देवी प्रसाद मिश्र |
देवी प्रसाद मिश्र हिंदी के अपने किस्म के एक कवि हैं जो आम तौर से हिंदी जगत की हलचलों और आयोजनों में कम दिखते/पाए जाते हैं। पिछली बार देवी जी का लिखा मैंने जो पूरा और सुरुचिपूर्वक पढ़ा था, और शायद कई और लोगों में भी वह कम ही चर्चा का विषय रहा, वह ‘तद्भव’ में छपी उनकी कहानी थी ‘पिता के मामा के यहां’। उस अद्भुत कहानी के बाद उनकी यह लंबी कविता एक बार फिर इसी पत्रिका में छपी है। निजामुद्दीन के बहाने अपने देश-काल के बारे में लिखी शायद यह दुर्लभ कविता होगी, जिसके मायने व्यापक हैं। इसका पोस्टमॉर्टम तो बाद में आलोचक करेंगे ही, लेकिन पहले इस कविता को पूरा पढ़ जाना ज़रूरी लगता है- मॉडरेटर
पतली सी गली में गाय और उसकी बगल से एक औरत एक दूसरे
को लगभग छूते हुए गुजर जा रहे हैं और दोनों ही के पेट में बच्चा
है और दोनों ही थके हुए हैं और दोनों में से किसी को घर पहुंचने
की जल्दी नहीं है और इन दोनों के बीच से एक आदमी निकल
रहा है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह पुलिस का आदमी है
और लोगों पर निगाह रखने का काम करता है और इन तीनों के
बगल से पतंगों को लेकर तेजी के साथ एक लड़का निकला और
फिर बुर्के में एक औरत सामने से आती हुई दिखी जिसके पास
ये सहूलियत तो है ही कि वह जिस तरह से चाहे रो ले या कितने
भी वाहियात तरीके से हंस ले। गली में बहादुर शाह जफर को
गिरफ्तार किये जाने की खबर नयी जैसी ही है और उतनी ही नयी
है बम धमाके के मामले में एक आदमी की गिरफ्तारी की खबर।
कोने के रेस्तरां में एक आदमी एक मेज पर कोहनी रख कर बैठा
है जिसका आमलेट उसके सामने पड़ा है। ठंडा और खत्म। इसका
पता हो सकता है कम को हो कि एक सुरंग खोदी गयी है जिससे
होकर लोग गुजरात से निजामुद्दीन आया जाया करते हैं। यह सुरंग
अंदर ही अंदर खोने और होने की तरह रही है। कई अफवाहें रही
हैं निजामुद्दीन के बारे में।
(2)
गली से निकला तो एक
पेड़ मिल गया और गिन कर
बता सकूं तो इक्कीस चिडि़यां
थोड़ा और बढ़ा
तो पता लगा सत्रह बच्चे मिले
और एक पेड़ के बाद इक्कीस और पेड़
यह उस रास्ते का हाल है जिसे मैं हिन्दी साहित्य की तरह बियाबान
वगैरह कहता रहा था
फिर जो लड़की मिली वह तो
तीसरी या चैथी परम्परा सरीखी थी। दुबली सी।
पता ये लगा कि वह जीनत थी
जो मेरठ युनिवर्सिटी से बीए करने के बाद
इंदिरा गांधी ओपन युनिवर्सिटी से
अंग्रेजीजी में एमए करना चाहती थी
मतलब कि जिस लड़की ने कभी
1857 में अंग्रेजों को बाहर करने की मुहिम चलायी थी
वही
(3)
रहीम के मकबरे में टहलते हुए ये लगता है कि रहीम अब मिले कि तब। वो नहीं मिलते हैं और एक कवि के दूसरे कवि से मिलने का हादसा फिलहाल तो टल जाता है। मकबरे में घूमते हुए कबूतरों के फड़फड़ाने की आवाजें गूंज रही हैं और इस तरह की आवाजें कि भइये पानी रखना! मकबरे में मैं घूम रहा हूं। वहां कोई आने वाला है कि मैं किसी के चले जाने की गूंज में टहल रहा हूं। कि जैसे हिन्दी के बियाबान में अपनी ही कब्र के चारों तरफ। एक फोन आ रहा है – हो सकता है इस बात का कि जो कयामत हिन्दी कविता को तबाह कर देगी वह आ रही है और सराय काले खां तक वह पहुंच भी गयी है।
(4)
हेलो… ठीक है… हम दोनों निजामुद्दीन में गालिब की कब्र के पास की चाय की दुकान में चले चलेंगे। वहां आसपास शोर तो बहुत होता है और बच्चे ऐसा कोहराम मचा रहे होते हैं कि पूछिये मत – लगता है कि मरदूदों को खुश होने से कोई नहीं रोक सकता। भूख तक नहीं। लेकिन अब और कहां मिला भी जाय – शहर में एक ढंग की जगह मिलेगी भी तो उससे पचास गज की दूरी पर एक औरत के उलटी करने की गोंगों सुनाई न पड़ जायेगी इसकी क्या गारंटी।
अब आप से क्या छिपाना
मार्क्सवाद से मैं भी निजात पा लेना चाहता हूं
बस, आप मिलिए और
शिनाख्त के लिए बता दूं कि चाय की दुकान में
मैं लाल रंग की पतंग लेकर मिलूंगा जो
इस रंग से मेरा आखिरी नाता होगा
उसके बाद मैं उसे उड़ा दूंगा। हमेशा के लिए।
जाहिर है आसमान में।
लेकिन आपको मैं पहले ही आगाह किये देता हूं
कि आपको मुझे ढंग से समझाना होगा
केवल एक वक्त का दाल चावल खाकर
मैं आपका होने से रहा
(5)
इंतजार में बैठे बैठे बहुत तेज जमुहाई आयी मन में
क्यों कोहराम मचा है दिन का कचरा रात गंवायी कहां
बहुरिया गुम है बालम बल्लम दिखता नोंक दिखायी
जिन्दा रह कर क्या कर पाए मरने पर क्यों तोप चलायी
कौन इलाका बदले अपना कव्वाली में कजरी गायी पूंजी
इतना गूंजी है कि जो भी थी आवाज गंवायी आओ
खुसरो इस झोपड़ में जो चूता है सेज सजायी गालिब
यहीं कहीं होते हैं लोग नहीं तो बकरी आयी
(6)
अब इसका क्या किया जाय कि शायरों की कब्रों पर बकरियां काफी घूमा करती हैं फिर वो नजीर की कब्र हो या एक वक्त में गालिब की ही। असद जैदी ने अपने शरारती अंदाज में जब यह ठहाके लगाते हुए कहा तो मैंने उनसे ये नहीं कहा कि इस बात को हिन्दी कविता के तौर पर कह देने में तो कोई हर्ज नहीं। यों भी मैं यह थोड़े ही कह रहा था कि हिन्दी कविता में बाजाबिता नजीर अकबराबादी को शामिल किया जाय गोकि इस मांग पत्र की कोई न कोई कार्बन कॉपी मेरे पास होती जरूर है और वह मेरे मरने के बाद मेरी किसी जेब में मिलेगी फिर आप मुझे गाड़ें, जलाएं या फिर चीलों के हवाले कर दें। मतलब कि आप गाडेंगे तो वहां बकरियां आया करेंगीं, जलायेंगे तो मुझे गंगा के नाले के हवाले होना पड़ेगा। लेकिन आप तक यह बात किस अफवाह की तरह पहुंची कि चील माने हिन्दी के कई आलोचक जो सबसे ज्यादा सत्ता के शव पर मंडराते हैं। लब्बो-लुआब ये कि मैं चीलों से तो बच जाऊंगा।
मैं कमहैसियत।
(7)
पता नहीं यह किस्सा गालिब ने कभी सुनाया भी या कि कभी नहीं सुनाया कि एक आदमी सत्ता का गुलाम हो जाया करता था और उसको इसका नुकसान यह हुआ कि उसका फायदा कम होता ही नहीं था।
(8)
गालिब ने और क्या कहा था या क्या नहीं कहा था ये सोचते न सोचते मैं जा रहा था कि निजामुद्दीन की एक इंतिहापसंद गली में ये जूता मिला। किसी जैदी का ये जूता है। अमां वही जैदी जिसने एक जूता बुश पर फेंका था। दूसरा बच गया और यहां निजामुद्दीन में पड़ा मिला। अब आपने यह कह कर मेरे मन में फांक डाल दी कि हो सकता है यह जूता जैन अल आबिदीन का हो जो खुदा खैर करे मोहम्मद साहब के पड़पोते होते थे और जैद कहलाते थे। लेकिन देख ये रहा हूं कि ये तिलिस्म गहराता जा रहा है कि किसका ये जूता है क्योंकि जूता तो ये असदउल्ला गालिब का भी हो सकता है जो गौर तो आपने भी किया होगा कि अक्सर एक ही जूता पहने मिलते थे और दूसरा उन्होंने कमजर्फों की जानिब फेंका होता था और जिनकी कब्र जहां ये जूता मिला वहां से एक फर्लांग भी न होगी। लेकिन यह भी तो हो सकता है यह जूता निजामुद्दीन नाम के हजरत का हो जो अल्ला खैर करे कम मुतमव्विज तो कतई न थे। ये भी कहा जाता है कि वो भी अपना एक जूता किसी हाकिम की जानिब फेंके होते थे। और अफवाह तो ये तक है कि एक बार तो उन्होंने ये कारनामा अलाउद्दीन खलजी जैसे हुक्मरान के साथ कर दिखाया। अब अगर आखिरी बात तक पहुंच सकूं तो वो ये है कि एक जूता लेकर मैं निजामुद्दीन से घर लौट रहा हूं। और इस वक्त तो दिमाग में यही फितूर चल रहा है कि सारे आलिम फाजिल एक ही पैर में जूता पहनते हैं। दूसरा वो हुक्मरानों की जानिब फेंकते हैं।
(9)
जो मेरा हुक्मरान हो वो मेरा कौन हुआ
मैं किसी हिज्र की सी फिक्र में हुआ सा हूं
वो लियाकत जो मेरे काम बहुत न आयी
मुझको भी इल्म कहां मैं किसी दवा सा हूं
जो मुझे दोस्त करे और मेरी मुश्किल हो
मैं किसी ऐसे फलसफे पे क्यों फिदा सा हूं
ये तेरा साथ मेरे साथ में क्या क्या करता
मैं तेरे साथ में किस बात पे पहुंचा सा हूं
मैं निजामुद्दीन रहूं और करूं जिक्रे खैर मैं
भी क्यों होश में बेहोश या हवा सा हूं
(10)
ये मेरे होश में क्यों इतनी गड़बड़ी सी है
ये मेरे जोश में क्यों इतनी हड़बड़ी सी
है ये किसी से जो कहूं तो भी कहना
बाकी ये मेरी फिक्र किस उजाड़ की
घड़ी सी है ये कहीं से जो उठायी तो
कहीं रक्खी सी ये कोई बात थी जो यूं
ही क्यों पड़ी सी है मेरे लिखने पे मेरे
यार तेरा क्या लिखना वो कोई जिद है
जो हमसे कहीं बड़ी सी है ये जो बदली
नहीं दुनिया तो मैं बदला बदला वो मेरी
शक्ल किस सियाह में मढ़ी सी है मेरे
होने का हुनर और मेरा ये होना क्योंकि
छोटी हो बहर नज्म तो बड़ी सी है लाल
है वो कि खुदाया हुआ दलाल भी है
शक्ल हो अक्ल हो कि हाल में पढ़ी सी
है मैं निजामुद्दीन हुआ और हुआ और
हुआ वो कोई हद नहीं अनहद की जो
कड़ी सी है
(11)
तू मुझे देखता है क्या कि मैं कुछ बम सा हूं
तू मुझे देखता है क्यों कि मैं कुछ कम सा
हूं मैं कहीं हूं तो कभी हूं तो कोई भी होकर
इतना बहता है पसीना तो मैं कुछ नम सा हूं
वो जो है इत्मिनान और सुकूं और तराश मैं
हूं क्यों इतना अचानक कि मैं कुछ धम सा
हूं मुझको वो फिक्र नहीं क्योंकि मेरा जिक्र
नहीं इतना पीकर भी कहूं क्योंकि मैं कुछ
खम सा हूं अब तो ये वक्त है कि वक्त
कुछ बचा भी नहीं मैं अकेला ही सोचता
हूं कि मैं कुछ हम सा हूं मैं भी देखा किया
दरगाह में बैठे बैठे मैं किसी कोने में उखड़ा
हुआ बे-दम सा हूं
(12)
ये मेरी हसरत का वाकया है तुम्हारी हसरत भी जान लूं मैं
किसी सड़क पर अगर मिलो तो ये सूखी रोटी ही बांट लूं
मैं ये किस तरफ से निकल पड़े हो बहुत खुशी तो कभी
नहीं थी जो देखा ऊपर तो देखा नीचे कि कैसे रहते कि
छत नहीं थी अभी किसी से कहूं तो क्या कि कहां से मैंने
शुरू किया था जो हाथ लिखता है वो हाथ मैंने किसी को
यूं ही क्यूं दे दिया था ये किस्सा इतना है जितना जानो ये
मेरे हिस्से की रोशनी है ये मेरी चादर है तेरी चादर बहुत
पसीने में खूं सनी है
(13)
वो तुमने किस तरह देखा मैंने तो यूं देखा
तुमने क्या देखा जहां मैंने बदायूं देखा तुम
तो न्यूयार्क या इस्तानबुल या पिक्काडिली
मैंने इलाहाबाद न देखा तो क्यों हर सू देखा
मैं जो दाखिल हुआ उस माल में बेगाना सा
मैंने यक बोझ के नीचे फंसा सा कूं देखा
तुमने भी देख लिया मेरा अकेला पड़ना मैंने
जो खुद को हटाया तो मैंने हूं देखा जिस
तरह खत्म हुआ जश्न तो फिर शक भी हो
तुमने जो दांत दिखाया तो मैंने खूं देखा मैंने
जो देख लिया तो जो मेरा हाल हुआ मैं भी
कहता हूं निजामुद्दीन मैंने यूं देखा मैं भी
क्यों हद में नहीं और ये मेरा बेहद क्यों मैंने
इश्क न देखा जो मैंने तूं देखा
(14)
सबकी तरफ से लिखने का अंजाम देख लो
ये काम कितना बढ़ गया ये काम देख लो
कितना ही कहा कह गये तो कितना कम
कहा कहने को हुआ नाम तो ये नाम देख लो
बाजार में भी बैठ गये और कहा जी जो लग
गये वो दाम जरा दाम देख लो सबकी तरफ
से बोलने का रोजगार ये हमको जो देखो देख
कर नाकाम देख लो मकसद है कोई और
तो फिर सोचना फिजूल जो सुबह सी दिख
जाये तो ये शाम देख लो अब मार्क्स हो कि
माल हो कि कर सको बहस अब लालगढ़
को देख लो, आवाम देख लो जो गिर गयी
मस्जिद तो अब आराम बहुत हो अब रह
रहे हैं राम तो बदनाम देख लो
(15)
मुशायरा रात भर चलता रहा। लोगों का ये हाल था कि जैसे मय्यत में होकर लौटे हों। एक जबान जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि बीस पचास साल से ज्यादा नहीं बचने वाली उसमें इतना कोहराम था कि पूछिये मत। मतलब कि कोहराम ऐसा था कि अगर जबान नहीं भी बची रही तो कोहराम बचा रहेगा। ऐसी आम राय थी। मुशायरे के खत्म होते न होते पानी बरसने लगा और एक कराह की तरह अल्ला हू अकबर गूंजा जो टूटे दरवाजों, फटे कपड़ों, कांपती तसबीह, संकरी गलियों के बीच से होता मुंडेरों के ऊपर से मुर्गों के पंखों और एक लड़की के सात दिनों से झूलते दुपट्टे को छूता निकल गया। जिस लड़की के दुपट्टे का जिक्र है वह पिछले पांच दिनों से बुखार में पड़ी है और छत पर आ नहीं सकी है और आना भी नहीं चाहती है और दिन भर रोती रहती है और मर जाना चाहती है और फिरोजाबाद की चूड़ी की फैक्टरी से निकाल दी गयी है और ताई के यहां से लौट आयी है और मामू के यहां मुरादाबाद जाना नहीं चाहती और न ही कतर और कुछ बताती नहीं कि क्या। कि क्या कुछ। कि क्या नहीं। मरी यही कहती है कि मर जाने दो। कि भाई उड़ा उड़ा रहता है। कि पता नहीं क्या चाहता है। कि इस बीच कुछ भी अच्छा नहीं हुआ है। तीन चार पुलिस वाले शायरों को ये गाली देते हुए गली से निकले कि कलाम को ये छोटा नहीं कर सकते थे क्या। जल्दी निपट जाते। एक पुलिस वाला फुटपाथ पर पड़े एक आदमी के पास खड़ा हो गया है और ये जानने की कोशिश कर रहा है कि आदमी सो रहा है या मर रहा है।
(16)
लौटते हुए
गुजरते हुए बगल से दरगाह के
मैंने बहुत सारी मनौतियां
मांगीं। कि।
कि मेरा राजनीतिक एकांत आंदोलन में बदल जाये।
मेरा दुःख अम्बानी की विपत्ति में।
मुंतजर अल जैदी को अपना दूसरा जूता मिल जाये।
बुश के घर की छत उड़ जाये।
वित्त मंत्री एक भूखे आदमी का
वृत्तांत बताते हुए रोने लग जाय
मेरा बेटा घड़ा बनाना सीख जाये।
एक कवि का अकेलापन हिन्दी की शर्म में बदल जाये।
मैंने मन्नतें मांगी कि
नये को ब्राह्मण की रसोई में घुस आये
कुकुर की तरह दुरदुराया न जाये और
हिन्दी में अलग थलग पड़ी विपत्ति की
एक कहानी और एक कविता
सारे विशेषांकों पर भारी पड़ जाये
गरीबी की रेखा के नीचे रहता हर आदमी
रेखा के नीचे नीचे नीचे
चलता चलता चलता
निजामुद्दीन पहुंच जाये जहां गांव को
गुड़गांव में न बदला जाये बेशक
आजमगढ़ को लालगढ़ में बदल दिया जाये मतलब कि
शहरों को फिर से बसाया जाय
और
और सोचा जाय
और सोचा जाय
और सोचा जाय
और सोचा जाय लेकिन फेनान की तरह
और रहा जाय लेकिन किसान की तरह
और गूंजा जाय लेकिन बियाबान की तरह
अब घर लौटा जाय
निजामुद्दीन के साथ।
फरीद के साथ। नींद के साथ।
बियाबान में गूंजती हारमोनियम की
आवाजों जैसी नागरिकता की पुकारों के साथ।
गुहारों के साथ।
घर लौटा जाय
और घर छोड़ा जाय
जिसके लिए मैंने मनौती मांगी है कि
वह आदिवास में बदल जाये और मेरा बेटा
संथालों के मेले में खो जाये।
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (20-02-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |