हर नदी के पास एक क़िस्सा होता है. लोगों से जुड़ा किस्सा. कई दफ़ा मान्यताओं और मिथकों वाला क़िस्सा. हिंदुस्तान की अमूमन हर नदी के साथ महाभारत या रामायण या किसी न किसी पौराणिक पात्र के साथ जुड़ी कहानी है. सुबर्णरेखा नदी के पास भी है. झारखंड की इस नदी को वैसे ही जीवनदायिनी कहा जाता है जैसे हर इलाके में एक न एक नदी कही जाती है. यह नदी, अपने नाम के मुताबिक सच में सोना उगलती है.
एक क़िस्सा सुबर्णरेखा के उद्गम के पास के गांव, नगड़ी (रांची के पास) के निकट रानीचुआं के लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहां आकर रहे थे, इसीलिए गांव का नाम पांडु है. खास बात यह है कि सुबर्णरेखा के उद्गम का नाम रानीचुआं इसलिए पड़ा क्योंकि एकबार जब इस निर्जन इलाक़े में रानी द्रौपदी को प्यास लगी तो अर्जुन ने बाण मारकर इसी स्थल से पानी निकाला था. लोग कहते हैं वह कुआं आज भी मौजूद है. समय के साथ नदी का नाम स्वर्णरेखा पड़ गया.
वैसे भी, मिथक सच या झूठ के दायरे से थोड़े बाहर ही होते हैं. यह पता नहीं कि पांडु गांव, पांडवों के अज्ञातवास और अर्जुन के बाण से निर्मित रानीचुआं की कहानी कितनी सच है, लेकिन यह मिथक क़तई नहीं है कि स्वर्णरेखा झारखंड की गंगा की तरह है और गंगा की तरह ही इसको देखना अब रोमांचकारी कम और निराशाजनक ज़्यादा हो गया है.
स्वर्णरेखा नदी से सोना निकलता ज़रूर है, पर यह कोई नहीं जानता कि इसमें सोना आता कहां से है. स्वर्णरेखा नदी में स्वर्णकणों के मिलने के कारण इस क्षेत्र के स्वर्णकारों के लिए इस नदी की ख़ास अहमियत है. किंवदन्ती है कि इस इलाक़े पर राज करने वाले नागवंशी राजाओं पर जब मुग़लों ने आक्रमण किया तो नागवंशी रानी ने अपने स्वर्णाभूषणों को इस नदी में प्रवाहित कर दिया, जिसकी तेज़ धार से आभूषण स्वर्णकणों में बदल गये और आज भी प्रवाहमान हैं. सचाई तो अब आसमान ही जाने.
आज भी आप जाएं तो नदी में सूप लिए जगह-जगह खड़ी महिलाएं दिख जाएंगी. इलाक़े के क़रीब आधा दर्ज़न गांवों के परिवार इस नदी से निकलने वाले सोने पर निर्भर हैं. कडरूडीह, पुरनानगर, नोढ़ी, तुलसीडीह जैसे गांवों के लोग इस नदी से पीढियों से सोना निकाल रहे हैं. पहले यह काम इन गांवों के पुरुष भी करते थे, लेकिन आमदनी कम होने से पुरुषों ने अन्य कामों का रुख़ कर लिया, जबकि महिलाएं परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए आज भी यही करती हैं.
नदी की रेत से रोज़ सोना निकालने वाले तो दौलतमंद होने चाहिए? पर ऐसा है नहीं. हालात यही है कि दिनभर सोना छानने वालों के हाथ इतने पैसे भी नहीं आते कि परिवार पाल सकें. नदी से सोना छानने वाली हर महिला एक दिन में क़रीब एक या दो चावल के दाने के बराबर सोना निकाल लेती है. एक महीने में कुल सोना क़रीब एक से डेढ़ ग्राम होता है. हर दिन स्थानीय साहूकार महिला से 80 रुपये में एक दाने के बराबर सोना खरीदता है. वह बाज़ार में इसे क़रीब 300 रुपये तक में बेचता है. हर महिला सोना बेचकर करीब 5,000 रुपए तक महीने में कमाती है.
395 किलोमीटर लंबी यह बरसाती नदी देश की सबसे छोटी अंतरराज्यीय (कई राज्यों से होकर बहने वाली) नदी है जिसके बेसिन का क्षेत्रफल करीब 19 हजार वर्ग किमी है. यह रांची, सरायकेला-खरसावां, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) और बालासोर (ओडिशा) से होकर बहती है.
जानकारों की चिंता है कि यह नदी अब सूखने लगी है और अपने उद्गम स्थल पर यह महज एक नाला होकर रह गयी है. जानकारों के मुताबिक, इस नदी में कम होते पानी की वजह से भूजल स्तर भी तेजी से गिरता जा रहा है. काटे जा रहे जंगलों की वजह से मृदा अपरदन भी बढ़ गया है.
व्यवस्था ने और सरकार ने इस नदी के साथ भी वही दुर्व्यवहार किया, जो देशभर की नदियों के साथ हुआ है. बांध बांधे गये, बिजली के लिए, खेती के लिए, हालांकि इस नदी पर बनने वाले चांडिल और इछा बांध का आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया. इस विरोध का अपना एक इतिहास है कि यहां 6 जनवरी, 1979 को हुई पुलिस फायरिंग में चार आदिवासियों की जान चली गयी थी.
बहरहाल, इन मौतों से व्यवस्था के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. परियोजना चलती रही और 1999 में इस परियोजना पर भ्रष्टाचार की रिपोर्ट नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कैग) ने दी. कैग की रिपोर्ट के बाद इसे पूरा होने में 40 साल का समय लगा. परियोजना तो पूरी हुई, लेकिन इसके साथ चिपकाये गये झुनझुनों से आवाज़ नहीं निकली. सब्जबाग छलावा साबित हुए. स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार और बिजली मुहैया कराने के वायदे कभी पूरे नहीं हुए.
इस नदी की बेसिन में कई तरह के खनिज हैं. सोने का ज़िक्र हम कर ही चुके हैं पर अत्यंत खूबसूरत होने की वजह से जिस प्रकार सीता को अपहरण का दंश झेलना पड़ा था (अति रूपेण वै सीता चातिगर्वेण रावणः) वैसे ही अधिक खनिजों की मौजूदगी और उससे जुड़े इंसानी लालच ने नदी की सूरत बिगाड़ दी.
खनन और धातु प्रसंस्करण उद्योगों ने नदी को प्रदूषित करना भी शुरू कर दिया है. अब नदी के पानी में घरेलू और औद्योगिक अपशिष्ट के साथ-साथ रेडियोसक्रिय तत्वों की मौजूदगी भी है. खासकर, खुले खदानों से बहकर आये अयस्क इस नदी का दम घोंट रहे हैं.
ओडिशा के मयूरभंज और सिंहभूम जिलों में देश के तांबा निक्षेप सबसे अधिक हैं. 2016 में किये गिरि और अन्य वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक, सुवर्णरेखा नदी में धात्विक प्रदूषण पर्याप्त से अधिक मौजूद है. अब नदी और इसकी सहायक नदियों में अवैध रेत खनन तेजी पर है. इससे नदी की पारिस्थितिकी ख़तरे में आ गयी है.
इस नदी बेसिन के मध्यवर्ती इलाके में यूरेनियम के निक्षेप हैं. यूरेनियम खदानों के लिए मशहूर जादूगोड़ा का नाम तो आपने सुना ही होगा. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक रेडियोसक्रिय तत्व इस खदान के टेलिंग पॉन्ड से बहकर नदी में आ रहे हैं.
इस नदी बेसिन के सबसे बड़े शहर जमशेदपुर का सारा सीवेज सीधे नदी में आकर गिरता है. अब इसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटती जा रही है और बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) तय मानक से अधिक हो गया है. झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्वर्णरेखा नदी के पानी के नमूने की जांच करायी तो अधिकतर जगहों पर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम पायी गई.
स्वर्णरेखा नदी का पानी अब जानवरों और मछलियों के लिए सुरक्षित नहीं है. जानवरों और मछलियों के लिए पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा 1.2 मिलीग्राम से कम होनी चाहिए, जबकि नदी के पानी में बीओडी 7.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक है. इसकी वजह से काफी संख्या में, खासकर गरमियों में, मछलियां नदी में मर जाती हैं. जानवरों को भी कई तरह की बीमारियां हो रही हैं.
स्वर्णरेखा और खरकई नदियों का संगम जमशेदपुर के नज़दीक है और यहां आप लौह अयस्क के कारखानों से निकले स्लग को देख सकते हैं, हालांकि भाजपा नेता (अब बाग़ी) सरयू राय ने 2011 में इसे लेकर जनहित याचिका दायर की थी. तब टाटा स्टील ने जवाब में कहा था कि यह स्लग शहर की जनता को स्वर्णरेखा की बाढ़ से बचाने के लिए जमा किया गया है. हाइकोर्ट ने टाटा को यह जगह साफ करने को कहा था लेकिन इस पर हुई कार्रवाई की ताजा ख़बर नहीं है.
इस इलाके में मौजूद छोटी और बड़ी औद्योगिक इकाइयों, लौह गलन भट्ठियों, कोल वॉशरीज और खदानों ने नदी की दुर्गति कर रखी है.
खेती, पर्यटन और धार्मिक-आध्यात्मिक केंद्र के नजरिये से सम्भावनाओं से भरी स्वर्णरेखा नदी में उद्गम से लेकर मुहाने तक के इलाके में पांडवों से लेकर चुटिया नागपुर के नागवंशी राजाओं से जुड़े मिथकों का प्रभाव कम और हक़ीक़त के अफ़साने ज़्यादा सुनायी पड़ते हैं- मृत्युशैय्या पर पड़ी जीवनरेखा स्वर्णरेखा की आखिरी सांसों में फंसे अफसाने.