नर्मदा बचाओ आंदोलन ने मध्यप्रदेश सरकार द्वारा सरदार सरोवर प्रभावितों के पुनर्वास अधिकारों पर सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना तथा केन्द्र सरकार द्वारा आत्मनिर्भर किसानों को उद्योगपतियों पर निर्भर करने हेतु लाए गए जनविरोधी अध्यादेशों के खिलाफ बड़वानी में मौन रैली निकाल कर विरोध जताया। रैली के अंत में कारंजा पर अध्यादेशों की प्रतियाँ जलाई गईं।
पिछले दिनों एक चर्चित प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने अवमानना पर सख्ती दिखाई है। इसके बावजूद मध्यप्रदेश सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के प्रभावितों के पुनर्वास संबंधी आदेशों की खुले आम अवमानना जारी है।
ठीक इसी प्रकार केन्द्र सरकार किसानों को निजी कंपनियों के भरोसे छोड़कर देश के किसानों की अवमानना कर रही है। कोविड काल में 24 प्रतिशत तक सिकुड़ चुकी अर्थव्यवस्था में सिर्फ एक ही कृषि क्षेत्र ऐसा है जिसका प्रदर्शन ऋणात्मक नहीं है लेकिन अब सरकार 60 प्रतिशत आबादी की आजीविका खेती को भी उद्योगपतियों के पास गिरवी रखना चाहती है। सरदार सरोवर प्रभावितों के अधिकारों का हनन हो या जनविरोधी अध्यादेशों के माध्यम से देश की खेती-किसानी को सुनियोजित तरीके से कमजोर करना हो, दोनों समान रूप से निंदनीय है।
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के नेतृत्व में संसद सत्र के पहले दिन देश भर में हुए संघर्षों के साथ नर्मदा घाटी के लोगों ने भी अपनी आवाज मिलायी। किसानों के संपूर्ण कर्जमुक्ति और उपज का सही दाम के अलावा तीन अध्यादेशों का जोरदार विरोध किया गया और वापस लेने की मांग को दोहराया गया।
उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने 8 फरवरी 2017 को केन्द्र तथा मध्यप्रदेश समेत गुजरात और महाराष्ट्र सरकारों को आदेश दिया था कि सरदार सरोवर बाँध के सभी प्रभावितों का डूब से पहले पुनर्वास कर दिया जाए। वर्ष 2019 में मध्यप्रदेश के प्रभावित गाँवों को डुबा तो दिया लेकिन सरकार हजारों परिवारों को पुनर्वास नहीं कर रही है। इस वर्ष फिर से उन्हीं परिवारों की संपत्ति डुबाई जा रही है जिन्हें बिना पुनर्वास उजाड़ा गया था। सरकार की असंवेदनशीलता देखिए कि अब तक गाँवों अभी तक कोई कर्मचारी खबर लेने नहीं पहुँचा है। यह स्पष्ट रूप से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना है।
पिछले साल जब गाँवों को डुबाया था तब सरकार ने उन परिवारों के पंचनामें बनाए जिनका डूब के समय पुनर्वास शेष था। इसमें से करीब 5 हजार परिवारों को अस्थाई टीन शेडों में रखा गया था लेकिन इनमें से एक भी परिवार का पुनर्वास नहीं किया गया।
चिखल्दा, एक्कलबारा, पिछोड़ी जैसे गाँवों में वे घर भी डूब गए जिन्हें डूब क्षेत्र के बाहर बताया गया था। इन्हें भी पुनर्वास लाभ नहीं दिए गए है। नर्मदा ट्रिब्यूनल के अनुसार 7 हजार हेक्टेयर खेती के पहुँच रास्ते डूब गए हैं और वे खेत टापू बन गए हैं। इन खेतों में पहुँचने के लिए पुल-पुलिया नहीं बनाई जा रही है।
पुनर्वास नीति में महिला और पुरूष में कोई भेद नहीं है और अब सुप्रीम कोर्ट ने भी उत्तराधिकार कानून में बदलाव करते हुए संपत्ति पर महिलाओं के अधिकारों केा पुरुषों के समान मान लिया है लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक मानते हुए सैकड़ों महिला खातेदारों को उनकी पात्रता भुगतान से इंकार कर दिया।
देवराम कनेरा ने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि हम किसी से भीख नहीं मांगते और जो हमारा अधिकार है हम उसे लेकर ही रहेंगे।
मध्यप्रदेश सकार द्वारा प्रभावितों का पुनर्वास से इंकार करना न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की खुली अवमानना है बल्कि प्रभावित आदिवासी, किसानों, मछुआरो, पशुपालकों, कुम्हारों, भूमिहीन मजदूरों के वैधानिक और मानवीय अधिकारों का हनन है।
रैली के अंत में किसान विरोधी अध्यादेशों का दहन किया गया। साथ ही मुख्यमंत्री के नाम प्रेषित ज्ञापन में सरकार को सर्वोच्च न्यायालय जैसी संवैधानिक संस्था के आदेशों का सम्मान करना सीखने को कहा है।
इसके पूर्व नर्मदा बचाओ आंदोलन कार्यालय से प्रारंभ हुई मौन रैली नया बस स्टेण्ड और पुराना कलेक्टोरेट होते हुए कारंजा पहुँची जहाँ आयोजित संक्षिप्त सभा में रैली के उद्देश्य पर प्रकाश डाला गया तथा किसान विरोधी अध्यादेशों का दहन किया गया। उसके बाद नायब तहसीलदार ने आकर आवेदन स्वीकार किया।
कैलाश यादव, गौरीशंकर कुमावत, जगदीश पटेल, सुरेश पाटीदार, राजकुमार दुबे, संतोष गुप्ता, भारत मछुआरा, गेदालाल भिलाला, राधा बहन, कमला याद
संपर्क राहुल यादव 9179617513