के तौर पर नजर आए। साथ ही साथ वो एक सक्रिय एवं मुखर राजनैतिक कार्यकर्ता एवं नेता भी थे। अपनी राजनैतिक गतिविधियों, उपनिवेश विरोधी भाषणों, किसान आन्दोलनों में भागीदारी एवं साम्यवादी दल में सहभागिता के कारण राहुल सांकृत्यायन कई बार जेल भी गए। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राहुल सांकृत्यायन का व्यक्तित्व एक ‘घुमक्कड़ राज’ एवं ‘विलक्षण लेखक’ से कहीं अधिक वृहद् एवं बहुआयामी था।

राहुल का देश-काल

वो क्या चीज थी जो राहुल सांकृत्यायन के व्यक्तित्व को इस हद तक विविध एवं विस्तृत बनाती है? यद्यपि राहुल सांकृत्यायन ने सदैव विभिन्न राजनैतिक एवं धार्मिक विचारधाराओं को समझने तथा उनके मध्य परस्पर सामंजस्य स्थापित करने की चेष्टा की, वो कभी भी किसी एक विचारधारा के चिर स्थायी सदस्य बने न रह सके। राहुल सांकृत्यायन के विचार प्रवाह उनसे संबंधित किसी भी राजनैतिक एंव धार्मिक संगठन की सीमा का स्वाभाविक उल्लंघन करते थे। अतएव एक स्तर के बाद राहुल सांकृत्यायन के निजी विचारों को कोई भी संगठन समाहित नहीं कर पाता था। यही वो बिन्दु होता था जब राहुल सांकृत्यायन अपनी दुर्ग्राह्य भावप्रधान बौद्धिक जगत् की तलाश में एक संगठन से दूसरे संगठन, एक स्थान से दूसरे स्थान, एक विचारधारा से दूसरी विचारधारा, एक धर्म से दूसरे धर्म की तरफ सतत् प्रस्थान करते रहते थे। उनका जीवन इन्हीं दुर्गम दुर्ग्राह्य यात्राओं का एक प्रतिबिम्ब है।

राहुल सांकृत्यायन के व्यक्तित्व एवं लेखन को समझने के लिए हमें उनके काल एवं स्थान का संज्ञान लेना भी अत्यावश्यक है। वो उस काल में लिख रहे थे जब एक नया भारत दशकों की गुलामी के बाद अपनी संस्कृति, ज्ञान एवं क्षमता का दृढ़तापूर्वक दावा कर रहा था। राहुल सांकृत्यायन का दुर्ग्राह्य भावप्रधान बौद्धिक जगत् संभवतः नई अंगड़ाई लेते भारत के भविष्यबोध की एक झांकी था जिसकी जड़ भारत के गौरवशाली अतीत में गहरे समायी हुई थी। राहुल जी का राष्ट्रवाद अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान धरोहरों को फिर से गढ़ने एवं उन्हें समसामयिक परिवेश में ढालने की एक अभिव्यक्ति था। दूसरे शब्दों में, निरन्तरता एवं परिवर्तन का एक अद्भुत संगम राहुल सांकृत्यायन की राष्ट्रवादी चेतना में देखा जा सकता है। यह संगम जहां एक तरफ राहुल जी को भारतीय सभ्यता, हिन्दी भाषा, वेश-भूषा एवं पारम्परिक मेल जोल की संस्कृति का हिमायती बनाता है, वहीं दूसरी तरफ विभिन्न सामाजिक कुरीतियों जैसे बाल-विवाह तथा जाति एवं वर्ग आधारित शोषण का पुरजोर विरोधी भी बनाता है।

राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि ‘प्रगतिशीलता कभी अपने को अपनी पूर्वगामी संस्कृति-धारा की विरासत से महरूम नहीं कर सकती। यदि कोई प्रगतिशीलता के नाम पर हमारे पुराने अमर कलाकारों – वाल्मीकि, अश्वघोष, कालीदास, भवभूति, बाण, सरहपा, जायसी, सूर, तुलसी से लेकर प्रेमचन्द और प्रसाद तक – से हाथ धो लेना अपना कर्त्तव्य समझता हो, तो वह प्रगतिशीलता नहीं है।‘ परन्तु साथ ही राहुल जी यह भी कहते हैं कि, ‘हमारे सामने जो मार्ग है उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और बहुत अधिक आगे आने वाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं, लेकिन बीते की ओर लौटना यह प्रगति नहीं, प्रतिगति- पीछे लौटना- होगी।‘ प्रगति और प्रतिगति के मध्य का यही सूक्ष्म अंतर राहुल सांकृत्यायन के दर्शन को एक ऊंचा दर्जा प्रदान करता है।

वैचारिक जीवन यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव

राहुल सांकृत्यायन की वैचारिक जीवन यात्रा में चार महत्वपूर्ण पड़ाव अथवा मोड़ देखे जा सकते हैं जिन्होंने उनके व्यक्तित्व को एक बहुआयामी स्वरूप प्रदान किया। पहला पड़ाव राहुल जी का आर्य समाज से जुड़ाव था जिसने उनकी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा की आधारशिला तैयार की। देशभक्ति एवं राष्ट्रीय कार्य के प्रति राहुल जी की प्रतिबद्धता के प्रारम्भिक भाव आर्य समाज की ही देन थे। राहुल जी के जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण पड़ाव उनका बौद्ध धर्म से सम्पर्क था। बौद्ध धर्म ने राहुल सांकृत्यायन के वैचारिक दायरे को एक भावात्मक सांचे में ढालने का महत्वपूर्ण काम किया जो उनकी लेखनी एवं कर्मों में जीवन पर्यन्त परिलक्षित होता रहा। राहुल जी की जीवन यात्रा का तीसरा अहम पड़ाव गांधीवादी दर्शन का अनुसरण था। गांधीवादी विचारों से अभिभूत होकर राहुल जी 1921 में असहयोग आन्दोलन के दौरान प्रत्यक्ष तौर पर राजनैतिक गतिविधियों में शामिल हो गए। शीघ्र ही राहुल सांकृत्यायन की गिनती बिहार में जारी किसान आन्दोलन के अग्रणी नेताओं में होने लगी। किसान एवं मजदूर वर्ग की समस्याएं एवं उन्हें दूर करने का संघर्ष, राहुल सांकृत्यायन को मार्क्सवाद की तरफ ले गया जो अन्ततः उनकी जीवन यात्रा का चतुर्थ एवं अन्तिम पड़ाव सिद्ध हुआ।

राहुल जी ने मार्क्सवादी विचारधारा को भारतीय परिवेश में ढालने की एक रचनात्मक पहल शुरू की। उन्होंने भारतीय किसान एवं मजदूर वर्ग की समस्याएं तथा उसके निस्तारण के मार्क्सवादी तरीकों को आसान शब्दों में लिपिबद्ध करने का एक सार्थक प्रयास किया। राहुल सांकृत्यायन द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवादी दृष्टिकोण भारत में मार्क्सवादी आन्दोलन के इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय है।

मानवहित की तरफ अग्रसर एक समेकित विचारधारा

राहुल सांकृत्यायन की वैचारिक जीवनयात्रा इस बात की गवाह है कि व्यक्ति विशेष की विचारधारा में होने वाले परिवर्तन मानव समाज की क्रमागत उन्नति के समान ही एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। यहाँ पर जो बात महत्वपूर्ण है वो यह है कि क्या ये विचारधारात्मक परिवर्तन उस व्यक्ति विशेष को एक बेहतर मनुष्य बनाने में मदद कर रहे हैं या महज उसके निजी स्वार्थ एवं महत्वाकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित कर रहे हैं। यहाँ पर राहुल सांकृत्यायन बीसवीं सदी के भारत की उस बुद्धिजीवी परम्परा को प्रतिबिम्बित करते हैं जो दशकों की ‘दिमागी गुलामी’ से आजाद होना चाहता था और इस क्रम में इसकी वैचारिक ग्रहणशीलता एवं सीमाहीनता भूत एवं वर्तमान की सारी विचारधाराओं को पिघला कर मानवहित में एक समेकित विचारधारा में तब्दील कर देना चाह रही थी।


लेखक नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय, दिल्ली में वरिष्ठ शोध सहायक हैं।


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