काशी की सियासी तारीख के अहम किरदार और कम्युनिस्टों के गुरु कामरेड विशु दा


स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और उत्तर प्रदेश ट्रेड यूनियन के जनक जुझारू वामपंथी नेता कामरेड विशेश्वर मुख़र्जी उर्फ विशु दा की आज दसवीं पुण्यतिथि है। वे सिनेमा कर्मचारी यूनियन, तांगा चालक यूनियन, हिण्डालको वर्क्स यूनियन, कोयलरी यूनियन, सीमेंट यूनियन बनाने वाले उत्तर प्रदेश के पहले नेतृत्वकर्ता थे। उनके लंबे संघर्ष के बाद गोदौलिया चौराहे पर तांगा स्टैंड बना। बाद में उसी के ऊपर बिना किसी प्रतिरोध के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का पुस्तकालय और अध्‍ययन केंद्र बना।

विशु दा अपने विद्यार्थी जीवन से ही स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय थे, नतीजतन उन्हे तत्कालीन गोरी सरकार के अन्याय का शिकार होना पड़ा तथा 1938-39 और 1940-42 के दौरान लंबे समय तक जेल की कठोर सजा भुगतनी पड़ी। उन्हें इण्टरमीडिएट की परीक्षा जेल में रहते हुए पैरोल पर देनी पड़ी। जेल में उनके हमसाथी पण्डित कमलापति त्रिपाठी और श्रीप्रकाश जी थे। जेल में ही उन्होंने अंग्रेजी की शिक्षा श्रीप्रकाश जी से ग्रहण की I         

बनारस ही नहीं बल्कि वामपंथी दुनिया में उन्हें वैचारिकी का स्रोत समझा जाता था। एस.ए. डांगे, मोहित सेन, भूपेश गुप्त, इन्द्रजीत गुप्त, बी.डी.जोशी आदि के साथ पार्टी को मजबूत करने तथा जनांदोलनों की दशा और दिशा तय करने में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभायी। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी तो कामरेड विश्वेश्वर मुखर्जी को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। ज्योति बसु भी कॉमरेड विशु दा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे और अपने बनारस प्रवास के समय तीन दिनों तक उनके घर मे ही रहे और वामपंथ को धार देने की तकनीक पर समझ विकसित करते रहे। राही मासूम रज़ा और मूनि‍स रज़ा का आशियाना भी कॉमरेड का ही घर हुआ करता था तथा कैफ़ी आज़मी जब भी शहर में होते विशु दा से मिलना उनकी रूटीन का हिस्सा हुआ करता था।

बनारस में जब भी वामपंथ के विस्तार की बात होगी विशु दा हमें अग्रिम पंक्ति में खड़े नजर आएंगे या यूं कहें कि उत्तर प्रदेश का वामपंथी आंदोलन उनके बिना अधूरा समझा जाएगा। वे वामपंथी उम्मीदवारों के लिए प्राणवायु थे और रूस्तम सैटिन जी के तो मुख्य चुनाव संचालक हुआ करते थे।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान मैं विशु दा के ही मुहल्ले में रहता था और प्रोफेसर दीपक मलिक जी के साथ उनके यहां आना जाना शुरू हुआ जो उनकी मृत्यु तक कायम रहा। वे जमीनी कार्यकर्ता थे और जन सरोकारों की वैज्ञानिक समझ रखते थे। वामपंथ को भारतीय समाज में किस तरह लागू किया जाए उनसे बेहतर समझने वाला मैंने बहुत कम लोगों को पाया। सिद्धांत को व्यवहार में बदलने की कला में उन्हें महारत हासिल थी। अनेक बार मुझे उनके साथ रुस्तम सैटिन जी के घर पैदल-पैदल हमराही बनकर जाने का गौरव हासिल हुआ है जहां मैंने वामपंथी विचारधारा की प्रासंगिकता के बावजूद कमजोर होती वामपंथी पार्टियों के हालात पर गर्मागर्म चर्चा सुनीं जिसमें विशु दा विद्यार्थी नहीं बल्कि मास्टर की भूमिका में होते थे।

कई तत्कालीन जानकार साथी तो यहां तक कहते हैं कि रुस्तम सैटिन जी राजनीतिक निर्णय लेने से पहले विशु दा से सलाह अवश्य करते थे। बनारस में वामपंथ आज हाशिये पर खड़ा है उसका एक कारण शायद ये भी है कि हमने विशु दा के संघर्षों और व्यवहार से सबक सीखना बन्द कर दिया है। उनके साहबजादे अजय मजदूर संगठनों की डोर तो थामे हुए नज़र आते है पर कमजोर कलाई से फिर भी बढ़ते कॉरपोरेट फासीवादी ताकतों के खिलाफ खड़े तो हैं ही।

वामपंथी साथियों, आपके पास अब समय कम है लौटिए रुस्तम-विशेश्वर की ओर वरना इतिहास के पन्नों में सिमट जाइएगा और कल की पीढ़ी बिल्कुल यकीन नहीं करेगी कि बनारस भी कभी वामपंथ का गढ़ रहा है।

ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, उ. प्र. ट्रेड यूनियन के जनक, कामगारों, किसानों व वंचितों के मसीहा कामरेड विशेश्वर मुखर्जी की दसवीं पुण्यतिथि पर लाल सलाम और श्रद्धांजलि!


मो. आरिफ़ इतिहासकार हैं

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