इलाहाबाद हाइ कोर्ट का आदेश दिखाता है कि UP सरकार ने प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन किया: NAPM


इलाहाबाद उच्च न्यायालय की रमेश सिन्हा और राजीव सिंह की खंडपीठ द्वारा दिए गये 2 फरवरी के आदेश से यह साफ़ प्रतीत होता है कि उत्तर प्रदेश सरकार के पास ऐसा कोई न्यायिक आधार नहीं है जिसके तहत वह किसानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को शांतिपूर्ण प्रदर्शन का हिस्सा होने से रोके. यह एक बेहद महत्वपूर्ण आदेश है जो लोगों के संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करता है और साथ ही निरंकुश प्रशासन-तंत्र के लिए एक चेतावनी भी है.

न्यायालय का यह आदेश यह स्थापित करता है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों को 26 जनवरी के प्रदर्शन में जाने से रोकने के लिए 19 जनवरी और उसके बाद जारी किये गए आदेश कितने निरर्थक और प्राकृतिक न्याय के सूत्रों का उल्लंघन करने वाले थे.

यह आदेश एन.ए.पी.एम. संयोजक अरुंधती धुरु द्वारा दायर जनहित याचिका के तहत आया है. कोर्ट जाने का कारण “संगतिन किसान मजदूर संगठन”, सीतापुर के किसानों और मज़दूरों को धारा 111 के तहत जारी किये गए आदेश थे जिसका आधार मात्र पुलिस की ‘कानून व्यवस्था’ भंग होने की आशंका थी. जनहित याचिका के तहत ये मांग की गयी थी कि 163 किसानों, जिनमें महिला किसान भी शामिल थीं, के खिलाफ़ जारी ऐसे सभी आदेश रद्द हों जिनमें उनसे 50,000 से लेकर 10,00,000 तक के बांड भरने को कहा गया और आश्वासन की मांग की गयी कि ये लोग किसी भी तरह के प्रदर्शन में भाग न लें.

यह आदेश न सिर्फ निरर्थक/अव्यावहारिक थे बल्कि अन्यायपूर्ण थे और उन छोटे किसानो व मजदूरों, जिनमें ज्यादातर दलित व पिछड़े समुदायों से आते हैं, उनकी स्थिति का मज़ाक उड़ाते भी प्रतीत होते थे.

जैसा कि आदेश में साफ़-साफ़ देखा जा सकता है- जब न्यायालय द्वारा एडवोकेट जनरल से यह पूछा गया कि क्यों सीतापुर के विभिन्न उप-जिलाधिकारियों  द्वारा इस तरह से निषेधात्मक बांड मांगे गए, तो अपर महाधिवक्ता इसे समझाने में असमर्थ रहे, हालांकि उन्होंने यह बताया कि कानून-व्यवस्था को कोई खतरा नहीं होने के मद्देनज़र उक्त व्यक्तियों के खिलाफ़ सभी कार्यवाहियां वापिस ले ली गयी हैं. साथ ही न्यायालय ने सीतापुर प्रशासन को यह निर्देश भी दिया कि ‘आगे से वह इस बात का ध्यान रखे ताकि लोगों को गैरजरूरी प्रताड़ना से बचाया जा सके”.

उक्त बातों का संज्ञान लेते हुए, माननीय उच्च न्यायालय द्वारा यह मामला यह कहते हुए निस्तारित किया गया कि “प्रशासन का आचरण ऐसा न दर्शाता हो कि वह मनमाने ढंग से चलता है और वह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ़ काम करता है”.

एन.ए.पी.एम. न्यायालय के इस आदेश का स्वागत करता है और यह उम्मीद करता है कि इस आदेश का पालन पूरे राज्य में इसी भावना के साथ किया जाएगा और आगे से सरकार इस तरह के गैर-ज़िम्मेदाराना तरीके नहीं अपनाएगी. 

जैसा कि हम काफी समय से यह देख रहें हैं, यह कार्यवाही उन तमाम कोशिशों को दर्शा रही है जिसके तहत सरकार सामाजिक कार्यकर्ताओं, किसानों, छात्रों द्वारा ऐतिहासिक किसान आन्दोलन के साथ एकता दिखाने वाले कार्यक्रमों को रोकने का प्रयास कर रही है. खासतौर पर केंद्र सरकार किसान आन्दोलन को रोकने के नाकाम प्रयास करती रही है तथा सरकारी और मीडिया तंत्र का उपयोग करते हुए आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर या उन्हें फसाकर बदनाम करने की पूरी कोशिश कर रही है. कुछ ही हफ्तों पहले एन.ए.पी.एम. संयोजक ऋचा सिंह को भी इसी तरह गैरकानूनी तरीके से कुछ दिनों तक घर में नजरबन्द किया गया. वरिष्ठ कार्यकर्ता रामजनम के खिलाफ़ गुंडा एक्ट के तहत केस भी दायर किया गया.

6 फरवरी के दिन जब किसान आन्दोलन द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर शांतिपूर्ण चक्का जाम काआह्वान किया गया था, तब मनरेगा मजदूर यूनियन वाराणसी के सुरेश राठौड़ को शांति भंग करने की आशंका का हवाला देकर उन्हें घर पर नजरबन्द कर दिया गया. पहले भी इस तरह के आन्दोलनों में उनकी भागीदारी रोकने के लिए सरकार ऐसे कदम उठाती रही है.  

इससे कुछ दिन पहले पुलिस द्वारा सामाजिक कार्यकर्ता नंदलाल मास्टर, श्याम सुन्दर, अमित, पंचमुखी सिंह और सुनील कुमार के साथ साथ 25 अन्य ‘अज्ञात लोगों’ के खिलाफ़ एफ.आई.आर. दर्ज कर दी गयी क्योंकि इन्होंने 29 जनवरी को एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन में भाग लिया जिसमें 3 कृषि बिलों की प्रतियों को जलाया गया. जिस 1932 के संयुक्त-प्रान्त विशेषाधिकार कानून का इस केस में इस्तेमाल किया गया उसे हमेशा से ही राज्य द्वारा लोकताँत्रिक आंदोलनों को कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है, खास तौर पर बीजेपी द्वारा. 

कोरोना महामारी के बहाने को इस्तेमाल करते हुए डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट को भी कुछ खास आयोजनों को रोकने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, भले ही सारी सावधानियां क्यों न बरती गयी हों, संवैधानिक क़ानूनों और प्रावधानों की सुविधाजनक व्याख्या और इस्तेमाल द्वारा आंदोलनों को कुचलना सरकार की मुख्य पहचान बन गयी है. हम इस बात को पुरजोर तरीके से रखना चाहते हैं कि विधायिका का काम महामारी के दौरान व्यवस्था बनाये रखने का है न कि लोगों के संगठित होने के संवैधानिक अधिकार में बाधा डालने का.   

ऐसी ही एक मार्मिक घटना में, उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा बलजिंदर सिंह के परिवार वालो के खिलाफ़ एफ.आई.आर. दर्ज कर दी गयी क्योंकि वे बलजिंदर के गाजीपुर प्रदर्शन स्थल में मारे जाने के बाद उन्हें तिरंगे में लपेट कर ले जा रहे थे. यह घटना कुछ साल पहले के उस वाकये की याद दिलाती है जब ‘दादरी लिंचिंग केस’ के एक आरोपी की मौत के बाद उसे भी तिरंगे में लपेट कर ले जाया गया था, उस समय उन लोगों पर कोई मुकदमा नहीं चला. 

हाल ही में आई ख़बर के अनुसार, उत्तर प्रदेश सरकार ने एक बार फिर आंदोलन में भाग लेने वाले किसानों की तरफ़ दमनकारी रवैया दिखाया है. उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में हुई एक महापंचायत में हिस्सेदारी करने वाले क़रीब 200 किसानों को नोटिस जारी गया है कि वे 2 लाख रूपए का निजी बांड भरें जिससे ‘शांति’ सुनिश्चित की जा सके. राज्य के इस उग्र व्यवहार को संदर्भ में देखा जाये तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह आदेश प्रशासन व पुलिस के लिए सबक है कि उनका कर्त्तव्य नागरिकों के संगठित होने के संवैधानिक अधिकारों को बचाना है और उनके शांतिपूर्ण व लोकताँत्रिक तरीके से प्रदर्शन करने के अधिकार को सुनिश्चित करता है. राज्य की मशीनरी का इस्तेमाल एकतरफ़ा तरीके से अपनाते हुए मनमाने ढंग से कुछ खास लोगों की आवाज़ को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता. 

एक तरह से यह फैसला उन लोगों को हौसला देता है जो लोकताँत्रिक मूल्यों की बात करते हैं. यह फैसला UNHRC के 5 फरवरी की उस घोषणा की भावना को दर्शाता है, जिसमें प्रदर्शनकारियों के शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होने व अपनी बात रखने के अधिकार को सुनिश्चित करने की बात पर जोर दिया गया था. राज्य को इस बात का बिलकुल अधिकार नहीं है कि वह कानून का इस्तेमाल लोगों की आवाज़ को कुचलने के लिए करे जैसा कि किसान आन्दोलन के साथ वह कर रही है जो कि न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में तेजी से फ़ैल रहा है. 

मांगें:

हम उत्तर प्रदेश राज्य प्रशासन से यह उम्मीद करते हैं कि वह उच्च न्यायालय के आदेश के निहितार्थों पर विचार करेगा, न सिर्फ शब्दों बल्कि उसकी भावनाओं को समझेगा और जो सामाजिक कार्यकर्ताओं को नजरबन्द करने, उन्हें जेल में डालने का सिलसिला जारी है, उसे बंद करेगा व सभी फर्जी मुक़दमे वापस लेगा.

हम राज्य सरकार से यह अनुरोध करते हैं कि वह प्रतिरोध की आवाज़ों का इस तरह से दमन करना बंद करे. अलोकतांत्रिक कानून और आदेशों के खिलाफ़ लोकतांत्रिक तरीके से प्रदर्शन जारी रहेंगे. 

हम सभी नागरिकों व लोकताँत्रिक संगठनों से यह आह्वान करते हैं कि वह पहले से कहीं ज्यादा सजग रहें और शांतिपूर्ण तरीके से संगठित होने व प्रतिरोध करने के बुनियादी अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते रहें.

हम प्रदर्शन कर रहे देश भर के किसानों के साथ खड़े हैं और 3 नए कृषि क़ानूनों को वापस लेने की मांग पर अडिग हैं.


मेधा पाटकर(NAPM); डॉ.सुनीलम (KSS) द्वारा जारी


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