दिन के एक बजे पहुंचा था जब मैं यहां
तब बज रही थीं चूडि़यां
रो रहे थे बच्चे
चल रहा था टीवी
और सो रहे थे साहब…
बारह घंटे बीत चुके
कुछ भी नहीं बदला इस दरम्यान
खामोशी इतनी भी नहीं है
होनी चाहिए जो रात के एक बजे
गिलास के गिरने के बीच अचानक चीखता है एक बच्चा
और दोनों को थामने की कोशिश में
एक साथ
बज उठती हैं उसकी चूडि़यां फिर से
कुछ भी नहीं बदला इस दरम्यान
खामोशी इतनी भी नहीं है
होनी चाहिए जो रात के एक बजे
गिलास के गिरने के बीच अचानक चीखता है एक बच्चा
और दोनों को थामने की कोशिश में
एक साथ
बज उठती हैं उसकी चूडि़यां फिर से
शायद ऐसा ही रोज़ होता होगा यहां
और हम गढ़ लेते हैं मुहावरे बैठे-बैठाए
कि बस
दिन के उजाले में जल चुका है आसमान
कह देते हैं
सुबह होने को है।
और हम गढ़ लेते हैं मुहावरे बैठे-बैठाए
कि बस
दिन के उजाले में जल चुका है आसमान
कह देते हैं
सुबह होने को है।
ये मेरे परिवार का एक विस्तार है
मेरे ही घर की औरत
मेरे ही घर के बच्चे
और साहब भी मेरे ही रिश्तेदार।
मेरे ही घर की औरत
मेरे ही घर के बच्चे
और साहब भी मेरे ही रिश्तेदार।
कैसे कहूंगा अगली बार
कि असल सवाल दुनिया को समझने का नहीं
बदलने का है…?
कि असल सवाल दुनिया को समझने का नहीं
बदलने का है…?
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