जमाखोरी, न्यूनतम समर्थन मूल्य के खात्मे, ठेका खेती के जरिए जमीनों पर कब्जा करने और देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालकर खेती किसानी को देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के हवाले करने की आरएसएस-भाजपा की मोदी सरकार की कोशिश के खिलाफ पूरे देश के किसान आंदोलनरत है। सरकार और आरएसएस के प्रचार तंत्र द्वारा आंदोलन को बदनाम करने, उस पर दमन ढाने और उसमें तोड़-फोड़ करने की तमाम कोशिशों के बावजूद आंदोलन न सिर्फ मजबूती से टिका हुआ है बल्कि उसके समर्थन का दायरा भी लगातार बढ़ रहा है। किसान विरोधी तीनों कानूनों को रद्द करने, विद्युत संशोधन विधेयक 2020 को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य के कानून बनाने की मांग जोर पकड़ रही है और ‘सरकार की मजबूरी- अडानी, अम्बानी, जमाखोरी‘ का नारा जन नारा बन रहा है।
पूरे देश ने देखा कि सरकार ने कैसे संसद को बंधक बनाकर तीनों किसान विरोधी कानूनों को बनाने का काम किया था। इसी तरह सरकार ने ठीक उसी समय देश के करोड़ों-करोड़ मजदूरों के भी हितों को रौंदने का काम किया। अटल बिहारी सरकार में शुरू की गई आरएसएस की श्रम कानूनों को खत्म कर लेबर कोड बनाने की प्रक्रिया को मोदी सरकार ने अपनी दूसरी पारी में अमली जामा पहनाया और इसके लिए सबसे मुफीद समय उसने कोरोना महामारी के वैश्विक संकट काल को चुना। इस मानसून सत्र में जब विपक्ष संसद में नहीं था तब बिना किसी चर्चा के उसने तीन लेबर कोड औद्योगिक सम्बंध, सामाजिक सुरक्षा और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं पास करा लिए और एक कोड जो मजदूरी के सम्बंध में है उसे सरकार ने 8 अगस्त 2019 को ही लागू कर दिया है। अब इन सभी कोडोंं की नियमावली भी सरकार ने जारी कर दी है। सरकार ने मौजूदा 27 श्रम कानूनों और इसके साथ ही राज्यों द्वारा बनाए श्रम कानूनों को समाप्त कर इन चार लेबर कोड को बनाया है। सरकार का दावा है कि सरकार के इस श्रम सुधार कार्यक्रम से देश की आर्थिक रैकिंग दुनिया में बेहतर हुई है। कृषि विधेयकों के पक्ष में दलील रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी ने तो यहां तक कहा कि देश की तरक्की के लिए पुराने पड़ चुके कई कानूनों को खत्म करना बेहद जरूरी है और उनकी सरकार यह कर रही है।
देखना यह होगा कि सरकार जिन कानूनों को खत्म कर रही है वह वास्तव में देश की और उसमें रहने वाले आम जन की तरक्की के लिए जरूरी है या उनकी बर्बादी की दास्तां को नए सिरे से लिखा जा रहा है। वास्तव में तो सैकड़ों वर्षों में किसानों, मजदूरों व आम नागरिकों ने अपने संघर्षो के बदौलत जो अधिकार हासिल किए थे उन्हें ही छीना जा रहा है क्योंकि सरकार ने आज तक अंग्रेजों के बनाए राजद्रोह जैसे काले कानूनों को तो खत्म नहीं किया उलटे इस कानून समेत यूएपीए, एनएसए जैसे कानूनों में जनता की आवाज उठाने वालों को जेल भेजना इस सरकार का स्थायी चरित्र बना हुआ है। दरअसल श्रम कानूनों के खात्मे और बिन मांगे किसानों को गिफ्ट दिए गए कृषि कानूनों में सरकार की इतनी गहरी रूचि देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के हितों के लिए है। आइए देखें सरकार द्वारा लाए गए नए लेबर कोड और उसकी नियमावली में क्या है।
व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं लेबर कोड के लिए बनाई नियमावली का नियम 25 के उपनियम 2 के अनुसार किसी भी कर्मकार के कार्य की अवधि इस प्रकार निर्धारित की जाएगी कि उसमें विश्राम अंतरालों को शामिल करते हुए काम के घंटे किसी एक दिन में 12 घंटे से अधिक न हो जबकि यह पहले कारखाना अधिनियम 1948 में 9 घंटे था। मजदूरी कोड की नियमावली के नियम 6 में भी यही बात कहीं गई है। व्यवसायिक सुरक्षा कोड की नियमावली के नियम 35 के अनुसार दो पालियों के बीच 12 घंटे का अंतर होना चाहिए। नियम 56 के अनुसार तो कुछ परिस्थितियों, जिसमें तकनीकी कारणों से सतत रूप से चलने वाले कार्य भी शामिल है मजदूर 12 घंटे से भी ज्यादा कार्य कर सकता है और उसे 12 घंटे के कार्य के बाद ही अतिकाल यानी दुगने दर पर मजदूरी का भुगतान किया जायेगा। साफ है कि 1886 के शिकागो के हे मार्केट स्क्वेर में मजदूर आंदोलन और शहादत से जो काम के घंटे आठ का अधिकार मजदूरों ने हासिल किया था उसे भी एक झटके में सरकार ने छीन लिया। यह भी तब किया गया जब हाल ही में काम के घंटे बारह करने के गुजरात सरकार के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी, उत्तर प्रदेश में योगी सरकार द्वारा ऐसा ही करने पर वर्कर्स फ्रंट की जनहित याचिका में हाईकोर्ट ने जबाब तलबी की और सरकार को इसे वापस लेना पड़ा।
यही नहीं, केन्द्रीय श्रम संगठनों की शिकायत को संज्ञान में लेकर अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए भारत सरकार को चेताया था कि काम के घंटे 8 रखना आईएलओ का पहला कनवेंशन है जिसका उल्लंधन दुनिया के किसी देश को नहीं करना चाहिए। साफ है कि इसके बाद देश के करीब 33 प्रतिशत मजदूर अनिवार्य छटंनी के शिकार हांेगे जो पहले से ही मौजूद भयावह बेरोजगारी को और भी बढ़ाने का काम करेगा।
व्यावसायिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए बने इन लेबर कोडों में ठेका मजदूर को, जो इस समय सभी कार्यों में मुख्य रूप से लगाए जा रहे है, शामिल किया गया है। पहले ही निजीकरण और डाउनसाइजिंग के कारण हो रही छंटनी की मार से इनका जीवन बर्बाद हो रहा है अब इन लेबर कोड ने तो उन्हें बुरी तरह असुरक्षित कर दिया है। इस कोड के अनुसार 49 मजदूर रखने वाले किसी भी ठेकेदार को श्रम विभाग में अपना पंजीकरण कराने की कोई आवश्यकता नहीं है अर्थात उसकी जबाबदेही के लिए लगने वाला न्यूनतम अंकुश भी सरकार ने समाप्त कर दिया। व्यावसायिक सुरक्षा कोड के नियम 70 के अनुसार यदि ठेकेदार किसी मजदूर को न्यूनतम मजदूरी देने में विफल रहता है तो श्रम विभाग के अधिकारी नियम 76 में जमा ठेकेदार के सुरक्षा जमा से मजदूरी का भुगतान करायेंगे। आइए देखते चले कि ठेकेदार के जमा का स्लैब कैसा है – 50 से 100 मजदूर नियोजित करने वाले को मात्र 1000 रूपया, 101 से 300 नियोजित करने वाले को 2000 रूपया और 301 से 500 मजदूर नियोजित करने वाले ठेकेदार को 3000 रूपया सुरक्षा जमा की पंजीकरण राशि जमा करना है। अब आप सोच सकते है कि इतनी अल्प राशि में कौन सी बकाया या न्यूनतम मजदूरी का भुगतान होगा। यही नहीं, कोड और उसके नियमावली मजदूरी भुगतान में मुख्य नियोजक की पूर्व में तय जिम्मेदारी तक से उसे बरी कर देती है और स्थायी कार्य में ठेका मजदूरी के कार्य को प्रतिबंधित करने के प्रावधानों को ही खत्म कर लूट की खुली छूट दी गई है।
इन कोडों में 44 व 45 इंडियन लेबर कांग्रेस की संस्तुतियों के बावजूद स्कीम मजदूरों जैसे आगंनबाडी, आशा, रोजगार सेवक, मनरेगा कर्मचारी, हेल्पलाइन वर्कर आदि को शामिल नहीं किया गया। लेकिन कुछ नए श्रमिक लाए गए है जैसे फिक्स टर्म श्रमिक, गिग श्रमिक और प्लेटफार्म श्रमिक आदि। इनमें से प्लेटफार्म श्रमिक वह जो इंटरनेट आनलाइन सेवा प्लेटफार्म पर काम करते है और गिग कर्मचारी वह है जो बाजार अर्थव्यवस्था में अंशकालिक स्वरोजगार या अस्थाई संविदा पर काम करते है। लागू किए जा रहे नए कृषि कानूनों में जो कारपोरेट मंडियों को मूर्त रूप दिया जा रहा है या अभी जो अमेजन, फ्लिपकार्ट आदि विदेशी कम्पनियों का आनलाइन व्यापार बढ़ रहा है। यह भी कि हाल ही में जिस तरह से अम्बानी ग्रुप्स में फेसबुक ने बड़ा निवेश किया है और वाट्सएप, फेसबुक द्वारा भारत के खुदरा व्यापार को हडपने की कोशिश हो रही है। इसी दिशा में ‘वाई-फाई क्रांति’ या पीएम वाणी कार्यक्रम की घोषणाएं की गई है। उसमें इस तरह के रोजगार में बड़े पैमाने पर श्रमिक नियोजित किए जायेंगे। इन श्रमिकों का उल्लेख औद्योंगिक सम्बंध और मजदूरी कोड में नहीं है क्योंकि इनकी परिभाषा में ही लिख दिया गया कि इनके मालिक और इन श्रमिकों के बीच परम्परागत मजदूर-मालिक सम्बंध नहीं है।
बात बहुत साफ है इन मजदूरों के मालिक भारत की सरहदों से बहुत दूर अमेरिका, यूरोप या किसी अन्य देश में हो सकते है। इनमें से ज्यादातर फिक्स टर्म इम्पलाइमेंट में ही लगाए जायेंगे। दिखाने के लिए कोड में कहा तो यह गया है कि फिक्स टर्म इम्पालाइज को एक साल कार्य करने पर ही ग्रेच्युटी भुगतान हो जायेगी यानी उसे नौकरी से निकालते वक्त 15 दिन का वेतन और मिल जायेगा लेकिन हकीकत बड़ी कड़वी होती है। सच यह है कि कोई भी मालिक किसी भी मजदूर को बारह महीने काम पर ही नहीं रखेगा, जैसा कि ठेका मजदूरों के मामले में उत्तर प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक केन्द्र सोनभद्र में हमने देखा है। यहां उद्योगों में ठेका मजदूर एक ही स्थान पर पूरी जिदंगी काम करते है लेकिन सेवानिवृत्ति के समय उन्हें ग्रेच्युटी नहीं मिलती क्योंकि उनके ठेकेदार हर साल या चार साल में बदल दिए जाते है और वह कभी भी पांच साल एक ठेकेदार में कार्य की पूरी नहीं कर पाते जो ग्रेच्युटी पाने की अनिवार्य शर्त है।
मजदूरों की रूसी क्रांति से प्रभावित भारतीय मजदूरों द्वारा 1920 में की गई व्यापक हड़ताल और देश में पहले राष्ट्रीय मजदूर केन्द्र के निर्माण के दौर में अंग्रेज ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाए थे जिसमें हड़ताल को प्रतिबंधित कर दिया गया और हर हड़ताल करने वाले को बिना कारण बताए जेल भेजने का प्रावधान किया गया था, इस बिल के खिलाफ भगत सिंह और उनके साथी संसद में बहरों कानों को सुनाने के लिए बम फेंक फांसी चढ़े थे। बाद में 1942 से 1946 तक भारत में वायसराय की कार्यकारणी के श्रम सदस्य रहते डा. अम्बेडकर ने औद्योगिक विवाद अधिनियम का निर्माण किया जो 1947 से लागू है। इस महत्वपूर्ण कानून की आत्मा को ही सरकार ने लागू किए जा रहे लेबर कोडों में निकाल दिया है। अब श्रम विभाग के अधिकारी श्रम कानून के उल्लंधन पर उसे लागू कराने मतलब प्रर्वतन (इनफोर्समेंट) का काम नहीं करेंगे बल्कि उनकी भूमिका सुगमकर्ता (फैसीलेटर) की होगी यानी अब उन्हें मालिकों के लिए सलाहकार या सुविधाकर्ता बनकर काम करना होगा।
हड़ताल करना इस नई संहिता के प्रावधानों के अनुसार असम्भव हो गया है। इतना ही नहीं, हड़ताल के लिए मजदूरों से अपील करना भी गुनाह हो गया है जिसके लिए जुर्माना और जेल दोनों होगा। औद्योगिक सम्बंध कोड की धारा 77 के अनुसार 300 से कम मजदूरों वाली औद्योगिक ईकाईयों को कामबंदी, छंटनी या उनकी बंदी के लिए सरकार की अनुमति लेना जरूरी नहीं है। साथ ही घरेलू सेवा के कार्य करने वाले मजदूरों को औद्योगिक सम्बंध कोड से ही बाहर कर दिया गया है।
हाल ही में देश कोरोना महामारी में लाखों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा का गवाह बना और इन मजदूरों की हालत राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बनी थी। इसलिए इनके आवास, आने जाने की सुविधा, सुरक्षा जैसे सवाल महत्वपूर्ण सवालों पर पहल वक्त की जरूरत थी। उसे भी इन कोड में कमजोर कर दिया गया, व्यावसायिक सुरक्षा कोड की धारा 61 के अनुपालन के लिए बने नियम 85 के अनुसार प्रवासी मजदूर को साल में 180 दिन काम करने पर ही मालिक या ठेकेदार द्वारा आवगमन का किराया दिया जायेगा। अमानवीयता की हद यह है कि कोड में लोक आपात की स्थिति में बदलाव करने के दायरे को बढ़ाते हुए अब उसमें वैश्विक व राष्ट्रीय महामारी को भी शामिल कर लिया गया है। ऐसी महामारी की स्थिति में मजदूरों को भविष्य निधि, बोनस व श्रमिकों के मुफ्त इलाज के लिए चलने वाली कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) पर सरकार रोक लगा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में बने सातवें वेतन आयोग द्वारा तय न्यूनतम वेतन 18000 रूपए को मानने की कौन कहे सरकार ने तो लाए नए मजदूरी कोड में मजदूरों की विशिष्ट श्रेणी पर ही बड़ा हमला कर दिया है। अभी अधिसूचित उद्योगों के अलावा इंजीनियरिंग, होटल, चूड़ी, बीड़ी व सिगरेट, चीनी, सेल्स एवं मेडिकल रिप्रेंसजेटेटिव, खनन कार्य आदि तमाम उद्योगों के श्रमिकों की विशिष्ट स्थितियों के अनुसार उनके लिए पृथक वेज बोर्ड बने हुए है, जिसे नया कोड समाप्त कर देता है। इतना ही नहीं न्यूनतम मजदूरी तय करने में श्रमिक संघों को मिलाकर बने समझौता बोर्डों की वर्तमान व्यवस्था को जिसमें श्रमिक संघ मजदूरों की हालत को सामने लाकर श्रमिक हितों में बदलाव लाते थे उसे भी खत्म कर दिया गया है।
वैसे तो आर्थिक सुधारों की 1991 में शुरू की गई प्रक्रिया में श्रम कानूनों को एक बाद एक बनी केन्द्र और राज्य सरकारों ने बेहद कमजोर कर दिया था अब ये हाथी के दिखाने वाले दांत ही रह गए थे जिसे भी मोदी सरकार ने उखाड़ दिया है। वास्तव में ‘ईज आफ डूयिंग बिजनेस’ के लिए मोदी सरकार द्वारा लाए मौजूदा लेबर कोड मजदूरों की गुलामी के दस्तावेज है। सरकार इनके जरिए रोजगार सृजन के जो भी सब्जबाग दिखाए सच्चाई यही है कि ये रोजगार को खत्म करने और लोगों की कार्यक्षमता व क्रय शक्ति को कम करने वाले ही साबित होंगे। इससे मौजूदा आर्थिक संकट घटने के बजाए और भी बढ़ेगा और पर्याप्त कानूनी सुरक्षा के अभाव में औद्योगिक अशांति बढेगी जो औद्योगिक विकास को भी बुरी तरह से प्रभावित करेगी। देशी विदेशी कारपोरेट हितों के लिए लाए ये कानून पूंजी के आदिम संचय को बढायेंगे और भारत जैसे श्रमशक्ति सम्पन्न देश में श्रमशक्ति की मध्ययुगीन लूट को अंजाम देंगे। इसलिए इन लेबर कोड को खत्म कराने और सम्मानजनक रोजगार के लिए लड़ना मजदूर वर्ग के सामने आज का सबसे बड़ा कार्यभार है। साथ ही देशी विदेशी कारपोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ जारी किसान आंदोलन में सक्रिय रूप से मजदूर वर्ग को उतरना चाहिए ताकि इस लड़ाई को एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई में बदल कर देश में जन राजनीति को मजबूत किया जाए। उम्मीद है भारत का मजदूर आंदोलन इस दिशा में अपने कदम आगे बढायेगा।
लेखक वर्कर्स फ्रन्ट के अध्यक्ष हैं