आज होमियोपैथी की जरूरत क्यों है?


10 अप्रैल को विश्व होमियोपैथी दिवस के रूप में मनाया जाता है। अब भारत में होमियोपैथी के 210 साल पूरे हो चुके हैं। इस दो शताब्दी में होमियोपैथी का विकासक्रम इसे जनसेवा की कसौटी पर खरा सिद्ध करता है। इस दौरान होमियोपैथी की वैज्ञानिकता पर उठे सवालों ने भी होमियोपैथी को और ज्यादा प्रासंगिक बनाने में मदद की। दुनिया में जनस्वास्थ्य की बढ़ती चुनौतियों और उससे निपटने में एलोपैथी की विफलता ने भी होमियोपैथी को प्रचलित होने का मौका दिया है। आजादी के 75 वर्षों में भारत में अकूत धन खर्च कर भी केवल एलोपैथी के माध्यम से जनस्वास्थ्य को सुदृढ़ करने का सरकारी संकल्प अधूरा ही है। हाल के तीन दशकों में खासकर उदारीकरण के शुरू होने के बाद विकास की नयी दवा ‘निजीकरण’ ने जहां कुछ लोगों के लिए समृधि के द्वार खोले हैं, वहीं एक बड़ी आबादी को और गरीबी की तरफ धकेल दिया है। विषमता बढ़ी है और आम लोग महंगे इलाज की वजह से कर्ज के जाल में फंस गए हैं। इसी पृष्ठभूमि में सस्ती एवं वैज्ञानिक चिकित्सा विकल्प के रूप में प्रचलित हुई होमियोपैथी ने चिकित्सा पर अपना प्रभाव दिखा कर एलोपैथिक लॉबी की नींद उड़ा रखी है।

होमियोपैथी के विरोधियों का तर्क है कि यह कोई वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति नहीं बल्कि मीठी गोलियां या जादू की झप्पी है। चिकित्सीय भाषा में इसे ‘‘प्लेसिबो” कह कर खारिज किया जा रहा है। दरअसल 2005 में ब्रिटेन की एक चिकित्सा पत्रिका ‘लैन्सेट’ ने एक लेख में होमियोपैथी की वैज्ञानिकता एवं प्रभाविता पर सवाल उठाते हुए इसे ‘‘प्लेसिबो से ज्यादा कुछ भी नहीं” बताया था। यह तर्क दिया गया था कि वैज्ञानिक परीक्षण में होमियोपैथी की प्रभाव क्षमता खरी नहीं उतरती। लैन्सेट के इस टिप्पणी ने होमियोपैथिक चिकित्सकों और वैज्ञानिकों को झकझोर दिया था। यह वह समय था जब होमियोपैथी तेजी से यूरोप में लोकप्रिय चिकित्सा पद्धति बनती जा रही थी। इसी दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन ने होमियोपैथी की महत्ता बताते हुए एक रिपोर्ट प्रकाशित की ‘‘द ट्रेडिशनल मेडिसीन इन एशिया।“इस रिपोर्ट में होमियोपैथी की वैज्ञानिकता एवं उसके सफल प्रभावों का जिक्र था। दुनिया के स्तर पर लोकप्रिय होती इस सस्ती, सुलभ और वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति से एलोपैथिक लॉबी का घबराना स्वाभाविक था। मसलन होमियोपैथी पर आरोपों का प्रहार शुरू हो रहा था। हालांकि इसी लैन्सेट में सन् 1997 में छपे एक लेख में होमियोपैथी की खूब तारीफ की गई थी।

कहते हैं विज्ञान और तकनीक में आपसी प्रतिस्पर्धा की हद बेहद गन्दी और खतरनाक होती है। आधुनिक रोगों में होमियोपैथी की सीमाओं के बावजूद वह अपने सामने किसी दूसरी चिकित्सा पद्धति को विकसित होते नहीं देख सकती। एलोपैथी की इसी खीझ का शिकार होमियोपैथी के समक्ष अनेक लाइलाज व जटिल रोगों की चुनौतियां भी हैं। सन 2007 में अमरीका में हुए नेशनल हेल्थ इन्टरव्यू सर्वे में पाया गया था कि लोग तेजी से होमियोपैथिक चिकित्सा को सुरक्षित चिकित्सा विकल्प के रूप में अपना रहे हैं। उस वर्ष अमरीका में 39 लाख वयस्क तथा 9 लाख बच्चों ने होमियोपैथिक चिकित्सा ली थी।

होमियोपैथी एक ऐसी चिकित्सा विधि है जो शुरू से ही चर्चित रोचक और आशावादी पहलुओं के साथ विकसित हुई है। कहते हैं कि सन् 1810 में इसे जर्मन यात्री और मिशनरी अपने साथ लेकर भारत आए। फिर तो इन छोटी मीठी गोलियों ने भारतीयों को लाभ पहुंचा कर अपना सिक्का जमाना शुरू कर दिया। सन् 1839 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की गम्भीर बीमारी के इलाज के लिए फ्रांस के होमियोपैथिक चिकित्सक डॉ. जान मार्टिन होनिगेवर्गर भारत आए थे। डा. होनिगेवर्गर के उपचार से महाराजा को बहुत लाभ मिला था। बाद में सन् 1849 में जब पंजाब पर सन हेनरी लारेन्स का कब्जा हुआ तब होनिगबर्गर अपने देश लौट गए। सन् 1851 में एक अन्य विदेशी चिकित्सक सर जान हंटर लिट्टर ने कलकत्ता में मुफ्त होमियोपैथिक चिकित्सालय की स्थापना की। सन् 1868 में कलकत्ता से ही पहली भारतीय होमियोपैथिक पत्रिका शुरू हुई तथा 1881 में डा. पी.सी. मजुमदार एवं डा. डी.सी. राय ने कलकत्ता में भारत के प्रथम होमियोपैथिक कालेज की स्थापना की।

आधुनिक चिकित्सा पद्धति के जनक हिपोक्रेट्स ने चौथी शताब्दी में स्वास्थ्य के लिए तर्कवादी और होलिस्टिक यानी समग्र प्रणाली का जिक्र किया था। इनमें होलिस्टिक मत को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। इसके अनुसार स्वास्थ्य एक सकारात्मक स्थिति है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी अब स्वास्थ्य को एक ऐसी ही स्थिति मानने लगा है। शरीर, मन और आत्मा के क्रियाकलापों के सामंजस्य को ही हम स्वास्थ्य कहते हैं। वास्तव में होमियोपैथी ही ऐसी पद्धति है जो सूक्ष्म रूप से व्यक्ति के शरीर की रोग उपचारक क्षमता को प्रेरित कर शरीर को रोग मुक्त करती है। यह साथ ही शरीर की सभी क्रियाओं को भी नियंत्रित करती है। होमियोपैथी में किसी बाहरी तत्व (जीवाणु या विषाणु) के कारण होने वाली शारीरिक क्रिया या प्रतिक्रिया को बीमारी न मान कर उसे बीमारी के कारण पैदा हुई अवस्था माना जाता है। होमियोपैथी में इलाज रोग के नाम पर नहीं होता, बल्कि रोगी की प्रकृति, प्रकृति, उसके सामान्य लक्षण, मानसिक स्थिति आदि का अध्ययन कर उसके लिए होमियोपैथी की एक शक्तिकृत दवा का चयन किया जाता है।

होमियोपैथी के आविष्कार की कहानी भी बड़ी रोचक है। जर्मनी के एक विख्यात एलोपैथिक चिकित्सक डॉ. सैमुएल हैनिमैन ने चिकित्साक्रम में यह महसूस किया कि एलोपैथिक दवा से रोगी को केवल अस्थाई लाभ ही मिलता है। अपने अध्ययन और अनुसंधान के आधार पर उन्होंने दवा को शक्तिकृत कर प्रयोग किया तो उन्हें अवांछित सफलता मिली और उन्होंने सन् 1790 में होमियोपैथी का आविष्कार किया। उन्होंने होमियोपैथी के सिद्धान्त ‘‘सिमिलिया-सिमिलिबस-क्यूरेन्टर” यानि ‘‘सदृश रोग की सदृश चिकित्सा” का प्रतिपादन किया। हालांकि इस सिद्धान्त का उल्लेख हिपोक्रेटस एवं उनके शिष्य पैरासेल्सस ने अपने ग्रन्थों में किया था लेकिन इसे व्यावहारिक रूप में सर्वप्रथम प्रस्तुत करने का श्रेय हैनिमैन को जाता है। उस दौर में एलोपैथिक चिकित्सकों ने होमियोपैथिक सिद्धान्त को अपनाने का बड़ा जोखिम उठाया क्योंकि एलोपैथिक चिकित्सकों का एक बड़ा व शक्तिशाली वर्ग इस क्रान्तिकारी सिद्धान्त का घोर विरोधी था। एक प्रसिद्ध अमरीकी एलोपैथ डॉ. सी. हेरिंग ने होमियोपैथी को बेकार सिद्ध करने के लिए एक शोध प्रबन्ध लिखने की जिम्मेवारी ली थी। वे गम्भीरता से होमियोपैथी का अध्ययन करने लगे। हेरिंग की एक व्यक्तिगत समस्या थी। उनकी एक अंगुली में गैंग्रीन हो गया था। यह अंगुली एक दूषित शव की परीक्षा के पश्चात सड़ चुकी थी। होमियोपैथिक दवा के प्रयोग से उनकी अंगुली कटने से बच गई। वे आश्चर्यचकित थे। इस घटना के बाद उन्होंने होमियोपैथी के खिलाफ अपना शोध प्रबन्ध फाड़ कर फेंक दिया। बाद में वे होमियोपैथी के एक बड़े स्तम्भ सिद्ध हुए। उन्होंने ‘‘रोग मुक्ति का नियम” भी प्रतिपादित किया। डॉ. हेरिंग ने अपनी जान जोखिम में डालकर सांप के घातक विष से होमियोपैथी की एक महत्वपूर्ण दवा ‘‘लैकेसिस” भी तैयार की जो कई गम्भीर रोगों की चिकित्सा में महत्वपूर्ण है।

दुनिया में जनस्वास्थ्य की चुनौतियां बढ़ रही हैं और आधुनिक चिकित्सा पद्धति इन चुनौतियों से निपटने में एक तरह से विफल सिद्ध हो रही है। प्लेग हो या सार्स, मलेरिया हो या टी.बी., दस्त हो या फ्लू, एलेपैथिक दवाओं ने उपचार की बजाय रोगों की जटिलता को ही बढ़ा दिया है। मलेरिया और घातक हो गया है। टी.बी. की दवाएं प्रभावहीन हो गई हैं, फ्लू के वायरस रोग के ही खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके हैं। शरीर में और ज्यादा एन्टीबायोटिक्स को बरदाश्‍त करने की क्षमता नहीं रही। कुपोषण की वजह से आम आदमी जल्दी बीमार हो रहा है। ऐसे में होमियोपैथी एक बेहतर विकल्प हो सकती है। जनस्वास्थ्य के प्रबन्धन में होमियोपैथी की महत्‍तर भूमिका को आज भी नजरअन्दाज किया जा रहा है। याद करना चाहिए कि प्लेग के दौर में होमियोपैथी ने न केवल रोग का उपचार किया था बल्कि प्रतिरोधी दवा के रूप में लाखों लोगों को प्लेग के चंगुल में फंसने से बचाया था। अनेक घातक महामारियों से बचाव के लिए होमियोपैथिक दवाओं की एक पूरी रेंज उपलब्ध है। आवश्यकता है इस पद्धति को मुक्कमल और पर आजमाने की।

होमियोपैथी को केवल चमत्कार मानने वाले लोग यह भूल रहे हैं कि यह एक मुक्कमल उपचार की पद्धति है। आज होमियोपैथी की आलोचना के पीछे एलोपैथी और उसकी विफलता से उत्पन्न आधुनिक चिकित्सकों एवं दवा कम्पनियों की हताशा ही है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में होमियोपैथी तेजी से उभरती और लोगों में फैलती चिकित्सा पद्धति है। भारतीय व्यापार की प्रतिनिधि संस्था एसोचैम का आकलन है कि होमियोपैथी का कारोबार एलोपैथी के 13 प्रतिशत के मुकाबले 25 प्रतिशत की सालाना की दर से विकसित हो रहा है।

इसमें सन्देह नहीं कि होमियोपैथी में भविष्य के स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने की क्षमता है लेकिन संकट की गम्भीरता और रोगों की जटिलता के मद्देनजर यह भी जरूरी है कि होमियोपैथी का गम्भीर वैज्ञानिक अध्ययन हो और इसे बाजार के प्रभाव से बचाकर पीड़ित मानवता की सेवा के चिकित्सा माध्यम के रूप में प्रोत्साहित किया जाए। वैश्वीकरण के दौर में जब स्वास्थ्य और शिक्षा बाजार के हवाले किये जा रहे हैं तब एक सस्ती वैज्ञानिक उपचार प्रणाली का महत्व वैसे ही बढ़ जाता है। हमें यह भी सोचना होगा कि एक तार्किक चिकित्सा प्रणाली को मजबूत और जिम्मेवार बनाने के प्रयासों की बजाय वे कौन लोग हैं जो इसे झाड़ फूंक, प्लेसिबो या सफेद गोली के जुमले में बांधना चाहते हैं? यदि ये एलोपेथी की दवा और व्यापार लॉबी है तो कहना होगा कि उनका स्वार्थ महंगे और बेतुके इलाज के नाम पर लूट कायम करना और भ्रम खड़ा करना है। हमें उनसे सावधान रहना होगा। सतर्क तो आपको भी होना होगा नहीं तो आप उपचार की एक सहज, सरल, सस्ती, हानिरहित और प्रमाणिक चिकित्सा विधि से महरूम रह जाएंगे।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं

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