राज्य के बरअक्स मुसलमानों का टूट चुका आत्मविश्वास किसकी देन है?


महामारियां समुदायों और राज्यों के बीच के रिश्ते को आंकती हैं। एक लिहाज से ये हमारी नैतिकता, संस्कार, सहनशीलता को परखती हैं तो वहीं हमारी नागरिक चेतना (Civic Sense) का भी परीक्षा लेती हैं। इस रोशनी में उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के राज्य (State) के प्रति व्यवहार का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यहां हम मुसलमानों के प्रति यूपी की भाजपा सरकार के रवैये पर अभी बात नहीं करेंगे क्योंकि उसमें कुछ भी छुपा नहीं है।

कोरोना संकट से उपजे हालात से निपटने के लिए जारी हेल्पलाइन नम्बरों के चलते मुझे औसतन 50 फ़ोन रोज़ आते रहे हैं। इनको अगर धर्म और जाति के आधार पर वर्गीकृत करें तो इसमें क़रीब 50 प्रतिशत मुसलमान रहते हैं। इसमें भी ज़्यादातर शहरी मजदूर और क़स्बों के कमज़ोर काश्तकार। बाक़ी के हिन्दू समुदाय से भी ज़्यादातर बाहर रहने वाले पिछड़ी और थोड़ा बहुत अगड़ी जातियों के मजदूर ही रहते हैं। दूसरे राज्यों मसलन असम, बंगाल और बिहार के लोगों के भी काफ़ी फ़ोन आते हैं। इनमें से अधिकतर को खाना और अनाज की जरूरत होती है।

कांग्रेस महासचिव श्रीमती प्रियंका गांधी वाड्रा जी के निर्देश के मुताबिक सभी को जितना जल्दी हो सके भोजन और अनाज की व्यवस्था करायी जाती है लेकिन कभी-कभी समय, दूरी या तत्काल अनाज न होने की स्थिति में उनसे 112 नम्बर पर फोन करके खाना मांगने या अनाज मांगने की राय देनी पड़ती है। ऐसी राय पर जहां बहुसंख्यक वर्ग के लोग पुलिस या कोटेदार के नम्बर पर फ़ोन करने, उनसे अनाज ले लेने की बात पर अमल करते दिखते हैं तो वहीं मुसस्लमान ऐसे सुझाव पर सकारात्मक उत्साह नहीं दिखाते। उनका जवाब अक्सर रहता है – ‘न हो तो कोई बात नहीं, जब इंतज़ाम हो जाए तो भेज दीजिएगा, हम उनसे बात नहीं करेंगे, वो हमें क्यों देंगे, आप बात कर लीजिए… ठीक है किसी और से बात करके देखते हैं…’ जैसा होता है।

सवाल है कि आख़िर राज्य के हर संसाधन में नागरिक होने के कारण अपनी हिस्सेदारी के एहसास में कमी मुसलमानों में किन वजहों से आयी है? इसके लिए कौन राजनीतिक शक्तियाँ ज़िम्मेदार हैं? आख़िर पिछले तीन दशक की प्रदेश की राजनीति, जो भागीदारी और हिस्सेदारी पर आधारित होने का दावा करती रही है और जिसकी मुख्य नींव मुसलमान ही रहे हैं, उसने मुसलमानों में इतना आत्मविश्वास क्यों नहीं भरा कि वे राज्य में अपने भोजन के हिस्से की भी दावेदारी कर सकें? आज इन सवालों पर मुसलमानों को सोचना होगा क्योंकि इन्हीं सवालों के जवाब में उनके भविष्य का अच्छा या बुरा होना टिका है।

दरअसल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की हिन्दू जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति ने मुसलमानों को उनकी संख्या ज्यादा होने के बावजूद दोयम दर्जे की मानसिकता में रखने की कोशिश की है। इसी आपराधिक रणनीति के तहत कथित पिछड़ा और दलित उभार की राजनीति में मुसलमानों की संख्या आबादी प्रतिशत के हिसाब से बहुत ज़्यादा होने के बावजूद कभी भी उसका श्रेय उन्हें न जाए, इसलिए उनके योगदान को ‘पिछड़ा उभार’ के शोर में दबाया गया। इसका मकसद उनके आत्मविश्वास को कमज़ोर रखना था ताकि वे कभी भी अपने योगदान के आधार पर अपनी हिस्सेदारी की मांग न कर सकें।

इसी रणनीति के तहत मुसलमानों को राज्य सरकार की नौकरियों में भी पिछड़ा होने के बावजूद न्यायसंगत हिस्सेदारी इन कथित सामाजिक न्याय की सरकारों में नहीं दिया गया। सपा की सरकारों- जिसे हर बार अपने वोट और नोट से मुसलमान बनवाता रहा- में निकली नौकरियों में मुलायम सिंह यादव जी के सजातीय लोग ही पिछड़ों के नाम पर क़ाबिज़ रहे। आप याद करिये सैफ़ी (मुस्लिम लोहार), सलमानी ( मुस्लिम नाई), मलिक (मुस्लिम तेली), शाह (मुस्लिम फ़क़ीर), रंगरेज़, क़ुरैशी, कुंजड़ा जैसी बड़ी मुस्लिम पिछड़ी जातियों के लड़कों को आपने सिपाही के वर्दी में कितना देखा है?

ज़ाहिर है, तीस साल की परनिर्भरता ने राज्य के बरअक्स अपने अधिकारों को लेने के लिए जिस आत्मविश्वास की ज़रूरत थी उसे ख़त्म कर दिया। अगर इन मुस्लिम पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में उनका न्यायोचित हिस्सा मिला होता तो ये जातियां भी राज्य के संसाधन से अपना हिस्सा ले सकने का आत्मविश्वास रखतीं।

वहीं मुसलमानों के वोट से ही मजबूत हुई जातियों ने इस आत्मविश्वास का इस्तेमाल बख़ूबी किया और इस महामारी के समय में यह सलाहियत और निखर कर सामने आयी है, जो लोकतंत्र के लिए अच्छा है।

दरअसल, सामाजिक न्याय के नाम पर हुई पिछले 30 साल की सपा-बसपा की जाति आधारित राजनीति ने मुसलमानों के आत्मविश्वास को तोड़ कर उन्हें राजनीतिक तौर पर विकलांग बना दिया है और अपनी जातियों को उनके बीच एक ज़रूरी बैसाखी के बतौर स्थापित करने की आपराधिक कोशिश की थी। मसलन, यह धारणा कि बिना अमुक जाति के मुसलमानों का कोई सियासी-समाजी वजूद नहीं हो सकता, उन्हें उन पर निर्भर होना ही पड़ेगा, यह प्रचारित किया गया।

इस धारणा से न सिर्फ़ मुसलमान हाशिये पर पहुँचते गए बल्कि हिंदुत्ववादियों का मनोबल भी बढ़ता गया क्योंकि उन्हें पहले की तरह सीधे-सीधे मुसलमानों का आत्मविश्वास तोड़ कर उन्हें दोयम दर्जे की मानसिक स्थिति में रखने की कोशिश नहीं करनी थी। ये काम उसके लिए सपा-बसपा के जातिगत आधार ख़ुद कर रहे थे। ये एक तरह से कार्य का बंटवारा था।

इस धूर्त राजनीति के उभार से पहले कांग्रेस के दौर में मुसलमानों की राज्य के प्रति नज़रिये को हम ज़्यादा आत्मविश्वास से भरा पाते हैं, जहां उसमें अन्य नागरिकों के बराबर की हैसियत वाला नागरिक होने की चेतना थी और वो ज़्यादा आत्मविश्वास से अपनी हिस्सेदारी की बात करता था। साम्प्रदायिक शक्तियों के ख़िलाफ़ किसी दूसरे ‘कम हिन्दू’ (जो वास्तव में ज़्यादा हिन्दू बनने के लिए आंतरिक तौर पर प्रयासरत था, और इसके लिए मुसलमानों के वोट से अपनी बारगेनिंग ताक़त बढ़ा रहा था) की बैसाखी के बजाय एक बराबर के नागरिक के बतौर उसके सामने खड़ा होता था।

यह स्थिति रणनीतिक तौर पर भी हिंदुत्ववादी शक्तियों के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण हुआ करती थी क्योंकि तब उन्हें एक मुकम्मल नागरिक चेतना से लैस समुदाय से टकराना होता था। सपा-बसपा के साथ मुसलमानों के जाने के साथ ही संघियों के लिए मुसलमानों को ‘स्टेटलेस’ बनाना आसान होता गया क्योंकि सपा-बसपा ने उनके स्वतंत्र नागरिक आत्मविश्वास को तोड़ कर अपनी हिंदुत्ववादी पिछड़ा-दलित चेतना के अधीन कर लिया।

कोरोना काल लम्बा चलेगा यानी सामाजिक और सामुदायिक विसंगतियां, कमजोरियां अभी और उभरेंगी। इन पर नज़र रखनी होगी। कोरोना एक चौतरफ़ा चुनौती है। इससे हर मोर्चे पर हमें लड़कर जीतना है। राजनीति इसमें सबसे अहम मोर्चा है।


लेखक उत्तर प्रदेश कांग्रेस में अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के चेयरमैन हैं

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