गाहे बगाहे: कहु धौं छूत कहां सों उपजी, तबहि छूत तुम मानी


नसुड़ी यादव बिरहा गायन के इतिहास के सबसे अलग, विलक्षण और बोल्ड गायक थे। वे बिरहा के आदि विद्रोही थे और उन्होंने पूर्वांचल के समाज में व्याप्त सांस्कृतिक जड़ता, अज्ञानता, धार्मिक अंधविश्वासों और मिथकों पर इतना जोरदार प्रहार किया कि खुद मूर्तिभंजन के एक मिथक बन गए। अपने जीवनकाल में ही वे किम्वदंती हो गए थे।

जितनी वास्तविकता और आंच उनकी आवाज में थी उससे अधिक उनके किस्से हवा में थे। आज वह कहां गाने वाले हैं और कल कहां गोली चलते-चलते रह गई थी, इसकी कहानियां हर कहीं उनके पहुँचने से पहले पहुँच जाती थीं। उनको सुनने वालों का एक विशाल हुजूम हमेशा उनका इंतजार करता था। वह हुजूम न केवल उन्हें रात-रात भर एकटक सुनता बल्कि अपना प्यार और पैसा भी उनके ऊपर ख़ुशी-ख़ुशी लुटाता। कंजूस से कंजूस व्यक्ति भी किसी न किसी मोड़ पर नसुड़ी की कला पर मुग्ध होकर अपने खलीते में हाथ डाल ही देता। बदले में नसुड़ी अपने श्रोताओं के हुजूम के भीतर एक असहजता, बेचैनी और तर्कशीलता बो देते।

नसुड़ी जनता के गायक थे और किस्सागो थे। वे असाधारण और साहसी वक्ता थे। जो भी अतार्किक होता था वे उसके विरुद्ध बोलते और गाते थे। उनका मकसद लोगों का मनोरंजन करना नहीं बल्कि उनके भीतर इंसानियत और बराबरी की भावना भरना था। वे चातुर्वर्ण्य की थियरी के संहारक थे और ब्राह्मणों के तथाकथित ज्ञान और क्षत्रियों की नकली वीरता के मिथकों को नोचकर फेंक देते थे। सही मायने में वे किसानों के गायक थे। मजदूरों और चरवाहों के गायक थे। वे ‘बेद’ की धज्जियाँ उड़ाने वाले गायक थे इसलिए जनता उन्हें ‘लबेद’ का महान गायक मानती थी। जिस तरह बनारस में कबीर का मान था उसी तरह नसुड़ी का मान था। उनके जाने के बरसों बाद भी उनकी जगह भरी नहीं जा सकी है और अभी बिरहा विधा की जो गति है, उसको देखते हुए उस जगह के भरने का भी कोई आसार नहीं दीखता। नसुड़ी सदियों में एकाध पैदा होते हैं।

नसुड़ी का जन्म सन 1948 में वाराणसी-भदोही राजमार्ग पर स्थित कुरौना गाँव के एक किसान परिवार में हुआ था।  उनके पिता का नाम कटारी और माता का नाम मनभावती देवी था। उनसे छोटे दो भाई हैं और उनकी कुल चार बहनें हैं जिनमें से बड़ी बहन अब नहीं रहीं। उनके छोटे भाई बन्सू यादव किसान थे और रामधनी फ़ौज में थे। नसुड़ी ने ईंट भट्ठा चलाया और वे लोकप्रिय गायक के साथ ही कुशल कारोबारी भी थे। उनका गाँव कुरौना मिश्रित आबादी वाला गाँव है। इसमें यादव, राजभर, मिसरा, मुसलमान जुलाहे आदि रहते हैं और उन दिनों अधिकांश लोग खेतीबारी अथवा दस्तकारी पर निर्भर थे। गाँव में बनारसी साड़ी और गलीचे बुने जाते थे।

नसुड़ी एक संपन्न परिवार में पैदा हुए थे।  घर में अनाज और दूध-घी की कमी नहीं थी। वे चाहते तो पढ़-लिखकर कहीं बड़ी नौकरी कर सकते थे लेकिन उन दिनों अहिराने में स्कूल की जगह अखाड़े को ज्यादा तरजीह दी जाती थी। नसुड़ी के परिवार की जो सांस्कृतिक विरासत थी उसमें पढ़ाई का कोई ख़ास माहौल नहीं था। किसानी और अहिरऊ हनक ही बड़ी चीज थी। दूसरे, दूर-दूर तक कोई सलाह देने वाला नहीं था।  पिता मानते थे कि कौन सी नौकरी करनी है जो स्कूल के बिना कोई काम अटका है? खाओ-पियो और अखाड़े की धूल देह में लगाओ। नसुड़ी के चचेरे भाई गुंगई पहलवान थे। लिहाज़ा किशोर नसुड़ी उन्हीं के साथ कुश्ती लड़ने का अभ्यास करते, गायें चराते और खेती करते, हालाँकि उन्होंने अपने छोटे भाइयों को स्कूल भेजा और उन दोनों ने मन लगाकर पढाई की।

नसुड़ी के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव भी गुंगई पहलवान के कारण हुए। यह बहुत रोचक कहानी है और वास्तव में यह बताती है कि जिसे बात की कोर लगती है वही बतकहा भी होता है। जिसने सब कुछ सुन लिया और सुम्हा बना रहा वह क्या कर सकता है। वह बुरी से बुरी स्थितियों को बर्दाश्त कर सकता है और आपदा में अवसर के अलावा क्या तलाश सकता है। ऐसे कफ़नखसोट अपने चाहे जितना भी मौज मना लें लेकिन समाज और मानवता का कभी कोई भला नहीं कर सकते।

बनारस में वरुणा नदी के किनारे स्थित ग्राम चमाँव में नसुड़ी का बहिनियाउर था। सरजू चौधरी से उनकी बड़ी बहन ब्याही थीं। नसुड़ी के भांजे घमेंद्र यादव ने नसुड़ी से मेरा भी परिचय कराया था और मैं भी उनका भांजा हो गया। घमेन्द्र जी सीपीआइ के पुराने कार्यकर्ता हैं और लगभग पूरा जीवन उन्होंने इसी में लगाया। वे नसुड़ी की स्मृतियों को साझा करते हुए बताते हैं कि नसुड़ी बचपन से ही बड़े उखमजी थे। किसी से जौ भर न दबते थे। गुंगई उनके समौरिया थे और दोनों में प्रतिदिन और कभी भी किसी न किसी बात पर पटकी-पटका, मार-मरौझा साधारण बात थी। उन दिनों परिवार संयुक्त था। गुंगई से बड़े तीन भाई रामकेला, मुड़ील और मेवा थे। उनके ताऊ पुरुषोत्तम घर के मालिक थे। दोनों बच्चों में रोज के कपरफोड़व्वल से तंग आकर उपाय यह निकला कि नसुड़ी को उनकी बड़ी बहन के यहां भेज दिया। लिहाजा वे चमाँव आए और यहीं तीन-चार साल तक रहे। गुंगई को गोरू-भैंस में लगा दिया गया।

इतने दिनों के बाद लोगों को लगा कि अब बच्चा सुधर गया होगा। अब उसे घर बुला लेना चाहिए। ज्यादा दिन मेहमानी करना ठीक नहीं है, लेकिन घर के लोग गलत साबित हुए। नसुड़ी के मन में इस बात का गुस्सा था कि मारपीट तो गुंगई ने भी किया, लेकिन गाँवबदर सिर्फ उनको किया गया। इसलिए कि उनके बाप घर के मालिक हैं। लिहाजा नसुड़ी और बात-बेबात गुंगई को और बलपूर्वक पीटना शुरू किया। फिर वही हाय-तौबा मची, लेकिन अब कहां छोड़ा सकता है। अंत में तय हुआ कि नसुड़ी इतने उद्दंड और अयोग्य हैं कि वे कुछ नहीं कर सकते। इसलिए इनको डोरा उठाने में लगा दिया जाय। डोरा उठाना बुनकरी का सबसे छोटा काम माना जाता है। अनस्किल्ड। अंततः उनको गाँव में भरौटी में डोरा उठाने पर लगा दिया गया। यह घरवालों द्वारा नसुड़ी को दी गई दूसरी सज़ा थी।

नसुड़ी ने भरौटी में काम तो शुरू कर दिया, लेकिन उनके मन में इस बात को लेकर बहुत गहरा गुस्सा था। वे वहीं रहने और खाने-पीने लगे। जैसे ही यह खबर घर में पहुंची कि वे भरों-चमारों के साथ खाने-पीने लगे हैं, वैसे ही घर में भूचाल आ गया। फ़रमान जारी हुआ कि अब इसे न घर में घुसने दिया जाय और न ही अपने बर्तन में खाना-पानी ही दिया जाय। लिहाजा जब नसुड़ी घर आते तो उन्हें खपड़ी में खाना दिया जाता और चारपाई पर भी बैठने न दिया जाता। नसुड़ी एक मन में अपने घर और समाज के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला धधक उठी। वे इस बात पर लड़ने लगे कि यह घर मेरा है। क्या मैं अपने घर में अपने बर्तन में खा नहीं सकता। कौन रोकेगा। बहुत तनावपूर्ण माहौल था। उनके मन में यहीं से जाति-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के खिलाफ विस्फोट हुआ और उन्होंने इसके खिलाफ मोर्चाबंदी शुरू की।

लेकिन इसके लिए कोई माध्यम जरूरी था। उनके पास एक कड़ियल आवाज थी और वह माध्यम बना बिरहा। युवा होते नसुड़ी के मन में गाने की ललक पैदा होने लगी। पहले तो यूं ही गुनगुनाते रहे, लेकिन ललक थी कि थमने की बजाय बढती ही चली जाती थी। नसुड़ी की आवाज तो दमदार थी लेकिन गायकी का कोई खास शऊर नहीं था। लोगों ने कहा कि बिरहा गाना कोई खेल नहीं है, गाने के लिए दम चाहिए। बात लग गई और यही से उनकी गायकी की यात्रा प्रारंभ हुई।

उनके साथ लम्बे समय तक ड्योड़िहा रहे भरथरा गाँव के रामभजन मौर्य बताते हैं कि नसुड़ी बचपन से ही जुनूनी व्यक्ति थे। उन्हें पिनक थी कि मुझे बिरहा सीखना है और सबसे अलग सीखना है। इस पिनक में वे पास के ही सजोई गाँव में स्थित तालाब के पास आश्रम बनाकर रह रहे खट्टू बाबा के पास गए। खट्टू बाबा औघड़ थे लेकिन उनकी बातें बहुत रोचक होती थीं। वे वेद विरोधी और लोकपक्ष के प्रशंसक थे। उनकी बातें निर्गुण परम्परा को लेकर होती थीं। आश्रम में एक अखाडा भी था। नसुड़ी वहीं रियाज मारते थे और बाबाजी का सत्संग सुनते थे। धीरे-धीरे उनका एक मानस बनने लगा।

इसके बावजूद गाने की नियमित और बेहतर स्थिति नहीं बन रही थी। उन दिनों सजोई गाँव के ही रामधार मौर्या नटखट बिरहा गाते थे। नाटे कद के नटखट जी अहमदाबाद के गायक के नाम से मशहूर थे। नसुड़ी उनके पास गए। उनसे कुछ दिनों तक सीखा, लेकिन नटखट अपने इस नए शिष्य की जिज्ञासाओं से ऊब गए और उन्हें लेकर अपने गुरु सरजू खलीफ़ा के यहाँ सारनाथ के पास गंज गाँव गए। सरजू खलीफ़ा गुरु बिहारी के चार शिष्यों में से एक थे जिनकी गायकी का अखाडा था। नसुड़ी ने उन्हीं से गंडा बंधवाया और गाने लगे। 

रामभजन मौर्य बताते हैं कि सरजू खलीफ़ा गुरु बिहारी के चार शिष्यों में थे। उनके अनुसार बिहारी के चार शिष्यों में रम्मन यादव, पत्तू यादव, गणेश यादव और सरजू राजभर थे। इन लोगों ने अपने नाम से अखाड़े चलाये और खलीफ़ा कहलाये। जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंदी भाषा और लोक साहित्य के मर्मज्ञ प्रोफ़ेसर चंद्रदेव यादव दूसरी बात कहते हैं। उनके अनुसार भी बिहारी के चार शिष्य थे लेकिन चौथे का नाम सरजू राजभर नहीं मूसे यादव था। प्रोफ़ेसर यादव सरजू के अखाड़े को इन चारों से अलग स्वतंत्र अखाड़ा कहते हैं जिसमें नसुडी यादव और हैदर अली जुगनू अपने दौर के दो नामी गायक थे। सरजू खलीफ़ा प्रगतिशील विचारों के कवि थे और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ चेतना फ़ैलाने वाले बिरहे को बढ़ावा देते थे। नसुड़ी ने इस चीज की महत्ता को न केवल अच्छी तरह समझा बल्कि जीवन भर इसको आगे बढ़ाने के लिए समर्पित रहे।

नसुड़ी के बारे में अनेक दिलचस्प बातें प्रचलित हैं जो न सिर्फ उनकी दृढ़ता बल्कि उनके साहस और प्रगतिशीलता को भी दर्शाती हैं। जैसे-जैसे उनकी प्रसिद्धि बढ़ी, वैसे-वैसे तीनों अखाड़ों में से उनको अपने यहां आने का निमंत्रण मिलने लगा। कहा जाने लगा वे यादव हैं और उन्हें राजभर नहीं, बल्कि यादवों के अखाड़े में आना चाहिए। उन्हें अनेक प्रकार से घेरने की कोशिश की गई। तीनों अखाड़ों की एक सामूहिक पंचायत जुटी और इस बात पर गरेरा बांधा कि नसुड़ी अहीर हैं तो उनको अहीरों के अखाड़े में गाना चाहिए,  लेकिन नसुड़ी किसी और धातु के बने हुए थे। कोई भी भावुकता उन्हें टस से मस नहीं कर सकी और उन्होंने सरजू खलीफ़ा को छोड़ने से इंकार कर दिया और अंत तक वहीं बने रहे।

बिरहिया नसुड़ी एक आग थे। जहां भी पहुँचते वहां मिथकों और कर्मकांडों का धुर्रा उखाड़ देते। बिरहा का सबसे रूढ़ और पोंगा पक्ष यह था कि तीनों अखाड़े भले ही भक्ति, सौंदर्य और वीरता की गायकी की अपनी विशेषताओं से चारों ओर चमक बिखेर रहे हों लेकिन उनका मूल चरित्र एक था। तीनों ही बनी-बनाई सांस्कृतिक मान्यताओं और धारणाओं को कोई चुनौती नहीं देते थे। बेशक उनमें शैलियों का फर्क नज़र आता था और जिन कथाओं को वे उठाते थे उनमें भी विविधता होती थी। मसलन, अगर एक अखाड़ा भीष्म के अविवाहित होने और आत्मसंयम पर दृढ़ रहने को अपने कथानक का सूत्र बनाता था, तो दूसरा एक ऐसी कथा खोज ले आता जिसमें भीष्म की दमित प्रेम भावना का कोई सिरा दिखलाया जाता। तीसरा अखाड़ा भी क्यों पीछे रहने लगा। वह एक ऐसा सिरा निकालता जिसमें भीष्म भीषण और दुर्दमनीय वीर होते। गुस्से में वे एक ही बाण में पूरी सेना जलाकर राख कर देते क्योंकि आत्मसंयम से वे अपनी कामवासना को जलाकर राख कर चुके थे।

गरज यह कि भीष्म वही, लेकिन उन्हें तीन अलग तरीके से परिभाषित किया जाता। इस कौशल से भीष्म की गढ़ी गई छवि भी बरक़रार रह जाती और तीनों अखाड़ों की विशेषता भी बनी रह जाती, लेकिन नसुड़ी ऐसे न थे। वे तर्क से भीष्म का एक अवैध विवाह खोज लाते और महाभारत की कई संतानें भीष्म का खून लिए रेंगती रहतीं। मतलब नसुड़ी भीष्म जैसे अतिमानवीय व्यक्तित्व का साधारणीकरण कर देते और लोक की निगाह में उनका मुलम्मा उतार देते। इन बातों को सुनने के लिए इतने लोग जुटते कि बिरहा स्थल अररा जाता। बीच में जगह न मिलती और भीड़ चारों ओर फैलती जाती। मुकाबला जितने बड़े कलाकार से होता उतना ही नसुड़ी का जलवा अधिक होता क्योंकि उधर किसी चमत्कार का तूमार बांधा जाता और इधर नसुड़ी बेरहमी से उसे तोड़ देते। कहां ब्रह्मा मुँह से बच्चा पैदा करता, कहां नसुड़ी अपने देसी अंदाज में पूछ रहे होते कि हम तो बच्चा पैदा होने का एक ही रास्ता जानते-सुनते हैं भिया। का इहां बैठे लोग किसी और रस्ते के बारे में जानते हैं क्या? जनता के बीच से शोर उठता– नाहीं! तब? नसुड़ी फिर उस बिरहिया से पूछते– तब तू कवन दूसर रस्ता देख लेहला कनचोदऊ? बताव, बताव जल्दी नाहीं त रम्मा लाल हौ। इतने पर तो जनसमूह नसुड़ी पर अपने को लुटा देता और बाजी ही पलट चुकी होती।

‘रम्मा लाल हौ’ नसुड़ी का तकिया कलाम था, हालांकि यह केवल एक मजाकिया जुमला भर था लेकिन इसका अर्थ बहुत व्यापक और चिंतनीय है। लाल रम्मा यानी आग में तपाया गया सब्बल जिसको छूकर कोई भी अपने साहस और सफाई का परिचय दे सकता है। जलता हुआ सब्बल किसी को जला देने के लिए है। यहां इसका अर्थ अग्निपरीक्षा है यानी नसुड़ी अपने मुकाबले में खड़े गायक से कहते हैं कि जो तुम बात कह रहे हो वह झूठ है। तर्क से उसे साबित करो अन्यथा अग्नि परीक्षा दो। किसी गायक ने एक बार एक नयी तर्ज बनाई थी– कहवां क टिकुली, लिलरवा मारेला जान। कहवां क टिकुली। नसुड़ी की नज़र में यह स्त्री का अपमान था। वे इस तर्ज की हँसी उड़ाते हुए कहने लगे– कनऊँ, लिलरवा तोहार जान मारत हौ। कोई के बहिन-बिटिया अइसहीं देखबे रे तैं। आंय। पेड़वा के टिकुली लगा देबे त उहो जान मारी का रे। बोल नाहीं त रम्मा लाल हौ…

नसुड़ी का अंदाज जितना निराला था उनका सरोकार और भी व्यापक था। वे पहले ऐसे गायक थे जो समाजवादी विचारों और अपने दौर के प्रगतिशील विचारों को गाते थे। 1970 के आसपास वे मंडुआडीह के पास रहनेवाले कवि स्वरूप मास्टर से जुड़े। स्वरूप मास्टर अन्धविश्वास विरोधी थे और सामाजिक जागृति फैलाने में जी-जान से लगे थे। नसुड़ी के जीवन में इस परिचय से एक नया आयाम जुड़ा। वे सड़ी-गली सामाजिक मान्यताओं और पाखंडों के खिलाफ जमकर गाने लगे। स्वरूप मास्टर और नसुड़ी की जोड़ी लम्बे समय तक चली। नसुड़ी इतने लोकप्रिय हो गए कि सबसे ज्यादा भीड़ उन्हीं को सुनने के लिए जुटने लगी। उन्होंने पेरियार और ललई सिंह यादव के विचारों को गाया। वे जब सच्ची रामायण की चाबी गाते तो अक्सर गोली चलने और मारपीट हो जाने की नौबत आ जाती, लेकिन नसुड़ी निडर अपने उद्देश्य में लगे रहे।

उन्होंने देश भर में गाया और अपने दौर के सभी बड़े गायकों के मुकाबले में गाया। पारसनाथ यादव, रामकैलाश यादव, रामदेव यादव, दुर्जन यादव, मोहम्मद मुस्तफा, मोहन यादव, बल्ली यादव, श्रीराम यादव, दीपक सिंह, विजय लाल यादव, चंद्रकिशोर पांडे, हैदर अली जुगनू और बद्री, मन्नूलाल आदि सभी के साथ उनका मुकाबला ही नहीं रहा बल्कि वाद-विवाद और झगडा भी होता रहा। उनके प्रसिद्ध झगड़ों में नई सड़क वाराणसी रामदेव के साथ हुआ झगड़ा, मुस्तफा से पुष्पराज सिनेमा के सामने शिवपुर, वाराणसी में ऐसा झगड़ा और मारपीट शुरू हुई कि लोग बताते हैं वहां मची भगदड़ के बाद कम से कम एक ट्राली जूते-चप्पल बरामद हुए थे। शिवपुर थाने के तत्कालीन दरोगा ने नसुड़ी को धमकी दी लेकिन वे दबे नहीं। गाने आये और गाया। इलाहाबाद के गायक रामकैलाश यादव से उनका सुरियावां में और हैदर अली जुगनू से चौरी बाजार में हुआ मुकाबला आज भी किम्वदंतियों में है। किसी से दबना नसुड़ी के खून में नहीं था और सारी लड़ाई मिथकों, पोंगापंथ और ब्राह्मणवाद पर उनके जोरदार प्रहार के बाद ही शुरू होती थी।

नसुड़ी के प्रसिद्ध बिरहे बड़ी संख्या में हैं जिनमें ‘मरकहवा दूल्हा’, ‘नौ दिन की महाभारत’, ‘कृष्ण का पाप’, ‘बनारस में चुंगी’, ‘मकरध्वज की सच्चाई’, ‘भीष्म पितामह की शादी’, ‘बांग्लादेश की उत्पत्ति’, ‘बचऊबीर’, ‘चार गिलास चार बेवकूफ’, ‘गाजी मियाँ’, ‘राजा बन्नार का अंतिम’, ‘दालमंडी काण्ड’ और ‘ज्ञानवापी काण्ड’ प्रमुख हैं। अपनी शैली में अनूठे गायन के लिए 1984 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के हाथों उन्हें सम्मानित किया गया था। इसके अतिरिक्त जिला और प्रदेश स्तर के दर्जनों सम्मान उन्हें मिले थे। अम्बेडकर जयंती और रविदास जयंती के मौकों पर वे नियमित गाते थे और चुनाव के दिनों में लालू प्रसाद यादव के प्रचार के लिए बराबर जाते थे। नसुड़ी की सामाजिक स्वीकृति बहुत थी। लोग अकुंठ भाव से उन्हें आदर देते थे। अपने दौर में उन्होंने किसान जनता को अंधविश्वासों और पाखंडों से मुक्त करने में बेमिसाल भूमिका निभाई।

नसुड़ी केवल पाखंड और जाति-वर्ण व्यवस्था के खिलाफ गाते भर नहीं थे बल्कि यह उनकी चारित्रिक विशेषता थी कि वे हरसंभव जातिवाद का निषेध करते थे। यादव अखाड़ों के द्वारा घेर-घार किये जाने के बावजूद उन्होंने सरजू खलीफ़ा के ही अखाड़े में अंतिम क्षण तक गाया। उनके कवि, साजिन्दे और ड्योडिहा समाज के विभिन्न हिस्सों से आते थे। उनकी टीम के स्थायी सदस्यों में मुमताज (हारमोनियम), नान्हू भारती (ढोलक), रामजी राजभर, रामभजन मौर्य, रामनिहोर पाल और छोटेलाल राजभर (टेरिहा) मुख्य थे। उनके लिए बिरहा लिखने वालों में नंदकिशोर चौहान (खजूर गाँव, मुगलसराय), छोटेलाल यादव, चंद्रदेव यादव, कन्हैयालाल पटेल और बच्चालाल राजभर आदि थे।  भरथरा के रामभजन मौर्य उनके संशोधक और प्रोम्प्टर थे।

जाति को लेकर नसुड़ी के अनेक किस्से कहे जाते हैं। एक बार वे बिरहा गाने पटना गए हुए थे। वहीं एक व्यक्ति ने उन्हें अपने बच्चे की बरही में गाने का बयाना दिया। जब तीसरे पहर नसुड़ी अपनी टीम के साथ वहां पता पूछते हुए पहुंचे तो उस आदमी के घर पर कोई कार्यक्रम न था। किसी ने कहा कि घर पर नहीं बल्कि पाही पर आयोजन है। नसुडी बहुत चकित हुए कि पाही पर बरही का कार्यक्रम रखा है। खैर, वे वहां पहुंचे तब वहां भी वही दृश्य था। एक मजदूर बैंगन भून रहा था। उन्होंने समझ लिया कि उनके साथ मजाक हुआ है। दूसरे मजदूर ने बताया कि यहां बरही नहीं है। इस गाँव में लोग देखना चाहते हैं कि क्या नसुड़ी चमार के हाथ का बनाया हुआ भोजन खा सकते हैं या वैसे ही जज्बा हांकते हैं कि मैं जाति-पांति नहीं मानता। नासुड़ी हँसे– यह बात है। फिर उन्होंने स्नान किया और टीम के साथ प्रेम से खाना खाया। गए थे तो कुछ गाना जरूरी था। जब वे पहला गाना गाये तो पारस पत्थर का प्रसंग ले आये और बोले कि लोग मानते हैं कि अगर कहीं मैं किसी और जात के आदमी से छू जाऊंगा तो उसी तरह हो जाऊंगा। इसीलिए बड़े लोग सोचते हैं कि चमार न छू दे नहीं तो वे चमार हो जाएंगे। और गज़ब है कि कुत्ते को छू देते हैं लेकिन कुत्ता नहीं होते। वैसे ही आज ई मिसिर जी हम लोगों को बुलाए हैं कि क्या हम लोग चमार के हाथ का बना खाना खाते हैं कि नहीं। तो हम लोगों ने तो खा लिया। हम चमार हो गए। कल अहीर के घर खाएंगे तो फिर अहीर हो जाएंगे। परसों किसी और के हाथ का खाकर उसके जैसा हो जाएंगे। लेकिन एक सवाल है कि जब किसी के हाथ का छुआ खाने से जाति बदल जाती है तो अपने घर में मिसराइन के हाथ का खिलाकर इन बेचारों को बाभन क्यों नहीं बनाते। क्यों इनको चमार बनाये हुए हैं। बताओ कि इनके चमार बनाने में तुम्हारा क्या लाभ है। और दिखाओ कि तुम्हारे हाथ का छुआ खाने में सचमुच इनकी जाति बदलती है। अगर नहीं बदली तो रम्मा… जनता ने इतने जोर से ‘’लाल है’’ कहा कि मेजबान बेचारे का मुंह काला हो गया।

कवि ओमप्रकाश अमित के पिता बुल्लुर यादव अपने समय के बड़े बिरहा गायक थे। उनसे सुने एक किस्से को अमित ने सुनाया था जिससे पता चलता है कि नसुड़ी ने अपने भीतर से पाखंड के साथ बाहरी पाखंड से किस प्रकार संघर्ष किया था। यह उनके बचपन की बात है। एक महापात्र जब लोगों के यहां मृतक-संस्कार कराने ले जाता तो साथ में अपनी छोटी बेटी को भी ले जाता और लोगों से कहता कि इस लड़की को ही मृतक की आत्मा मान लो और खूब खिलाओ पिलाओ। खूब दान दो। कभी-कभी तो वह लड़की को सिखा देता कि अच्छे-अच्छे कपड़ों और गहनों के लिए ठनगन कर लेना और जब तक मनचाहा न मिले तब तक मुंह फुलाए रहना। लड़की ऐसा ही करती। गरीब किसान-मजदूर-चरवाहे उसकी नाराजगी दूर करने के लिए घर उजाड़ कर देने को विवश हो जाते। उन्हें लगता कि न देने से पता नहीं मृतक की आत्मा कितने दिन नरक में भटकती रहे। खटिया-मचिया, कुर्सी-टेबुल, धोती-कुरता, साड़ी-ब्लाउज़, हंसुली-करधनी, गहना-गुरिया, तोशक-तकिया, गाय-भैंस, सिद्धा-पिसान, चावल-दाल, घी-अचार जो मांगता वह देना पड़ता। अपने आस-पास नसुड़ी लगातार यह देख रहे थे। वे देख रहे थे कि मृतक संस्कार और मृतक भोज के चक्कर में बेचारे गरीब और गरीब होते जाते और महापात्र का घर भरता जाता था। उसकी लड़की जैसे-जैसे बड़ी होती जाती वैसे-वैसे वह उसके लिए दहेज़ जुटाने की लालच में अपनी मांग और बढ़ाता जाता। नसुड़ी जलकर कोयला हो जाते लेकिन कोई उनकी सुनने वाला नहीं था।

उन्हीं दिनों नसुड़ी की बड़की माई चल बसीं। यह मौका वे छोड़ना नहीं चाहते थे। जिस दिन खुर्सी का पिंडा परायण हुआ उस दिन महापात्र ने अपनी बेटी की ओर इशारा करते हुए कहा– ‘ले आवा जजमान। जवन मृतात्मा के खिवायल चाहत हया। घीव-दूध मेवा-मिठाई, धोती-कपड़ा, गहना-गुरिया ले आव सब।’

नसुड़ी तत्पर थे। लपक कर पहुँचे और महापात्र की जवान बेटी का हाथ पकड़कर कहने लगे– ‘का रे बड़की माई। अब हम तोहके कहीं जाये न देब। तोरे बिना बड़का बाऊ दस दिन में एकदम मुरझा गए। और तू तो एकदम जवान हो गई रे बड़की माई। चल घरे में सबसे मिल-जुल। तोके देखके बड़का बाऊ के जान आ जाई।’ और फिर अपने हाथ से उसे लड्डू खिलाने लगे। 

महापात्र यह देखकर आगबबूला  हो गया। ऐसी हिमाकत आज तक किसी जजमान ने नहीं की और इसे देखो। उसने नसुड़ी को जोर से डांटा– ‘अरे नसुडिया! क्या करता है?’

नासुड़ी कहां दबने वाले थे।  बोले– ‘अरे बभना तू क्या बोलता है। यह माई बेटवा क मामला हौ।’

घर के लोग भी महापात्र की तरफदारी करने लगे, लेकिन नसुड़ी के तर्कों के आगे किसी की एक न चली। वे कहने लगे कि ‘अगर ये कह रहे हैं कि यह मेरी बड़की माई है तो बिलकुल सच कह रहे हैं। और तब मैं अपनी बड़की माई को कहीं न जाने दूंगा।’ महापात्र पसीने-पसीने हो गया। आज बुरे फंसा था। आखिर उसे अपने पाखंड का झामा उठाना पड़ा और वह अपनी लड़की को लिए-दिए वहां से रफूचक्कर हो गया।

नसुड़ी देवता नहीं थे, बल्कि एक कद्दावर इन्सान थे। वे इंसानियत को अन्धविश्वास और पाखंडों के मकड़जाल से बाहर निकालकर उसे सोच-विचार के ऊंचे पायदान पर ले जाना चाहते थे। वे किसी भी प्रकार की गैर-बराबरी और शोषण की व्यवस्था को नकारने को प्रतिबद्ध थे। धर्म के नाम पर जनता को लूटने वाले सामंतों और पुरोहितों की पोल खोलने की उनकी ज़िद कभी-कभी हिंसक संघर्ष तक पहुँच जाती थी। वे अपने श्रोताओं के मन में ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति गहरा अविश्वास पैदा कर देते थे। नसुड़ी ने अपने समय की सारी अतार्किक गतिविधियों और व्यवहारों के खिलाफ एक मुहीम चलाई।

बिरहा की जो सबसे क्रांतिकारी और जनपक्षधर विरासत है, उसमें नसुड़ी का हिस्सा बेशक सबसे अधिक और शानदार है। संयोग से उनकी आवाज अभी भी सुरक्षित है। आप यूट्यूब पर उनके कई बिरहे सुन सकते हैं!



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