देश भर में 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। हर भारतीय नागरिक के लिए 26 नवंबर संविधान दिवस बेहद गर्व का दिन है। संविधान दिवस मनाने या संविधान पर बात करने का उत्साह हाशिये के समाज में अधिक दिखाई देता है। इसका कारण यही है कि संविधान की छाया में आने के बाद उन्हें आत्मसम्मान व मनुष्यता का एहसास होता है। यह एहसास उनकी अस्मिता के लिए आवश्यक है। संविधान को हाशिये के समाज का मैग्नाकार्टा कहा जा सकता है। संविधान उनके मनुष्य होने की वकालत करता है।
कोई भी देश बिना संविधान के नहीं चल सकता। यह संविधान ही है जो अलग-अलग धर्मों व जातियों की भारत की 140 करोड़ की आबादी को एक देश की तरह जोड़ता है। संविधान में ही देश के सिद्धांत और उसको चलाने के तौर-तरीके होते हैं। वास्तव में भारतीय समाज जातियों व धर्मों में बंटा हुआ समाज है। यह विभाजन उन्हें सामाजिक, सांस्कृतिक आर्थिक तौर पर भेदभाव व हीनताबोध को भी जन्म देता है। सदियों से समाज का एक वर्ग सामाजिक-सांस्कृतिक व आर्थिक तौर पर हाशिये पर रहा है। देश में संविधान का कानून लागू होने के बाद उनकी स्थिति में काफी सुधार दिखाई देता है, हालांकि आंकड़े कुछ उलट ही दिखाई पड़ते हैं।
देश में पारंपरिक शिक्षा प्रणाली के स्थान पर लोकतान्त्रिक शिक्षा व्यवस्था का संचार हुआ। पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था के स्थान पर लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करने वाले विचारकों में ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु एवं डॉ. भीमराव अम्बेडकर का नाम अग्रणी है। महात्मा फुले ने हंटर कमीशन को भेजे ज्ञापन में शिक्षा के जिन लोकतान्त्रिक मूल्यों की तरफ ध्यान आकृष्ट किया था, डॉ. अम्बेडकर इसी विरासत को आगे बढ़ाने वाले उल्लेखनीय विचारक हैं। अपने लेखन से राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने शिक्षा विषयक विचार स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किये जो उनके भाषणों, लेखों, पुस्तकों में परिलक्षित होते हैं।
शिक्षा के माध्यम से समाज में विद्यमान सामंती सोच को बदला जा सकता है। दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं को देखकर लगता है कि शिक्षा सबसे पहले उन लोगों तक पहुंचानी चाहिए जो सामंती समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं या वहां से आते हैं। यह भी सत्य है कि शिक्षा सबको मुक्त करती है। इसलिए शिक्षा सिर्फ शोषित को ही मुक्त नहीं करती है बल्कि वह शोषकों को भी मुक्त करती है। भले ही सीमित दायरे में, लेकिन सोच तो बदल सकती है। मुक्ति का अर्थ यहां सामंती सोच से है।
भारतीय संविधान सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार के रूप में समानता का अधिकार देता है। आर्टिकल 14 स्पष्ट कहता है कि कोई भी व्यक्ति विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं रहेगा। भारतीय संविधान में शैक्षिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग के पक्ष में कानून बनाने और आरक्षण देने से संबंधित प्रावधान है। इसके तहत न केवल शैक्षिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग बल्कि महिलाओं और बच्चों के पक्ष में भी कानून बनाने का प्रावधान है। आर्टिकल 15 और 16 में शैक्षिक और सामाजिक रूप से कमजोर नागरिकों के उत्थान के लिए जरूरी प्रावधान हैं, जिसके तहत इस वर्ग को शिक्षा, नौकरियों और प्रमोशन में विशेष दर्जा मिलता है। उद्देश्य यही है कि इस वर्ग के पिछड़ेपन को दूर कर सामाजिक समानता दिलाकर बाकी वर्गों के बराबर दर्जा दिया जा सके।
आर्टिकल 15 कहता है कि राज्य अपने किसी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग, नस्ल और जन्मस्थान या इनमें से किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। दरअसल, बहुत सारे अधिकार संविधान सभा की बहसों से निकले थे। जब भारतीय संविधान बना तो उसमें उन अधिकारों को लिख दिया गया। बहुत सारे अधिकार बाद में उन्होंने अपने संघर्षों-आंदोलनों से हासिल किए, हालांकि दलितों का बहुत सारा समय और संघर्ष इसी में चला गया कि राज्य ने उन अधिकारों को ठीक से लागू नहीं किया या ठीक से कार्रवाई नहीं की। यही कारण है कि हाशिये का समुदाय दिन-प्रतिदिन संविधान की सुरक्षा व उनमें दिये गए कानूनों के लिए संघर्षरत दिखाई देता है।
भारतीय संविधान विश्व का सबसे अधिक व्यापक और विशाल संविधान है क्योंकि इसमें विभिन्न प्रशासनिक विवरणों को शामिल किया गया है। डॉ. अंबेडकर ने इसका बचाव करते हुए कहा था कि हमने पारंपरिक समाज में एक लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना बनाई है। यदि सभी विवरण शामिल नहीं होंगे तो भविष्य में नेता तकनीकी रूप से संविधान का दुरुपयोग कर सकते हैं। इसलिए ऐसे सुरक्षा उपाय आवश्यक हैं। इससे पता चलता है कि वह जानते थे कि संविधान लागू होने के बाद भारत को किन व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
वास्तव में हाशिये के समाज के लिए ज्ञान मुक्ति का एक मार्ग है। हाशिये का समाज जिसे सामाजिक व्यवस्था में अछूत कहा गया है उनके पतन का एक कारण यह भी था कि उन्हें शिक्षा के लाभों से वंचित रखा गया था। डॉ. अंबेडकर ने हाशिये के समाज की शिक्षा के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करने के लिए अंग्रेज़ों की आलोचना की। उन्होंने छात्रों के बीच स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को स्थापित करने के लिए धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर दिया।
संविधान सभी वर्ग को समान अवसर प्रदान करता है। इसलिए आवश्यक है कि अछूत लोग ग्रामीण समुदाय और पारंपरिक नौकरियों के बंधन से मुक्त हों। अछूत लोग नए कौशल प्राप्त करें और एक नया व्यवसाय शुरू करें तथा औद्योगीकरण का लाभ उठाने के लिए शहरों की ओर रुख करें। आज आवश्यकता है कि अछूत खुद को राजनीतिक रूप से संगठित करें। राजनीतिक शक्ति के साथ हाशिये के समाज के लोग अपनी रक्षा, सुरक्षा और मुक्ति संबंधी नीतियों को पेश करने में सक्षम होंगे।
आज सबसे कमजोर, सताए हुए लोगों, महिलाओं, घुमंतुओं, आदिवासियों और दलितों को संसद, कानून और संविधान की सबसे ज्यादा जरूरत है। पढ़े-लिखे लोगों का पहला दायित्व है कि वे अपने इर्द-गिर्द के वातावरण को संविधान के अनुरूप बनाएं। जो लोग पाठशाला से बाहर हैं या बाहर कर दिए गए हैं, उन्हें भी संविधान को बताएं, उन्हें आत्मिक और राजनीतिक रूप से मजबूत बनने में मदद करें और संविधानवाद को मजबूती प्रदान करे। दलितों ने जो अब तक पढ़ाई-लिखाई की है, उमको यह प्रेरणा डॉ. बीआर आंबेडकर से मिलती है क्योंकि उनका सबसे अधिक जोर किसी पर था तो वह शिक्षा, संगठन और संघर्ष थे। आज के समय में हाशिये के समाज का ज्यादा जोर शिक्षा पर रहता है और होना भी चाहिए।
आज के समय में हाशिये के समाज में तमाम सामाजिक विद्रूपताएं व समस्याएं दिखाई देती हैं। इसका कारण यह भी है कि संविधान द्वारा मिला हुआ कानूनी प्रावधान इन्हें उचित तरीके से नहीं मिल सका है जिसके वह वास्तव में हकदार थे।
(लेखक गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन करते हैं। जनसंदेश टाइम्स, सुबह सबेरे, जनवाणी, युवा शक्ति, अचूक संघर्ष समेत कई अखबारों में लगातार लेखन कार्य। इसके साथ ऑनलाइन पोर्टल यूथ की आवाज, जनपथ, दलित दस्तक आदि पर भी विभिन्न लेख प्रकाशित। इसके साथ ‘द पर्सपेक्टिव अंतर्राष्ट्रीय जर्नल’ तथा हिन्दी विभाग, गुरु घासीदास (केंद्रीय) विश्वविद्यालय, बिलासपुर की संस्थागत त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका ‘स्वनिम’ के सह-संपादक का निर्वहन।
ईमेल: anishaditya52@gmail.com)