लालू प्रसाद यादव जब गांधी मैदान स्थित जेपी की प्रतिमा के नीचे 10 मार्च 1990 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर पटना के वेटनरी कॉलेज के सर्वेंट क्वार्टर वाले अपने आवास में लौट कर आए तो घर के बाहर भीड़ लगी थी और उसी भीड़ को निहारते हुए उनकी मां भी खड़ी थी। लालू कार से उतरकर फूल-मालाओं से लदे घर की तरफ बढ़े तो उनकी मां ने उन्हें टोककर भोजपुरी में पूछा, जिसका मतलब कुछ इस तरह थाः ‘’क्या लालू, लोग कह रहा है कि तुम बड़ा आदमी हो गये हो, बिहार के मुख्यमंत्री हो गये हो, यह मुख्यमंत्री क्या होता है?’’ लालू ने अपनी मां को जवाब दियाः ‘’हां माय, हम हथुआ महाराज से भी बड़ा राजा बन गये हैं!’’
यह घटना लालू यादव की कहानी का मात्र एक पड़ाव है। लालू यादव जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, उनकी जिंदगी इसी तरह के पड़ावों से भरी पड़ी है जिसमें काफी उतार-चढ़ाव हैं। यह तो तय है कि वे ऐसी शख्सियत हैं जिसने करोड़ों लोगों की जिंदगी को कई तरह से प्रभावित किया है- सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से। बहुसंख्य अल्पसंख्यकों, पिछड़ों व दलितों में उनकी छवि मसीहा की है तो सवर्णों, थिंक टैंक, मीडिया, इंटेलीजेंसिया में वह आंबेडकर के बाद भारतीय समाज के सबसे बड़े खलनायक हैं। आज उसी लालू यादव की 74वीं वर्षगांठ है।
बिहार के मुख्यमंत्री का पदभार संभालने के बाद उसी शाम आकाशवाणी से प्रसारित अपने पहले संदेश में उन्होंने राज्य की जनता से कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता सबको शिक्षा और सबको रोजगार देना होगा। दूसरी प्राथमिकता राज्य से बड़ी संख्या में हो रहे पलायन को रोकना होगा और तीसरा, अब तक हो रहे भ्रष्टाचार पर रोक लगाकर रुके हुए विकास की गति को फिर से शुरू करना होगा। अगले दिन यानि 11 मार्च, 1990 को पटना से निकलने वाले अखबारों के मुखपृष्ठ देखें तो आपको ऐसा लगेगा कि लालू यादव ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ नहीं ली थी बल्कि लालू का अवतार हुआ था, ऐसा अवतार जिसके पास कोई चमत्कारिक शक्ति हो!
कुछ ही महीने बाद 7 अगस्त, 1990 को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने की घोषणा कर दी। लालू यादव ने उस निर्णय का खुले दिल से स्वागत किया। इसका कारण यह भी था कि उनकी पार्टी जनता दल ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का वादा अपने चुनावी घोषणापत्र में पहले से ही किया था।
वीपी सिंह इसी बात को लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त को दोहराते हैं. मंडल आयोग के फैसले को लागू करने का विरोध पूरे देश में हिंसक पैमाने पर शुरू हो गया। पटना के एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री लालू यादव का मंडल विरोधियों ने जोरदार विरोध किया। इसी सभा में लालू यादव ने पहली बार खुले शब्दों में मंडल विरोधियों को यह कहकर ललकारा कि जो भी व्यक्ति आरक्षण का विरोध करेगा उसको बुलडोजर से कुचल देंगे।
मुख्यमंत्री के रूप में लालू यादव का यह रौद्र रूप पहली बार बिहार की जनता के सामने आया। अगले दो-तीन दिन के भीतर पटना में ही आरक्षण विरोधियों के एक बड़े प्रदर्शन पर पुलिस फायरिंग में बीएन कॉलेज के छात्र शैलेन्द्र शर्मा की मौत हो जाती है। एकाएक लालू यादव की छवि अखबारों और संचार माध्यमों में खलनायक की बनायी जाने लगी। कुल मिलाकर लालू के पास मात्र 4 महीने 27 दिन का वक्त था जब वह बिहार के मुख्यमंत्री थे। इसके बाद सवर्ण नौकरशाही, सवर्ण मीडिया, सवर्ण अकादमिक, सामंतों और समाज के प्रभावशाली वर्गों के लिए इन साढ़े चार महीनों में ही लालू यादव ऐसे दैत्याकार व्यक्ति बन गये जिसे किसी भी कीमत पर पद से हटाने की मुहिम छिड़ गयी।
दूसरी तरफ लालू यादव अपने काम से भी सत्ता पर पकड़ मजबूत कर रहे थे। मंडल की काट के लिए लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा पर निकल पड़े। पटना के गांधी मैदान में लालू यादव ने बतौर मुख्यमंत्री एक सर्वदलीय रैली को संबोधित किया। लालू यादव के उस ऐतिहासिक भाषण में वह आडवाणी से रथयात्रा खत्म कर देने की प्रार्थना करते हैं और अगले ही वाक्य में चेतावनी भी देते हैं, “चाहे उनकी सरकार रहे या चली जाए, हम अपने राज्य में दंगा-फसाद नहीं फैलाने देंगे। जहां बावेला खड़ा करने की कोशिश हुई, उससे सख्ती से निपटा जाएगा। जितनी एक प्रधानमंत्री की जान की कीमत है, उतनी ही एक आम इंसान की जान की क़ीमत है.”
आडवाणी अपने पॉलिटिकल एजेंडा पर निकले थे, रथयात्रा रोकने का तो कोई सवाल ही नहीं था। परिणामस्वरूप लालू यादव ने आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार करवा दिया।
आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद लालू ने जिस सक्रियता से कानून-व्यवस्था को अपने नियंत्रण में लिया उससे आम लोगों में उनकी छवि एक कुशल प्रशासक की बनी। गांधी मैदान की बुकिंग के लिए कलेक्टर के कार्यालय में जाकर आप पुरानी फाइल को पलटें या फिर 1996 तक के पटना से निकलने वाले अखबारों के पृष्ठ पलटें तो आपको पता चलेगा कि पटना के गांधी मैदान में कितनी छोटी-छोटी जातियों की रैली हो रही थी जिसमें मुख्य अतिथि लालू यादव थे। इन रैलियों में उस जाति के नेता लोग मुख्यमंत्री लालू यादव से तरह-तरह की डिमांड करते थे और लालू उसे निबटाने का आश्वासन देते हैं।
लालू अपने पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ हर जगह भाषण में यह बात बोलते थे: ‘’अगर मैं घूस खाऊंगा तो मैं गाय का शोणित पीऊंगा.’’ जनता लालू के भ्रष्टाचार विरोध के नारे को बिल्कुल उसी रूप में ले भी रही थी। मीडिया में यह कहकर प्रचारित किया गया कि लालू कहते हैं, ‘’भूरा बाल साफ करो’’ (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला को खत्म करो), हालांकि लालू यादव ने इस बात का लगातार खंडन किया लेकिन दमित बिहारी समाज में इसका संदेश यह गया कि लालू एकमात्र नेता है जिसमें उस समुदाय को औकात में रखने की क्षमता है। यह भी एक कारण था कि राज्य के सबसे ताकतवर तबकों के असहयोग के बावजूद उनकी पकड़ सत्ता पर मजबूत होती गयी।
कई बार ऐसी चूक भी हो रही होती है जो सचेतन तौर पर भले उनके मन में नहीं रहा हो, अवचेतन में वो सारी चीजें कर रहे थे। 1991 और 1996 के लोकसभा चुनाव और 1995 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिली सफलता ने उनको अपने हितैषियों से दूर कर दिया। उसी बीच लालू के दोनों सालों ने मिलकर एक निरकुंश सत्ता की धुरी निर्मित कर ली। इसमें लालू की पत्नी राबड़ी देवी की सहमति थी।
लालू से अनायास कुपित मीडिया ने उस समानांतर सत्ता को ‘जंगलराज’ का नाम दिया। लालू भी कुछ-कुछ निरकुंश या राजा सा व्यवहार करने लगे, बावजूद इसके एकछत्र सवर्ण नौकरशाही, अकादमिक और मीडिया को लालू यादव ने जितनी बड़ी चुनौती दी वह भारतीय लोकतंत्र में विरल उदाहरण है। इसी से जुड़ी लालू की चूक यह भी रही कि उन्होंने इन ताकतों को चुनौती तो दे दी लेकिन उसके समानांतर कोई संस्था नहीं खड़ा कर पाए।
थोड़ा-बहुत अगर उनका कंट्रोल था तो वह सिर्फ नौकरशाही थी, जिसमें दलितों और पिछड़ों का उनको सहयोग था। नौकरशाही से जुड़ी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि तब तक मंडल की राजनीति तो चल निकली थी लेकिन मंडल से नियुक्त नौकरशाह विभाग में आ नहीं पाए थे और अगर आए भी थे तो उनकी संख्या सीमित थी।
ऐसा भी नहीं है कि लालू यादव ने सब कुछ अच्छा ही किया। राजसत्ता चलाने में उनसे भी कई गलतियां हुईं, लेकिन उनकी सबसे बड़ी परेशानी यह भी रही कि समय से बहुत आगे उन्हें सोचने का अवसर नहीं मिला। मुख्यमंत्री बनने के बाद का दूसरा कार्यकाल आते-आते चारा घोटाला के मामले सामने आने लगे। अगले कार्यकाल में जब वे सामाजिक न्याय के एजेंडे को बेहतर ढ़ंग से लागू करते तब उनकी पूरी ऊर्जा किसी तरह चारा घोटाला से बचने में लग गयी।
हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि जब लालू यादव अपने शबाब पर थे तो नौकरशाही को भले ही उन्होंने नियंत्रित कर लिया था (वैसे अधिकांश सवर्ण नौकरशाह खिलाफ थे और कई सवर्ण नौकरशाहों ने बिहार के बंटवारे के समय झारखंड जाना मुनासिब समझा) लेकिन मीडिया, न्यायपालिका और बुद्धिजीवी पूरी तरह लालू के खिलाफ थे जो मोदी से लेकर योगी और नीतीश की सरकार में पूरी तरह नियंत्रण में हैं। मीडिया, न्यायपालिका और बुद्धिजीवियों ने लालू के खिलाफ अभियान ही छेड़ रखा था। आज बिहार या देश के आंकड़ों पर नजर डालें तो लालू-राबड़ी के दौर के बिहार से ये कई गुना भयावह हैं! फिर भी जंगलराज की उपाधि मीडिया ने सिर्फ लालू-राबड़ी के शासनकाल को दी!
सवाल है कि लालू यादव को वर्तमान समय में कैसे देखें। इस पर एक कहानी हमारे किशोरवय की है जब हम हाईस्कूल में पढ़ते थे। हमारे एक शिक्षक थे। थे तो वह गणित के विद्वान लेकिन सामाजिक दृष्टि बहुत साफ थी। उनका कहना था, “क्या तुम लोगों को पता है कि मजनूं लैला से बेहद मुहब्बत करता था जबकि लैला बहुत खूबसूरत नहीं थी, और तो और उसके चेहरे पर चेचक का दाग भी था! अब तुम्हारा सवाल हो सकता है कि फिर मजनूं लैला को इतनी मोहब्बत क्यों करता था? क्योंकि लैला से इतनी बेपनाह मोहब्बत करने के लिए मजनूं जैसी आंखों की जरूरत है!”
लालू यादव को वही ठीक से समझ सकता है जिसकी आंखों में भारतीय संविधान, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की आस है! पिछले तीस वर्षों के भारतीय राजनीतिक अतीत पर गौर करें तो हम पाते हैं कि मुख्यधारा में लालू यादव के अलावा कौन ऐसा राजनेता है जिसका धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और भारतीय संविधान के प्रति इतना अटूट विश्वास है! लेकिन आज भी उन्हें सवर्ण भारतीय मीडिया, बुद्धिजीवी और थिंक टैंक सबसे घृणित राजनेता ही नहीं बल्कि व्यक्ति के रूप में चिन्हित व परिभाषित करते हैं! मोहब्बत करने वालों के लिए लालू को देखने का नजरिया विकसित करना होगा अन्यथा वे भी सवर्ण जातिवादियों की तरह उनसे घृणा करते रहेंगे!
जितेन्द्र कुमार जनपथ के स्तम्भकार हैं और लालू यादव की जीवनी पर काम कर रहे हैं