औरंगज़ेब: अच्छे और बुरे के बीच फंसा एक बादशाह
संवाद प्रकाशन से आई 200 रुपये की यह किताब इस समय की साम्प्रदायिक राजनीति को समझने और 300 साल पहले मर चुके अपने दौर की दुनिया के सबसे ताक़तवर बादशाह के साथ न्याय करने के लिए एक जरूरी जरिया है
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संवाद प्रकाशन से आई 200 रुपये की यह किताब इस समय की साम्प्रदायिक राजनीति को समझने और 300 साल पहले मर चुके अपने दौर की दुनिया के सबसे ताक़तवर बादशाह के साथ न्याय करने के लिए एक जरूरी जरिया है
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, जब हम सेकुलरिज्म को पश्चिमी अवधारणा से देखते हैं जिसमें धर्म और राजनीति एक दूसरे से पर्याप्त दूरी बरतते हैं, तभी हमें सरदार हिंदुत्ववादी रुझान वाले दिखते हैं। किताब के परिचय में नानी पालखीवाला ने इस धारणा के लिए स्पष्ट तौर पर समाजवादियों जैसे जेपी, वामपंथियों के साथ ही आज़ाद को भी को ज़िम्मेदार ठहराया है।
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भारतीय अंतर्मन की बाहरी अभिव्यक्ति हमारा संविधान है। इसीलिए भारत जोड़ने की यह यात्रा अपने आप संविधान बचाओ यात्रा में तब्दील होती गयी है क्योंकि आप जब गांधी, नेहरू, कलाम, अंबेडकर या भगत सिंह की याद लोगों को दिलाएंगे तो उसकी सर्वोच्च बाहरी अभिव्यक्ति संविधान में ही होती है, चूंकि वे जिस इतिहासबोध को निर्मित करते हैं वह संविधान में आकर ही पूर्णता पाता है।
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इंदिरा गांधी को उनकी पुण्यतिथि पर याद करते हुए इस तथ्य को भी संज्ञान में रखा जाना चाहिए कि उनकी हत्या से कुछ दिन पहले ख़ुफ़िया विभाग ने उन्हें सूचित कर दिया था कि एक समुदाय विशेष के उनके अंगरक्षकों से उन्हें खतरा है और इसलिए उन्हें वे हटा दें। उन्होंने यह कहते हुए ऐसा करने से इनकार कर दिया कि हो सकता है सूचना सही हो लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रमुख होने के नाते वे ऐसा नहीं कर सकतीं।
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भाजपा सरकार द्वारा उन्हें कमजोर करने के इन षड्यंत्रों से दलित वर्ग में बेचैनी है। भाजपा के लिए भी अब इन्हें रोक पाना चुनौती बनती जा रही है। ऐसे में कांग्रेस खड़गे के चेहरे और राहुल और प्रियंका गांधी के दलितों के पक्ष में खड़े रहने वाले नेता की छवि के मिश्रण से हिंदी बेल्ट में इन्हें फिर से अपने साथ ला सकती है।
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राहुल गांधी मंचों से और व्यक्तिगत बातचीत में यही संदेश दे रहे हैं कि लोगों को निडर बनना होगा। उन्हें गांधी के रास्ते पर लौटना होगा। आप देखिएगा, भविष्य में हमारे पड़ोस और दूसरे देशों में निरंकुश सरकारों के खिलाफ़ लोग इस यात्रा से प्रेरित होकर ऐसी ही पदयात्राओं पर निकलेंगे।
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सवाल है कि आख़िर राज्य के हर संसाधन में नागरिक होने के कारण अपनी हिस्सेदारी के एहसास में कमी मुसलमानों में किन वजहों से आयी है? इसके लिए कौन राजनीतिक शक्तियाँ ज़िम्मेदार हैं?
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