हरे राम मिश्र
अभी हाल ही में यह पता चला है कि हाशिमपुरा जनसंहार में इंसाफ की मांग कर रहे कवियों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं समेत ’रिहाई मंच’ के नेताओं पर दंगा भड़काने जैसी गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया है। मुकदमे में आरोपित लोग हाशिमपुरा जनसंहार में विवेचना अधिकारी द्वारा लचर और पक्षपात पूर्ण विवेचना करने और सरकार द्वारा बेगुनाह नागरिकों के हत्यारे पुलिस वालों को आपराधिक तरीके से बचाने के खिलाफ अपना लोकतांत्रिक विरोध विरोध व्यक्त करते हुए पूरे मामले की उच्चतम न्यायालय की देख-रेख में पुनः न्यायिक जांच की मांग कर रहे थे।
गौरतलब है कि छब्बीस अप्रैल को लखनऊ में रिहाई मंच द्वारा हाशिमपुरा के इंसाफ के सवाल पर आयोजित सम्मेलन में प्रख्यात मानवाधिकारवादी नेता गौतम नवलखा, वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया और सलीम अख्तर सिद्दीकी समेत कई अन्य नामी शख्सियतों ने शिरकत की थी। अगले ही दिन सत्ताईस अप्रैल को इस सम्मेलन के आयोजकों के खिलाफ लखनऊ के अमीनाबाद थाने में एक मुकदमा दर्ज किया गया। जिन लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गयी उनमें कवि और पत्रकार अजय सिंह, पत्रकार कौशल किशोर, सत्यम वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार रामकृष्ण, लखनऊ विश्वविद्यालय से संबद्ध प्रोफेसर रमेश दीक्षित और धर्मेंद्र कुमार समेत रिहाई मंच के प्रमुख नेता मोहम्मद शुऐब, राजीव यादव, शाहनवाज आलम समेत कुल सोलह व्यक्ति शामिल हैं। इन लोगों पर पुलिस की अनुमति के बगैर कार्यक्रम करने, शांति व्यवस्था भंग करने और दंगा भड़काने के प्रयास जैसे आरोप लगाए गए है।
यहां यह स्मरण रखना चाहिए कि मुल्क की संवैधानिक व्यवस्था में इस बात का बाकायदा जिक्र है कि वह अपने नागरिकों को एक निश्चित दायरे में अपनी बात कहने और सरकार का विरोध करने की आजादी देती है। जिन आरोपों में रिहाई मंच और उपरोक्त अन्य पर यह मुकदमा दर्ज किया गया है उसका तो कहीं से कोई तुक ही नहीं बनता था क्योंकि विरोध प्रदर्शन के दौरान किसी किस्म की कोई हिंसा भी नहीं हुई थी। फिर आखिर क्या वजह है कि राज्य सरकार की ओर से इस तरह का मुकदमा दर्ज किया गया?
दरअसल उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रही है और अपने को सेक्यूलर राजनीति से भी जोड़ती रही है। लिहाजा सबसे पहला सवाल उसी से हुआ कि आखिर उसने हाशिमपुरा के पीड़ित मुसलमानों के इंसाफ के सवाल पर क्या किया? चूंकि हाशिमपुरा का सवाल आगामी चुनाव में मुस्लिम वोटों को सपा से दूर बिदका सकता था। ऐसे दौर में जब समाजवादी पार्टी पर ’हिन्दुत्व’ की राजनीति को आगे बढ़ाने के ठोस और खुले आरोप लग रहे थे, तब समाजवादी पार्टी के पास हाशिमपुरा मामले में अपने बचाव का कोई ठोस जवाब नहीं था। जवाब हो भी नहीं सकता था क्योंकि उसके और अन्य दलों में विचारधारा को लेकर कोई अंतर नहीं है। इसलिए इंसाफ के इस सवाल को राजनीति का मुद्दा बनने से रोकने ,दबाने और प्रदेश की लोकतांत्रिक ताकतों को धमकाने के लिए समाजवादी सरकार ने ऐसा मुकदमा दर्ज कर लिया।
लेकिन, बात यहीं खत्म नहीं होती। इस मुकदमें के कई अन्य पहलू भी हैं जिन पर बहस के लिए हमें मौजूदा दौर के व्यवस्थागत संकटों पर भी गौर करना पड़ेगा। दरअसल जिस समाज में आज हम रह रहे हैं उसके पालिटिकल ’ट्रेंड’ में इंसाफ और उसकी मांग की कोई जगह नहीं बची है। कोई भी दल ’व्यवस्थागत’ अन्याय पर कोई बात नहीं करना चाहता क्योंकि भारतीय राज्य सत्ता अपने नागरिकों को इंसाफ देने में बुरी तरह असफल रही है। हाशिमपुरा भारतीय राज्य सत्ता का अपने निहत्थे नागरिकों का सबसे बड़ा सामूहिक कत्लेआम था जिसके इंसाफ के सवाल को राजनीति और सत्ता द्वारा लगातार दफन करने की कोशिशें आज भी जारी हैं।
यहां सवाल यह भी है कि भारतीय राज्य सत्ता और राजनीति अपने फासिस्ट चरित्र को नागरिकों के सामने उकेर क्यों रही है? दरअसल इसके पीछे बाजार के संकट से उपजे हालात को समझना जरूरी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आधुनिक बाजार की निरंकुशता ने आम आदमी के जीवन संघर्ष को और नीचे धकेला है। यही वजह है कि अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही आम जनता और पूंजी के पैरोकार राज्य के बीच सीधे टकराव बढ़े हैं। चूंकि समूची राजनीति और राज्य सत्ता की वफादारी पूंजी और पूंजीपतियों के प्रति है लिहाजा इस घोर आर्थिक संकट के दौर में बाजार की यह मांग है कि उसकी निरंकुशता के खिलाफ कोई आवाज न उठे। किसी किस्म का कोई जन आंदोलन न खड़ा होने पाए। बाजार को सुधारवादी और आनुषंगिक संघर्षों की आवाजें भी बहुत डरा रही है क्योंकि पूंजीवाद अपने अस्तित्व संकट से जूझ रहा है और संकट के इस दौर में सुधारवादी आंदोलनों की मरी हुई चिंगारी भी दावानल बन सकती हैं।
वास्तव में ज्यों-ज्यों बाजार का संकट बढ़ रहा है राज्य मशीनरी और राजनीति दोनों ही अपने को तेजी से एक फाॅसिस्ट ’ट्रेंड’ में बदलने को बेताब दिख रहे हैं। वे अपने खिलाफ किसी आवाज को सुनने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं। आने वाला दौर अभी और बुरा होगा। राज्य अपने नागरिकों को शांतिपूर्वक अपनी बात कहने और लोकतांत्रिक विरोध के उसके मूल अधिकार को भी स्वीकार करने को अब तैयार नहीं है। राजनीति में आया यह ’टेंªड’ नया नहीं है। इस ट्रेंड की राजनीति तमाम प्रचलित धारणाओं के उलट विरोध और प्रतिरोध की संस्कृति, जो कि लोकतंत्र का आधारभूत तत्व है, को खत्म करने की कोशिश में है। यह फासिस्ट ’टेंªड’ है जो इस मानसिकता को पुष्ट करता है कि राज्य को यह हक है कि वह अपने नागरिकों के ऊपर किए गए हर अत्याचार को अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक समझे। आजकल राजनीति में इसे औचित्यपूर्ण सिद्ध करने की लहर चल पड़ी है। यह हमें अरबी मुल्कों के अधिनायक वाद के करीब खड़ा करती है जहां आप सवाल सवाल तक नहीं उठा सकते। क्योंकि राज्य और राजनीति की वफादारी वैश्विक पूंजीवाद की सुरक्षा के इर्द-गिर्द घूमती है।
कुल मिलाकर समाजवादी पार्टी सरकार ने यह साबित किया है कि उसकी राजनैतिक प्रतिबद्धता अपने नागरिकों के सवालों को सुनने और उसे हल करके ’इंसाफ’ देने में कतई नहीं है। वह भी एक डिक्टेटर स्टेट की समर्थक है, ठीक संघ की तरह जो गैर हिंदुओं को नागरिक मानने को ही तैयार नहीं है। दर्ज हुए इस मुकदमे ने यह भी साबित किया है कि इंसाफ के सवालों को राजनैतिक बहस के दायरे में ही रखना चाहिए ताकि वे चुनावी मुद्दा बन सकें। रिहाई मंच ने इंसाफ पसंद कवियों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को साथ लेकर यही करने की कोशिश की थी।
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