पंजाब के किसानों का संघर्ष और संभावनाएं: इतिहास के आईने में एक दृष्टि


पंजाब के किसान एक अत्यंत बहादुराना संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष की शुरुआत केंद्र में किसानों के विरोध में पारित तीन अध्यादेशों के विरोध से हुई थी। सरकार ने संसद के इस मानसून सत्र में इन तीनों अध्यादेशों को विधेयक के रूप में पेश किया। लोकसभा में भाजपा का स्पष्ट बहुमत है परंतु वह राज्यसभा में अल्पमत में है। इसके बावजूद बिना बहस और मत विभाजन के इन्हें ध्‍वनिमत से पारित घोषित कर दिया गया। राष्ट्रपति ने भी फटाफट हस्ताक्षर कर दिए। बिजली की तेज गति की तरह इन्हें तुरत-फुरत इन विधेयकों को अमली जामा पहनाते हुए कानून बना दिया गया है।

सरकार इतनी जल्दी में क्यों थी?

दरअसल, सरकार पर विश्व व्यापार संगठन(WTO) और कारपोरेट पूंजी का दबाव था। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना अप्रैल, 1994 में मराकेश (मोरक्को) संधि के जरिये हुई थी। उस समय भारत में कांग्रेस की सरकार थी। प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे और डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री। इस तरह कांग्रेस के नेतृत्व में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना था। इस संधि के प्रावधानों के अनुसार मुक्त व्यापार और खुला बाजार के लिए सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र के लिए छूट या किसी भी स्वरूप में प्रदान किए जाने वाले सहयोग, सहायता को समाप्त किया जाना जरूरी था। यह भी शर्त है कि खाद्य सुरक्षा को छोड़कर सरकार कृषि व्यापार से अलग रहेगी। इसमें उसकी कोई दखलंदाजी नहीं रहेगी।

उस समय इस संधि को लेकर देश में खासतौर से पंजाब में गंभीर बहस हुई थी। कप्तान अमरिन्दर सिंह ने उस समय इस संधि का खुलकर समर्थन किया था। विश्व व्यापार संगठन का समर्थन करते हुए उन्होंने पंजाब ट्रिब्यूनल में एक लेख लिखा था। अब कांग्रेस पार्टी इस तरह का दिखावा कर रही है कि वह इन जनविरोधी कानूनों के खिलाफ है। पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जहां कांग्रेस की सरकारें हैं, केंद्र सरकार के इन कानूनों को लागू न करने और इनके समानान्तर कानून के लिए प्रस्ताव पारित किए गए हैं। इसके बावजूद तथ्य यह भी है कि कांग्रेस ही मूलतया इन नीतियों के लिए जिम्मेदार है, जिनकी देन ये जनविरोधी कानून हैं।

कृषि में साम्राज्यवादी कॉरपोरेट पूंजी का बढ़ता दखल

विश्व व्यापार संगठन की एक बैठक में 2013 में कृषि क्षेत्र को मुक्त व्यापार के लिए खोलने के लिए भारत को पांच साल की मोहलत दी गई थी। उस वक्त यह भी तय कर दिया गया था कि 2018 तक कृषि उपज की सरकारी खरीद और कृषि संबंधित सभी छूट समाप्त कर दी जाएगी। भारत सरकार पर आरोप है कि यहां किसानों को छूट और अन्य सुविधाएं देकर वह मुक्त व्यापार समझौते का उल्लंघन कर रही है। अमेरिका ने भारत के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विवाद निपटान अधिकरण में इसकी शिकायत दर्ज की है। वैसे भी, यह सरकार अमेरिका के निर्देशों का अनुपालन करने वाली सरकार है, इस मामले में भी अमेरिका के दबाव, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अमेरिका की शिकायत से मजबूर होकर मोदी सरकार ने कृषि संबंधित ये तीन जनविरोधी कानून पारित किए हैं। भारत पर कॉरपोरेट  पूंजी का दबाव भी एक बड़ा कारण है। विश्व पूंजीवादी व्यवस्था गंभीर संकट के दौर में है। यह संकट 2008 से जारी संकट का लाजिमी नतीजा है। यह संकट लगातार गहराता जा रहा है। विश्व कॉर्पोरेट पूंजी इस संकट का समाधान का कोई उपाय नहीं ढूंढ पा रही है। अंतर्राष्ट्रीय और भारतीय कॉर्पोरेट कृषि क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश कर रहे हैं। कृषि क्षेत्र में इन जनविरोधी कानूनों के पीछे कॉर्पोरेट पूंजी का भी दबाव है।

यह स्थिति अकस्मात उत्पन्न नहीं हुई है। भारत का शासक वर्ग नब्बे के दशक के मध्य से इन नीतियों को लागू करने की कोशिश कर रहा है। इन नीतियों के प्रमुख सूत्रधार थे डॉ. मनमोहन सिंह। उनके द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति (डॉ. सरदार सिंह जौहल की अध्यक्षता में) की रिपोर्ट “वैश्वीकरण के युग में प्रतिस्पर्धात्मक भारतीय कृषि का विकास” में छोटे किसानों को जमीन से बेदखल करके हजारों एकड़ जमीन के बड़े-बड़े कृषि फार्म बनाने, शेयर बाजार की तर्ज पर भूमि बाजार निर्मित करने और कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद की व्यवस्था समाप्त करने की नीति पेश की गई थी। इसी कमेटी ने संविदा खेती शुरू किए जाने का भी प्रस्ताव किया था। राजनीतिक मजबूरियों और जन प्रतिरोध के कारण कांग्रेस इन सिफारिशों को लागू नहीं कर सकी थी। पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में कप्तान अमरिन्दर सिंह ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान, इन्हीं सरदार सिंह जोहल की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की थी। इस समिति ने कृषि उपज के लिए सरकारी बाजार के साथ खुला बाजार व्यवस्था कायम किए जाने की सिफारिश की थी। प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी के प्रथम कार्यकाल में केंद्र सरकार ने शांता कुमार की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की। शांता कुमार अटल बिहारी वाजपेयी कैबिनेट मंत्री रह चुके थे। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय खाद्य निगम (FCI) की भूमिका का घटाने (एक तरह से इसे समाप्त ही करने) और खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यकता से अधिक कृषि उपज की खरीद समाप्त करने की अनुशंसा की थी।

पंजाब के एक किसान नेता के अनुसार 2017 में नीति अयोग ने एक उच्च-स्तरीय बैठक आहूत की थी। इस बैठक में सम्मलित लगभग 150 व्यक्तियों में सरकारी अधिकारी, कृषि और आर्थिक विशेषज्ञ, कॉर्पोरेट क्षेत्र के प्रतिनिधि और तीन किसान नेता थे। कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर की कमी की समस्या और कृषि में विकास की गति को तेज करने के उपाय इस बैठक का मुख्य विषय था। बैठक में उपस्थित विशेषज्ञों ने कृषि क्षेत्र में बड़े स्तर पर निवेश की आवश्यकता पर जोर दिया। किसान इस स्तर पर निवेश करने की स्थिति में नहीं हैं इस आकलन के साथ कृषि में निवेश के लिए कॉर्पोरेट क्षेत्र को आमंत्रित किए जाने की राह सुझायी गई। कॉरपोरेट निवेश के लिए इस शर्त पर तैयार थे लेकिन उनकी शर्त थी कि सरकार उन्हें दस हज़ार एकड़ का खेत उपलब्ध कराए। किसान इस भूमि पर खेतिहर मजदूर की हैसियत से काम कर सकते हैं इसके अतिरिक्त उनका किसी प्रकार का दखल नहीं होगा। बैठक में मौजूद पंजाब के किसान नेता का कहना है कि उन्होंने इस नीति को लागू करने पर जबरदस्त विरोध के बारे में सचेत किया था। अब इन तीन कानूनों के माध्यम से इसी नीति को लागू किया जा रहा है।

शासक वर्ग के दोनों मुख्य राजनीतिक दल कृषि क्षेत्र में विश्व व्यापार संगठन और कॉरपोरेट पूंजीपतियों की शर्तों को लागू करने के लिए लगातार काम करते रहे हैं। सरकार लोकसभा में हासिल बहुमत में मदांध है। कोरोना के नाम पर देश में भय का वातावरण बनाया गया, कोरोना के नाम पर जनता का मुंह बंद करने के लिए दमनकारी फ़ासीवादी तरीकों का इस्तेमाल किया गया और साम्राज्यवाद द्वारा निर्देशित इस नीति को ही पूरी तरह लागू करके किसानों को कॉरपोरेट भेड़ियों के हवाले किया गया है। संविदा कृषि पर अधिनियम के जरिए कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट पूंजी के प्रवेश के लिए रास्ता खोला गया है। कृषि उत्पाद के विपणन पर अधिनियम कृषि-व्यापार में कॉरपोरेट की सुविधा प्रदान करता है और न्यूनतम समर्थन मूल्य की अनिवार्यता समाप्ति और उपज की सरकारी खरीद की व्यवस्था का अंत करने की राह प्रशस्त की जा रही है। इस तरह, किसान को कृषि से खदेड़ बाहर करने के लिए यह योजना है।

वर्तमान किसान आंदोलन की शुरुआत

वर्तमान किसान आंदोलन की शुरुआत ग्रामीण क्षेत्र से जमीनी स्तर से शुरू हुई है। जैसे ही सरकार ने इन तीन अध्यादेशों को जारी किया, जुलाई के महीने से ही किसानों ने संगठित होकर इन अध्यादेशों के खिलाफ जिला स्तर पर प्रदर्शन शुरू कर दिए। इसके बाद, अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) में सम्मिलित किसान संगठनों ने मोगा, बरनाला, पटियाला, फगवाड़ा और अमृतसर में पांच बड़े प्रदर्शन करके विरोध जाहिर किया। भारतीय किसान यूनियन (उग्राहन) ने पटियाला और बादल गांव में धरना दिया। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति से संबंधित संगठनों ने पंजाब बंद के आह्वान किया और सभी किसान संगठनों से इन अध्यादेशों के खिलाफ एकता के लिए अपील की। इस बीच भारतीय किसान यूनियन के कुछ समूह और कुछ स्थानीय संगठनों सहित 13 संगठनों ने एकजुट होकर भारत बंद का समर्थन करने का फैसला किया। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की पहल पर मोगा में पंजाब में सक्रिय सभी किसान संगठनों की एक बैठक आयोजित की गई। इस बैठक में 30 किसान संगठनों ने मिलकर एक साझा मंच बनाया, लेकिन बाद में उग्रहान गुट ने तय किया कि वे इस मंच में तो सम्मिलित नहीं होंगे लेकिन समन्वित कार्रवाइयों में शामिल रहेंगे।

किसानों के आह्वान पर 25 सितंबर को पूरा पंजाब बंद रहा। जनता के सभी तबकों ने न केवल इस बंद का समर्थन किया बल्कि इसमें सक्रिय रूप से सम्मिलित हुए। बंद पूरी तरह से सफल रहा। इस सफलता ने आंदोलन को नयी गति दी। संयुक्त मंच का अगला कदम था रेलों के आवगमन पर रोक। आंदोलनकारियों ने पटरियों पर धरना देकर रेल यातायात जाम कर दिया। भारतीय जनता पार्टी के कार्यालयों और नेताओं के घरों, अंबानी और अडानी के व्यावसायिक केंद्रों और टोल प्लाजा का घेराव किया। पंजाब में लगभग 150 स्थानों पर धरने दिए गए। इस संघर्ष का निशाना भाजपा सरकार, भाजपा और कॉरपोरेट पूंजीपति, खासकर अम्बानी और अडानी थे।

पंजाब के किसानों की संघर्ष परंपरा

पंजाब में जमींदारी (बिस्वेदारी) के खिलाफ पेप्सू आंदोलन (चालीस और पचास के दशक में) के बाद वर्तमान किसान आंदोलन तीसरा बड़ा आंदोलन है। इस क्रम में पहला बड़ा आंदोलन पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो द्वारा 1959 में सिंचाई के लिए किसानों पर लेवी (betterment levy) के रूप में लगाए गए टैक्स के विरोध में हुआ था। उस वक्त किसान सभा के नेतृत्व में जेल भरो आंदोलन के साथ विशाल किसान आंदोलन हुआ था। आंदोलन इतना व्यापक था कि अकाली दल के स्थानीय कार्यकर्ता भी अपने पीले झंडे लेकर आंदोलन में शरीक हो गए थे। सरकार ने हजारों लोगों को जेल में ठूंसा, उनपर भारी जुर्माने लगाए गए। जुर्मानों की वसूली के लिए आंदोलनकारियों की संपत्ति कुर्क करने की भी कोशि‍शें की गई। जनता का प्रतिरोध अनेक जगह पुलिस के साथ टकराव में बदला। जनता का दमन करने के लिए पुलिस ने अनेक जगहों पर लाठी-गोली का इस्तेमाल किया। दो किसान शहीद हुए, हजारों घायल हुए।

इसके बाद, पंजाब में किसानों का दूसरा बड़ा आंदोलन 1983 -1984 में मालवा क्षेत्र में भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में तथा माझा और दोआब में किर्ति किसान यूनियन (KKU) की अगुआई में हुआ। इस आंदोलन की शुरुआत बिजली के मुद्दे से हुई थी परंतु आंदोलन के अंतर्गत वे तमाम मुद्दे जुड़ गए, जिनता सरोकार भूमिधर किसानों से था। वर्तमान किसान आंदोलन 1947 के बाद हुए किसान आंदोलनों में तीसरा बड़ा आंदोलन है, जिसमें इतने व्यापक स्तर पर जनता सम्मिलित हुई है। यह आंदोलन भी हालांकि किसानों की समस्या से प्रारंभ हुआ है लेकिन पूरा पंजाब (शहरी इलाकों में भाजपा को छोड़कर) आंदोलित हो गया है।

केवल किसानों का नहीं पूरा पंजाब संघर्ष में है?

हम इसे केवल पंजाब के किसानों का ही नहीं पूरे पंजाब का संघर्ष क्यों कह रहे हैं? पहली बात तो यह है कि पंजाब में बेरोजगारी की समस्या अत्यंत भयावह है। इसकी वजह हैं:

1. कृषि क्षेत्र में अत्यधिक यांत्रिकीकरण के कारण यहां रोजगार के अवसर कम हो गए हैं।

2. पंजाब औद्योगिक रूप से पिछड़ा राज्य है, बल्कि कहा जा सकता है कि खालिस्तानी आंदोलन के बाद यहां विऔद्योगीकरण और पड़ोसी पहाड़ी राज्यों को रियायतें जारी हैं।

3. पंजाब के बाहर से आए प्रवासी मजदूरों ने यहां श्रम बाजार का संतुलन गड़बड़ा दिया है। अब सरकार ने ये तीन कानून लागू किए हैं। इसके बाद, कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेटों के आने के साथ विपणन का पूरा ढांचा यंत्रीकृत हो जाएगा। इस तरह यहां जो रोजगार के जो अवसर उपलब्ध हैं, खतम हो जाएंगे। दूसरा, कृषि में कॉरपोरेटों के कब्जे के साथ बड़े-बड़े कृषि फार्म बन जाएंगे। ये आधुनिक मशीनों से पूरी तरह से यंत्रीकृत होंगे। इससे खेती में जो कुछ कामों में रोजगार मिल जाया करता है, समाप्त हो जाएगा। अभी जो किसान खेती-बारी में लगे हैं, बेराजगारों की फौज में धकेल दिए जाएंगे। इसके अलावा, कृषि उपज की सरकारी खरीद समाप्त होने और भंडारण की सीमा समाप्त करने से जमाखोरों की बन आएगी। फसल के समय वे भंडारण और इस तरह बिना रोक-टोक जमाखोरी के लिए आजाद हो जाएंगे। कृषि उपज के दाम को कृत्रिम रूप से बढ़ा करके वे खाद्य महंगाई को बेलगाम कर देंगे। इसका प्रभाव सभी पर होगा। जब सरकारी खरीद नहीं होगी राशन व्यवस्था, सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी खत्म हो जाएगी।

मुख्य बात यह है कि पंजाब एक कृषि प्रधान राज्य है। यहां की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। कृषि पर दुष्प्रभाव का नतीजा पूरे राज्य को भुगतना होगा। इससे हर क्षेत्र प्रभावति होगा। यही वजह है कि यह संघर्ष केवल किसानों का संघर्ष नहीं, पूरे पंजाब का संघर्ष है।

पंजाब के किसान ही क्यों?

वह क्या वजह है कि जिस व्यापक स्तर पर पंजाब के किसान आंदोलित है, अन्य राज्यों के किसान इतना आंदोलित नहीं हैं? कुछ लोगों का कहना है उपज की सरकारी खरीद मुख्य तौर पर पंजाब, हरयाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में है। यह कारण मुख्य नहीं है क्योंकि हरयाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में इतने व्यापक स्तर पर किसान आंदोलित नहीं हैं, जितना पंजाब के किसान। यह सवाल महज न्यूनतम समर्थन मूल्य या उपज की सरकारी खरीद तक सीमित नहीं है। बेशक ये आंदोलन के अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। किसानों के नजरिये से संविदा खेती का मुद्दा अधिक गंभीर है। कृषि में कारपोरेट के प्रवेश से किसानों के वर्गीय अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है।

21019 में दूसरी बार सत्ता में आने के बाद मोदी के इशारे पर केंद्र सरकार द्वारा जनता पर फासीवादी हमला तेज हो गया है। इसकी तैयारी मोदी के प्रधानमंत्रित्व के पहले काल 2014-2019 में की जा चुकी थी। पहले दौर में यह आक्रमण मुख्यरूप से राजनीतिक स्तर पर था। ऐसे राजनीतिक हमलों के उदाहरण जम्मू कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करना और इसे विखंडित करना, तीन तलाक को अपराध बनाना, प्रलोभन और दमन की नीति के जरिए जोड़-तोड़, न्यायिक इतिहास में शर्मनाक बाबरी मस्जिद पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला, नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और नागरिकता के राष्ट्रीय पंजिका (NRC) की शुरुआत हैं। करोना के बावजूद, राजनीतिक मुद्दों पर इन हमलावर नीतियों के खिालाफ देश में संघर्ष जारी है।

विदेशियों के आगमन पर रोक और विदेश से आने वाले भारतीयों को अनिवार्य रूप से क्यूरंटाइन करके करोना को शुरुआत में ही रोका जा सकता था परंतु सरकार ने यह नहीं किया क्योंकि वह चाहती थी कि करोना देश में फैले बल्कि सरकार ने करोना को लेकर अनावश्यक रूप से भय का वातारण बनाया। करोना को फासिस्ट हमले के हथियार के रूप में इस्तेमाल करके सरकार ने पूरे देश को घरों में कैद कर दिया। पंजाब के मुख्यमंत्री ने एक कदम आगे बढ़कर कर्फ्यू घोषित कर दिया।

पंजाब में पहली बार लॉकडाउन के समय हमने इस बीमारी की प्रकृति और विभिन्न पहलुओं से इसे समझने की कोशिश की। कार्यकर्ताओं को वरिष्ठ नागरिकों और बीमारों के प्रति सावधानी व सजगता के प्रति शिक्षित करने और सरकार द्वारा उत्पन्न किए जा रहे भय के वातावरण में फर्क को समझने में सहायता की। लॉकडाउन के दूसरे दौर में जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति और पेंडु मजदूर यूनियन ने गांव स्तर पर, सड़कों और घरों के सामने विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया। जनता के मानसिकता को जांचने के लिए यह एक कदम था। हम इस नतीजे पर पहुंचे कि शहरी क्षेत्रों में, खासतौर से मध्यवर्ग में, भय ज्यादा है; गांवों, खासतौर से गरीबों में ऐसा भय नहीं है। भाकपा माले न्यू डेमोक्रेसी की पहल पर आठ राजनीतिक दलों और संगठनों के मोर्चे ने 13 अप्रेल को जलियावालां दिवस पर प्रदर्शन और शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए कार्यक्रम और मई दिवस पर आयोजन का आह्वान किया। हमने पहली मई को ग्रामीण क्षेत्र में मई दिवस पर जनसभा का आयोजन किया गया। इसके बाद कर्फ्यू तोड़ने, केंद्र सरकार व राज्य सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का पालन किए बगैर जनता के ज्वलंत मुद्दों पर आंदोलन करने का निर्णय लिया। हमने कार्यकर्ताओं को करोना के प्रति सचेत एवं शिक्षित किया कि यह बीमारी दरअसल है क्या और इसके नाम पर फैलाए जा रहे भय का मकसद क्या है।

संगुर के भवानीगढ़ में 15 मई को पहली बड़ी जनसभा आयोजित की गई। जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के नेतृत्व में कारखाने के गेट से हजारों की संख्या में मजदूरों का एक जुलूस निकला, जिसमें मजदूर मास्क नहीं पहने थे और सरकार द्वारा निर्देशित दूरी का पालन भी नहीं किया गया। यह दो किलोमीटर लंबा जुलूस था। इफ्टू की अगुआई में 22 मई को सैकड़ों लोग सरकार द्वारा तयशुदा एहतियात को दरकिनार करके सड़कों पर आए, कर्फ्यू तोड़ा। आंदोलन का मुद्दा था श्रमिकों को राहत तथा प्रवासी श्रमिकों की वापसी के लिए उचित व्यवस्था। मांग मानी जरूर गई परंतु दो सौ लागों के विरुद्ध मुकदमे भी दर्ज किए गए। जून में मछली बाजार हटाए जाने के विरोध में कामरेड निर्भय सिंह धुंडिके को छा़त्र और नौजवान नेताओं के साथ गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। इस गिरफ्तारी का विरोध और रिहाई के लिए राज्यव्यापी प्रदर्शन आयोजित किए गए।

मोगा में किर्ति किसान यूनियन के नेतृत्व में तीन हजार लोगों ने विरोध प्रदर्शन संगठित किया। इसके बाद अन्य अनेक जन प्रदर्शन हुए। आंदोलन का नेतृत्व करने वालों, कार्यकर्ताओं और पार्टी के जनसंगठनों के नेताओं पर लगभग 1700 हजार मामले दर्ज किए गए। मुकदमों और जेल की परवाह किए बगैर जन आंदोलन और प्रदर्शनों का यह सिलसिला जारी रहा। इस तरह से कोरोना का डर और सरकार द्वारा लादे गए प्रतिबंध हवा हो गए। इसके बाद, अन्य सभी राजनीतिक दलों और संगठनों ने जन आंदोलन संगठित करना शुरू किए। राज्य सरकार को इस स्थिति को मानने के लिए विवश होना पड़ा। जन प्रतिरोध के इस क्रम ने वर्तमान विशाल किसान उभार के लिए आधारभूमि विकसित करने में भूमिका अदा की है।

बहुआयामी संघर्ष

पंजाब की जनता केंद्र सरकार, सत्तारूढ़ दल और कॉरपोरेट पूंजी के खिलाफ जंग कर रही है। यह बहुआयामी संघर्ष है और वह इसे इसकी कीमत भी अदा कर रही है। केंद्र सरकार टकराव की नीति पर है। वह पंजाब को हर तरह से घेर कर परेशान कर रही है। मोदी सरकार ने जीएसटी में पंजाब को उसका हिस्सा नहीं दिया, ग्रामीण विकास निधि को इस तुच्छ आधार पर रोक दिया है कि पंजाब सरकार ने खर्च का पूरा हिसाब-किताब नहीं दिया है। यह सही है कि केंद्र सरकार को अधिकार है कि वह राज्य सरकार से हिसाब-किताब पूछ सकती है, लेकिन इस आधार पर फंड रोकने का अख्तियार उसे नहीं है। केंद्र सरकार का यह काम पूरी तरह से गैर कानूनी और अनैतिक है। किसान संगठनों द्वारा आंदोलन के दौरान रेल रोकने से आवश्यक वस्तुओं, खासतौर से कोयला और खाद का अभाव हो गया। खाद की आपूर्ति रुक जाने के कारण गेहूं और आलू की बुआई में समस्या उत्पन्न हो गई है। सरकार ने बिजली की आपूर्ति में बड़े स्तर पर कटौती कर दी है। खरीदे गए धान की की फसल उठाना भी समस्या बन गई।

उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति और तैयार माल लेने सब रेल रोको आंदोलन से प्रभावित हो गए। समस्या को समझ करके किसान संगठनों ने माल गाड़ियों को नहीं रोकने का फैसला लिया। रेल की पटरियों से हटकर रेल स्टेशनों पर धरना प्रारंभ किया लेकिन रेलवे बोर्ड ने ही माल गाड़ियां चलाने से इंकार कर दिया। उनका तर्क था कि प्लेटफार्म पर धरने में व्यापक जनता की मोजूदगी सुरक्षा के लिए खतरा है। इसके बाद, किसान संगठनों ने प्लेटफार्म भी खाली कर दिए और अपना धरना रेल स्टेशनों के सामने बने पार्कों में स्थानांतरित कर दिया लेकिन मोदी सरकार ने कह दिया जब तक किसान संगठन यात्री गाड़ियों को अनुमति नहीं देते, सरकार माल गाड़ियां भी नहीं चलाएगी। अब किसान संगठनों ने दोनों तरह की गाड़ियों के चलने देना मंजूर कर लिया। केंद्र सरकार का यह रवैया पंजाब के प्रति उसके द्वेष का परिचायक है। मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी करके फसल के डंठल जलाने पर एक करोड़ रूपए जुर्माना घोषित कर दिया है। यह संघर्षरत किसानों को दंडित करने की मंशा से किया गया है। रिजर्व बैंक ने कुछ किस्म के बकाया कर्ज को माफ करना तय किया था परंतु अगले ही दिन रिजर्व बैंक ने एक विशेष प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कह दिया, यह सुविधा किसानों के लिए नहीं है। यह किसानों के प्रति मोदी सरकार के बदला लेने की प्रवृति के अलावा और कुछ नहीं है।

फासीवादी केंद्र सरकार के निशाने पर पंजाब सिर्फ वर्तमान किसान आंदोलन की वजह से ही नहीं है। सरकार के फासिस्ट हमले के विरुद्घ पंजाब जन प्रतिरोध का केंद्र बन गया है। जम्मू कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे को समाप्त करके उसे दो केंद्र शासित राज्यों के रूप में विखंडित किया गया उस समय कश्मीर की जनता पर इस हमले के विरोध में पंजाब में आठ राजनीतिक दलों और संगठनों का एक मोर्चा बना था। इस विषय पर इस मोर्चे और अन्य जनसंगठनों ने बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन किए थे। इस मुद्दे पर देश के किसी अन्य हिस्से में इस स्तर पर व्यापक प्रदर्शन नहीं हुए। इसी तरह सीएए और एनआरसी के विरोध में भी पंजाब में बड़े-बड़े प्रदर्शन तब तक लगातार जारी रहे, जब तक कि लॉकडाउन थोप नहीं दिया गया। इसके बाद कर्फ्यू तोड़कर जन प्रदर्शन होने लगे। इस सबसे फासिस्टों को समझ में आने लगा कि उनके फासिस्ट हमलों के प्रतिरोध में पंजाब आगे है। इस वजह से वह पंजाब को कुचल देना चाहते हैं।

पंजाब आंदोलन के साथ केंद्र-राज्य संबंध और संघीय ढांचे से जुड़े अन्य मुद्दे भी मुखर हो गए हैं। किसानों के संघर्ष के साथ ही पंजाब विधानसभा के विशेष अधिवेशन में संसद में कृषि क्षेत्र में पारित इन तीन कानूनों को नकारते हुए पंजाब के लिए अलग कानून पारित कर दिया गया है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ विधानसभाएं पहले ही ऐसा कर चुकी हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में पंजाब के विधायकों (अकाली दल और आप के विधायकों को छोड़कर) ने दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर धरना दिया। माल गाड़ियों को चालू करने, जीएसटी की जमा राशि और ग्रामीण विकास निधि में से पंजाब का हिस्सा दिए जाने की मांगे थीं। पंजाब के मुख्यमंत्री ने अपनी इन मांगों को लेकर राष्ट्रपति से मुलाकात के लिए समय मांगा परंतु समय देने से इंकार कर दिया गया। इस प्रकार पंजाब की राज्य सरकार और केंद्र सरकार एक-दूसरे के आमने-सामने हैं। यह केंद्र-राज्य संबंधों में अंतर्विरोधों की अभिव्यक्ति है। भाकपा(माले) न्यू डेमोक्रेसी ने “पंजाब की घेराबंदी और सत्ता के केंद्रीकरण” विषय पर राज्यस्तरीय एक सम्मेलन का आयोजन किया था। सत्ता का केंद्रीकरण फासीवाद में अंतर्निहित है। देश में जिस रूप में भी संघात्मक व्यवस्था चल रही है, उस पर हमला इस आंदोलन के साथ स्पष्ट उभर कर सामने आ गया है। भारत का संविधान के अंतर्गत संघात्मक एकता के कुछ तत्व समाहित हैं, उन पर हमला हो रहा है। संविधान के अनुसार कृषि राज्य का विषय है, केंद्र सरकार को कृषि क्षेत्र में कानून बनाने का अख्तियार हासिल नहीं है। इसके बावजूद, ये तीन कानून बनाए गए हैं। यह संविधान में प्रदत्त “संघात्मक ढांचे” की उल्लंघन है। वर्तमान किसान आंदोलन का यह भी एक विषय है।

यह संघर्ष किसानों का जरूर है लेकिन पंजाब के सभी समुदाय इसके साथ हैं। संपूर्ण राजनीतिक वर्ग आंदोलन की हिमायत में है। कांग्रेस ने खुलकर समर्थन किया है। अकाली दल ने शुरू में यह कहकर इन कानूनों की तरफदारी करने की कोशिश की थी कि कांग्रेस किसानों को गुमराह करने की कोशिश कर रही है, जबकि यह कानून किसानों के हित में है। अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल केंद्र सरकार में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिह तोमर के एक पत्र का हवाला देकर बता रहे थे कि केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था का बरकरार रखने के लिए वचनबद्घ है। बाद में, यह देखकर कि उनके इस रुख से पार्टी किसानों से अलग-थलग हो जाएगी, अकाली दल ने भी पाला बदल लिया। केंद्र में उसके एकमात्र मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने मंत्रीमंडल से इस्तीफा दे दिया है। इस प्रकार अकाली दल राजग को छोड़ करके किसानों के आंदोलन का समर्थन में आने के लिए मजबूर हो गया है।

अरविंद केजरीवाल की आप ने भी इस तीन कानूनों के प्रति अपना विरोध जाहिर किया है। इसके बावजूद, ये पार्टियां – आप और अकाली दल, मोदी और उनकी सरकार के विरोध की जगह राज्य की कांग्रेस सरकार को निशाना बना रही हैं। इन सभी दलों का मकसद 2022 के चुनाव में चंडीगढ़ में सत्ता हस्तगत करना है। जहां तक भाजपा का ताल्लुक है, उसमें भी मतभेद हैं। भाजपा के वे नेता, जिनका आधार ग्रामीण इलाकों में है, इन तीन कानूनों का विरोध और आंदोलन का खुलकर समर्थन तो नहीं कर पा रहे हैं। इसके बावजूद, आंदोलित किसानों के प्रति उनका रुख सकारात्मक है। वे किसानों और सरकार दोनों से आग्रह कर रहे हैं कि आपस में बैठकर बातचीत करके समस्या के समाधान का प्रयास करना चाहिए। वे किसान संगठनों और सरकार के बीच माध्यम बने हुए हैं लेकिन भाजपा के मुख्य नेता, जिनका आधार शहरों में है, किसानों के इस आंदोलन के सख्त विरोधी हैं और आंदोलन के प्रति विषवमन कर रहे हैं। ये किसान नेताओं को बिचौलिए और शहरी नक्सल करार दे रहे हैं। भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व का भी ऐसा ही रवैया है। स्वयं मोदी ने बिहार में चुनाव अभियान के दौरान किसानों के आंदोलन को बिचौलियों का आंदोलन बताया था और जोर-शोर से ऐलान किया था कि ये तीन विधेयक और जम्मू कश्मीर के बारे में लिए गए निर्णयों को कभी रद्द नहीं किया जाएगा। इस प्रकार मोदी ने किसानों के इस संघर्ष की तुलना कश्मीर की जनता के संघर्ष से की है।

पंजाब का अवाम संघर्ष में एकजुट है। विभिन्न शहरों की औद्योगिक संस्थाएं और पंजाब स्थित उनकी शाखाओं ने किसान आंदोलन का समर्थन किया है। राज्य व्यापार मंडल और इसी प्रकार विभिन्न शहरों में व्यवसायी संगठन आंदोलन की हिमायत कर रहे हैं। ट्रांसपोर्टरों के विभिन्न संगठनों ने आंदोलन के समर्थन में वचन देते हुए अपने वाहनों को आंदोलन के हित में मुफ्त प्रदान किया है। पंजाबी फिल्मों के अभिनेता, निर्देशक और अन्य कलाकार आंदोलन और धरनों में सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं, गायक आंदोलन के गीत गा रहे हैं। पंजाबी संगीत का विषय अपराध, अपराधी गिरोहों के बीच युद्ध, हथियारों और नशाखोरी इत्यादि हुआ करते थे, अब उनकी ध्वनि किसानों के शोषण और उनपर जारी दमन को मुखर कर रही है। वे लोग जो कि खुलकर संघर्ष में हिस्सा नहीं ले पा रहे हैं, विभिन्न तरीकों से आंदोलन का सहयोग कर रहे हैं। जैसे कि आटा, दाल, दूध और अन्य खाने व जरूरत के सामान, लाउडस्पीकर, टेंट और धन आदि प्रदान करके वे मदद कर रहे हैं। यह एक व्यापक जन आंदोलन बन चुका है।

जनता अंत तक संघर्ष करने के लिए सन्नद्घ है। किसान समझ रहे हैं कि उनका अस्तित्व खतरे में है। संघर्ष के लिए उनका हथियार संगठन ही है। असंगठित अवाम अपनी मंजिल नहीं पा सकता।

आंदोलन की दिशा और वर्ग नेतृत्व का सवाल

आंदोलन के नेतृत्व में विभिन्न वर्ग के नुमाइंदे हैं। इसमें गरीब किसान, मझौले किसान, धनी किसान और यहां तक कि जमींदार वर्ग के लोग भी हैं। ऐसे लोग भी हैं जिनका किसानों या खेती-बाड़ी से कोई लेना-देना नहीं है। उनका मकसद सिर्फ यह है कि उनकी यह शोहरत हो जाए कि वे इस आंदोलन के नेता हैं। आंदोलन की मुख्य शक्ति मझौले किसान और गरीब किसान हैं। धनी किसान भी भारी तादाद में आंदोलन में सम्मिलित हैं। राष्ट्रव्यापी स्तर किसानों को संगठित किए बिना यह आंदोलन अपना मकसद हासिल नहीं कर सकता है। इसे समझ करके विभिन्न राज्यों में सक्रिय किसान संगठनों को एकजुट करने का प्रयास किया जा रहा है। बहरहाल इन प्रयासों का नतीजा यह है कि धनी किसान और जमींदार वर्ग के नुमाइंदे अधिक प्रमुख भूमिका में हैं। यह स्थिति आंदोलन के हित मे नहीं है।

धनी किसानों की प्रवृति समझौतापरस्त होती है, मझौले किसानों में भी धनी किसान के पिछलग्गूपन का रुझान रहता है। वे संगठन जो कि गरीब और छोटे किसान समुदायों की नुमाइंदगी करते हैं, आंदोलन के नेतृत्व में उनकी हिस्सेदारी कम है। इन स्थितियों में किसी आधे-अधूरे समझौते की गुंजाइश से इंकार नहीं किया जा सकता। इस तरह से एक बेहद जटिल स्थिति संघर्ष के सामने है। आंदोलन में सम्मिलित क्रांतिकारी ताकतों को सचेत रहना होगा। दो बातें खास गौरतलब हैं- एक, जनता अंत तक संघर्ष के लिए मुस्तैद है और व्यापक एकता इस संघर्ष की बुनियाद है। क्रांतिकारी ताकतों को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे एकता में दरार उत्पन्न हो। दूसरा, क्रांतिकारी ताकतों को किसी भी स्थिति में इस संघर्ष में उदासीन यहां अलग-थलग नहीं होना है। संघर्ष को उसके मुकाम तक पहुंचाने के लिए लगे रहना होगा, विचलित हरगिज नहीं होना है, संघर्ष के दौरान हर खतरे हर जोखिम का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। संघर्ष को बेहद सूझबूझ और बुद्धिमानी के साथ आगे बढ़ाने के जरूरत है। मकसद है संघर्ष की कामयाबी!


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