पिछले साल जब मैं कोलकाता में था तो मेरे मित्रों की जिद थी कि उन्हें कालीघाट में देवी के दर्शन करने हैं. वहीं पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का घर भी है और दूसरी तरफ रेडलाइट एरिया भी. कालीघाट में देवी काली के दर्शन और मंदिर के आसपास घूमते-टहलते हुए अपनी सहज जिज्ञासा में हम नीचे उतर आए थे, जहां एक गंधाता हुआ नाला बह रहा था. उस नाले को पार करने के लिए नावें मौजूद थीं और उस वक्त भी नाववाले ने हम चार लोगों से आठ आने (पचास पैसे) की दर से सिर्फ दो रूपये लिए थे.
मल्लाह ने बताया था कि यह नाला नहीं, आदिगंगा है. उसने बताया कि नाकतल्ला से गरिया जाते समय रास्ते में अलीपुर ब्रिज के नीचे जिस नाले से भयानक बदबू आती है वह भी आदिगंगा ही है, जिसको स्थानीय लोग टॉली कैनाल कहते हैं.
असल में दो सौ साल पहले तक आदिगंगा हुगली की एक सहायक धारा थी, हालांकि इसका इतिहास थोड़ा और पुराना है. अठारहवीं सदी में जब यह अपना स्वरूप खो रही थी तब 1772 से 1777 के बीच विलियम टॉली ने इसका पुनरोद्धार करवाकर इसको नहर और परिवहन की धारा के रूप में इस्तेमाल करवाना शुरू कर दिया था.
गंगा की यह धारा कोलकाता में बढ़ती आबादी, बढ़ते लालच और बढ़ते शहरीकरण के स्वाभाविक नतीजों का बाद में शिकार हो गई. नदी मर गई. अब यह घरों के सीवेज ढोती हुई नाले में बदल गई है. मरी हुई नदी की बदबू मारती लाश नाले के रूप में अपने इतिहास का स्मृतिचिन्ह है.
अंग्रेजों के जमाने में इस नहर को बाकायदे दुरुस्त रखा जाता था क्योंकि उस समय नदियों की परिवहन में खासी भूमिका होती थी, लेकिन आजादी के बाद इसको भी बाकी विरासतों की तरह बिसरा दिया गया. न तो इसमें पानी के बहाव की देखरेख की गई, न ही उसे बचाए रखने की कोई जरूरत महसूस की गई.
तब ज्वार के समय हुगली का पानी इसमें काफी मात्रा में आता था और अपने साथ काफी गाद भी लेकर आता था. नतीजतन, यह नदी गाद से भरती गई. इस नदी की तली ऊंची होती गई.
शहर बड़ा हुआ तो कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के नाले इसमें बेरोकटोक गिरते रहे. निगम के पास ज्वार और भाटे के वक्त इस नाले में आऩे वाले पानी को नियंत्रित करने के लिए कोई तंत्र नहीं था.
कभी 75 किलोमीटर लंबी रही यह आदिगंगा आज की तारीख में कई जगहों से लुप्त हो चुकी है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इसको पुनर्जीवित करने की भी कोशिशें हुईं और 1990 के बाद इसको फिर से जिलाने की गतिविधियों में करीब 200 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं.
आदिगंगा को लेकर हुआ एक शोध बताता है कि बांडिल के नज़दीक, त्रिबेनी (त्रिवेणी) में गंगा तीन हिस्सों में बंट जाती है. एक धारा सरस्वती, दक्षिण-पश्चिम दिशा में सप्तग्राम की तरफ बहती है. दूसरी धारा, जिसका नाम जमुना है, दक्षिण-पूर्व दिशा में बहती है और तीसरी धारा हुगली बीच में बहती हुई आगे चलकर कोलकाता में प्रवेश करके आदिगंगा में मिलकर कालीघाट, बरुईपुर और मागरा होती हुई समुद्र में जा मिलती थी. कई पुराने (और ऐतिहासिक) दस्तावेजों और नक्शों पर भरोसा करें तो आदिगंगा ही मुख्य धारा थी और उसकी वजह से कोलकाता ब्रिटिश काल में बड़ा बंदरगाह बन पाया था.
1750 के आसपास, संकरैल के नजदीक हावड़ा में सरस्वती नदी के निचले हिस्से को हुगली नदी से जोड़ने के लिए आदिगंगा की धारा को काट दिया गया. इसी कारण पानी का प्रवाह पश्चिमोत्तर की तरफ हो गया और हुगली, गंगा की मुख्य धारा बन गई जो आज भी है.
बहरहाल, 19वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश अधिकारी डब्ल्यू.डब्ल्यू. हंटर ने लिखा है कि इस (आदिगंगा) पुरानी नदी को ही हिंदू असली गंगा मानते हैं. जो इस नदी के किनारे बने पोखरों में अपने लोगों के मुर्दे जलाते हैं. जाहिर है, चिताएं जलाने को लेकर हंटर उस परंपरा की ओर इशारा कर रहे थे जिसके तहत गंगा के किनारे जलाए जाने से मोक्ष मिलने की मान्यता है.
1770 के दशक में आदिगंगा शहर से दूर जाने लगी थी. तब विलियम टॉली गरिया से समुक्पोता (सम्मुखपोत) तक की नदी की 15 किमी की धारा के बहाव को देखकर हैरान थे और उन्होंने आदिगंगा को सुन्दरवन की ओर प्रवाहित होने वाली विद्याधरी नदी से जोड़ दिया. आज इसी वजह से यह धारा टोलीनाला नाम से जाना जाता है.
पहले जो नदी सुन्दरवन के किनारे बोराल, राजपुर, हरीनवी और बरूईपुर के माध्यम से प्रवाहित होती थी, उसका प्रवाह तेजी से अवरुद्ध हो रहा था, हालांकि यह 1940 के दशक तक नावों के जरिये माल ढुलाई का काफी बड़ा साधन था. 1970 के आसपास भी सुंदरवन से शहद इकट्ठा करने वाले लोग नदी पारकर अपनी नावों को दक्षिण कोलकाला के व्यस्त उपनगर टॅालीगंज की ओर जाने वाले पुल के नीचे खड़ा करते थे.
आज की तारीख में आदिगंगा लोगों के लालच की शिकार हो गई है. इसमें आपको प्लास्टिक की थैलियां, कूड़ा-कचरा सब दिखेगा.
1998 में पश्चिम बंगाल सरकार ने कोलकाता हाइकोर्ट में माना था कि इस नदी में हेस्टिंग (हुगली के संगम) से गरिया (टॉली के नाले) में 15 किमी तक 7,851 अवैध निर्माण, 40,000 घर, 90 मंदिर, 69 गोदाम और 12 पशु शेड जैसे अतिक्रमण मौजूद हैं. आपको अगर इसमें नहीं दिखेगा तो पानी. पिछले 22 वर्ष में इसमें कितनी बढ़ोतरी हुई होगी, इसका अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं.
फिलहाल, गरिया के आगे जाते ही नदी गायब हो जाती है. नरेन्द्रपुर और राजपुर-सोनापुर से लगभग तीन किलोमीटर आगे आदिगंगा दिखाई नहीं देती है. उसकी पाट की जगह पक्के मकान, सामुदायिक भवन और सड़कें नमूदार होती हैं. उसके पास कुछ बड़े तालाब दिखाई देते हैं जिनके करेर गंगा, घोसर गंगा जैसे नाम हैं. जाहिर है, ये भी आदिगंगा के पानी से बनने वाले तालाब थे और उनके नामों से यह साबित भी होता है.
इन दिनों आप देश में बाढ़ की खबरें देख रहे होंगे कि देश का पूर्वी इलाका कैसे इससे हलकान है, लेकिन आदिगंगा की मौत मिसाल है कि कैसे फैलते शहरों ने नदियां निगल ली हैं. कभी फुरसत हो तो सोचिएगा.