तन मन जन: कोरोनाकाल में डायबिटीज़ का जानलेवा कहर!


डायबिटीज़ या मधुमेह एक जानलेवा रोग है। भारत में मधुमेह रोगियों की तादाद साल दर साल बढ़ ही रही है। कहा जा रहा है कि अगले पांच वर्षों में दुनिया में सबसे ज्यादा मधुमेह रोगी भारत में होंगे। कुछ चिकित्सा विज्ञानी तो यह भी कह रहे हैं कि अगले कुछ वर्षों में भारत मधुमेह की राजधानी के रूप में जाना जाएगा।

वैसे आज भी भारत मधुमेह रोगियों का गढ़ है। भारत में वर्ष 2019 तक डायबिटीज़ के मरीजों की संख्या 7.7 करोड़ थी। अब कहा जा रहा है कि यह संख्या बढ़कर 8.0 करोड़ हो गई है। भारत में जितने मधुमेह रोगी हैं सम्भवतः उतने किसी और देश में नहीं लेकिन चिंता की बात यह है कि देश में मधुमेह रोगियों का आंकड़ा रोज ब रोज बढ़ता ही जा रहा है। इन दिनों देश और दुनिया में कोरोना वायरस संक्रमण की वैश्विक महामारी फैली है। बताया जा रहा है कि इस कोरोनाकाल में मधुमेह रोगियों की ज्यादा उपेक्षा हो रही है। प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल ‘द लान्सेट’ के एक अध्ययन के अनुसार ज्यादा उम्र के डायबिटिक लोगों की स्थिति कोरोनाकाल में जानलेवा है। यह अध्ययन चीन के वुहान के दो अस्पतालों में 191 मरीजों पर किया गया।

उनमें से कुछ तो ऐसे लोग हैं जिनकी कोविड-19 से मृत्यु हो चुकी है तथा कुछ लोग जो भाग्यशाली हैं और अस्पताल से इलाज के उपरान्त घर भेज दिए गए हैं। इनमें से 135 लोग जिनयिनतान अस्पताल तथा 56 वुहान पल्मनरी हास्पिटल से थे। इनमें से 58 मरीजों को उच्च रक्तचाप, 36 को डायबिटीज़ तथा 15 को दिल सम्बन्धी बीमारियां थी। इनकी उम्र 18 से 87 वर्ष तक के बीच थी।

डायबिटीज़ को लेकर जो भी अध्ययन हुए हैं उसके परिणाम बेहद चिन्ताजनक हैं। भारत में शहरों और गांवों में मधुमेह के रोगी बढ़ रहे हैं। पहले की प्रचलित धारणा अब टूट चुकी है। ऐसा नहीं है कि मधुमेह केवल अमीरों और अमीरों का रोग है। अब इसकी जद में अमीर-गरीब सब आ रहे हैं। भारत ही नहीं लगभग पूरी दुनिया में गरीब लोगों में डायबिटीज़ के बढ़ते मामले ने स्वास्थ्य और चिकित्सा वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा दी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी है कि सन् 2025 तक डायबिटीज़ दुनिया की सबसे ज्यादा मारक बीमारी होगी। देश के एक महत्वपूर्ण औद्योगिक संगठन एसोचैम ने अभी हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है जिसका शीर्षक है ‘‘नये मिलेनियम की महामारी डायबिटीज़।’’

रिपोर्ट का अहम पहलू है इस कथित अमीरी के रोग का गरीबों और आम लोगों में फैलना। रिपोर्ट कहती है कि आमतौर पर शहरों और अमीरों का रोग माना जाने वाला डायबिटीज़ अब 10 प्रतिशत सम्पन्न लोगों के मुकाबले 33 प्रतिशत सामान्य एवं निम्न मध्यम वर्ग के लोगों में फैल रहा है। शहरों के हिसाब से यह रोग सबसे ज्यादा हैदराबाद (16.6%) चेन्‍नै (13.5%), बंगलोर (12.4%), दिल्ली (11.6%) तथा मुम्बई (9.3%) को प्रभावित कर रहा है। एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में डायबिटीज़ के ज्यादा मामले (98 प्रतिशत) इन्सुलिन डिपेन्डेन्ट डायबिटीज़ मेलाइटस (एन.आई.डी.डी.एम) के हैं।

देश में डायबिटीज़ के बढ़ते खतरे के बीच एक आशंका और है कि डायबिटीज़ की दवाएं और इसके उपचार पर होने वाले खर्च भी बढ़ रहे हैं। डायबिटीज़ की दवाओं की मांग बढ़ने से विश्व की दवा कम्पनियां खासी उत्साहित हैं। अभी हाल ही में प्रकाशित ‘‘विश्व डायबिटीज़ मार्केट रिपोर्ट 2019-2024’’ के अनुसार डायबिटीज़ की सबसे ज्यादा बिकने वाली प्रमुख 8 दवा ब्रांड ने अक्टूबर 2017 से अक्टूबर 2018 तक 5.7 मिलियन यू.एस. डालर से ज्यादा की कमाई की।

इस रिपोर्ट का अनुमान है कि सन् 2024 तक डायबिटीज़ के उपचार के लिए प्रयुक्त होने वाला इन्सुलिन का बाजार बढ़कर 15 बिलियन यू.एस. डालर से ज्यादा हो जाएगा। रिपोर्ट यह भी कहती है कि हाल में चीन, भारत, ब्राजील और रूस में इन्सुलिन और डायबिटीज़ की दवाओं की मांग में ज्यादा वृद्धि हुई है। सच है कि भारत में डायबिटीज़ की दवाओं की मांग बढ़ी है। वर्ष 2017 के मुकाबले वर्ष 2019 में डायबिटीज़ की दवाओं की मांग में 20 के मुकाबले 35 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। चीन में वर्ष 2018 की तुलना में अब डायबिटीज़ के दवाओं की मांग 55.8 प्रतिशत बढ़ी है। यह जानना जरूरी है कि डायबिटीज़ की दवा बनाने वाली कम्पनियों में 80 प्रतिशत कम्पनियां अमरीका और जर्मनी की हैं।

भारत में डायबिटीज़ के बढ़ते मामलों में ‘‘कुपोषणजनित डायबिटीज़’’ भी महत्वपूर्ण है, हालांकि यह एक असामान्य प्रकार है लेकिन उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बुंदेलखण्ड के इलाके में अतिनिर्धन परिवारों में लम्बे समय तक कुपोषण की वजह से ‘इन्सुलिनोपीनिया’’ अर्थात कुपोषणजनित डायबिटीज़ के मामले देखे जा सकते हैं। इस स्थिति में शरीर में रक्त शर्करा को नियंत्रित रखने वाले बीटा सेल्स निष्क्रिय हो जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय डायबिटीज़ फेडरेशन (आई.डी.एफ.) मान रहा है कि ‘‘डायबिटीज़ मानवीय समाज के हर वर्ग अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, शहरी-ग्रामीण आदि को प्रभावित कर रहा है। अब इसे केवल ‘‘अमीरी का रोग’’ नहीं कहा जा सकता।

एक कहावत है ‘‘सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े।’’ डायबिटीज़ के रोगियों के लिए दवाओं की मूल्य वृद्धि सरकारी हमदर्दी के बावजूद इस कहावत को ही चरितार्थ करती है। आधुनिकता के प्रभाव में बढ़ती जीवन शैली से भारत के लोगों में भी एकाकीपन बढ़ रहा है। हमारा देश अब पूरी तरह से पश्चिम के प्रभाव में है। खानपान की बिगड़ी आदत और नकली जीवनशैली ने भारतीय परिवारों में भी तनाव बढ़ा दिया है। भारतीय गांव और कस्बे में रहने वाले लोगों में बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक संकट से भी डिप्रेशन और तनाव के मामले बढ़े हैं। डायबिटीज़ और तनाव से भी डायबिटीज़ का मामला बढ़ रहा है। इधर एलोपैथिक दवाओं के अन्धाधुंध उपयोग को भी डायबिटीज़ का कारण माना जा रहा है। कई मामले में तो नीम हकीम भी डायबिटीज़ के मामले को जटिल बना रहे हैं। अन्तरराष्ट्रीय डायबिटिक फाउन्डेशन (आईडीएफ) के अध्ययन के अनुसार जीवनशैली में बदलाव, बढ़ता मोटापा, शारीरिक श्रम की कमी, तनाव, वसायुक्त भोजन का अत्यधिक सेवन डायबिटीज़ को बढ़ा रहा है।

Comparison of times in ranges, eHbA1c and CV baseline (14 days before lockdown: PRE) and after 8 weeks of lockdown (the last 14 days: POST), according to baseline eHbA1c.

डायबिटीज़ के खतरों को समझे बिना इसके रोकथाम पर चर्चा सार्थक नहीं हो सकती। इसी क्रम में थोड़ा यह समझ लें कि डायबिटीज़ कितने प्रकार के होते हैं। चिकित्सा की भाषा में इसके तीन प्रकार बताए गए हैं। टाइप-1 डायबिटीज़, टाइप-2 डायबिटीज़, जेस्टेशनल डायबिटीज़। टाइप-1 डायबिटीज़ शरीर में पैनक्रियाज में इन्सुलिन न बनने या कम बनने की वजह से होता है। खून में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है और यह शरीर की कोशिकाओं के भीतर प्रवेश नहीं कर पाती। ऐसे में मरीज को अलग से इन्सुलिन के टीके लेने पड़ते हैं। टाइप-1 डायबिटीज़ में शरीर की इम्यून प्रणाली बागी हो जाती है। जैसे हमारे शरीर की प्रतिरक्षा (इम्यून) प्रणाली शरीर में घुसे किसी बैक्टीरिया वायरस को नष्ट कर शरीर की रक्षा करती है, ठीक वैसे ही डायबिटीज़ में यह प्रणाली पैनक्रियाज की बीटा-कोशिकाओं को दुश्मन मानकर नष्ट कर देती है। शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं के प्रति उसका यह उलट व्यवहार सचमुच आज तक एक रहस्यमय पहेली है, हालांकि इस पर काफी अरसे से शोध हो रहा है लेकिन बहुत ठोस अभी तक नहीं कहा जा सकता। अब तक के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि लोगों की एक खास जेनेटिक संरचना होती है जिस पर कुछ विशेष विषाणुओं का हमला आग में घी का काम करता है। वैज्ञानिकों ने मनुष्य के शरीर के छठे क्रोमोजोन (गुणसूत्र) पर कुछ ऐसे ऊतक अनुकूल सेंटीजन खोजे हैं जिनके होने पर टाइप-1 डायबिटीज़ की सम्भावना ज्यादा देखी गई है।

सामान्यतया टाइप-1 डायबिटीज़ के मामले आम डायबिटीज़ की तुलना में पांच फीसद ही होते हैं लेकिन यह ताउम्र व्यक्ति को ऊपर से इन्सुलिन की खुराक लेने को अभिशप्त बना देता है। टाइप-2  डायबिटीज़ दुनिया में डायबिटीज़ की सबसे ज्यादा पाई जाने वाली किस्म है। देश में लगभग 95 फीसद मामले टाइप-2 डायबिटीज़ के ही हैं। पहले तो इसे अधेड़ उम्र का रोग माना जाता था लेकिन अब यह 30-35 वर्ष की उम्र के लोगों में भी देखा जा रहा है और ऐसे मामले काफी बढ़ भी रहे हैं। टाइप-2 डायबिटीज़ में पैन्क्रियाज की बीटा कोशिकाएं इन्सुलिन तो बनाती हैं मगर यह मात्रा थोड़ी होती है। नतीजन रक्त में शर्करा का स्तर नियंत्रित या संयत नहीं रह पाता। टाइप-2 डायबिटीज़ में व्यक्ति के शरीर का मोटापा भी ज्यादा जिम्मेवार माना जाता है। यह मोटापा ही इन्सुलिन को ठीक से कार्य नहीं करने देता। काफी हद तक मोटे शरीर की शिथिलता भी इसके लिए जिम्मेदार है। जेस्टेशनल डायबिटीज़ उन स्त्रियों में होता है जो गर्भवती है, हालांकि शिशु जन्म के बाद यह ठीक भी हो जाता है।

आप समझ सकते हैं कि हमारे शरीर की सामान्य क्रियाएं हमारी बिगड़ी जीवनशैली से प्रभावित होकर हमें ताउम्र बीमार बना देती हैं। इसलिए जब मैं जीवनशैली की बात करता हूं तो कुछ लोग मुझे अवैज्ञानिक करार देते हैं। बहरहाल, डायबिटीज़ की अपनी जटिलता ही कम नहीं है ऊपर से यह कोविड-19 का कहर। इन दोनों ने मिलकर डायबिटीज़ को एक खतरनाक रोग में परिवर्तित कर दिया है।

नए अध्ययन में कोविड-19 के साथ डायबिटीज़ को जोड़कर इसे एक जानलेवा गठबन्धन करार दिया जा रहा है। वैज्ञानिक बता रहे हैं कि कोरोना वायरस से संक्रमित व्यक्ति यदि डायबिटीज़ का रोगी है तो इसका पाचन तंत्र कई गड़बड़ियों का शिकार हो सकता है और वह जानलेवा भी हो जाता है। वैज्ञानिक कह रहे हैं तो कोरोना वायरस के साथ जुड़नेवाला और उसे मानव कोशिका में प्रवेश का रास्ता देने वाला एसीई-2 प्रोटीन सिर्फ फेफड़ों में नहीं बल्कि अन्य अंगों और ग्लूकोज के पाचन में शामिल ऊतकों जैसे पैन्क्रियाज, छोटी आंत, वसा उत्तक, लिवर, किडनी में भी होती हैं। इन ऊतकों में प्रवेश करके कोरोना वायरस ग्लूकोज के पाचन में जटिल गड़बड़ियाँ पैदा कर सकता है। यह भी सम्भव है कि पाचन में जटिल गड़बड़ियां पैदा कर सकता है। यह भी सम्भव है कि कोरोना वायरस ग्लूकोज की पाचन प्रक्रिया को बदल दे जिससे पहले से डायबिटीज़ से ग्रस्त लोगों में और जटिलता पैदा हो जाए। लंदन के किंग्स कालेज में मेटाबोलिक सर्जरी के प्रोफेसर फ्रांसेस्को रूबिनो कहते हैं, ‘‘डायबिटीज़ सबसे ज्यादा लोगों को प्रभावित करने वाली बीमारी है और कोविड-19 के कारण उत्पन्न जटिलताओं की परेशानी अब वैज्ञानिकों को समझ में आ रही है।

कोरोना वायरस संक्रमण ने केवल तात्कालिक तौर पर ही चुनौती पेश नहीं की है बल्कि भविष्य में आने वाले अनेकों जैव संकटों की तरफ भी इशारा कर दिया है। भारत में हमारे सियासतदान भी अपनी ओछी समझ और घटिया बुद्धि की राजनीति में व्यस्त हैं लेकिन 138 करोड़ की आबादी वाले इस विशाल देश में यदि अब भी एक व्यापक जन स्वास्थ्य नीति और व्यवस्था नहीं बनाई गई तो यहां की जनता असमय मौत को गले लगाने के लिए तैयार रहे। कुर्सी पर डटे रहने या कुर्सी हथियाने की राजनीति ने यहां के दलों को खूंखार भेड़िया बना दिया है। कोविड-19 की चुनौतियों को हम अब भी ठीक से नहीं समझ पा रहे और न ही जनता को समझा पा रहे हैं। नतीजा कोविड-19 से बचाव के सरल तरीके भी लोग अपना नहीं पा रहे। यह व्यक्तियों की लापरवाही से ज्यादा सत्ता और सरकार की लापरवाही है।

लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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