संयोग की बात है कि आज जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख दोनों का जन्मदिन था। प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई दामोदरदास मोदी ने हमेशा की तरह इस मौके को भी इवेंट में बदल दिया और ग्रामीण भारत के लिए स्वामित्व का ऐलान किया। एक मज़ेदार बात यह जरूर दिखी कि भाजपा ने नानाजी देशमुख से अधिक तवज्जो जयप्रकाश नारायण को दी। बिहार भाजपा के ट्विटर हैंडल से तो साफ पता चलता है कि नानाजी देशमुख को मजबूरी में एक मरी हुई श्रद्धांजलि देनी पड़ी है। 11 बजे तक बिहार भाजपा के सोशल मीडिया पेज से नानाजी को कोई श्रद्धांजलि नहीं दी गयी थी, लेकिन जेपी पर एक वीडियो और एक ग्राफिकल मैसेज जा चुका था।
पीएम ने नानाजी को जयप्रकाश का चेला बताया, तो बिहार पहुंचे जेपी नड्डा भला कैसे चूकते। उन्होंने भी याद कर लिया कि किस तरह वह बचपन से ही जेपी के चेला थे और जब राजनीतिक जीवन को त्याग कर नानाजी सामाजिक जीवन में जा रहे थे, तो जयप्रकाश से आशीष लेने पहुंचे थे। इसके बाद तो खैर लड़ी ही लग गयी। सभी ने एक सुर से नानाजी को जेपी का चेला बताने में अपनी सारी ऊर्जा औऱ कल्पना खर्च कर डाली।
दरअसल, भाजपा जल्दी में है, बेहद जल्दी में। वह सारे प्रतीकों को को-ऑप्ट या कैप्चर कर लेना चाह रही है। पटेल गए, अंबेडकर गए, भगत सिंह गए, जयप्रकाश गए। कोई भी वह नेता जो तनिक भी समाजवादी या जनसंघी विचारधारा के इर्द-गिर्द भी नज़र आया, भाजपा ने लपकने में कमी न की। वह अगर कांग्रेस विरोधी है तो सोने पर सुहागा। भाजपा इस जल्दी में इसलिए है कि उसको 70 वर्षों का काम सात वर्ष में कर देना है। इस जल्दबाजी में उसके अपने प्रतीक-पुरुष पीछे रह जा रहे हैं, तो उसकी परवाह नहीं। आखिर जेपी के मुकाबले नानाजी का मार्केट तो कमज़ोर है ही, गांधी के मुकाबले सावरकर का बाज़ार तो फीका पड़ेगा ही और अंबेडकर इन दोनों से अधिक आज बिकाऊ हैं, तो मोदी-शाह की जोड़ी इस सच को जानकर तदनुकूल कदम उठा रही है।
इस जल्दबाजी से हालांकि बिहार में इस बार चुनाव की राह कठिन हो चली है। मिथिलांचल के दरभंगा में 10 सीटें हैं। उनमें से तीन सीटें ‘सन ऑफ मल्लाह’ मुकेश सहनी की वीआइपी को दी गयी हैं। इस वजह से यहां के ब्राह्मणों (मूलतः मैथिलों) में खासी नाराज़गी है। वे खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि जब कांग्रेस का पतन हुआ (यानी, जगन्नाथ मिश्र के राज के खात्मे के बाद जब मैथिल ब्राह्मणों का दबदबा कम हुआ) तो उनके पास भाजपा का साथ एकमुश्त देने के अलावा कोई रास्ता न था और उन्होंने वही किया भी। अब दो दशकों के बेशर्त समर्थन के बाद नतीजा यह है कि दरभंगा शहर से चौथी बार उसी पिटे-पिटाए प्यादे को टिकट दे दिया गया है, जो मारवाड़ी है और जो बीते 15 साल में दरभंगा को पूरी तरह से बर्बाद कर चुका है। इसके अलावा खांटी ब्राह्मणों के गढ़ में भाजपा ने अपनी सहयोगी पार्टी को तीन सीटें दे दीं। लोगों का गुस्सा न जाने क्या कहर बरपाएगा…!
एक और मज़े की बात है। जिस तरह प्रधानसेवक नरेंद्र मोदी ने सारे पड़ोसियों से संबंध एक समान स्तर पर बिगाड़े हैं, भाजपा ने मिथिलांचल से लेकर भोजपुर तक अपने कैडर्स को एक जैसा नाराज़ किया है। छपरा यानी सारण सीट पर भी वही हाल है। यहां अमनौर से सिटिंग विधायक भाजपा के थे, लेकिन उनको छांटकर एक बाहुबली को टिकट दे दिया गया है, जो जद-यू से आय़ा है (भाजपा की लिस्ट हालांकि अभी तक आधिकारिक तौर पर नहीं आयी है, पर निवर्तमान विधायक चोकर बाबा ने बगावत का झंडा उठा लिया है)।
यही हाल बनियापुर का भी है। बक्सर में बाबा अश्विनी चौबे नाराज़ हो गए हैं, तो राजेंद्र सिंह ने लोजपा का दामन थाम लिया है। कई सारे निवर्तमान विधायकों सहित बहुतेरे कार्यकर्ताओं ने विद्रोह का दमदमा बजा दिया है। इनकी मुख्य वजहें कुछ इस तरह हैं—
- नीतीश कुमार के सामने झुकने के बजाय लेट जाना
- भाजपा का खुद का वजूद न होना
- परमानेंट डीसीएम सुशील मोदी के खिलाफ नाराजगी
- अपने मंत्रियों यथा मंगल पांडेय, प्रेम कुमार, विजय कुमार सिन्हा जैसों के प्रति खासकर बहुत ही अधिक गुस्सा
भाजपा मुख्यालय में तो सब कुछ ठीक ही ठीक है क्योंकि धन का प्रवाह सतत् बना हुआ है। दिक्कत बस यह है कि भाजपा के धुरंधरों को यह नहीं पता कि उनके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक चुकी है और इस बार हालात कुछ भी हो सकते हैं। जैसा कि भाईसाब कहते भी हैं, ‘देखिए, नीतीश को अपसेट करने के चक्कर में भाजपा खुदै अपडेट नहीं हो सकी है। वे भूल गए हैं कि यह काडर बेस्ड पार्टी है। यहां एपल और ब्लूटूथ के चक्कर में अगर नानाजी देशमुख को दोपहर तक इंतजार करना पड़ रहा है, तो समझ लीजिए कि राजनीतिक समझ का क्षरण कितनी तेजी से हुआ है। टू सम इट ऑल, यह समझिए कि भाजपा का इतनी तेजी से कांग्रेसीकरण हुआ है कि डर है कि यह जल्दी ही वामपंथियों की तरह सिमट कर न रह जाएं।’
इस रिपोर्टर को शरद जोशी की बात याद आती है। उन्होंने कहा था कि कांग्रेस भारत के डीएनए में है, जीन में है, तब तो कांग्रेस को निपटने में बस 60 साल लगे। भाजपा के लिए क्या 10 साल काफी होंगे?